सीखने के स्रोत!

-हरिवंश- जीवन, पल-पल, आशा-निराशा का खेल है. किसी क्षण अनुकूल हालात, दूसरे क्षण प्रतिकूल. इसीलिए डॉ लोहिया ने कहा, निराश रहना और काम करना ही जीवन है. पर, जीवन शुष्क दर्शन नहीं है. इसमें भावना है. स्पंदन है. अनुभूति है. संवेदना है. सुख के पल हैं, तो दुख के लंबे थपेड़े हैं. इन हालात में […]

By Prabhat Khabar Digital Desk | June 24, 2015 10:50 AM

-हरिवंश-

जीवन, पल-पल, आशा-निराशा का खेल है. किसी क्षण अनुकूल हालात, दूसरे क्षण प्रतिकूल. इसीलिए डॉ लोहिया ने कहा, निराश रहना और काम करना ही जीवन है. पर, जीवन शुष्क दर्शन नहीं है. इसमें भावना है. स्पंदन है. अनुभूति है. संवेदना है. सुख के पल हैं, तो दुख के लंबे थपेड़े हैं. इन हालात में इंसान कैसे आसपास से सीखे? क्या सीखे?

नेताओं से !

स्वभावत: किसी की बात पर यकीन होता है. यह जन्मजात है. संस्कार-रक्त में है. हालांकि इस आदत के कारण अनगिनत बार धोखा, छल और प्रपंच का शिकार होना पड़ा. फिर भी मन है कि मानता नहीं, सहज विश्वास रक्त में है.

इससे पत्रकारिता पेशे में परेशानी हुई. खासकर चुनावों में. हर प्रत्याशी का दावा होता था कि वह भारी मतों से जीत रहा है. जीतनेवाले प्रतिस्पर्द्धी के बारे में कहता, उनकी जमानत जब्त हो रही है. एक सीट पर 20 प्रत्याशी थे, बीसों का दावा कि मैं जीत रहा हूं. खूंटा गाड़ कर गणित बता कर, जीत का दावा.

अब सामान्य, सहज और सरल इंसान कन्फ्यूज्ड (दिग्भ्रमित) कि सीट एक या 20 है? वैसे प्रत्याशी भी चुनाव में जीत का दावा करते हैं, जिनके बारे में उनके खास प्रचारक कहते हैं कि खुद इनका वोट फरजी तरीके से गिरेगा. यानी ये प्रत्याशी खुद को वोट नहीं दे पायेंगे. ऐसे लोग वोटकटवा प्रत्याशी भी नहीं माने जाते. ऐसे लोग अपने विरोधियों की जमानत जब्त कराने का दावा करते हैं.

अंत-अंत तक. हारने पर उतनी ही सहजता से अंतिम क्षणों में पलटे समीकरण का हिसाब बता देते हैं कि कैसे जीतते-जीतते अंतिम क्षणों में हार गया? अब जो इंसान सहजता से सबकी बातों पर यकीन कर लेता है, वह ऐसी स्थिति में चुनाव रिपोर्टिंग कैसे करेगा? यह उलझन 1980 में पहली बार हुई. तब नेताओं की जमात से पहली सीख मिली, घोर आस्थावादी होना. ‘राइटिंग ऑन द वॉल’ (दीवार पर लिखी इबारत) नकारना. यानी हकीकत, यथार्थ, नग्न सच या 2+2 = 4 को न मानना.

सच को नकारना. कोई कहे कि सूरज, पूरब से उगता है, तो बताये आज पश्चिम से निकला था. फिर तर्कों की बौछार से सामनेवाले सहज, सरल आदमी को चुप करा देना या उसके दिमाग में भ्रम-संशय उत्पन्न कर देना. धुर विरोधियों के बीच जाकर भी खम ठोंक कर झूठी बात को भी दम के साथ कहना. सम्मान मिले, न मिले, उपेक्षा हो, पर अपनी बात बता देना. अब अपनी तरह कोई अति संवेदनशील हो, तो वह इस संसार में कहां टिकेगा?

विषम परिस्थितियों को संभालना, झेलना, नेताओं का दूसरा खास चरित्र है. करारी पराजय, पस्ती या हार के बाद भी तर्क ढूंढ़ लेना. बचाव के तर्क ऐसे, जो सच के सांचे पर कहीं टिके नहीं. पर बार-बार गोबल्स (जर्मनी का नेता, हिटलर का साथी, जिसकी मान्यता थी, एक झूठ 100 बार दोहराने से सच बन जाता है.) की तरह झूठ बोलना. अपनी ही बातों -तर्कों से पलट जाना. आत्मविश्वास के साथ. अहम के साथ. दूसरों के प्रति तिरस्कार के साथ.

विषम परिस्थितियों में भी नेताओं का जबरदस्त ह्यूमर सेंस (विनोद) भी सीखने योग्य है. पराजय में भी जीवंतता. पांच राज्यों में हुए चुनाव परिणामों के बारे में टीवी के लोगों ने लालू प्रसाद से पूछा. उन्होंने अद्भुत टिप्पणी की, कहा- पहले रामविलास जी से बात कर लेने दीजिए. उन्होंने इन चुनावों में 400 से अधिक प्रत्याशी खड़े किये थे, उनका क्या हुआ? पता हो जाने दीजिए, तो बताऊंगा. उल्लेखनीय है कि इन चुनावों में खड़े रामविलास जी की पार्टी के किसी प्रत्याशी की शायद ही जमानत बची हो. इतना बेहतर होली व्यंग्य, शायद ही कोई दूसरा हो.

