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आम आदमी पार्टी के ”चाणक्य” योगेंद्र यादव की इस राजनीति को तो समझिए!
आम आदमी पार्टी के असंतुष्ट गुट की आज गुडगांव में योगेंद्र यादव व प्रशांत भूषण के नेतृत्व में बैठक आयोजित की गयी. इस बैठक में यादव व भूषण के अलावा, शांति भूषण, प्रो आनंद कुमार व प्रो अजीत कुमार झा, दिल्ली के तिमारपुर से विधायक पंकज पुष्कर सहित कई अहम लोग शामिल हुए. स्वराज संवाद […]
आम आदमी पार्टी के असंतुष्ट गुट की आज गुडगांव में योगेंद्र यादव व प्रशांत भूषण के नेतृत्व में बैठक आयोजित की गयी. इस बैठक में यादव व भूषण के अलावा, शांति भूषण, प्रो आनंद कुमार व प्रो अजीत कुमार झा, दिल्ली के तिमारपुर से विधायक पंकज पुष्कर सहित कई अहम लोग शामिल हुए. स्वराज संवाद नाम के इस आयोजन में पंजाब से आप सांसद धर्मवीर गांधी, एडमिरल रामदास ने वीडियो के जरिये अपनी बात रखी. सधे रणनीतिकार योगेंद्र यादव ने अबतक पार्टी से खुली बगावत का कोई संकेत नहीं दिया है.
वे बेहद संतुलित ढंग से अरविंद केजरीवाल व कार्यप्रणाली से अपनी असहमति की बात पिछले कुछ सप्ताह से लगातार कह रहे हैं. उन्होंने नेतृत्व पर कोई सीधा आक्षेप नहीं किया है. योगेंद्र देश भर में फैले आप समर्थकों की और विशेष कर वैसे समर्थकों की सहानुभूति बटोर रहे हैं, जिन्हें लगता है कि आप की फौरी सफलता में उनकी आवाज या पहचान कहीं गुम हो गयी. इसलिए आम आदमी पार्टी के चाणक्य माने जाने वाले योगेंद्र यादव ने अपने आयोजन को संवाद स्वराज का नाम दिया है. भारत की परंपरागत राजनीति के अनुरूप उन्होंने इसे बगावती नाम देने से परहेज किया है.
राजनीति नहीं छोडेंगे योगेंद्र यादव
योगेंद्र यादव ने पिछले दिनों यह भी स्पष्ट किया है कि राजनीति छोड कर आकादमिक दुनिया में पूरी तरह से लौटने का उनका इरादा नहीं है. योगेंद्र खुद को एक राजनीतिक जीव मानते हैं और देश में नयी राजनीति की धारा बहाने के पैरवीकार रहे हैं. जब टीम अन्ना में अरविंद केजरीवाल आम आदमी पार्टी बनाने के लिए संघर्ष कर रहे थे, तब जंतर मंतर पर सजे अन्ना व अरविंद के मंच पर योगेंद्र यादव आये थे और एक समाज व राजनीति विज्ञानी के रूप में उस जनसभा में उन्होंने एक तरह से व्याख्यान ही दे दिया था कि अब इस आंदोलन को राजनीतिक पार्टी बनाने की आवश्यकता क्यों है?
.. जब अरविंद के संबल बने थे योगेंद्र
उस समय अरविंद केजरीवाल से न तो अन्ना हजारे सहमत थे और न ही उनकी टीम के दो अहम सहयोगी मेधा पाटकर व किरण बेदी. वास्तव में उस विपरीत परिस्थिति में योगेंद्र यादव अरविंद केजरीवाल के संबल बने थे. पार्टी गठन और उसमें सुप्रीमो कल्चर आने, अरविंद के आसपास के लोगों के वर्चस्व सहित अन्य मुद्दों पर अरविंद व योगेंद्र के बीच असहमतियां होने की खबरें भी मीडिया में आती रही हैं, लेकिन कभी योगेंद्र ने अपनी स्वभाविक विनम्रता से इसे ढका तो कभी अरविंद केजरीवाल ने प्रेस कान्फ्रेंस कर कहा कि योगेंद्र तो उनके बडे भाई हैं और वे उन्हें थप्पड भी मार सकते हैं. बहरहाल, इन दो राजनीतिक भाइयों के बीच अब दूरियां लगभग खाई में बदल चुकी हैं और यह लगभग स्पष्ट हो गया है कि दोनों के रास्ते अब अलग-अलग ही हैं.
एक जननेता, दूसरा विचारों व रणनीति से पूर्ण शख्स
अरविंद केजरीवाल ने अपनी पहचान एक जननेता की बना ली है. जननेता के पास जब तक जनता का समर्थन होता है, तब तक वह एक तरह से महाबलि की तरह ही होता है. लेकिन, जनता का समर्थन नहीं होने पर वह एक आम नेता की तरह ही रह जाता है, और कई बार शायद उससे भी बुरे हाल में. अरविंद केजरीवाल के पास आज जनसमर्थन है. योगेंद्र के व्यक्तित्व में जननेता बनने वाले तत्व अरविंद की तुलना में अल्प मात्रामें हैं. लेकिन, योगेंद्र यादव विचारों से ओत-प्रोत शख्स हैं. वे एक सधे हुए रणनीतिकार हैं. उनके पास दूरदृष्टि है. वे आगत कल का आकलन कर लेते हैं और शायद इसी कारण यह समझते हैं कि आप के सामने मौजूदा कार्यशैली में क्या दिक्कतें आ सकती हैं.
भारतीय राजनीति में ऐसादेखने में आया है कि एक जननेता और एक कुशल रणनीतिकार ही मिल कर सफल राजनीतिक पारी खेल पाते हैं और ऐसे उदाहरण भी हैं कि जननेता के अहंकार से उससे दूर हुआ रणनीतिकार अपनी लंबी रणनीतिक कोशिशों के कारण उसके जनसमर्थन को तोड देता है और कुछ मामलों में तो खुद भी जननेता बन जाता है. अब देखना होगा कि क्या भारतीय राजनीति में बारंबार दोहरायी जाने वाले इस इतिहास को अरविंद केजरीवाल व योगेंद्र यादव के बीच के तल्ख रिश्तों से उत्पन्न हुई परिस्थितियां दोहरा सकती हैं. इंतजार कीजिए वक्त का..
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