कांग्रेस के लिए एक मौका!

-हरिवंश- दोनों राष्ट्रीय दल कांग्रेस और भाजपा (हालांकि भाजपा का विस्तार दक्षिण व उत्तर-पूर्व में नगण्य है) सिमट रहे हैं. सिर्फ झारखंड में ही नहीं, देश में भी. देश के संदर्भ में चर्चा कभी और. झारखंड की बात पहले. हालांकि जिन कारणों से ये राष्ट्रीय दल झारखंड में सिमट रहे हैं, कमोबेश वैसे ही कारण […]

By Prabhat Khabar Digital Desk | June 15, 2015 12:06 PM
-हरिवंश-
दोनों राष्ट्रीय दल कांग्रेस और भाजपा (हालांकि भाजपा का विस्तार दक्षिण व उत्तर-पूर्व में नगण्य है) सिमट रहे हैं. सिर्फ झारखंड में ही नहीं, देश में भी. देश के संदर्भ में चर्चा कभी और. झारखंड की बात पहले. हालांकि जिन कारणों से ये राष्ट्रीय दल झारखंड में सिमट रहे हैं, कमोबेश वैसे ही कारण हैं, देश के अन्य राज्यों में इनके पिछड़ने के मूल में.
वर्ष 1990 से तत्कालीन बिहार में कांग्रेस सिमटनी शुरू हुई. उसे 1990 के बिहार विधानसभा चुनावों में 71 सीटें मिलीं. 1985 के मुकाबले 26 कम. भारतीय जनता पार्टी का थोड़ा फैलाव हुआ. उसे कुल 39 सीटें मिलीं. बिहार विधानसभा चुनाव वर्ष 1990 में. पहले से 13 अधिक.
झामुमो को भी 19 सीटें मिलीं. पहले से 10 अधिक. तब झारखंड अलग नहीं था. वर्ष 1990 में झारखंड (तब छोटानागपुर) से कांग्रेस को विधानसभा की 21 सीटें मिलीं. बीजेपी को भी यहां से विधानसभा की 21 सीटें मिलीं. दोनों को बराबर. इसके पहले तत्कालीन छोटानागपुर में कांग्रेस का वर्चस्व था. इसके मूल में भी ऐतिहासिक कारण थे. आजादी की लड़ाई. राजेंद्र बाबू या छोटानागपुर के अन्य कांग्रेसी नेताओं द्वारा आदिवासी इलाकों मे किये काम. टाना भगतों का गांधीकरण, जो आज भी है. वगैरह-वगैरह. पर ’90 से कांग्रेस झारखंड में अपना असर खोने लगी. 1995 के बिहार विधानसभा चुनावों में कांग्रेस को 42 सीटों का नुकसान हुआ. उसे कुल 29 सीटें ही मिलीं. पर छोटानागपुर से कांग्रेस और घट गयी. उसे 14 सीटें ही यहां मिलीं.
अपने गढ़ में. जबकि 1990 में उसे 21 सीटें मिलीं थी. भाजपा की भी एक सीट घटी. उसे कुल 20 सीटें मिलीं. झामुमो 10 पर सिमट गया. बिहार में वर्ष 2000 में फिर विधानसभा चुनाव हुए. उसमें भाजपा की दो सीटें घट गयीं. उसे कुल 39 सीटें मिलीं. पूरे बिहार में. उसी तरह पूरे बिहार में कांग्रेस को 15 सीटों का नुकसान हुआ और उसे कुल 14 सीटें ही मिलीं. झामुमो को भी दो सीटों का नुकसान हुआ. उसके पास महज आठ सीटें आयीं. 1995 के मुकाबले कांग्रेस छोटानागपुर में और घट गयी. उसकी सीटें 14 से 11 हो गयी. और भाजपा की सीटें 1995 (20) से बढ़ कर 2000 में छोटानागपुर से 32 हो गयीं. यानी तत्कालीन बिहार में कांग्रेस और बीजेपी की ताकत छोटानागपुर तक ही सिमट गयी थी.
बिहार में इनकी उपस्थिति जनता दल, बाद में राजद ने लगभग नगण्य बना दिया था. इसके बाद 2005 में झारखंड में पहली बार विधानसभा चुनाव हुए. अलग राज्य बनने के बाद. इसमें भाजपा को 30 (30.9 फीसदी वोट) सीटें मिलीं.
