लज्जाविहीन, भयमुक्त और अनैतिक भारतीय राजनीति
– हरिवंश – बंसल-अश्वनी प्रकरण, बीमार, अनैतिक और आत्मकेंद्रित भारतीय राजनीति के प्रतीक हैं. पवन कुमार बंसल (सीबीआइ जांच व जनदबाव में हटाये गये रेल मंत्री) और अश्वनी कुमार (न्यायपालिका की टिप्पणी के बाद हटाये गये कानून मंत्री) के अपने-अपने पदों से हटने से भी कुछ नहीं होनेवाला. कांग्रेस की पुरानी परंपरा अंशमात्र भी जीवित […]
– हरिवंश –
बंसल-अश्वनी प्रकरण, बीमार, अनैतिक और आत्मकेंद्रित भारतीय राजनीति के प्रतीक हैं. पवन कुमार बंसल (सीबीआइ जांच व जनदबाव में हटाये गये रेल मंत्री) और अश्वनी कुमार (न्यायपालिका की टिप्पणी के बाद हटाये गये कानून मंत्री) के अपने-अपने पदों से हटने से भी कुछ नहीं होनेवाला. कांग्रेस की पुरानी परंपरा अंशमात्र भी जीवित होती, तो ये दोनों लोग मामलों के उजागर होने के तत्काल बाद स्वत: इस्तीफा देकर मंत्रिमंडल से बाहर आ गये होते. इन्हें बचाये रखने की हर संभव कोशिश न होती. पर भारतीय राजनीति का मौजूदा स्वरूप सड़ गया है.
बंसल-अश्वनी जैसे प्रकरण इस सड़न की दुर्गंध-बदबू हैं. पर मूल समस्या कहां है? 1977 में मशहूर पत्रिका धर्मयुग (प्रति सप्ताह लगभग सात लाख बिकनेवाली) ने पंडित रामनंदन मिश्र से कुछ विषयों पर लिखने के लिए आग्रह किया. रामनंदन जी, गांधी के प्रिय और लोहिया, जेपी, लालबहादुर शास्त्री के साथी थे. आजादी के बाद जिन कुछेक लोगों में देश भविष्य देखता था, उनमें से एक. पर आजादी के बाद वह अध्यात्म में चले गये.
धर्मयुग के लिए लिखे अपने लेखों में से एक में पंडित रामनंदन मिश्र जी की एक पंक्ति थी, जिसका आशय अब तक स्मृति में है. उनका मानना था कि जमीन इतनी सड़ गयी है कि उसमें उम्दा से उम्दा या श्रेष्ठ से श्रेष्ठ बीज डालिए, कहीं कुछ उगता नहीं है. बीज भी धरती में सड़ जाता है. यही हाल है, भारतीय राजनीति का.
अच्छे से अच्छे आदमी को राजनीति में भेजिए, उसका निश्छल व साफ -सुथरा बने रहना सबसे बड़ी चुनौती है. कैसे? यह बंसल प्रकरण से समझिए. बंसल प्रकरण में रेलवे बोर्ड के सदस्य महेश कुमार और बंसल के भगिना वी सिंगला गिरफ्तार हैं. सीबीआइ ने पीके बंसल के निजी सचिव राहुल भंडारी से कई बार पूछताछ की है. भंडारी 1977 बैच के पंजाब काडर के आइएएस अधिकारी हैं. सूचना यह भी है कि बंसल व उनसे जुड़े अन्य लोगों की भी पूछताछ होगी, जिसमें उनके ओएसडी, विरतुल कुमार भी हैं. वह 1993 बैच के उत्तर प्रदेश सरकार के आइपीएस अधिकारी हैं.
बंसल की बहन के दामाद भी हैं. सूचना यह भी है कि एक हजार फोन काल्स (जिनको सीबीआइ ने दो महीने में इंटरसेप्ट या टेप किया) में कई बार बंसल का नाम है. इन फोन टेपों में, कहते हैं, विस्फोटक चीजें हैं. यह भी चर्चा है कि सीबीआइ के पास टेप की गयी फोन वार्ता में कहा गया है कि रेल के आठ बड़े पद बिकाऊ हैं. रेल मंत्री के सीधे फोन से सिंगला ने कई बार महेश कुमार व अन्य लोगों से बात की है. यह महज एक हल्की झलक है कि मुल्क कैसे चल रहा है?
खबर है कि इन टेपों में इतनी विस्फोटक बातचीत है, जिन्हें जानने के बाद कांग्रेस के बड़े नेता बंसल की बलि के लिए सहमत हुए. सिंगला और रेलवे बोर्ड के सदस्य महेश कुमार की रेल मंत्री पवन बंसल के घर पर कई मुलाकातें होने की खबर है. बंसल को यह भी बताना पड़ेगा कि महेश कुमार जब जीएम (महाप्रबंधक, पश्चिम) के पद से प्रोन्नति पाकर रेलवे बोर्ड के सदस्य हो गये, तब भी उनके पास महाप्रबंधक, पश्चिम का अतिरिक्त प्रभार क्यों था? उल्लेखनीय है कि रेलवे बोर्ड में यह पद सबसे आमद का माना जाता है.
