देश के हाल!
-हरिवंश- पूरब से पश्चिम तक की चार घटनाओं पर चार टिप्पणियां. ये प्रसंग यह बताने के लिए काफी हैं कि देश किस हाल में है? क्या सत्ता या तात्कालिक स्वार्थ से ऊपर उठ कर कोई देश की एकता या भविष्य के बारे में भी सोचता है? राजकाज का धर्म और पद पर बने रहने का […]
-हरिवंश-
पूरब से पश्चिम तक की चार घटनाओं पर चार टिप्पणियां. ये प्रसंग यह बताने के लिए काफी हैं कि देश किस हाल में है? क्या सत्ता या तात्कालिक स्वार्थ से ऊपर उठ कर कोई देश की एकता या भविष्य के बारे में भी सोचता है? राजकाज का धर्म और पद पर बने रहने का फर्ज भी लोगों को याद है?
वोट के लिए
क्या वोट बैंक बढ़ाने और सत्ता पाने के लिए कुछ भी करना चाहिए? क्या देश की बुनियाद और उसूलों से भी समझौता करना चाहिए? क्या राजनीति में कोई चरित्र, उसूल रह गया है या सत्ता-कुरसी के लिए सब कुछ दावं पर लग गया है? गद्दी के लिए कुछ भी गिरवी रखने को लोग तैयार हैं? बात सिर्फ सलमान रुश्दी की नहीं है. 23 वर्षों पहले राजीव गांधी शासन ने रुश्दी की किताब पर पाबंदी लगायी थी, तब राजीव सरकार बोफोर्स आरोपों से घिरी थी. उसी दौर में उन्होंने शाहबानो प्रकरण से भी कट्टरपंथियों को खुश करने की कोशिश की. वोट के लिए.
फिर दूसरे खेमे के कट्टरपंथियों को खुश करने के लिए राम मंदिर का ताला खुलवाया गया. क्या आधुनिक सभ्यता, संस्कृति, सोच या माडर्न स्टेट (आधुनिक राज्य) करपंथियों के हाथों बंधक होने चाहिए? चाहे वे किसी खेमे के हों. वोट और सत्ता के लिए ऐसे काम होने चाहिए? पहले सलमान रुश्दी की किताब प्रतिबंधित हुई. जयपुर साहित्य सम्मेलन में उन्हें नहीं आने दिया गया. इसके लिए राजस्थान पुलिस इंटेलिजेंस ने गलत रिपोर्ट दी. फिर उनके वीडियो कांफ्रेंस को भी रोका गया. इस देश में प्रतिबंधित किताबों की संख्या बढ़ रही है.
महाराष्ट्र ने जेम्स लेन की शिवाजी पुस्तक पर प्रतिबंध लगा दिया. शिवसेना ने विरोध किया, तो रोहिंटन मिस्त्री को मुंबई विश्वविद्यालय के पाठ्यक्रम से अलग किया गया. 2003 में बंगाल की कम्युनिस्ट सरकार ने तसलीमा नसरीन की पुस्तक को प्रतिबंधित किया. पिछले साल गुजरात सरकार ने जोसफ लेलीविल्ड की गांधी पुस्तक पर पाबंदी लगा दी. आज जर्मनी में यह बहस चल रही है कि क्या हिटलर की पुस्तक मीनकांफ को पुनर्मुद्रित किया जाये (जो इंटरनेट पर आसानी से उपलब्ध है)? क्या प्रतिबंध का यह दौर एक उदार लोकतंत्र में चलना चाहिए? ऐसे लोग समाज के किसी एक तबके में नहीं हैं.
