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शिवसेना Vs ओवैसी : किसका फायदा, किसका नुकसान!
मजलिस-ए-इत्तेहादुल मुसलमीन (एमआईएम) के ओवैसी बंधुओं पर मुसलमानों के दिमाग में ‘जहर भरने’ का आरोप लगाते हुए शिवसेना ने आज कहा कि हैदराबाद स्थित इस संगठन का औरंगाबाद के स्थानीय निकाय चुनाव में उसी तरह सफाया होगा जिस तरह हाल ही में संपन्न बांद्रा उपचुनाव में हश्र हुआ. औरंगाबाद और नवी मुंबई नगर निगमों के […]
मजलिस-ए-इत्तेहादुल मुसलमीन (एमआईएम) के ओवैसी बंधुओं पर मुसलमानों के दिमाग में ‘जहर भरने’ का आरोप लगाते हुए शिवसेना ने आज कहा कि हैदराबाद स्थित इस संगठन का औरंगाबाद के स्थानीय निकाय चुनाव में उसी तरह सफाया होगा जिस तरह हाल ही में संपन्न बांद्रा उपचुनाव में हश्र हुआ.
औरंगाबाद और नवी मुंबई नगर निगमों के लिए आज चुनाव कराया जा रहा है. शिवसेना ने पार्टी मुखपत्र ‘सामना’ में कहा है कि हाल ही में संभाजीनगर (औरंगाबाद) आए ओवैसी बंधुओं (असदुद्दीन और अकबरुद्दीन) ने स्थानीय निकाय से भगवा ध्वज हटाने और उसकी जगह हरा ध्वज लगाने का फतवा जारी किया. उनसे और क्या उम्मीद की जा सकती है ! उनके दिमाग में पाकिस्तान के ध्वज का हरा रंग भरा है. एमआईएम को औरंगाबाद पर मंडराता ‘दैत्य’ बताते हुए भगवा दल ने कहा कि ओवैसी बंधुओं को यह नहीं भूलना चाहिए कि संभाजीनगर के लोग उनकी पार्टी को बांद्रा उपचुनाव की तरह ही शिकस्त देंगे.
राक्षस को समाप्त करने और जमीन को उसके दुष्प्रभावों से मुक्त करने का यह एक अच्छा मौका है. पार्टी ने कहा कि एमआईएम को यह नहीं भूलना चाहिए कि (मुगल सम्राट) औरंगजेब को औरंगाबाद में ही दफनाया गया था.
महाराष्ट्र की राजनीति में सामाजिक और धार्मिक बयानबाजी का इतिहास
महाराष्ट्र की राजनीति में एक नया नजारा सामने आने लगा है. ये नजारा है धार्मिक कट्टरवादी बयानों के सहारे वोटों के ध्रुवीकरण का. वैसे तो महाराष्ट्र में सबसे पहले स्व. बालासाहेब ठाकरे के दौर में बनी शिवसेना ने सामाजिक तौर पर कट्टर रुख और बयानों से इसकी शुरुआत की थी लेकिन समय के साथ ही शिवसेना सामाजिक यानि मराठी मानुष की अस्मिता के मुद्दे के अलावा खुद को हिंदुओं की रक्षक हिंदूवादी पार्टी के तौर पर स्थापित करना भी शुरू कर दिया. इसका मकसद साफ़ था कि पहले महाराष्ट्र में बाहरी लोगों (दक्षिण भारतीय और उत्तर भारतीय) के खिलाफ और महाराष्ट्र के स्थानीय लोगों के पक्ष में बयान देकर लोगों की मानसिक सहानुभूति बटोरते हुए मराठी वोटों का अपने पक्ष में ध्रुवीकरण करना.
धर्म के सहारे राजनीति की शुरुआत
इसके बाद इसका दायरा और बड़ा करते हुए इसे हिंदुत्व के साथ जोड़ा गया ताकि सभी जाति के लोगों को इस दायरे में लाते हुए राज्य में पार्टी के पक्ष में हिन्दू वोटों का ध्रुवीकरण हो सके. दशकों से चलाये गए इस बयानबाजी और भावनात्मक सहानुभूति के भरोसे वोटों को अपने पाले में लाने की इस कोशिश में शिवसेना काफी हद तक सफल भी हुई और इसी वजह से राज्य में उसने भारतीय जनता पार्टी के सहयोग से सरकार भी बनाई थी. लम्बे समय तक महाराष्ट्र में बाला साहेब और शिवसेना का वर्चस्व बना रहा. ये अलग बात है कि बाद के दौर में शिवसेना की टूट और राज ठाकरे और उनकी पार्टी के अभ्युदय ने शिवसेना के वर्चस्व को थोड़ी-बहुत चुनौती दी है लेकिन पिछले लोकसभा चुनाव के बाद से भारतीय जनता पार्टी के बाद शिवसेना ही ऐसी पार्टी रही जिसके पाले में सबसे ज्यादा सीटें है.