इसके साथ ही यह भी खबर आयी कि पांच साल में बंसल की पत्नी और बेटों का कारोबार शून्य से 152 करोड़ रुपये तक पहुंचा.मंत्री की पत्नी मधु और बेटे अमित और मनीष ने 2005 में एक कंपनी शुरू की. 2007 में इसका टर्नओवर शून्य था. फिर बंसल केंद्र में मंत्री बने. वह संसदीय कार्य मंत्री रहे, फिर जल संसाधन मंत्री, फिर वित्त राज्य मंत्री और फिर रेल मंत्री. इसी बीच उनके परिवार के कारोबार का टर्नओवर शून्य से 152 करोड़ हो गया. 2008-09 में उनकी बहन के बेटे सिंगला (गिरफ्तार) ने चंडीगढ़ की एक बीमार कंपनी मार्डन बेकरी का अधिग्रहण किया, जिस पर बड़ा कर्ज था. तब पवन बंसल केंद्र में वित्त राज्य मंत्री थे.
कहते हैं, बंसल के प्रभाव से मदद पाकर सिंगला ने बेकरी कंपनी के प्लॉट का उपयोग बदलवा दिया. अब उस जगह कॉमर्शियल कांप्लेक्स बन रहा है. बंसल परिवार की कंपनी को केनरा बैंक से साठ करोड़ रुपये का लोन भी मिला. पवन बंसल ने अपने परिवार की कंपनी के आडिटर और अपने बेटे के बिजनेस पार्टनर सुनील गुप्ता को वर्ष 2007 में केनरा बैंक का डायरेक्टर बनवा दिया. तब बंसल वित्त राज्य मंत्री थे.
अब इस पूरी घटना को इस ढंग से समझिए. एक मंत्री का उदय होता है. उसके साथ उसके परिवार के लोग जुड़ते हैं. रिश्तेदार जुड़ते हैं. सरकारी पदों पर भी. वह वित्त मंत्रालय में थे, तो अपने लोगों को बैंकों में डायरेक्टर बनवाया. अपनी पत्नी-बेटों की कंपनी को लोन भी दिलाया. यानी जिस सरकारी पद पर हों, वहां पहले पूरे परिवार का, फिर सगे-संबंधियों के काम हों.
इस तरह एक मंत्री जिस महत्वपूर्ण पद पर काम करता है, वहां उसका मकसद बन जाता है, अपने परिवार की कंपनी को समृद्ध बनाना. उसके मंत्रालय को उसके नाते-रिश्तेदार और सगे-संबंधी चलाते हैं. पीछे से. दिल्ली में यह सब जानते हैं. पर यह बात उजागर होती है, जब मामला सीबीआइ की पकड़ में आता है. कहा जा रहा है कि महेश कुमार रेलवे बोर्ड के सदस्य हो जाने पर दस करोड़ देनेवाले थे. साथ ही महाप्रबंधक पश्चिम (रेल) बने रहने की कीमत अलग थी. इस पद के मातहत ही रेलवे में विद्युतीकरण का बड़े पैमाने पर काम हो रहा है. इसलिए वहां फंड है. इसी कारण उन्हें दो-दो पदों पर रखा गया था.
यानी बंसल परिवार भारतीय रेल के विकास, आधुनिकीकरण की कीमत पर अपना पॉकेट भर रहा था. यह सब बेधड़क हो रहा था. फोन पर खुलेआम डील हो रही थी, पर भारत सरकार सोयी थी. चंडीगढ़ के लोगों का कहना है कि रेल मंत्री बंसल चंडीगढ़-दिल्ली शताब्दी एक्सप्रेस के नियमित यात्री थे.
पहले वह खुद चंडीगढ़ के लोगों के पास मामूली चंदे के लिए जाते थे, पर 2006 में वह मंत्री बने. फिर उनके परिवार के सदस्य और भगिना विजय सिंगला, विक्रम बंसल व उनके पुत्र मनीष और अमित ही मंत्री बंसल और उद्यमियों के बीच मुलाकात कराने के माध्यम बने. इसी तरह बंसल और सिंगला परिवार का स्टील, दवा और रियल स्टेट का कारोबार भी चल निकला. यानी बंसल मंत्री बने और उनके संगे-संबंधी और परिवार व्यापारी या उद्योगपति. राजपाट और पैसे का यह रिश्ता मौजूदा राजनीति की पहचान है.
