बेमतलब जिंदगी!
-हरिवंश- होश संभालने के बाद, बुजुर्गों का अनुभव सुना, जीवन दौड़ है. पर, यह दौड़ किस दिशा में है? क्यों है? मंजिल क्या है? इन सवालों से अनभिज्ञ हम दौड़े जा रहे हैं. टीएस एलिएट ने लिखा था, ‘मेरे प्रारंभ में ही मेरा अंत था. शायद यही सही है.’ हम सबके प्रारंभ में ही हमारा […]
-हरिवंश-
होश संभालने के बाद, बुजुर्गों का अनुभव सुना, जीवन दौड़ है. पर, यह दौड़ किस दिशा में है? क्यों है? मंजिल क्या है? इन सवालों से अनभिज्ञ हम दौड़े जा रहे हैं. टीएस एलिएट ने लिखा था, ‘मेरे प्रारंभ में ही मेरा अंत था. शायद यही सही है.’ हम सबके प्रारंभ में ही हमारा अंत भी है. पर, इस आरंभ और अंत के बीच की यात्रा कैसी है? यह सवाल मन में एक बार फिर शिद्दत से उठा, मुंबई में मिले टैक्सी ड्राइवर कलीम से भेंट के बाद.
हमें एयरपोर्ट से गंतव्य स्थान पर जाना था. प्रीपेड टैक्सी ली, जिसके ड्राइवर और मालिक दोनों कलीम थे. ड्राइवरों की भीड़ में वह खास लगे. इलाहाबाद के पास के रहनेवाले. दो बार मैट्रिक फेल हुए. भाग कर पहुंच गये मुंबई. टैक्सी चलाने. कहा, भाग्य या जीवन से कोई शिकायत नहीं. काबिल नहीं था, तो पढ़ा नहीं. पढ़ा नहीं, तो फेल हुआ. टैक्सी ड्राइवर ही बनना था. कलीम ने कहा, नियति ने टैक्सी ड्राइवर बनाया, पर टैक्सी ड्राइवर के रूप में मरूंगा नहीं. अपने उद्यम से कलीम ने पांच टैक्सियां कर ली हैं. एक ट्रक है.
50-60 हजार महीना कमा लेते हैं. मुंबई में एक घर है. बीमा कराने के काम में भी लगे हैं. जागरूक हैं. नवभारत टाइम्स रेगुलर पढ़ते हैं. पुरानी बात सुनाते हैं कि शरद जोशी का कालम मुझे बेहद प्रिय लगता था. आजकल हिंदी में बढ़िया व्यंग्य नहीं मिलता है, यह उनकी शिकायत या पीड़ा है.
पूछ बैठा, मायानगरी-धननगरी, मुंबई में खुश तो हैं न? कलीम भाई ने बताया कि जीवन में सुखी कब थे? जब कक्षा दो या तीन में पढ़ते थे, मां-बाप का साया था. गांव, घर की तरह था.
इसके बाद उम्र बढ़ी, तो जीवन में ट्यूशन पढ़ानेवाले आये. स्कूल मास्टर आये. उनका तनाव. फिर पढ़ाई-रिजल्ट की चिंता. मां-बाप का मेरे भविष्य के प्रति सरोकार, सब सुख-चैन जाता रहा. तब से आज तक बहुत कुछ देखा. गांव की गरीबी से मुंबई की अमीरी तक. खुद भी आज अच्छे हाल में हूं, पर अब जान गया कि सुख खरीदा-बेचा नहीं जाता. अगर ऐसा होता, तो मुंबई तो सबसे बड़ा बाजार है. यहां सबकुछ बिकता है. सबसे अधिक धन है.
इसे भारत की आर्थिक राजधानी कहा जाता है, तो यहां सुख भी बिकता? पर यहां तबाही है. पैसा है, पर चिंता है. नींद गायब है. हर जगह भागमभाग है. हंसी लापता है. हंसने के लिए क्लब बने हैं. लोग ठहाके के लिए पैसा देते हैं. रेसकोर्स में ज्यादा हंसने की प्रतियोगिता होती है. इनाम मिलता है. मुंबई के लोगों का 25 फीसदी समय ट्रैफिक सिगनल पर गुजरता है. प्रतीक्षा करते!
कलीम को वर्षों पहले छोड़े गांव की बहुत याद आती है. वह कहते हैं कि कोई प्यार भरा हाथ अब सिर पर नहीं है. पैसे की कमी नहीं है. पास पड़ोस की कहानी सुनाते हुए कहते हैं कि करोड़ों के घर में अकेले बूढ़ा-बूढ़ी रहते हैं. नौकर रहता है. कई बार नौकर हत्या कर सब लेकर गायब हो जाता है. कुछ दिनों बाद महंगे फ्लैट से शव की बास (दुर्गंध) आने लगती है. अगर घर में कुत्ते हैं, तो वे शव को नोचते-खाते हैं. पड़ोसी पुलिस को बुलाते हैं. हालांकि मुंबई की पुलिस चौकस है. अधिकतर बूढ़ों के यहां प्राय: पुलिस जाती है. उनके नौकरों की जांच करती है. यह सब बता कर कलीम टिप्पणी भी करते हैं कि यह भी कोई जीवन है? पड़ोसी बताते हैं, तो शव निकलते हैं. बाल-बच्चे या तो विदेश में हैं या कहीं और.
