मोदी प्रसंग!
-हरिवंश- स्तब्ध हूं, देश के सार्वजनिक जीवन की सबसे अहम बहस देख कर. भाजपा के प्रधानमंत्री प्रत्याशी नरेंद्र मोदी हों या नहीं? यह आज सबसे बड़ा राष्ट्रीय मुद्दा है. सिर्फ भाजपा के अंदर नहीं. बाहरी दलों या विरोधियों के बीच भी. इस पर भाजपा, कांग्रेस, एनडीए के घटक, यूपीए के घटक, सब बेचैन हैं. यह […]
-हरिवंश-
स्तब्ध हूं, देश के सार्वजनिक जीवन की सबसे अहम बहस देख कर. भाजपा के प्रधानमंत्री प्रत्याशी नरेंद्र मोदी हों या नहीं? यह आज सबसे बड़ा राष्ट्रीय मुद्दा है. सिर्फ भाजपा के अंदर नहीं. बाहरी दलों या विरोधियों के बीच भी. इस पर भाजपा, कांग्रेस, एनडीए के घटक, यूपीए के घटक, सब बेचैन हैं. यह मुल्क सचमुच बौद्धिक रूप से दिशाहीन या दरिद्र हो गया है? इस मुल्क के लोगों के पास न नये विचार हैं, न कर्म का संकल्प, न इतिहास मोड़ सकने की क्षमता है.
कोई एक व्यक्ति राष्ट्र के जीवन में निर्णायक बहस का केंद्र बने, इससे न सिर्फ राजनीतिक खोखलेपन, बल्कि सामाजिक, बौद्धिक और सांस्कृतिक क्षेत्र की दरिद्रता का भी बोध होता है. देश की मौजूदा स्थिति को देखते हुए, जिद्दू कृष्णमूर्ति का एक प्रसंग याद आता है. उनकी अंतिम भारत यात्रा थी. वह पहले बनारस आये. आपने राजघाट सेंटर पर. वहां दुनिया के मशहूर बौद्ध विद्वान पंडित जगन्नाथ उपाध्याय और एस रिनपोचे उपस्थित थे.
सवाल-जवाब हो रहा था. बताने की जरूरत नहीं कि हाल के वर्षों में दार्शनिक जिद्दू कृष्णमूर्ति से बड़ा मौलिक दिमाग शायद दुनिया में कोई दूसरा नहीं था. उन्होंने काशी प्रवास में अनेक विद्वानों के समक्ष एक सवाल रखा कि क्या यहां (आशय भारत या इस क्षेत्र से) ऐसा कुछ पवित्र है, जो अनंत तक रहनेवाला है.. वह भारत में है? या दुनिया के इस हिस्से में है? अगर ऐसा है, तो दुनिया का यह हिस्सा इतना भ्रष्ट क्यों है?
जिद्दू कृष्णमूर्ति बड़े गहराईवाले इंसान थे. आधुनिक बुद्ध के रूप में उनकी चर्चा हुई. वह कोई मामूली दृष्टि नहीं थी. उन्होंने यह सवाल पूछा था. उनकी नजर में भ्रष्टाचार का अर्थ सिर्फ पैसा नहीं रहा होगा.
बल्कि संपूर्ण मूल्य, संस्कार, बोध, संस्कृति, सभ्यता से उनका आशय रहा होगा. शायद भारत का यही हाल देख कर वीएस नायपाल (नोबल पुरस्कार विजेता) ने यहां ‘मिलियन म्यूटिनीज’ (लाखों या असंख्य क्रांति या विद्रोह) की परिकल्पना की थी. देश की राजनीति या सार्वजनिक जीवन में जिन सवालों पर आज चर्चा होती है, उन्हें देख कर नफरत पैदा होती है. प्रश्न कहां, और हम बात क्या कर रहे हैं?
क्या किसी को एहसास है कि इस मुल्क में महंगाई ने क्या असर डाला है? कम वेतन पानेवाले कैसे जी रहे हैं? देश में क्षेत्रीय विषमता कैसे बढ़ रही है? रोजगार कैसे सिमट रहे हैं? औद्योगिक प्रगति में ठहराव है. नयी नौकरियों के अवसर सिमट रहे हैं. शहरों और गांवों में कितना अंतर बढ़ा है?