हुसैन के चित्रों को लेकर भी विवाद हुआ. आज समाज में जरूरत है कि अपने-अपने धार्मिक या जातिगत समूहों में सुधार चाहनेवाले खड़े हों. महाराष्ट्र में 80 के दशक में सत्यशोधक मंडल ने हमीद दलवई के नेतृत्व में कट्टरपंथी ताकतों का, विचारों के आधार पर अद्भुत मुकाबला किया. हर धर्म और जाति में ऐसे हमीद दलवई की जरूरत है, जो अपने समाज को सुधारे. साथ ही देश की एकता को मजबूत करे. क्योंकि देश मजबूत नहीं रहेगा, तो कौन सी जाति या धर्म साबुत बचेंगे? हरेक को मानना होगा कि मजहब, जाति नहीं, देश सर्वोपरि है. तभी यह भारत बचेगा?
हम कहां पहुंच गये हैं? दिल्ली के बटाला मुठभेड़ में पुलिस ने आतंकवादियों को मारा. उस मुठभेड़ में पुलिस का एक बहादुर और ईमानदार इंस्पेक्टर शहीद हो गया. उसके घर कोई नहीं गया. उनकी विधवा, अबोध बच्चे को किसी ने सांत्वना नहीं दी. हां, राष्ट्रीय सम्मान जरूर दे दिया.
अब जांच के बाद (यह जांच कांग्रेस के ही एक खेमे की मांग पर हुई) यह साबित हो गया है कि मारे गये लोग बड़े आतंकवादी थे. अनेक बेकसूर लोगों के हत्यारे. विस्फोटों के गुनहगार. प्रधानमंत्री और गृहमंत्री मारे गये लोगों को आतंकवादी कह और मान रहे हैं. पर कांग्रेस के नेता दिग्विजय सिंह, अभी भी उन्हें आतंकवादी नहीं, निर्दोष मान रहे हैं. यूपी चुनाव के कारण. क्या देश ऐसे चलता है? कहीं कुछ उसूल, सिद्धांत, कानून होंगे या नहीं? या वोट, सत्ता के लिए देश बिकेगा?
एकता की कीमत पर
मुंबई ब्लास्ट प्रकरण में महाराष्ट्र एटीएस ने कहां, इन विस्फोटों में बिहार से आये लोगों के भी हाथ हैं. तुरंत राज ठाकरे कूद पड़े. उनका बयान आया, उत्तर प्रदेश और बिहार के लोग मुंबई ब्लास्ट के दोषी हैं. फिर उन्होंने कहा, बीमारियों और वारदातों के लिए भी यही लोग जिम्मेवार हैं. याद रखिए, यह राज ठाकरे कांग्रेस की देन हैं. शिवसेना और बीजेपी को ठिकाने लगाने के लिए कांग्रेस ने उन्हें एक रणनीति के तहत पनपाया और शह दी. उसी तरह जैसे कांग्रेस ने कभी पंजाब में भिंडरावाले को आगे किया था. अकालियों को सबक सिखाने के लिए.
इसके पहले भी कांग्रेस ने कश्मीर में कई सरकारों को अस्थिर करने का काम किया. अपने दल की सत्ता के लिए? क्या सत्ता पाने के लिए देश की एकता से खेलना जरूरी है? याद करिए, बाल ठाकरे या शिवसेना का उदय कैसे हुआ? उन्होंने दक्षिण भारतीयों को निशाना बनाया.
उनके बारे में वहीं सब बातें कही, जो आज राज ठाकरे उत्तर भारतीयों के लिए कह रहे हैं? जो लोग मुंबई को जानते हैं, उन्हें पता होगा कि 70,80 या 90 के दशक में स्थानीय अपराधियों का मुंबई में देशव्यापी आतंक बना. तो क्या इसके लिए मुंबई के स्थानीय लोग दोषी थे? दरअसल आतंकवाद या भ्रष्टाचार कमजोर शासन की देन है. अयोग्य लोगों को कुरसी पर बैठाने के परिणाम हैं. वोट बैंक के लिए गुनहगारों-अपराधियों को संरक्षण देने के परिणाम हैं? जो देश और राज्य की एकता से सत्ता के लिए सौदेबाजी करते हैं, वे क्या देश बचायेंगे?