दरअसल भारतीय राजनीति को प्राइवेट लिमिटेड कंपनी या परिवार लिमिटेड कंपनी में बदल देने का यह परिणाम है. सुदूर दक्षिण में देखिए, करुणानिधि का भारी-भरकम दो सौ लोगों का परिवार, फिर उनका, उनके परिवार का आधिपत्य और संपत्ति. आंध्र में वाइ राजशेखर रेड्डी और उनके पुत्र जगन रेड्डी के कमाल. कहते हैं बीस हजार करोड़ से अधिक के घोटाले हुए.
जब तक राजशेखर रेड्डी कांग्रेस के पावरफुल नेता थे, किसी ने उन पर हाथ नहीं डाला. कर्नाटक में देवगौड़ा और उनके सुपुत्र के प्रकरण भी जगजाहिर हैं. महाराष्ट्र में पक्ष-विपक्ष में कई दिग्गजों के परिवार, राजनीति की निर्णायक भूमिका में हैं. अपार दौलत-संपत्ति के मालिक भी. राजस्थान के मुख्यमंत्री अशोक गहलोत ने अपने सगे-संबंधियों और मातहतों को भी पत्थर के खान आवंटित कर दिये हैं. उत्तर प्रदेश में मुलायम सिंह के एक दर्जन से अधिक परिवार के लोग सत्ता की कमान संभाल रहे हैं. लखनऊ से दिल्ली तक. अब देश की सत्ता पाने की होड़ में हैं. प्रकाश सिंह बादल का पंजाब में और हरियाणा में चाहे कांग्रेस हो या विपक्षी, कुनबों का राज है. बिहार में कई बड़े नेताओं द्वारा राजनीति को अपने परिवार की विरासत बना लेने की कोशिश सामने है. मायावती के भाइयों की संपत्ति की चर्चा बरसों से है. ममता बनर्जी के सगे-संबंधियों के भी नाम उछलते हैं, यह सब क्या है?
क्या देश या भारत सरकार प्राइवेट लिमिटेड कंपनी है? रेल मंत्रालय क्या बंसल के बेटे, भगिना, बहन, दामाद वगैरह की संपत्ति थी? दरअसल मूल बीमारी है, राजनीति या सरकार या पार्टी को परिवारवाद में बदलना. लोहिया ने जब नेहरू परिवार की आलोचना की, तब सभी समाजवादी सहमत थे. आज लोहिया के चेले देश भर में अपने वंश को ही दल या सरकार में बदल रहे हैं. क्या इस मामूली बीमारी के खिलाफ कहीं आवाज है? अगर नहीं, तो बंसल की जगह कोई और आयेगा. कौन-सा कानून यह इजाजत देता है कि सरकारी पद पर आते हैं, तो आप अपने सगे-संबंधियों को वहां एकत्र कर लें. उस मंत्रालय को अपनी निजी कंपनी में तब्दील कर लें?
सच तो यह है कि यह सब राजनीति के अनैतिक होते जाने का परिणाम है. इस राजनीति में किसी कीमत पर सत्ता चाहिए. जनता भी इसमें हिस्सेदार व समान दोषी-अपराधी है. वीरभद्र सिंह, भ्रष्टाचार के गंभीर आरोपों से घिरे होते हैं, पर हिमाचल में उनकी जीत होती है. येदुरप्पा, भ्रष्टाचार के घोषित प्रतीक माने जाते हैं, पर उन्हें बड़े पैमाने पर वोट मिलते हैं. वह अगर भाजपा के साथ होते, तो भाजपा और तीस से अधिक सीटें जीती होती. बेल्लारी खान के लुटेरे लोगों की पार्टी पीएसआर अगर बेल्लारी इलाके में नहीं लड़ी होती, तो भाजपा को वहां से और पांच अधिक सीटें मिलीं होतीं.
ऐसी स्थिति में कर्नाटक विधानसभा में किसी को साफ बहुमत नहीं मिलता. भाजपा को लगभग 75 सीटें मिलती और कांग्रेस को 80. तब जनता दल (एस) या निर्दलीय सरकार बनाने की भूमिका में होते. येदियुरप्पा की कर्नाटक जनता पार्टी, अपनी 32 सीटें सिर्फ दो हजार वोटों के अंतर से हारी. हालांकि उसे कुल छह सीटों पर कामयाबी मिली. यह निष्कर्ष है, जाने-माने चुनाव विश्लेषकों का. भ्रष्टों को जनता का मुक्त समर्थन! फिर ईमानदार सरकार या व्यवस्था कैसे मिलेगी? बेईमानी और ईमानदारी साथ-साथ कैसे होंगे? क्यों जनता भी भ्रष्टों के साथ खड़ी दिखती है?
राजनीति में ऐसा क्यों हो रहा है? क्योंकि आज समाज, देश या राजनीति में पैसा ही सबसे बड़ा धर्म है. कोई यह भ्रम न पाले कि एनडीए सत्ता में आ गया, तो कोई बड़ा चमत्कार होगा. वहां कोई दूसरे बंसल और अश्वनी कुमार होंगे. कहां से और कैसे बड़े और छोटे राजनीतिक दलों के पास हजारों करोड़ चंदे के रूप में आ रहे हैं? इन सबके मूल में है कि राजनीति या सार्वजनिक जीवन में मूल्य-आदर्श खत्म हो गये हैं. नीति-अनीति का कोई अर्थ नहीं है.