सड़क, बिजली, इंफ्रास्ट्रक्चर, पानी जैसी सारी सुविधाएं दिल्ली को. यानी शासकों को. शासक क्रांतिपूर्व फ्रांस के राजाओं की तरह भोग में हैं. आनंद-मौज में. दिल्ली को सब सुख. चाहे गंगा सूखे या देश अंधेर में रहे? यानी देश के किसानों को पानी भले न मिले या अन्य भाग अंधेरे में रहें, पर दिल्ली में सब कुछ रहे. देश में सिर्फ एक दिल्ली नहीं है, यह तो प्रतीक भर है. हर राज्य की राजधानी उसी रास्ते पर है.
सभी सुख (सड़क, बिजली, पानी, एसी, स्कूल-कॉलेज, अस्पताल वगैरह) बड़े शहरों को या विकसित राज्यों को. महाराष्ट्र में पानी के बगैर लोग मर रहे हैं. वहां के उपमुख्यमंत्री जी, जो भावी मुख्यमंत्री हैं, कहते हैं कि नदी-तालाब सूख गये, तो क्या मैं पेशाब करूं कि पानी भर जाये? सार्वजनिक जीवन में यह अश्लीलता, उद्दंडता, आपराधिक आचरण! इन सवालों पर देश में चुप्पी है.
देश की राजनीति से मूल सवाल गायब हैं. राजनीति और राजनेता कितने घटिया हो गये हैं, इसका प्रमाण महाराष्ट्र के उपमुख्यमंत्री या एक ताकतवर नेता को देख कर अनुमान लगाया जा सकता है. फिर भी देश में कोई लोक आक्रोश नहीं. नफरत नहीं. ऐसे लोगों के प्रति घृणा-द्वेष नहीं. क्या सचमुच देश के लोग स्तब्ध हैं, या इन स्थितियों से आहत-क्षुब्ध हैं या जीते जी शव बन गये हैं?
समाजशास्त्री और बड़े चिंतक कह रहे हैं कि यह धनयुग है. सिर्फ धन की अभिलाषा, भोग की अभिलाषा, पर हम पहुंच कहां रहे हैं? धनी और गरीब में बहुत तेजी से दूरी बढ़ रही है.
बेरोजगार युवकों की फौज खड़ी हो रही है. देश के कई इलाके ऐसे हैं, जहां सरकार या भारत संघ का शासन है ही नहीं. देश का बड़ा इलाका नक्सलियों के कब्जे में है. हाल ही में उन्होंने बिहार-झारखंड में बंद कराया. ग्रामीण इलाकों में पान की गुमटी तक नहीं खुली. इतिहास में देखा है, मुगलों के अंतिम काल में उनका शासन महज दिल्ली तक सिमट गया था. आज देश के सुदूर इलाकों में जो रहते हैं, उन्हें ऐसा ही लगता है.
क्या हम पुन: उसी राह पर हैं? चीन, भारत को चौतरफा घेर चुका है. सामाजिक और आर्थिक दोनों ढंग से. पर इस मुद्दे पर राजनीति में कोई आवाज नहीं. क्या देशहित से अलग देश की राजनीति होगी? नैतिक पतन, चारित्रिक पतन, कानून के प्रति बढ़ती अनास्था, राजनीतिक संस्थाओं का क्षय, भ्रष्टाचार का लगातार अनियंत्रित होना, राजसत्ता का (सरकार या केंद्रीय संघ की ताकत) लगातार खत्म होने जाना, इस देश के वे मुद्दे हैं, जो तय करेंगे कि भविष्य का भारत कैसा होगा? यह देश एक रहेगा या बिखरेगा? क्या ऐसे अहम सवाल, देश के सार्वजनिक जीवन के सबसे मुख्य सवाल नहीं होने चाहिए? फर्ज कीजिए, नरेंद्र मोदी सत्ता में आ जाते हैं, तो क्या उनके पास जादुई इलाज है कि ये सारी चीजें तुरंत मिट जायेंगी? वे प्रधानमंत्री बनें या न बनें, पर इन समस्याओं के समाधान किनके पास क्या हैं, बात इन सवालों पर होनी चाहिए. दिलचस्प बात है कि मोदी प्रसंग में सिर्फ भाजपा की रुचि नहीं है. भाजपा ही उन्हें मुक्तिदाता के रूप में नहीं देख रही. लगता है कि कांग्रेस भी उनमें अपना भविष्य देख रही है. अब कांग्रेस से उन्हें कुछ लोग यमराज कह रहे हैं.
