जनता चेते !

-हरिवंश- रेल बजट के बाद ममता बनर्जी ने जो कदम उठाये, वैसे कदम देश के लिए घातक हैं. संघीय ढांचा को कमजोर करनेवाला है. यह बताना मकसद नहीं है कि केंद्र सरकार पाक साफ है या ममताजी निर्दोष और निश्छल हैं. पर यह तो तय होना ही चाहिए कि भारत सरकार का रेल मंत्रालय, राइटर्स […]

By Prabhat Khabar Digital Desk | June 24, 2015 11:07 AM
-हरिवंश-
रेल बजट के बाद ममता बनर्जी ने जो कदम उठाये, वैसे कदम देश के लिए घातक हैं. संघीय ढांचा को कमजोर करनेवाला है. यह बताना मकसद नहीं है कि केंद्र सरकार पाक साफ है या ममताजी निर्दोष और निश्छल हैं.
पर यह तो तय होना ही चाहिए कि भारत सरकार का रेल मंत्रालय, राइटर्स बिल्डिंग (पश्चिम बंगाल सरकार का सचिवालय, जहां ममता बनर्जी बैठती हैं) से चलेगा या दिल्ली से? केंद्रीय मंत्रालय प्रधानमंत्री के मातहत है या किसी मुख्यमंत्री के अधीन ? क्या रेल मंत्री दिनेश त्रिवेदी ममता बनर्जी से पूछ कर केंद्रीय रेल बजट बनायेंगे? भाड़ा बढ़ायेंगे या केंद्र सरकार के अनुरूप कदम उठायेंगे? आनेवाले दिन साझा सरकारों के दिखते हैं. हर जगह छत्रप उभर रहे हैं. राष्ट्रीय दल कांग्रेस की अधोगति है. भाजपा राष्ट्रीय बनने के पहले ही ढलान पर है. दरअसल, राष्ट्रीय नेता तो बचे नहीं, अब छत्रपों का दौर है.
जिन्हें छत्रप चुनेंगे, वही देश पर राज करेगा. या अगला प्रधानमंत्री होगा. केंद्र सरकार के रेल मंत्री के खिलाफ कोलकाता में तृणमूल कांग्रेस विधायक दल में निंदा प्रस्ताव पारित होता है. ममताजी के दूसरे सहयोगी रेल बजट पर तुरंत आपत्ति करते हैं. संसद में और संसद के बाहर. इस देश में क्या सरकार में शामिल और सरकार के खिलाफ विपक्ष में बैठे लोगों के बीच कोई लक्ष्मण रेखा रह गयी है? सत्ता में भी हम ही, विपक्ष में भी हम ही.
इतिहास में छत्रपों का उभार अंधेरा लेकर आया है. भारत में जो चक्रवर्ती सम्राट हुए, वे दिन ही भारत के गौरव के, एकता के और मजबूती के रहे हैं. छत्रपों का युग अंधकारमय. इतिहास यही बताता है. हालांकि आज यह संभव है कि अच्छे और समझदार छत्रप आएं, तो देश आगे बढ़े. जनता सुखी हो.
लगभग डेढ़ हजार वर्षों बाद सरदार पटेल ने हमें एक आकार दिया. भारत को एक सूत्र में बांधा. अंगरेज लगातार कहते रहे कि भारत कोई राष्ट्र या देश तो है नहीं. जैसे ही हम गये, देश में लड़ाकू छत्रप छा जायेंगे. और भारत बिखर जायेगा. चर्चिल ने भविष्यवाणी की थी, आजादी की पीढ़ी को गुजर जाने दीजिए. फिर जैसे लोग इस देश पर राज करेंगे, उनके चरित्र, कामकाज और अहंकार इस मुल्क को ले डूबेंगे.
आजादी के बाद से ही इतिहास की इस आशंका से हम डरते आये हैं. शायद इसी भय से मुक्ति के लिए हमने समय-समय पर मजबूत केंद्र सरकारों को गढ़ा. खोजा. पर छत्रपों के उभार के भय से हमें मुक्ति नहीं मिली. छत्रपों का यह अहंकार (ममता बनर्जी जैसा क्षणे तुष्टा, क्षणे रूष्टा नहीं) अगर भारतीय राष्ट्र-राज्य या संघ को मजबूत करने की दिशा में हो, तो देश में लोकतंत्र की जड़ें गहरायेंगी और राष्ट्रीय एकता पुख्ता होगी. यदि ऐसा नहीं हुआ, तो बिखराव का भय है.