मूल्य या साधन-साध्य की बात दफन हो चुके हैं. क्या ऐसे समाज या माहौल में लालबहादुर शास्त्री या सरदार पटेल पैदा होंगे? प्रसंग 1827 का है. मशहूर शायर मिर्जा असदुल्ला खान गालिब दिल्ली से कोलकाता रवाना हुए. छह माह बाद वह बनारस पहुंचे. वहां उन्होंने चिराग-ए-दैर नाम से शायरी लिखी. रामचंद्र गुहा अपनी पुस्तक (भारत, गांधी के बाद) में इसे कालजयी कहते हैं:
मैंने एक रात एक पहुंचे हुए संत से पूछा
(जो इस कालचक्र का रहस्य जानता था)
बाबा, तुम जानते हो कि अच्छाई और विश्वास,
नैतिकता और प्रेम, इस अभागे देश से पलायन कर चुके हैं,
बाप और बेटे एक दूसरे का गला काटने पर उतारू हैं,
भाई और भाई लड़ रहे हैं,
एकता और संघ की भावना खत्म हो गयी है,
इन अशुभ संकेतों के बावजूद अभी तक कयामत का दिन क्यों नहीं आया?
अंतिम घड़ी की विजय ध्वनि क्यों नहीं
सुनायी देती?
अंतिम विनाश का सूत्र किसके हाथों में है….?
गालिब की यह पीड़ा मुगल साम्राज्य के पतन के दिनों में व्यक्त हुई. बंसल और अश्वनी कुमार प्रकरण भारत के पतोन्मुख दिनों की राजनीति के याद किये जानेवाले प्रसंग रहेंगे. कानून बाद में हैं. पहला तकाजा है कि लोग देखें, जानें और यकीन करें कि उनके ऊपर शासन करनेवाले लोगों का चरित्र कैसा है?
कानून का सही राज है या नहीं? महाभारत ने कहा कि समाज के अगुआ लोग जिस रास्ते चलते हैं, समाज उसी रास्ते चलता है (महाजनो येन गत:, स पंथ:). इसी कांग्रेस के महान नेताओं ने सार्वजनिक जीवन के कुछ आचरण और सूत्र तय किये थे. बिना बोले. अपने जीवन, चरित्र और व्यवहार में उतार कर. अब इसी मुल्क में, इसी कांग्रेस के नेतृत्व में सार्वजनिक जीवन के पतन का नया अध्याय लिखा जा रहा है.
यूपीए के पहले दौर में केंद्र में पहली बार चार्जशीटेड लोग केंद्रीय मंत्री बने. इसके पहले केंद्र में चार्जशीटेड लोगों को मंत्री बनाने की परंपरा नहीं थी. यूपीए फेज-टू ने तो नैतिक मापदंडों की हर संभावित सीमा को तोड़ दिया है. बात पंडित नेहरू से शुरू करें.
पंडित जी का घर उनकी पुत्री इंदिरा जी संभालती थीं. उन्हें दो पुत्र थे. इंदिरा जी की कोई अपनी आय नहीं थी. उनके बेटों को पंडित जी पढ़ाते थे. राजीव गांधी, पढ़ने इंग्लैंड गये. वहीं से उन्होंने कुछ और आर्थिक मदद मांगी. पंडित जी ने जवाब दिया, तुम्हारी वित्तीय परेशानी जान कर पीड़ा हुई. मेरा विश्वास करो, मैं जो तुम्हें भेज पा रहा हूं, वही मैं अपने वेतन से अफोर्ड (वहन) कर सकता हूं. मेरी पुस्तकों की रॉयल्टी भी अब बहुत कम मिलती है.
लगता है, अब कम लोग मुझे पढ़ते हैं. तुम क्यों नहीं खाली समय में कोई काम करते हो. दूसरे देश से जानेवाले अधिसंख्य विद्यार्थी वहां काम करते हैं. इस तरह तुम्हें भी शांति रहेगी और मुझे भी शांति मिलेगी. इसके बाद राजीव गांधी ने ब्रिटेन में मामूली काम कर अपना जीवन चलाया. यह चरित्र था, देश के नेताओं का. सरदार वल्लभ भाई के पुत्र डायहा भाई पटेल ने गुजरात से एक मामूली अखबार निकाला. उसमें कुछ विज्ञापन आये.