जिंदा जलना
नक्सल क्रांति कहां पहुंच गयी है? सिद्धांत, आदर्श और प्रेरणा से प्रेरित इस आंदोलन का यह हश्र कि पुलिसकर्मियों को जिंदा जलाते हैं. छोटे अफसरों का गला रेतते हैं? बर्बर तरीके से. हजारों साल पुरानी क्रूरता दिखाते हुए. क्या हम सती और जंगली प्रथा में लौट रहे हैं? किसी भी एक घोर भ्रष्टाचारी या देशद्रोही को नक्सलियों ने सजा दी है? यह सवाल लोग पूछने लगे हैं? क्यों समाज के प्रगतिशील लोग, इस बर्बरता पर मौन साध लेते हैं. वर्गयुद्ध समझ में आता है. पर यह क्रूरता, यह हिंसा, किस क्रांति को जन्म देगी? जो जहां ताकतवर होगा, वहीं दूसरों को मारेगा. क्या इस रास्ते आदर्श राज्य बनेगा?
पर, नक्सलियों से ज्यादा पतन शासन चलानेवालों का हुआ है. जिन पर राजकाज या नागरिक सुरक्षा की जिम्मेवारी है, वे क्या कर रहे हैं? झारखंड एक उपमुख्यमंत्री ने इस घटना के बाद फरमाया है कि नक्सलियों से बातचीत हो. जब-जब नक्सली वारदात होती है, तब-तब नेताओं के ऐसे ही बयान आते हैं. इन नेताओं से पूछा जाना चाहिए कि आप किससे कह रहे हैं? कौन बातचीत करेगा? सत्ता में आप हैं या कोई और? फिर आपको बातचीत करने से किसने रोका है?
बातचीत करने की जिम्मेवारी तो आपकी ही है. क्यों आप ऐसे उल-जलूल बयान देते हैं? किसी ने आपको नक्सल से बातचीत करने से रोका है? न बात करेंगे, न जनता को मरने से बचायेंगे? न नक्सली समस्या का हल ढ़ूंढ़ेंगे, न जनता को सुरक्षा देंगे? खुद सुरक्षा घेरे में रहेंगे. भौतिक सुख भोगेंगे. ऐसे लोग नेता है. यह एक नेता का हाल नहीं है. पक्ष-विपक्ष दोनों तरफ के नेताओं के बयान पढ़ लीजिए, इनका चरित्र साफ हो जायेगा? इसीलिए झारखंड राज्य की हालत ऐसी है.
ऐसी घटनाओं पर झारखंड के शासन चलानेवालों का क्या रिस्पांस है? पुलिस की इन हत्याओं के लिए कोई जिम्मेवारी लेने को तैयार नहीं है? लालबहादुर शास्त्री ने एक मामूली रेल-दुर्घटना होने पर इस्तीफा दे दिया था. नैतिक जिम्मेदारी लेते हुए. अब तक 8-10 वर्षों में लगभग 397 पुलिसवाले, झारखंड के नक्सली वारदातों में मारे गये. गृह विभाग के किसी अधिकारी ने इसकी जिम्मेवारी ली? एक-एक पद पर लोग आठ से दस वर्षों से जमे हुए हैं. पद का सुख और सत्ता तो चाहिए, पर दायित्व नहीं? मुख्यमंत्री सड़कों की स्थिति देख रहे हैं.
कितने ऐसे इंजीनियरों या अन्य संबंधित लोगों को सजा मिली है, जो कई वर्षों से एक ही जगह जमे हैं. पर अपनी जिम्मेवारी का निर्वाह नहीं कर रहे हैं. काम न करने के कारण कितने आइएएस अफसर, इंजीनियर या अन्य अफसर दंडित हुए हैं? हरियाणा या पंजाब जाइए. लोगों को बंसीलाल राज्य की बेईमानी याद नहीं है. पंजाब के पुराने मुख्यमंत्री कैरो के कार्यकाल के भ्रष्टाचार लोगों को याद नहीं है. दोनों मुख्यमंत्रियों ने खुलेआम कहा था कि हमारे यहां अफसर पैसा लेते हैं.