आज भारत जहां खड़ा है, उसे क्या चाहिए? तेज आर्थिक प्रगति. हमारी अर्थव्यवस्था की कमजोरी है कि हम तेज आर्थिक विकास पा ही नहीं सकते. तीस वर्षों से लगातार दस फीसदी से अधिक वार्षिक आर्थिक प्रगति के कारण चीन ने नया विश्व इतिहास रच दिया. हमारे देश में सामर्थ्य है. विकास के उपकरण हैं.
पर यह संभावना या हकीकत नहीं है. पौरूष और कर्म में हम ठहर गये हैं. हालात यह है कि जब कर्मचारियों को वेतन देने के लिए कई राज्य सरकारों को लाले पड़ते हैं, तो विकास कार्यों के लिए धन कहां से आयेगा? हमारे देश की राजनीति में विकास करने की कुब्बत भी दिखाई नहीं देती. क्योंकि राजेंद्र माथुर के शब्दों में कहें, तो हमारी नारेबाज राजनीति ने जनता को निर्माण का अनुशासन दिया ही नहीं है.
निर्माण का अनुशासन ममता बनर्जी जैसे नेता, लोक अराजकता में बदल डालते हैं. ममता बनर्जी वह मुख्यमंत्री हैं, जो अपराधी को छुड़ाने थाने पहुंच जाती हैं. पैदल. अपने राज्य (बंगाल) में बलात्कार होता है, तो मीडिया पर बरसती हैं. वह तेजी से अलोकप्रिय हो रही हैं.
उनमें राज्य चलाने की क्षमता नहीं है. ऐसे ही मुद्दों को उठा कर उन्हें लगता है कि वह कामयाब हो जायेंगी. पर आज रेलवे की क्या हालत है? रेलवे की ही क्‍यों, एयरलाइंस की हालत देख लीजिए? सरकारी इंडियन एयरलाइंस से लेकर निजी क्षेत्र के जेट और किंगफिशर किस हाल में हैं? भारत की महारत्न तेल कंपनियां कैसे दो लाख करोड़ के घाटे पर चल रही हैं? पूरी भारतीय अर्थव्यवस्था चुनौतियों से घिरी है. जो राजनीतिक पृष्ठभूमि तैयार हो रही है, वह भारतीय अर्थनीति की जड़ें खोद देगी.
याद रखिए, 1972 से हालात बिगड़ने शुरू हुए. तब गांधीवादी अर्थशास्त्री प्रो जयदेव सेठी ने अत्यंत महत्वपूर्ण किताब, दूरदृष्टि से संपन्न, इंडिया इन क्राइसिस, लिखी. 1972 के आसपास. उसे आज भी पढ़ लीजिए. साफ हो जायेगा कि राजनीति कैसे भारत को कंगाल बनाने के कगार पर धकेल रही थी?
1991 में देश कंगाल बनने की स्थिति में पहुंच गया. पर न राजीव गांधी ने और न विश्वनाथ प्रताप सिंह ने संभालने का साहस किया. अंतत: चंद्रशेखर सरकार को साहस कर, सोना गिरवी रख कर देश की साख या लाज बचानी पड़ी. पाप किन्हीं और प्रधानमंत्रियों और सरकारों का था. इस अर्थसंकट की पृष्ठभूमि तो पहले से तैयार हो गयी थी.
पर राजनीतिक कारणों से कोई प्रधानमंत्री साहस नहीं कर रहा था कि वह सख्त और कठोर कदम उठाये. सोना भी गिरवी रखे, पर देश का लोकलाज बचाये. क्योंकि गद्दी के लिए भूखी राजनीति, कठोर कदम नहीं उठाने देती. यही रेलवे के साथ पिछले कुछेक वर्षों में हुआ है. नौ साल बाद भाड़ा बढ़ रहा है. अर्थशास्त्र का वह सिद्धांत बता दीजिए, जिसके तहत कोई राष्ट्र या राजनेता मुफ्त में सारी सुविधाएं, सभी नागरिकों को उपलब्ध करा दे.