सरदार पटेल को पता चला. वह अखबार तत्काल बंद हुआ. अखबारों में सूचना दी गयी कि सरदार और उनके पुत्र में कोई संबंध नहीं है. वह अखबार तो बंद हुआ ही, पर सरदार की मृत्यु तक पुत्र से संबंध टूट गया. इसी कांग्रेस के एक महान नेता रफी अहमद किदवई होते थे. पेशे से वकील पर कभी वकालत नहीं की. बाराबंकी के रहनेवाले थे. भारत के आजाद होने से मरने तक वह केंद्र में मंत्री रहे. उनकी पत्नी थी और बच्चे. किदवई साहब के न रहने पर उनकी पत्नी और बच्चे बाराबंकी के उस टूटे घर में वापस लौट गये, जहां दिन में सूरज की रोशनी और रात में चंद्रमा की किरणें कमरे को रौशन करती थीं.
यानी घर का छज्जा टूटा था. रफी साहब के संयुक्त परिवार के साथ उनका परिवार रहा. इसी तरह कैलासनाथ काटजू का प्रसंग है. वह आजादी के लड़ाई के बड़े कांग्रेसी नेता थे. उनके बेटे विश्वनाथ काटजू को ब्रिटेन की लाल इमली कंपनी में निदेशक बनने का प्रस्ताव मिला. तब कैलासनाथ काटजू बंगाल के गवर्नर थे. उन्होंने अपने बेटे को पत्र लिखा, वह ऐतिहासिक दस्तावेज है. पत्र में लिखा, मुझे मालूम है, मेरे पद के कारण तुम्हें यह प्रस्ताव नहीं मिल रहा है. न मैं जिस राज्य में राज्यपाल हूं, तुम्हें वहां यह पद मिल रहा है. एक पिता के रूप में तुम्हें पद का प्रस्ताव देख मुझे गौरव भी हुआ. पर जिस दिन तुम यह पद स्वीकार करोगे, मुझे सूचना दे देना, मैं गवर्नर पद से इस्तीफा दे दूंगा. राजनीतिक जीवन में यह उच्च मापदंड इसी कांग्रेस ने स्थापित किया. कामराज, लालबहादुर शास्त्री… अनेक नाम हैं, जिन्होंने अपने आचरण से राजनीति का स्तर ऊपर किया.
देश की रहनुमाई करने के लिए अगुआ नेताओं को कुरबानी करनी ही पड़ती है. पर लगातार सत्ता में बने रहने के लोभ और लालच में अस्सी के दशक के बाद कांग्रेस ने ही पतन का नया अध्याय लिखना शुरू किया. क्या बंसल और अश्विनी कुमार के मामलों में कहीं कोई बहस या डिफेंड करने का नैतिक आधार था? कानूनी दावं-पेच अलग हैं.
कानून से भी मूल्यवान हैं, विचार और मूल्य. यही देश की नियति तय करते हैं. आज हम जहां खड़े हैं, वहां देख कर लगता है कि यह मुल्क कितने दिनों तक एक रह पायेगा या यहां लोकतांत्रिक व्यवस्था और संस्थाएं कितने दिनों तक चल पायेंगी? मशहूर राजनीति विज्ञानी राबर्ट डल ने लिखा है कि हिंदुस्तान की स्थिति को देखते हुए यह कहना बिल्कुल असंभव लगता है कि यह देश लोकतांत्रिक संस्थाओं को आगे बढ़ा पायेगा. यहां किसी तरह की अनुकूल परिस्थितियां नहीं हैं.
देवेश कपूर, एक दूसरे अमेरिकी विद्वान ने भी लिखा, यूं तो भारत, समाज विज्ञान से संबंधित अवधारणाओं को तोड़ने के लिए मशहूर रहा है, लेकिन इस लेख के तथ्य इस शक की ओर इशारा करते हैं कि भारत में लोकतंत्र संभव हो पायेगा या नहीं? (सौजन्य – भारत, गांधी के बाद, रामचंद्र गुहा, अनुवाद सुशांत झा)
विद्वानों के ये मत दशकों पहले आये, पर आज क्या हालात हैं? संसद नहीं चलती. सीबीआइ की मूल जांच रिपोर्ट की आत्मा सरकार में बैठे लोग बदल देते हैं. मंत्रालयों के पद बिकते हैं. कॉरपोरेट हाउस, मंत्रियों के विभाग बदलवा देते हैं. याद रखिए अन्ना हजारे की एक मुख्य मांग थी, सीबीआइ को स्वायत्त बनाने की. पर ऐसे प्रसंग पर सरकार चर्चा या विचार करने को तैयार नहीं. माना जा रहा है कि मौजूदा लोकसभा, कामकाज की दृष्टि से अब तक की सभी पुरानी लोकसभाओं से सबसे पीछे या कमतर या खराब है. सैकड़ों बिल पड़े हैं.