झामुमो को 17 सीटें (24.04 फीसदी वोट). कांग्रेस को कुल नौ (22.7 फीसदी वोट). इसी तरह 2009 में झारखंड विधानसभा चुनावों में भाजपा को महज 18 (20.18 फीसदी वोट) सीटें मिलीं. कांग्रेस को 14 (16.16 फीसदी वोट) सीटें. झामुमो को 18 (15.20 फीसदी वोट) सीटें मिलीं.
इन आंकड़ों के निष्कर्ष साफ हैं. बिहार का हिस्सा अलग कर दें, तो 1990 से तत्कालीन छोटानागपुर और झारखंड में कांग्रेस लगातार पराभाव की ओर है. उसकी सीटें लगातार घटी हैं. 2005 में जरूर उसकी सीटों में पांच सीटों का इजाफा हुआ. 15 वर्षों बाद. इसका श्रेय किसी हद तक तत्कालीन राज्यपाल के शंकरनारायणन के अच्छे कामों को है. उल्लेखनीय पहलू यह है कि भाजपा, 1990 से ही लगातार झारखंड में अपनी उपस्थिति बढ़ा रही थी. सन 2000 में उसे विधानसभा में अधिकतम 32 सीटें मिलीं. इसके बाद उसका पराभव शुरू हुआ.
वर्ष 2005 में उसकी दो सीटें घटीं. महज 30 सीटें मिलीं. 2009 में उसकी सीटों में तेजी से क्षरण हुआ. लगभग दस फीसदी उसके वोट घटे और कुल 18 सीटें मिलीं. इस तरह झारखंड में ग्रासरूट पर बीजेपी के कमजोर होते जाने के संकेत साफ हैं. बाबूलाल मरांडी के अलग होने से पार्टी को गहरा धक्का लगा है. अर्जुन मुंडा के नेतृत्व में भाजपा-झामुमो की इस मिली-जुली सरकार के कार्यकाल में संगठन के स्तर पर बीजेपी और कमजोर हुई है. उसमें बिखराव आया है. गुट बढ़े हैं. कार्यकर्ता घरों तक सिमट गये हैं. खासतौर से दुमका के अंचल में कार्यकर्ताओं का मनोबल गिरा है. अगर बीजेपी संगठन में करेस्मेटिक (चमत्कारिक) लोग आयें, तब शायद संगठन सक्रिय हो सकता है. वरना संगठन की यह कमजोरी झारखंड में होनेवाले चुनावों में भाजपा के लिए गंभीर चुनौती है.
पर कांग्रेस के लिए यही मौका है. वह अपनी स्थिति सुधार सकती है. अपना समर्थन आधार फैला सकती है. इससे अगले चुनावों में ही कोई चमत्कारिक परिवर्तन होगा, ऐसा नहीं है. पर 2005 में कांग्रेस ने झारखंड विधानसभा में नौ सीटें जीती थीं. 2009 में 14 (एक सीट गोपालनाथ शरण शाहदेव की मृत्यु से कम हो गयी है. इसलिए अब 13 हैं) सीटें कांग्रेस को मिली. अब इस संख्या में कांग्रेस सात-आठ सीट भी जोड़ ले, तो वह झारखंड की राजनीति में निर्णायक हो जायेगी. यह असंभव नहीं है. लोकसभा चुनावों में तो झारखंड से उसके पास एक ही सीट है. उसके पास खोने के बजाय, पाने का ही मौका है.
पर क्या कांग्रेस खुद मजबूत होने के लिए तैयार है? झारखंड के एक पूर्व राज्यपाल (जो अत्यंत ईमानदार और स्वच्छ छवि के रहे) ने झारखंड के कांग्रेसियों के बारे में अनुभव सुनाया. निजी बातचीत में. राष्ट्रपति शासन में वह झारखंड में थे. बहुत उम्दा काम किया. पुराने कांग्रेसी मूल्यों के इंसान. उनके कामों का ही असर था कि कांग्रेस नौ से 14 सीटों तक पहुंची. उन्होंने कहा कि झारखंड के कांग्रेसी नेता महज पैरवी, ट्रांसफर, पोस्टिंग और निजी काम लेकर आते हैं. निजी काम यानी साफ भाषा में कहें, तो अपने आसपास के लोगों को उपकृत करने या कमाई के स्रोत खोलने. उन्होंने कहा, कोई सामाजिक काम लेकर नहीं आता.