राज्य की राजनीति का नया पहलू
लेकिन अब महाराष्ट्र की राजनीति में एक नया पहलू जुड़ा है और वो पहलू है मजलिस-ए-इत्तेहादुल मुसलमीन (एमआईएम) पार्टी. हैदराबाद के असदुद्दीन और अकबरुद्दीन ओवैसी बंधुओं की इस पार्टी ने महाराष्ट्र की राजनीति में ध्रुवीकरण का एक और दौर शुरू कर दिया है. इस बार ये ध्रुवीकरण मुसलमान वोटों का है.
कैसे हो रहा है वोटों का ध्रुवीकरण
अभी तक इस राज्य में मुसलमानों का वोट अमूमन कांग्रेस को मिलता रहा. कांग्रेस से अलग होने के बाद राज्य के दिग्गज नेता शरद पवार की एनसीपी पार्टी जब यहां मजबूत हुई तो मुस्लिम वोटों में उसकी हिस्सेदारी भी काफी बढ़ी. कुल मिलाकर कांग्रेस और एनसीपी ही ऐसी पार्टियां थीं जिनके पक्ष में मुसलमान वोट जाते थे लेकिन पिछले विधानसभा चुनाव में ओवैसी बंधुओं की एमआईएम पार्टी ने सबको हैरान करते हुए महाराष्ट्र में दो सीटें जीत लीं. एमआईएम को राज्य में कुल 489,614 वोट मिले थे जो राज्य के कुल वोटों की तुलना में महज 0.9 प्रतिशत ही है लेकिन फिर भी ओवैसी की पार्टी को यहां दो सीटें मिलीं. ये दोनों सीटें मुस्लिम बहुल इलाकों की हैं. इन इलाकों में मुस्लिम वोटों के ध्रुवीकरण का फायदा एमआईएम को मिला जिसकी वजह से उसे यहां जीत मिली.
कुछ ऐसा ही हाल शिवसेना का भी रहा है. हालांकि, शिवसेना 63 सीटों के साथ दूसरे स्थान पर रही मगर महाराष्ट्र की चुनावी रणनीति के जानकारों के मुताबिक शिवसेना को जीत उन्हीं सीटों पर मिल पायी है जहां पार्टी के पक्ष में वोटों का ध्रुवीकरण हुआ. इसमें से अधिकांश जगहों में पार्टी पहले से मजबूत रही है.
क्या सिर्फ वोटकटवा बनकर रह जायेंगी शिवसेना और एमआईएम जैसी पार्टियां !
अभी तक का इतिहास ये दर्शाता है कि चाहे बात महाराष्ट्र में बाला साहेब और अब उद्धव ठाकरे की शिवसेना की हो या फिर राज ठाकरे नीत मनसे की, इस राज्य में लाख कट्टर बयानबाजी के बावजूद इन पार्टियों के नेता भीड़ भले ही बटोर लें मगर राज्य की सत्ता के चुनावों में महाराष्ट्र की जनता इन्हें इतना वोट नहीं देती जिसके बूते इन्हें बहुमत मिल सके. ऐसे में इनका वजूद बगैर राष्ट्रीय पार्टियों के सहयोग के एक वोटकटवा पार्टी का ही रह जाता है.
कितना नफ़ा-नुकसान हो सकता है इस नए ध्रुवीकरण का !
अब ओवैसी के खुलकर मुसलमान वोटों के अपने पक्ष में किये जा रहे ध्रुवीकरण से कांग्रेस और एनसीपी को नुकसान पहुंच सकता है लेकिन मुस्लिम वोटों के ध्रुवीकरण से शिवसेना को अपनी पकड़ वाले क्षेत्रों में इसका फायदा मिलेगा क्योंकि इसके प्रमुख विरोधी दलों को मिलने वाले वोटों में एमआईएम सेंध लगाएगी. यानी अपने-अपने क्षेत्रों में ये दोनों दल धार्मिक आधार पर वोटों का ध्रुवीकरण कर सकते हैं लेकिन फिर भी इनकी ताकत इतनी नहीं होगी जिसके बूते ये कुछ कर दिखा सकें. वोट काटने की इसी रणनीति का शिकार होकर अभी हाल ही में नारायण राणे जैसे दिग्गज नेता को भी हार का मुंह देखना पड़ा.
ऐसे में, फिलहाल तो कट्टर आधार पर वोट पाने का जुगाड़ करने की बिसात बिछाने वाली इन पार्टियों का भविष्य बहुत उज्जवल नहीं दिखाई दे रहा लेकिन इतना तय है कि ऐसे ध्रुवीकरणों का ज्यादा लाभ विधानसभा या लोकसभा की जगह स्थानीय निकायों के चुनाव में हो सकता है.
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