पर देश के विकास या चौपट होते गवर्नेंस या राजनीतिक जीवन में ऊंचाई पाने से जुड़े सवालों पर संसद या राजनीति में कहीं आहट नहीं. इस देश का दर्शन हो गया है, नेता लूटे, अफसर लूटे, जनता लूटे, जो जहां है, वहीं लूटे. अपवाद नेता, मुख्यमंत्री या मंत्री भी हैं, पर वे आज की मुख्य राजनीतिक धारा या संस्कृति के प्रेरक नहीं हैं. बाजार व भोग की आग, जिस तेजी से भारत के कोने-कोने में धधक रही है, उसमें मूल्य, संस्कार, साधन-साध्य के प्रसंग, देश-समाज की चिंता, सब दफन हो चुके हैं. क्या अंग्रेज शासकों ने भारत के भविष्य की आहट पा ली थी? 1888 की बात है. भारत में ब्रिटिश राज को मजबूत बनाने में सर जान स्ट्रेची की महत्वपूर्ण भूमिका रही.
वह गवर्नर जनरल काउंसिल के सदस्य भी थे. सेवानिवृत्ति के बाद वह इंग्लैंड लौटे. कैंब्रिज में कई व्याख्यान दिये, जो बाद में इंडिया नाम की पुस्तक में छपा. उसमें स्ट्रेची का अनुमान था कि भारतीय राष्ट्र नाम की कोई चीज नहीं है, न ही भविष्य में उसके ऐसा होने की संभावना है. भारत में चालीस साल बिताने के बाद एक क्रिकेटर और बगान मालिक ने कहा, अगर हमने कभी भारतीयों को उनका शासन चलाने की छूट प्रदान की, तो यहां अराजकता छा जायेगी. याखुदा… किस तरह की भ्रम, अव्यवस्था, उलझन और बुरी स्थिति यहां छा जायेगी. उन्होंने यह भी कहा, भारतीयों को अपने ऊपर छोड़ दिया जाये, तो शासन या राजनय के मामले में वे अभी भी बहुत बचकाने किस्म के लोग हैं. उनके तथाकथित नेता घटिया किस्म के लोग हैं.
चर्चिल ने माना था कि भारत के लोग स्वशासन के अयोग्य हैं. चर्चिल ने भविष्यवाणी की, अगर ब्रिटिश भारत से चले जायें, तो उनके द्वारा निर्मित न्यायपालिका, स्वास्थ्य सेवाएं, रेलवे और लोक निर्माण की संस्थाओं का पूरा तंत्र खत्म हो जायेगा और हिंदुस्तान बहुत तेजी से शताब्दियों पहले की बर्बरता और मध्ययुगीन लूट-खसोट के दौर में वापस चला जायेगा (संदर्भ- भारत, गांधी के बाद, रामचंद्र गुहा, अनुवाद सुशांत झा).
आज रेलवे में वैसे ही पद बिक रहे हैं, जैसे पहले अधिक बोली पर जमींदारी या जागीरदारी बिकती थी. अंग्रेजों के जमाने में भी इस देश में रेल लाइनों का जाल बिछा. हम आजाद भारत में उसमें बहुत कम जोड़ पाये हैं. चीन और भारत की रेल व्यवस्था, 1950 में लगभग समान थी. आज चीन की रेल व्यवस्था दुनिया में सर्वश्रेष्ठ कही जा रही है, क्योंकि वहां न बंसल हैं, न पद बिकते हैं.
पिछले 25-30 वर्षों में एक-एक कर भारत की लोकतांत्रिक संस्थाओं का क्षरण हो रहा है. विधायिका की गरिमा पर सवाल उठ रहे हैं. राजनीतिक दल, लोकतांत्रिक नहीं रह गये. परिवार की कंपनी (कुछेक अपवाद छोड़ कर) बन गये हैं. राजनीति में चरित्र और मूल्य की कोई जगह नहीं बची. रोज कानून बनते हैं, पर कानून बनानेवाले तो उन्हें सार्वजनिक तौर पर तोड़ते हैं. बीके नेहरू (अव्वल दरजे के नौकरशाह) ने एक बार कहा था कि पुराने दिनों में कम कानून थे, पर हर कानून का पालन ईमानदार तरीके से होता था. अतिसावधानी से. आज बहुत सारे कानून हैं. पर किसी का पालन नहीं होता. कई कानूनों का इस्तेमाल चुनिंदा तौर पर होता है.
पंजाब के सबसे सफल गवर्नर (अंग्रेजी राज में) सर हेनरी लाटेंस का लगातार दवाब रहता था कि जिले के अधिकारी घोड़े पर सवार होकर गांव-गांव और पूरे जिले की निगरानी करें. कामकाज देखें. प्रशासन संभालें. सिर्फ वातानुकूलित, सुंदर दफ्तरों में बैठ कर अपने वरिष्ठ और राजनीतिक आकाओं को खुश करने में समय न गंवायें.