जनता की भलाई के सवाल लेकर नहीं आता. प्रशासन बेहतर बनाने, गवर्नेस सुधारने, नीचे तक कल्याणकारी योजनाएं पहुंचे, इन प्रसंगों को लेकर नहीं आता. यह है झारखंडी कांग्रेस का चरित्र. झारखंड के कांग्रेसी अपने भाई, भतीजे, बंधुओं और परिवारों तक सिमट गये हैं. बहुत होगा, तो अपनी जाति और उससे आगे बढ़े, तो अपने समुदाय और अपना क्षेत्र. यही कांग्रेसियों की चौहद्दी है, सोच और काम का.
झारखंड कांग्रेस को दूर जाने की जरूरत नहीं. उसके पास इतनी ताकत है कि झारखंड की राजनीति में वह एक नयी बहस शुरू करा सकती है. नया माहौल बना सकती है. नयी फिजा, एक नयी राजनीति को जन्म दे सकती है. एक नया सामाजिक ध्रुवीकरण पैदा कर सकती है.
आज झारखंड विधानसभा में किसी को साफ बहुमत क्यों नहीं है? क्योंकि समाज कई सांचों-खंडों में बंटा है. इस बंटे समाज में वोट के भी परिणाम हैं, खंडित जनादेश. एक लाइन में कहें, तो जनता खंडित है. यानी बंटी हुई है. इसलिए विधानसभा के परिणाम भी खंडित हैं. यानी सबको थोड़े-थोड़े मिले. किसी को साफ समर्थन नहीं. झारखंड के समाज में असंख्य किस्म का बंटवारा है. आदिवासी, गैर-आदिवासी आदि. खुद आदिवासियों के अंदर कई समूह हैं, जिनके बीच तनातनी है. फिर सदान हैं. उनमें भी कई गुट हैं. फिर बाहरी-भीतरी का खेल है.
समाज को बांटनेवाले इन मुद्दों को झारखंड में इन राजनीतिक दलों और नेताओं ने जिंदा रखा है, ताकि समाज बंटा रहे और उन्हें राजनीतिक लाभ मिलते रहें. पर इस तरह का विभाजित समाज ही एक नयी राजनीति का मौका देता है. राजनीति का काम है, रहनुमाई से समाज को बदलाव की ओर ले जाना. बड़े सपने दिखाना. जब राजनीति के पास बड़े सपने होंगे, कारगर सपने होंगे, तो जनता के बीच जाति, धर्म, बाहरी-भीतरी जैसे विभाजक तत्व कमजोर होते हैं.
फिर जनता निर्णायक ढंग से वोट देती है. देश और अनेक राज्यों में अतीत में हुए कुछ चुनाव इसके प्रमाण हैं. 1977 या 1984 या 1989 के लोकसभा चुनाव. कई राज्यों में भी मतदाताओं ने निर्णायक मतदान किये हैं. उत्तर प्रदेश में पहले मायावती को बैठाया, फिर अखिलेश यादव को. बिहार में भी नीतीश कुमार और बंगाल में ममता बनर्जी को लोगों ने निर्णायक ढंग से जिताया. आज झारखंड के लोगों के बीच एक बड़ा सपना पैदा करने की जरूरत है. एक पंक्ति में वह सपना है कि राजनीति झारखंड को बदल सकती है? झारखंड के लोगों को भी एक बेहतर गवर्नेस मिल सकता है.
अराजकता से यह राज्य मुक्त हो सकता है. पाकिस्तान में मोहम्मद ताहीर अल कादरी को मिले अभूतपूर्व जनसमर्थन के पीछे जो मूल कारण गिनाये गये हैं, वे हैं पाकिस्तान की राजनीतिक विफलता, पाक राजनेताओं की अक्षमता, उनका भ्रष्ट होना. झारखंड में अगर कोई दल खड़ा होकर एक बेहतर झारखंड का सपना दिखाये, तो उसके सुखद परिणाम मिल सकते हैं. भाजपा के लिए अवसर कम हैं. चूंकि झारखंड बनने के 12 वर्षों में से आठ वर्ष तो भाजपा के नेतृत्व की सरकारें ही यहां रहीं हैं. इसलिए कांग्रेस के लिए यह मौका हो सकता है. बशर्ते कांग्रेस खुद बदलने के लिए तैयार हो.