मौत का सौदागर पहले कह ही चुके हैं. अनेक नये विशेषण भी लग रहे हैं, दोनों पक्षों से. कांग्रेस को लगता है कि अगर मोदी, भाजपा के प्रत्याशी बनेंगे, तो एनडीए टूटेगा. यह उसके (कांग्रेस) हक में होगा. फिर देश में नरेंद्र मोदी के नाम पर ध्रुवीकरण हो जायेगा, जिसका लाभ उसे मिलेगा. यह है, मौके की राजनीति. मुद्दों से भाग कर, नये सवाल खड़े कर, मूल सवालों से लोगों को हटा देने की कोशिश या साजिश? कांग्रेस की इस भूमिका के बारे में हिंदी के एक जाने-माने लेखक बल्लभ डोभाल कहते हैं कि वह रक्तबीज है.
कभी खत्म न होनेवाली? कब-किस मौके पर किस मुद्दे को उछाल कर कांग्रेस अपनी राजनीति साधेगी, कहना कठिन है. उसे हटाना या पदच्युत करना असंभव है. यूपीए शासन का फेज-टू, देश के शासनकाल में अत्यंत अव्यवस्थित, अराजक और खराब शासन के रूप में याद रहेगा. भ्रष्टाचार का विस्फोट, शिखर पर सत्ता के कई केंद्र, जिसे खुद कांग्रेसी नेता कह और मान चुके हैं, महंगाई, राजनीति का घटता इकबाल, लोकतांत्रिक संस्थाओं का लगातार क्षय, गवर्नेस का कोलैप्स (ध्वस्त) होना, बढ़ते आतंकवाद का हल न ढूंढ़ पाना, ऐसी अनेक चीजें या मुद्दे हैं. अनगिनत संकट हैं. अनिर्णय की स्थिति अलग है.
न्यायिक सुधार सबसे बड़ी चुनौती है. अगर इन सारे सवालों पर गहराई से बहस हो, तो यूपीए के पास जवाब नहीं है. लगातार विदेशों में रखा, देश का कालाधन सामने आ रहा है. विदेशी पहल और सूचनाओं के आधार पर पता चलता है कि देश का धन बाहर कैसे छुपाया गया है? पर इस सवाल पर यह मुल्क और इसके शासक सोये हैं.
अगर इन सारे सवालों पर देश में सार्वजनिक चर्चा और बहस शुरू हो जाये, एकाउंटिबिलीटी तय करने की मांग होने लगे, तो यह स्थिति यूपीए के लिए सबसे गंभीर और असहज होगी. इसके बदले नरेंद्र मोदी को भावनाओं से जोड़ कर उन्हें बड़ा सवाल बना देना, सबसे आसान रास्ता है. ये मूल सवाल तब उठेंगे ही नहीं. इसलिए कांग्रेस की भी दिलचस्पी इसी बात में है कि मोदी राजनीति में बड़े सवाल के रूप में देश में हमेशा मौजूद रहें.
केंद्र में अगली सरकार किसकी बने, क्या सिर्फ यही इस देश के सार्वजनिक जीवन में सबसे अहम सवाल है? या आज सबसे अहम सवाल है, जो देश के अस्तित्व से जुड़ा है, जो हमारी सभ्यता-संस्कृति से जुड़ा है. बल्कि कहें, तो आज की पोस्ट इंडस्ट्रियल, दुनिया का सबसे अहम सवाल तो अलग है. मूल प्रश्न है कि आज हम कैसा समाज बना रहे हैं? कैसे इंसान बना या विकसित कर रहे हैं?
कैसा मुल्क बन रहा है? याद रखिए, नेता या दल या किसी की गद्दी से देश और समाज हमेशा बड़े हैं. किन संस्कारों-मूल्यों का समाज हम गढ़ रहे हैं. 1991 के उदारीकरण के बाद जबसे धनयुग आया है, अध्ययन करा लें कि इंसान का लोभ कितना बढ़ा है? वह किसके लिए जीना चाहता है? अपने लिए, अपने परिवार के लिए या फिर किन चीजों के लिए जी रहा है? दिल्ली में ही हत्या का एक सनसनीखेज मामला सामने आया है. हाल में बसपा के एक बड़े नेता दीपक भारद्वाज की हत्या की गयी.