1859 की एक और घटना है. पटना के जिला जज, पटना सिटी के एक व्यापारी के मामले की सुनवाई कर रहे थे. उन पर आरोप था कि उन्होंने 1857 के विद्रोही सिपाहियों को बड़े पैमाने पर आर्थिक मदद की थी. पटना प्रभाग के तत्कालीन कमिश्नर ने उस जज को पत्र लिखा कि उस व्यवसायी को अधिकतम सजा दें. पटना के उस जज ने बंगाल के गर्वनर को वह पत्र भेजा, यह शिकायत करते हुए कि न्यायपालिका की स्वतंत्रता में यह दखल है. गवर्नर ने तत्काल कमिश्नर को डिसमिस किया. आज सुप्रीम कोर्ट ने साक्ष्य के आधार पर यह कहा है कि कोयला आवंटन से संबंधित जांच मामले की मूल रिपोर्ट की आत्मा ही बदल दी गयी है. इससे पूरी जांच की दशा-दिशा बदल गयी है.
और यह काम केंद्र सरकार के नेतृत्व में हो रहा है, जिस पर दायित्व है, संस्थाओं की स्वायत्तता की रक्षा का. कुतर्कों की आड़ में या कानूनी दावं-पेच में वह कांग्रेस अपने मंत्रियों का बचाव कर रही है, जो महात्मा गांधी को भी अपना नेता कहती है. याद करिए, 1922 में महात्मा गांधी देशद्रोह के आरोप में पकड़े गये. उन्हें जमानत पर बाहर जाने की अनुमति मिली, पर उन्होंने अस्वीकार किया. न ही कोई वकील रखा. सिर्फ एक बयान दिया.
वह ऐतिहासिक बयान है. कहा, मैं कानूनी बारीकियों और तकनीकी दावं-पेच में शरण नहीं लेना चाहता. उन्होंने सरकारी आरोप को सच माना. इस नैतिक राजनीति के गर्भ से गुलाम भारत आजाद बना. आज कहीं बचाव की कोई जगह नहीं होने पर भी बंसल और अश्वनी कुमार के पक्ष में तर्क ढूंढ़े गये. अत्यधिक लोक दबाव और टेप की विस्फोटक बातों से इन्हें हटाने की पृष्ठभूमि बनी. यह राजनीति आजाद देश को टूट और गुलामी की ओर ले जायेगी. हमारे अटार्नी जनरल, सोलिसिटर जनरल और एडिशनल अटार्नी जनरल की भूमिकाएं देखे लें.
बोफोर्स मामले में, 2जी स्कैम में और मौजूदा कोयला खदान आवंटन प्रसंग में. इस व्यवस्था में इन्हीं लोगों पर संविधान और कानून की मर्यादा बचाये रखने का सबसे बड़ा दायित्व है, पर इनमें से कुछेक की भूमिका स्तब्ध करनेवाली है. याद करिए, बोफोर्स मामले में 6.12.1990 को दिल्ली उच्च न्यायालय में सुनवाई हो रही थी. सीबीआइ द्वारा दायर एफआइआर निरस्त करने के संबंध में, तब सीबीआइ की ओर से एडिशनल सोलिसिटर जनरल बहस कर रहे थे. तब के माधवन (संयुक्त निदेशक सीबीआइ) ने कहा कि इस मामले में दो घंटे तक आत्मघाती और खुद को खत्म करनेवाले तर्क अदालत में दिये गये और एफआइआर में लिखे गये सभी महत्वपूर्ण और प्रासंगिक शब्द जानबूझ कर छोड़ दिये गये. के माधवन कोर्ट में बोल पड़े.
पर उलटे उनके जैसे कर्तव्यनिष्ठ अफसर के खिलाफ कार्रवाई की बात शुरू हुई और बोफोर्स मामला पीछे छूट गया. दुर्भाग्य से माधवन जैसे ईमानदार और कर्तव्यनिष्ठ अफसरों की जगह धीरे-धीरे खत्म होने लगी है. याद रखिए, 1992 में माधवन की टीम ने ही हर्षद मेहता को शेयर घोटाले में गिरफ्तार किया था. सरकारी पदों पर बैठे लोगों को हवाला रूट से पैसे देने के संकेत मिले, पर सीबीआइ को इसकी जांच की अनुमति नहीं मिली. निराशा और आक्रोश से भरे के माधवन ने जुलाई 1992 में इस्तीफा दे दिया.
उनकी नौकरी के कई वर्ष बाकी थे. तब भारत के वित्त मंत्री थे, मनमोहन सिंह, जिन्होंने इस शेयर घोटाले को ‘सिस्टमेटिक फेल्योर’ (व्यवस्था की विफलता) कह कर खारिज कर दिया. 2जी मामले में क्या हुआ? अक्तूबर 2010 की बात है, गोपाल सुब्रह्मण्यम (सोलिसिटर जनरल) थे, उन्होंने सीबीआइ के दो अफसरों को इस मामले पर बातचीत के लिए बुलाया. डीआइजी सुरेश कुमार पलसानिया और विवेक प्रियदर्शी जांच अधिकारी थे.