इस बदलाव के लिए कांग्रेस को दूर नहीं जाना है. उसे अपनी ही पूंजी का जायज और नैतिक इस्तेमाल करना है. किसी गैर कांग्रेसी की शरण भी नहीं लेनी है. कांग्रेस महज अपने केंद्रीय मंत्री जयराम रमेश के झारखंड में किये कामों को आधार बनाये और स्वार्थ की राजनीति से उबर जाये, तो उसके हालात सुधर सकते हैं. सवाल यह उठना चाहिए कि जयराम रमेश असली झारखंडी हैं या झारखंड के नेता असली झारखंडी हैं?
असली झारखंडी का मकसद क्या है? सिर्फ यहां की धरती पर पैदा होना? बोझ बनना? यहां की लूट में शामिल होना या इस धरती को उबारने के लिए कुछ ठोस काम करना? अपनी पूरी ताकत-क्षमता से हालात बदलने के लिए यहां जयराम रमेश काम कर रहे हैं. उनके कामों में न दिखावा है, न वोट पाने का लोभ है, बल्कि हालात बदलने की ईमानदार कोशिश है.
छोटी-छोटी बातों से बड़े-बड़े सपने बुने जाते हैं. जयराम रमेश को झारखंड दौड़ने की क्या जरूरत है? इसके पहले कांग्रेस का कोई दूसरा केंद्रीय मंत्री इस तरह बेचैन होकर झारखंड नहीं दौड़ता था.
हालांकि यह अलग बात है कि पूरे देश में जो सचमुच चुनौतीपूर्ण जगहें हैं, जहां देश का अस्तित्व दावं पर लगा हुआ है, वहां भी जयराम रमेश जा रहे हैं. जयराम रमेश को एक व्यक्ति के रूप में न देखें, वह उस विलुप्त होती कांग्रेसी धारा के परिचायक हैं, जिसका रिश्ता देश के बुनियादी सवालों से है. चूंकि यह धारा कमजोर होती गयी. झारखंड में और झारखंड से बाहर, देश में भी, इसलिए कांग्रेस की फजीहत होती गयी.
दिसंबर 2011 (02.12.11) से लेकर जनवरी 2013 (02.01.13) के बीच केंद्रीय मंत्री जयराम रमेश ने झारखंड की 12 यात्राएं की हैं.
लगभग 1900 किमी जंगलों पहाड़ों और दुगर्म रास्तों पर वह घूमे हैं. खतरों के बीच. 18 ब्लाक की 42 पंचायतों में वह गये. उनके सीधे प्रयास से झारखंड में 1600 करोड़ रुपये आये हैं. यह महज राजनीति नहीं है. बल्कि राजनीति को पैशन मानने का परिणाम है. पूछिए यहां अब तक राज करनेवालों से कि जो खर्च का सालाना बजट आपका होता है, उसका बीस से 27 फीसदी ही अब तक क्यों खर्च करते रहे हैं, झारखंडी नेता? या झारखंडी सरकारें? एक तरफ लोग भूखे हैं, गरीब हैं, दूसरी ओर पैसा है, पर खर्च नहीं हुआ.
क्या कांग्रेसी ऐसे मूल सवालों को लेकर झारखंड के कोने-कोने में जा सकते हैं? ऐसे सवालों से झारखंड की राजनीति में बदलाव की गूंज होगी.
जयराम रमेश उन गांवों में गये, पंचायतों में गये, सारंडा जंगल में गये, उस सरयू पंचायत में गये, जहां पहले झारखंड का कोई मंत्री-अफसर नहीं गया. झारखंड में ही झारखंड के कठिन इलाकों में न जानेवाले मंत्री-अफसर-नेता अपने को झारखंडी मानते हैं, तो जयराम रमेश क्या हैं? वह वोट मांगने भी नहीं गये. वह किन या कैसे कामों के लिए जाते हैं? या झारखंड आते हैं? सारंडा एक्शन प्लान बनवाना, सड़कें बनवाना, सोलर लालटेन बंटवाना, ट्यूबवेल लगवाना, साइकिल बंटवाना, वाटर शेड बनवाना, पीएमजीएसवाइ के तहत सड़कें बनवाना, सिंचाई के काम करवाना. महिलाओं के बीच जाना. अस्पताल बनवाना. वगैरह. कई इलाकों में पहुंचनेवाले वह पहले केंद्रीय मंत्री रहे. 32 किमी उन्होंने मोटर साइकिल से यात्रा की. चेकडैम बनवाया.