नेताओं के बीच सह अस्तित्व का प्रसंग भी ऐसा ही है. सार्वजनिक जीवन में घोर शत्रुता. एक-दूसरे के खिलाफ एक से बढ़ कर एक कटुक्ति, व्यंग्य, विष वचन, आरोप, नफरत की बातें. पर मिलने पर एक साथ, एक भाव में. सब भुला कर गले मिलते. मन मिले या न मिले. पर एक साथ हंस-हंस कर मिलते-बतियाते. यह विशेषता भी सीखने योग्य है.

कवियों से !

राजनेताओं की तरह कवि भी सीखने योग्य पात्र हैं. सभी कवि एक तरह नहीं होते. कुछ तो अत्यंत गंभीर, सीमित और खामोश. पर विद्यार्थी दिनों में ही पाया, कविता लिखने वाले-बांचने वाले भिन्न होते हैं. सामान्य लोगों से. हास्टल में रहना हुआ, साथ में उभरते युवा कवि लोग रहते थे. उनके सामने से गुजरे कि पुकार लेंगे. पकड़ लेंगे. फिर चाय के साथ कविताएं सुनायेंगे. नव रचित. लाख चिरौरी, मिन्नत या विनती करें, छोड़िए बाद में सुन लेंगे. सेंट्रल ऑफिस जाना है, फी जमा करनी है. अंतिम तारीख है. समय चूक रहा है. या जरूरी क्लास है.

पर कवियों का आग्रह, मनुहार और तर्क कि यह समय, मूड, यह भाव, यह कविता, फिर भविष्य में कहां मिलेंगे? फीस बाद में जमा होगी. कक्षा में क्या हुआ, किसी दूसरे पूछ-पता कर लेंगे, पर सरस्वती की यह वंदना, नयी कविता, नये विचार, नयी संवेदना कहां पायेंगे? इस नयी रचना को (जो होती पुरानी थी) पहली बार आप सुन रहे हैं. सृष्टि में पहली बार जन्मी इस कविता के पहले श्रोता आप हैं. फिर कवि सम्मेलनों को सुनने-देखने का अनुभव रहा. सभी कवि एक तरह श्रोताओं को नहीं बांधते. सबकी प्रतिभाएं या कविताएं एक समान नहीं होंती. हर जगह ऊंच-नीच है. कोई कवि या कविता कमजोर हुई, या नहीं जमी, तो श्रोता हूट करते हैं. या उदासीन हो जाते हैं. या वाहवाही नहीं करते, फिर भी कवि महोदय डटे रहते हैं.

रत्ती भर भी हतोत्साहित नहीं. बार-बार सुनाते जाते हैं. भीड़ प्रतिकूल, पर कवि महोदय बेअसर. यह आस्था-साहस असाधारण है. श्रोता नहीं सुनना चाहेंगे, पर कवि महोदय सुना कर ही मानेंगे. कोई अति संवेदनशील हो, तो श्रोताओं के मामूली संकेत पाते ही सरक जायें या खिसक जायें, पर हूट होने वाले कवि भी किस तरह भारी भीड़ या श्रोता समुदाय को अकेले झेलते हैं, यह सीखने योग्य है.

बदलते मतदाता-दल

पांच राज्यों में हुए चुनावों के कुछ खास संदेश. गोवा में एक पढ़े-लिखे टेक्नोक्रेट भाजपा नेता ने कमाल किया. अपनी पार्टी से सात क्रिश्चियन समुदाय के लोगों को टिकट दिया. सभी चुनाव जीते हैं. दक्षिण गोवा के 17 विधानसभा क्षेत्रों में से आठ सीटें भाजपा ने जीती, जहां क्रिश्चियन लोगों की संख्या निर्णायक है. स्थानीय एमजीपी पार्टी से भाजपा ने चुनावी समझौता किया था.

अकाली दल जो पंथ की बात करता रहा है. इस बार 11 हिंदुओं को टिकट दिया. 10 फीसदी प्रत्याशी. इनमें से सात जीते. उत्तर प्रदेश में अगर यादव-मुसलमान समीकरण सौ फीसदी सटीक बैठता, तो मुलायम सिंह को अधिकतम 150 सीटें ही मिलतीं. समाजवादी पार्टी, जब शीर्ष पर थी, तो उसे 143 सीटें मिली थीं. इस चुनाव से पहले.

अलग-अलग राज्यों के इन संकेतों को समझने की जरूरत है. धर्म, जाति के पुराने सांचे से राजनीति निकल रही है. चुनाव विश्लेषक योगेंद्र जी भी मान रहे हैं कि उत्तर प्रदेश में एक मुखर मध्यवर्ग (जो अब हर राज्य में उभर रहा है) निर्णायक बना, जिसके लिए विकास मुद्दा है.

सुरक्षा मुद्दा है. जाति-धर्म नहीं. इसी मध्य वर्ग ने समाजवादी पार्टी को 224 तक पहुंचा दिया. नेताओं को भी इस उभरे मध्यवर्ग (1991 के उदारीकरण के बाद) को समझने की जरूरत है. आनेवाले वर्षों में यह मध्यवर्ग और निर्णायक होगा.

दिनांक : 11.03.2012

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