सब चीजें मुफ्त मिले, यह आदर्श स्थिति है. पर दुनिया के संपन्न, विकसित और कल्याणकारी राज्य आज किस हाल में हैं? खुद भारतीय रेल की क्या स्थिति है? अंगरेज कितनी रेल लाइनें बिछा गये, उसके बाद हमने कितना जोड़ा? शायद 20-25 फीसदी. भारत जब आजाद हुआ, तब चीन ने भी अपनी नयी यात्रा शुरू की. तब चीन के पास शायद 9000 किलोमीटर रेल लाइनें थी. आज लगभग एक लाख किलोमीटर के आसपास वह पहुंच गयी है.
भारत से लगभग दोगुनी. उसने रेलवे के क्षेत्र में भी असंभव को संभव बनाया. तिब्बत तक रेल पहुंचा कर. शंघाई से बीजिंग के बीच सबसे तेज रेल चला कर. लगभग 2000 किलोमीटर की दूरी 4-5 घंटे में पाट कर. इसके अतिरिक्त कई रूटों पर फास्टेस्ट बुलेट ट्रेन चला कर. हमारी रेलें किस दुर्दिन में हैं?
रेलवे के क्षेत्र में पहले फ्रांस, ब्रिटेन, जापान वगैरह दुनिया के रहनुमा मुल्क थे. अगुआ. अब चीन इनसे भी आगे निकल गया है. भारतीय रेल की क्या स्थिति है? पिछले दिनों हुई रेल दुर्घटनाओं को देख लीजिए. इसी देश में एक रेल मंत्री थे, जो मामूली रेल दुर्घटना के बाद, नैतिक जिम्मेदारी लेते हुए अपना पद छोड़ दिया.
पिछले छह-सात वर्षों का रिकार्ड देख लीजिए. कितनी दुर्घटनाएं बढ़ी हैं? है कोई एकांउटेबुल? समय से ट्रेनें नहीं चलतीं, इसका दोषी कौन है? ट्रेनों में गंदगियों के अंबार हैं. नागरिक सुविधाएं लगातार बदतर स्थिति में जा रही है. प्लेटफार्म गंदे रहते हैं. रेलवे जैसे बिना माई-बाप की संस्था बन गयी है. सुरक्षा की स्थिति साफ है. कभी भी, किसी भी डिब्बे में आग लग सकती है. फिर भी कुछ नहीं होता. पर रेलवे का स्टेब्लिशमेंट कास्ट (वेतन, रखरखाव पर खर्च) लगातार बढ़ रहा है.
क्या वेतन और उत्पादकता के बीच भी कोई अनुपात है? अगर रेलवे के अंदर की फिजूलखर्ची, कठोर कदम उठा कर कम नहीं करेंगे या यात्री व माल भाड़ा नहीं बढ़ायेंगे, तो प्रसार, फैलाव या आधुनिकीकरण के लिए पैसे कहां से लायेंगे? क्या नेता का काम महज प्रश्न उठाना है या अपनी कुरसी बचानी है और सत्ता भोगना है? या अपने दौर के जलते सवालों के उत्तर भी ढ़ूढ़ने हैं?
तेल कंपनियों के क्या हाल हैं? भारत सरकार की तेल कंपनियां दो लाख करोड घाटे पर हैं. इसका मुख्य कारण यहां तेल कंपनियों का स्टेब्लिशमेंट कास्ट (वेतन, रखरखाव पर खर्च) बहुत अधिक होना है. किसी-किसी महारत्न कंपनी में, चपरासी भी साठ हजार वेतन पाता है.
जब अनुत्पादक खर्चे बेशुमार बढ़े, ऊपर से अंतरराष्ट्रीय बाजार में भी तेल के भाव बढ़ें, तो आपके पास तेल की कीमतों को बढ़ाने के अलावा रास्ता क्या है? बांग्लादेश, पाकिस्तान में भारत से 20-25 रुपये कम प्रति लीटर तेल मिलता है. क्यों? क्योंकि वहां की तेल कंपनियों का स्टेब्लिशमेंट कास्ट (वेतन, रखरखाव पर खर्च) भारत जैसा नहीं है.