पूछा जाना चाहिए कि आगे-पीछे पुलिस की गाड़ियों को लेकर सायरन बजा कर लोगों को डरानेवाले झारखंडी नेता, झारखंड के हितैषी हैं या जयराम रमेश असल झारखंडी हैं, जिन्होंने झारखंड को ग्रासरूट से बदलने का अभियान चलाया. उन बीहड़ और माओवादी इलाकों में जाकर लोगों के बीच खड़ा होकर शासन और सत्ता के होने का एहसास कराया. कांग्रेस नेतृत्व अगर साफ हो और एकजुट हो, तो वह जयराम रमेश के बहाने झारखंड की राजनीति में एक नयी बहस शुरू कर सकती है और यही बहस क्षेत्रीयता का नारा देकर लोगों को भ्रमित करनेवालों को भी कमजोर कर सकती है.
झारखंड विधानसभा चुनावों में अभी तकरीबन पौने दो साल हैं. यहां सरकार बनना आसान नहीं है. कांग्रेस के केंद्रीय नेता इस बार निर्दलीयों से बहुत सावधान हैं. कांग्रेस के ही अनुसार झारखंड में सरकार न बनने के पीछे एक अघोषित कारण लालू प्रसाद भी हैं. कांग्रेस के एक खेमे को लालू प्रसाद से परहेज है. इस खेमे का तर्क है कि बीजेपी, नरेंद्र मोदी को चुनाव कैंपेन कमेटी का चेयरमैन बनाने जा रही है. इससे जदयू से मतभेद होगा. कांग्रेस का यह खेमा जदयू से नजदीकी चाहता है. राजद से नहीं. इसलिए उसका तर्क है कि राजद के साथ सरकार बनाने से इस वक्त गलत संदेश जायेगा. झारखंड सरकार बनने में यह भी एक अड़चन है.
कांग्रेस की यह भी इच्छा है कि वह झामुमो के साथ मिल कर लोकसभा चुनाव लड़े. पर फिलहाल झारखंड में फिर कोई मिली-जुली सरकार बन जाती है, जो एक-डेढ़ वर्षों बाद बोझ लगती है, तो उसके पाप की कीमत कांग्रेस चुकायेगी, इसका एहसास भी कांग्रेस को है. इसलिए झारखंड में नयी सरकार बनने में अड़चन है.
कांग्रेस अगर इस मौके का लाभ उठाना चाहती है, तो उसे कु छ और कदम उठाने होंगे. प्रभावी राज्यपाल के साथ-साथ श्रेष्ठ सलाहकार जरूरी हैं. इस दिशा में कांग्रेस ने कदम उठाये हैं.
राज्यपाल के नवनियुक्त दो सलाहकार मधुकर गुप्ता और के विजय कुमार अति प्रभावी लोगों में गिने जाते हैं. ऐसे लोगों के चयन से एक बेहतर संदेश गया है. इसके साथ ही अत्यंत प्रभावी मुख्य सचिव इस राज्य को चाहिए. 12 वर्षों में कुछेक मुख्य सचिवों को छोड़ दें, तो झारखंड के राजनीतिज्ञों ने मुख्य सचिवों को रीढ़हीन बना दिया. कभी कोई घर बुला सकता है. किसी भी वक्त कोई भी आदेश दे सकता है. कुछ भी करने को कह सकता है. चीजों के वैध-अवैध होने का किसी को डर-भय नहीं. मन की इच्छा पूरी हो. लालूजी ने तो महज जुमला कहा था कि राजा के शब्द ही कानून हैं.
यहां तो मंत्रियों-विधायकों ने सिद्धांत बना लिया था कि मुख्य सचिव या अच्छे अफसरों को दास बना लेना है. उन्हें जो कहा जाये, वे वही करें. मुख्य सचिव महज व्यक्ति नहीं होता. किसी राज्य में यह सबसे सशक्त और असरदार पद होता है. राजसत्ता के जीवित होने, सक्षम होने का जीवंत प्रतीक. उसे कमजोर करना यानी स्टेट पावर की नींव खोदना है. झारखंड में यही हुआ है.