बड़े-बूढ़ों को अब कोई साथ रखना नहीं चाहता. न संयुक्त परिवार की परंपरा है. अब यह भी फैशन चल पड़ा है कि बूढ़ों को अनाथ आश्रम में डाल दो. कलीम भाई कहते हैं, मुझे मेरा गांव बहुत याद आता है. बचपन की टीस उभरती है. गांव में दो ही सबसे बड़े आदर के पात्र होते थे. बच्चे और बूढ़े. अगर गांव में परिवार संयुक्त नहीं भी थे, तो जन्म-मृत्यु या सुख-दुख का कोई अवसर आये, तो आसपास के लोग खड़े रहते थे. अब तो परिंदों जैसी जिंदगी है. बच्चे हुए.
पढ़े. शादी हुई, फिर हंस के जोड़े की तरह उड़ गये. बड़े-बूढ़ों को पीछे छोड़ कर. गांवों में भी पहलेवाली बात नहीं रही. सब अपने में डूब रहे हैं. कलीम फरमाते हैं कि मुंबई में कोई घर से निकलता है, तो पता नहीं आज क्या होगा? जिंदगी निश्चित नहीं है. दुर्घटना अलग है. बम-विस्फोट अलग. हादसे अलग.
कलीम भाई मुंबई के अपने शुरू के दिनों को याद करते हैं. कहते हैं कि शहर के लिए मैं नया था. पहले तल्ले पर रहता था. काफी दिन हो गये थे. अचानक एक दिन सूचना मिली कि सामनेवाले फ्लैट में दस वर्ष की बच्ची की मौत हो गयी. हम एक दूसरे को जानते नहीं थे.
एक ही फ्लोर पर काफी दिनों से रहते हुए भी अपरिचित और अंजान थे. कलीम कहते हैं, उस दिन रात भर मैं नहीं सोया. गांव में अगर मेरे पड़ोस में ऐसी घटना हुई होती, तो हमारा फर्ज क्या होता? हम उस घर में होते. पर यहां तो मौत में भी परिचय नहीं है. वह कहते हैं कि यहां के आलीशान और सबसे महंगे घरों की हकीकत भी हमें मालूम हैं. कहीं खुशी नहीं? कहीं चैन नहीं? पैसा बहुत जरूरी है, पर खुशी और चैन की जिंदगी पैसे से नहीं खरीदी जाती. कहते हैं, यहां मशीन हो गया हूं. मौज नहीं है.
फिर अपनी पीड़ा बताते हैं कि अपनी मिट्टी (इलाहाबाद के पास के गांव) से यहां क्यों आया? अगर वहां कुछ करने का अवसर होता, तो क्यों आता? मुझसे पूछते हैं, कहां से आ रहे हैं?
मैंने कहा, पटना से आ रहा हूं. कलीम ने कहा, बिहार तो बढ़िया हो रहा है. बिहार के मजदूर अब, पुणे, नासिक, मुंबई के लेबर मार्केट में नहीं आ रहे. जो भी बिहार से आते हैं, चाहे वो जिस भी धर्म, जाति या क्षेत्र से हो, बिहार की तारीफ करते हैं. कलीम बिहार के बड़े-बड़े अपराधी नेताओं के नाम गिनाते हैं, जो जेलों में बंद है. उनकी सजगता और जानकारी मुझे हैरत में डालती है. फिर कहते हैं कि पहले बिहार जैसा था, अब उत्तर प्रदेश है.
यहां मायावती शासन में आती हैं, तो मूर्तियां और पार्क बनवाती हैं. अखिलेश यादव जी आये हैं, तो राजा भैया ही सब पर भारी हैं. बेरोजगार लोगों को मुफ्त भत्ता देकर अखिलेश यादव काहिलों की फौज खड़ी कर रहे हैं. कलीम कहते हैं कि बिना परिश्रम पैसा क्यों? पुरुषार्थ, श्रम या काम के बिना घर बैठा कर पैसा देना, यह तो देश-समाज के प्रति द्रोह है. अकर्मण्यों की नयी फौज समाज में बन रही है. इस काम से वोट तो मिल जायेंगे, पर समाज, श्रम, पुरुषार्थ और उद्यम से हीन व दरिद्र बन जायेगा. इस बात का उन्हें अफसोस है कि मुंबई से इंसानियत दूर हो गयी है. पर बिजली-पानी की यहां तकलीफ नहीं है.