पर पैसा लेने के बाद काम नहीं हुआ, तो वे चैन से मेरे राज्य में जी नहीं सकते. लोग जानते थे कि बंसीलाल और प्रताप सिंह कैरो के राजकाज में भ्रष्टाचार है. पर लोगों ने उनके काम को तरजीह दी. उनके राजकाज में बेईमानी को नहीं. आज झारखंड में भ्रष्टाचार सर्वविदित है. पर रत्ती भर काम भी नहीं दिखता. मुख्यमंत्री अगर तीन-तीन महीने पर घूमने के बजाय साल में एक बार घूमे. पर ऐसे अफसरों को दंडित करे और एकांउटेबल बनाये, तो शायद राज्य का ज्यादा भला होगा.
बगैर उद्यमी
ममता बनर्जी से लोगों को बड़ी उम्मीदें थीं. पर आजकल वह उन्हीं विवादों से घिरी हैं, जो सबसे पहले कम्युनिस्टों के सत्तारूढ़ होने पर बंगाल में उठे. यह प्रसंग मारवाड़ियों-उद्यमियों की भूमिका से जुड़ा है. पिछले दिनों कोलकाता के एक अस्पताल में आग की घटना के बाद, फिर वैसा ही विवाद उभरा है.
ममता बनर्जी समेत सारे शासक सच जानते हैं. पर बोलते नहीं. उद्यमी न हों, तो दुनिया आगे नहीं बढ़ पाती. आज भी बनिया की दुकान से लेकर उद्यमियों के बड़े-बड़े प्रतिष्ठानों में काम करनेवालों को जोड़ कर देखें, तो सबसे बड़े नियोक्ता (इंप्लायर) तो उद्यमी ही मिलेंगे. संगठित क्षेत्र में लगभग 11.25 करोड़ लोग कार्यरत हैं. मैनुफेरिंग व सेवा क्षेत्र में जोड़कर, भारत में लगभग 1.55 लाख कारखाने रजिस्टर्ड हैं. कारखानों में लगभग 3.35 करोड़ लोग काम करते हैं. आइटी-बीपीओ क्षेत्र में (2010-11 के अंत तक) 25 लाख लोग कार्यरत हैं.
इतिहास पलट लीजिए. उद्यमी नहीं होते, तो दुनिया एकसूत्र में आसानी से नहीं बंधती. व्यवसाय या बाजार का जन्म नहीं होता. आधुनिक सभ्यता की चौहद्दी तक हम आसानी से नहीं पहुंचते. उद्यमी ही समाज या देश की तकदीर पलटते हैं. देश पहले औद्योगिकीकरण में बंगाल देश का रहनुमा था. उन्हीं दिनों यह मान्यता थी कि बंगाल पहले सोचता है, देश बाद में. क्या उद्यमियों के बगैर ममता बनर्जी, बंगाल को यह गौरव दिला सकेंगी? मुंबई या गुजरात या दक्षिण की तरह. क्या कोलकाता समेत पिछड़े पूरब के राज्यों का विकास बिना उद्यमियों के संभव है?
अंत में
चीन पर पिछले सप्ताह यह स्तंभ आपने पढ़ा. 28 जनवरी को खबर सार्वजनिक हुई कि चीन-भारत सीमा विवाद वार्ता अटक गयी. चीन ने अरुणाचल पर दावा कर दिया है. देश के कुछ राज्यों में चुनाव भी हो रहे हैं. क्या आपने कहीं यह मुद्दा भी सुना? अपनी धरती और देश की एकता के बारे में हम कितने सजग हैं? खुद से पूछिए?
दिनांक : 29.01.2012