इसलिए झारखंड में कांग्रेस का नारा होना चाहिए कि हम संवैधानिक पदों का महत्व और गरिमा लौटायेंगे. राज्य कानून से चलेगा किसी की मर्जी, इच्छा या पसंद-नापसंद से नहीं. मौजूदा माहौल में यह एक बड़ा सपना है कि झारखंड कानून से चले. झारखंडी नेताओं की मर्जी से नहीं.
टी नंदकुमार जैसे अफसर भी सलाहकार के तौर पर अत्यंत प्रभावी हो सकते हैं. क्योंकि झारखंड में इनके काम करने का व्यापक अनुभव रहा है. एक अत्यंत जिम्मेदार अफसर की प्रतिष्ठा भी ऐसे लोगों ने राज्य और देश में अर्जित की है. इसी तरह झारखंड से दिल्ली गये आइएएस अफसर ऐसे हैं, जो अपने काम से दुनिया में भारत की पहचान बना रहे हैं. देश में बदलाव की नयी उम्मीद पैदा कर रहे हैं. झारखंड में रहते हुए ऐसे अफसरों ने श्रेष्ठ काम किया और देश में झारखंड को गौरव दिलाया. ऐसे लोग यहां मुख्य सचिव बनने चाहिए, जो यहां की मिट्टी से वाकिफ हैं.
कांग्रेस का अगर नारा हो कि झारखंड अब संविधान के अनुसार चलेगा, कानून के अनुसार चलेगा, तो झारखंड की राजनीतिक फिजा में एक नया सपना होगा. वैसे भी झारखंड की युवा पीढ़ी भी करवट ले रही है. जो नयी उम्र के मतदाता आ रहे हैं, उनके आइकन अलग हैं. वे तोड़नेवाली राजनीति के नारे और मुहावरों से दूर हैं. वे बदलाव चाहते हैं. विकसित झारखंड चाहते हैं. कांग्रेस अगर सचमुच गंभीर है, अपनी नियति बदलने के प्रति, तो वह विकास व बदलाव का यह सपना लेकर राज्य में उतर सकती है.
याद रखिए बदलाव के सपने ही समाज को बदलते हैं. राजनीति को बदलते हैं. थोड़ा पीछे लौटे और याद करें 1969 के हालात. इंदिरा जी प्रधानमंत्री थीं. डॉ लोहिया उन्हें गूंगी गुड़िया के खिताब से नवाज चुके थे.
उसके बाद कांग्रेस बंटी, पर यह बंटवारा हुआ सामाजिक जड़ता को तोड़ने के नाम पर, इसने राजनीति की धारा बदल दी. इसके पहले नवंबर 1969 में दिल्ली के एक साप्ताहिक ‘थाट’ ने कांग्रेस के बारे में यह टिप्पणी की कि ऐसा लगता है कि कांग्रेस ने अपना यह भरोसा खो दिया है कि वह देश को एकजुट रखनेवाली ताकत है. कभी शक्तिशाली रही पार्टी आपस में ही संघर्ष कर रहे गुटों में बंट गयी. उन्हीं दिनों इंदिरा गांधी ने ‘गरीबी हटाओ’ का नारा दिया. इसके बाद अपनी पार्टी को चुनाव में जिताने के लिए श्रीमती गांधी ने दिन-रात मेहनत की. 1970 के अंत में लोकसभा भंग हुई. तब से लेकर दस सप्ताह बाद होनेवाले चुनाव तक उन्होंने 36 हजार मील की यात्रा की. तीन सौ चुनावी सभाओं को संबोधित किया.
दो करोड़ लोगों ने उनका भाषण सुना और कांग्रेस का इतिहास बदल गया. क्या झारखंड कांग्रेस इसके लिए तैयार है? कभी झारखंड कांग्रेस में कद्दावर नेता थे. कार्तिक उरांव, टी मोचीराम मुंडा वगैरह. आज वैसे विश्वसनीय नेता नहीं है, पर नये सपने और कार्यक्रम लेकर पार्टी मैदान में उतरे, तो वह नये नेता भी पैदा कर सकती है. पर इसके लिए जरूरी है कि वह जयराम रमेश की राह चले. सरकार बनानेवालों या निर्दलीयों के दरवाजे-दरवाजे न भटके.
दिनांक : 21.01.13

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