जो खबरें आयीं, उनके आधार पर ये दोनों वहां एक चौथे व्यक्ति को देख कर स्तब्ध रह गये. वह थीं, अनीता शेनाय. ए राजा (विवादित संचार मंत्री) की वकील. एक बात यह भी आयी कि शेनाय वहां किसी दूसरे मामले में आयी थीं. पर एसके पलसानिया और विवेक प्रियदर्शी वहां से निकल गये. वाकआउट कर. इन लोगों को आपत्ति थी कि दोषी व्यक्ति के वकील की मौजूदगी में हम कैसे इस मुद्दे पर बात कर सकते हैं?
इसकी शिकायत तत्कालीन कानून मंत्री वीरप्पा मोइली तक पहुंची. वह इस बात से सहमत हुए कि इस मामले में गोपाल सुब्रह्मण्यम की जगह कोई दूसरा वकील सीबीआइ का प्रतिनिधित्व करे. तब सीबीआइ ने के वेणुगोपाल को अपना प्रतिनिधित्व करने का अनुरोध किया. इस मामले का दुखद प्रसंग यह है कि ईमानदार अफसर एसके पलसानिया को बाद में ब्लड कैंसर हुआ और 44 वर्ष की उम्र (नवंबर 2012) में ही वह चले गये. वीरप्पा मोइली जिन्होंने कानून मंत्री के रूप में सीबीआइ के प्रस्ताव को सही माना था, उन्हें बदल कर कम महत्व के मंत्रालय कारपोरेट अफेयर्स का मंत्री बना दिया गया. के माधवन, एसके पलसानिया के प्रसंग कई बार निजी तौर पर यह एहसास कराते हैं कि शायद हम ऐसे दौर से गुजर रहे हैं, जब ईश्वर भी न्याय और अच्छे लोगों के साथ खड़ा नहीं रहता.
पर शायद जीवन यही है. विपरीत परिस्थितियों में भी जो मूल्यों और अंतरात्मा के साथ खड़े हैं, वैसे के माधवन और एसके पलसानिया जैसे लोग ही भविष्य के बेहतर समाज के मार्गदर्शक होंगे. 1990 के बोफोर्स बहस से लेकर 2जी स्कैम में एडिशनल सोलिसिटर जनरल और अटार्नी जनरल गुलाम एसाजी वाहनवती (कोलगेट मामले में) की जो भूमिका रही, उसमें कहां रोशनी है? जब इतने महत्वपूर्ण पद पर बैठे लोग मौन हो जायें या सच के साथ न खड़े हों या गलत तथ्य बतायें, तब रास्ता क्या है? जिस समाज में अत्यंत बड़े पदों पर आसीन लोगों के विचार और मूल्य ऐसे हो जायें, और शासित जनता भी खामोश, मूकदर्शक या आलसी रहे, तो क्या होगा?
भारतीय राजनीति में ये अंधकार के दिन हैं. अब तक शायद किसी केंद्रीय सरकार के इतने मंत्रियों को भ्रष्टाचार के बड़े-बड़े आरोपों में घिरने पर शर्मनाक तरीके से पद नहीं छोड़ना पड़ा था. यह राष्ट्रीय शर्म की घड़ी है. लोहिया ने कहा था, निराश रहना और काम करना ही रास्ता है.
के माधवन, डीआइजी एसके पलसानिया और विवेक प्रियदर्शी जैसे अफसरों की तरह ही हम समाज में जहां जिस भूमिका में हैं, खड़े रहें. यही युगधर्म है. आज की जरूरत भी. आस्कर हैमरस्टीन की कविता है, ‘यू शैल नेवर वाक एलोन’ (आशय है, आप यात्रा में अकेले नहीं होंगे)
जब आप आंधी और तूफान के बीच से
गुजरते हैं,
तब आप सिर ऊंचा रखें और अंधेरे से न डरें,
तूफान के खत्म होने या अंत के बाद,
सुनहरा आकाश है और बगेरी पक्षी की सुनहरी और मधुर आवाज.
तूफानी हवाओं के बीच चलें, घोर बारिश
में चलें,
तब भी चलें, जब हमारे सपने तितर-बितर हो जायें
तब भी चलें, चलते रहें, दिल में इस उम्मीद के साथ,
कि हम कभी अकेले नहीं रहेंगे,
हम यात्रा में अकेले नहीं होंगे,
जब आप तूफानों से जूझते हुए आगे बढ़ें,
तब आप अपना सिर ऊंचा रखें और अंधेरे से न डरें….
(अंग्रेजी का भावानुवाद)
इस अंधेरे में जब कहीं कोई सुननेवाला न हो, तब भी आप अपनी अंतरात्मा को सुनें और ऐसी कविताओं से ऊर्जा पायें, यही रास्ता है.
दिनांक – 12.05.13