कोई भूखा नहीं सोता. रोजगार है, पर घर सपना है. कलीम कहते हैं कि अब मुल्क में फोर्थ क्लास लोग (उनका आशय मजदूर, ड्राइवर, खलासी, कुली, बेराजगारों से हैं) नहीं बचेंगे. क्योंकि महंगाई भयावह है. पढ़ाई बहुत महंगी है. इलाज असंभव हो गया है. कलीम का संकल्प है कि खुद को बदलने की कोशिश करूंगा. लियाकत या योग्यता नहीं थी, तो ड्राइवर बना. पर उद्यम कर रहा हूं और करूंगा. वह अंगरेजी भी सीख रहे हैं.
अनेक विदेशी उनके क्लाइंट हैं. सर्वश्रेष्ठ टैक्सी सेवा देना उनकी भूख है. इंटरनेट के माध्यम से बाहर से मुंबई आनेवाले यात्री उनसे संपर्क में रहते हैं. उनकी बेहतर सेवा-स्वभाव या हुनर के कारण. वह बड़े तहजीब से बात करते हैं. हर यात्री को अपने से जोड़ लेते हैं. कहते हैं, निहायत ईमानदारी, श्रम और अपने बल एक-एक पाई जोड़ कर अपनी तकदीर बदल रहा हूं. वह कुल पांच कूल कैब और एक ट्रक के मालिक हैं. आर्थिक संपन्नता है, पर आंतरिक खुशी नहीं.
क्या महानगरों की संस्कृति का यह अभिशाप है? सिर्फ आदमी जीवन ही नहीं जीता, पल-पल मृत्यु भी जीता है. अकेलेपन का सांस लेता है. कहीं आस्था का कोई स्रोत नहीं. शंकाओं और प्रश्नों से घिरे, जीवन का मकसद नहीं मालूम, बस जीवन जीते हैं. अधिसंख्य लोग महज दौड़ में जीने की प्रक्रिया से गुजर रहे हैं. बाहर लाखों संकट हैं. पर बाहर के हर संकट से बड़ा है, अंदर का संकट. कलीम भाई के यक्ष सवाल, नचिकेता की चिंता की तरह लगते हैं. जिंदगी बेमतलब है, या अर्थपूर्ण. यह और ऐसे अन्य बुनियादी सवालों पर हर काल-परिस्थिति के संदर्भ में विचार जरूरी है. इस आधुनिक यांत्रिक दौर में इस मूल सवाल की चिंता के लिए कोई कोना (जगह) समाज में है?
1991 और 2013
2013 में, 1991 की बातें हो रही हैं. बड़े अर्थशास्त्रियों द्वारा. पूर्व वित्त मंत्री द्वारा. आर्थिक मामलों के जानकारों द्वारा. क्यों 2013 में 1991 की याद आ रही है. 1991 में आजादी के बाद का सबसे गहरा अर्थसंकट आया. अर्थशास्त्री कह रहे हैं कि चालू खाते का घाटा, समग्र आर्थिक उत्पाद के अनुपात में खतरनाक स्थिति में पहुंच गया है. फिलहाल यह 6.7 फीसदी है.
प्रधानमंत्री ने कहा है कि इसको घटा कर तीन फीसदी पर लायेंगे. 1991 में जीडीपी (समग्र घरेलू उत्पाद) का 28.7 फीसदी का कर्ज था. आज (2011-12) में यह 19.7 फीसदी है. फरवरी 2013 में आधारभूत क्षेत्रों में विकास दर 2.5 फीसदी रही. कोयला उत्पादन में चार फीसदी की गिरावट रही. प्राकृतिक गैस उत्पादन में 20 फीसदी का ह्वास हुआ. उर्वरक उत्पादन में 4.1 फीसदी की गिरावट हुई. हाल में ये आंकड़े वाणिज्य मंत्रालय द्वारा जारी किये गये हैं.
ऑटो सेक्टर में भी गिरावट है. बिजली उत्पादन में गिरावट आने से मैनुफेक्चरिंग क्षेत्र को चोट पहुंची है. वहां मंदी है. सर्विस सेक्टर में भी गिरावट है. इधर राजनीतिक अस्थिरता का माहौल अलग है. कुल मिलाकर, लगता है, देश फिर अनिश्चितता के भंवर में है. दरअसल, खराब आर्थिक स्थिति की मूल बीमारी या जड़ राजनीति में है.
गवर्नेस के कोलैप्स (ध्वस्त) हो जाने में हैं. समाज के अराजक बनते जाने और संवैधानिक कानून के भय से भी मुक्त हो जाने में भी है. लगातार नये कानून बन रहे हैं, पर कानून का भय नहीं रहा. राजनीतिक दलों की कुल चिंता महज गद्दी पाने की है. देश कहां जा रहा है, इससे किसी को सरोकार नहीं है. जनता की स्थिति है, कोई नृप (राजा) हो, हमें क्या मतलब?
दिनांक – 07.04.13