वह तीन हजार करोड़ की संपत्ति के मालिक थे. उनके बेटे ने पांच-छह करोड़ में उन्हें मारने की सुपारी दी. एक योग गुरु, जो भगवान बन रहे थे, उन्होंने अपने ड्राइवर को हत्या का दायित्व सौंपा. दीपक भारद्वाज की नाराज पत्नी भी अपने पति की हत्या में साझेदार कही जा रही हैं. दीपक भारद्वाज के बेटे को धन चाहिए था, क्योंकि दीपक भारद्वाज अब एक नयी युवती के साथ रह रहे थे. संत या गुरु महाराज को हरिद्वार में एक भव्य आश्रम बनवाने के लिए धन चाहिए था.
दीपक भारद्वाज के पारिवारिक मित्र और वकील बलजीत शेखावत भी षड्यंत्र में शामिल थे, उन्हें अपने चुनाव प्रचार के लिए धन चाहिए था. अब आप, पिता-पुत्र-पत्नी या पारिवारिक मित्र के संबंधों को परखिए. धन आने के बाद परिवार छोड़ कर दीपक भारद्वाज का नयी युवती के साथ रहने का तथ्य समझिए. यह सिर्फ एक दीपक भारद्वाज का मामला नहीं है. यह नये शासक वर्ग, धनाढ्य वर्ग का जीवन दर्शन है.
इस युग का पैसा श्रम से या पसीने की कमाई से तो आ नहीं रहा, यह तो दलाली या बिना श्रम से आयी आवारा पूंजी है. कुछ दिनों पहले ही दिल्ली में एक फार्म हाउस में देश के बड़े शराब व्यवसायी पोंटी चड्ढा का मामला सामने आया था. भाई ने ही भाई को मारा. दोनों भाई मारे गये. धन के लिए. शराब दुकान के पास ठेला पर मछली तल कर (यानी चखना बेच कर) इस परिवार ने जिंदगी शुरू की थी. धन्य हों, कांग्रेस या सपा या बसपा या अकाली दल (यानी लगभग सभी राजनीतिक दल), जिन्होंने खाकपति चड्ढा परिवार को अपने-अपने कंधों पर देश के धनी (कई हजार करोड़ का मालिक) लोगों की कतार में खड़ा कर दिया.
यह कैसी संस्कृति इस मुल्क में बन रही है? अगर इस राजनीति से यही संस्कृति इस देश में बननी है, ऐसा ही समाज बनना है कि भाई, भाई को मारे, पुरुष अपनी पत्नी, बेटे को छोड़ बुढ़ौती में नयी युवती के साथ रहे और धन के लिए बेटा-पत्नी उसकी हत्या करायें, तो इस मुल्क का गरीब रहना ही बेहतर होगा! है, किसी में साहस है यह बात कहने की? दिल्ली में हुए जिस रेप कांड ने पूरे देश को झकझोरा, वैसा ही कांड पुन: दो दिन पहले दिल्ली में हुआ.
उसी तरह गाड़ी में तीन लोगों ने एक लड़की के साथ बलात्कार किया. कानून बनने के बाद भी लगातार ऐसी घटनाएं हो रही हैं. किसी को कहीं भय नहीं. क्या यही देश है? क्या हम इसी मूल्य और संस्कार के तहत देश गढ़ रहे हैं? राजनीति ही अंतत: समाज को गढ़ती और दिशा देती है. यह कौन-सी राजनीति है, जो लोभी, लालची और भ्रष्ट संस्कृति व समाज को जन्म दे रही है. इंसान को राक्षसी प्रवृत्ति से भर रही है?
क्यों भारत की राजनीति में इसे बदलने की बेचैनी या ताकत नहीं है? दरअसल, वैचारिक रूप से भारत की राजनीति दरिद्र हो गयी है. नेताओं के अंदर अगर दिशा देने की क्षमता होती या योग्यता या विजन होता, तो वे देश को इस सड़ांध से निकालने की एक नयी दृष्टि की बात करते. पर यहां तो सारी लड़ाई है, मोदी एंड नो मोदी की!
दिनांक – 14.04.13