पर यह सवाल भारतीय अर्थनीति से जुड़ा हुआ है. आप छठा वेतन आयोग देंगे, बिना उत्पादकता को देखें. नेताओं के रहन-सहन, ठाठ और सुरक्षा पर बेशुमार खर्चे बढ़ायेंगे, नौकरशाहों की तनख्वाहें और सुविधाएं बेहिसाब बढ़ायेंगे, तो फिर कर्ज लेकर ही विकास होगा. या बजट में वित्तीय घाटा अनियंत्रित होगा. आज अमेरिका जैसे समृद्ध देश की क्या हालत है? इसी रास्ते चल कर.
कहावत है, एक तो कोढ़, ऊपर से खाज. एक तो भारत में बेहिसाब फिजूलखर्ची, ऊपर से अकल्पित भ्रष्टाचार. देश का धन विदेशी बैंकों में. नेताओं की लूट अलग. मायावती की संपत्ति की खबर अब आ रही है, उनकी हैसियत आठ साल पहले 11 करोड़ की थी, अब 2012 में वह 111 करोड़ की हैसियतवाली हैं.
जयललिता के खिलाफ भ्रष्टाचार के मामले पहले से ही चल रहे हैं. न भ्रष्टाचार रुक रहा है, न फिजूलखर्ची. फिर देश तो कंगाल होना ही है. एक रास्ता है, इन अनुत्पादक खर्चों को कम कर गांधीवाद के सात्विक शासकों के चरित्र की ओर लौटें. यह काम कोई देशभक्त, गद्दी कुरबान करनेवाला राजनेता ही कर सकता है.
हर नेता (प्रधानमंत्री, मंत्री, मुख्यमंत्री, सांसद व विधायक वगैरह) छोटे घर में रहे. एक मामूली गाड़ी में घूमे. सुरक्षा में एक अदद सिपाही साथ रहे. हर तरह का इन्हें मिलनेवाला लाभ बंद हो. पेंशन, मुफ्त यात्रा, स्वतंत्रता सेनानी जैसे पेंशन फंड वगैरह सभी फायदे, जो बिना किये जीवनभर मिलते हैं, तत्काल खत्म हों.
भ्रष्टाचार करनेवालों की संपत्ति जब्त हो और उन्हें फांसी की सजा हो. एक रास्ता यह है, अपनी आर्थिक स्थिति सुधारने की, या फिर रेल भाड़ा ब़ढ़ाइए. तेल की कीमत बढ़ाइए. खाने की चीजों की कीमत बढ़ाइए. क्या इस देश की राजनीति के पास इतना साहस है कि वह मिल कर अर्थव्यवस्था की फिजूलखर्ची को कम करे और देश में वेतन अनुपात को उत्पादकता से जोड़े. सरकारी और गैर-सरकारी क्षेत्रों में सबसे नीचे और सबसे टॉप के बीच, हजार-दस हजार वेतन अनुपात जैसा कोई फार्मूला ढ़ूंढ़े.
यह काम कोई स्टेट्समैन कर सकता है? जिसका देश के प्रति प्रेम है, गद्दी के प्रति नहीं. दुर्भाग्य यह है कि सत्ता में या विपक्ष में आज कोई स्वर नहीं है, जो खरी-खरी बातें कहे. ममता बनर्जी जैसे छत्रप, ऐसे मौलिक सवाल उठा कर अगर भारतीय अर्थव्यवस्था को ठीक करने की मांग करते, तो देश को एक रास्ता मिलता. मिसाल बनता.
हां, ये कठोर कदम, गद्दी-राजनीति के दांवपेंच से नहीं उठेंगे. दांवपेंच या तिकड़मवाले, तो गद्दी चाहते हैं. कुरसी चाहते हैं. कुछ चुनाव समीक्षकों को कयास है कि ममताजी तेजी से अलोकप्रिय हो रही हैं. इसलिए वह चाहती हैं कि लोकसभा चुनाव पहले हो जाये. कांग्रेस, बीजेपी के लिए यह अनुकूल अवसर नहीं है. इसलिए वे मन मार कर बैठी रहेंगी. मुलायम सिंह के लिए सबसे अच्छा अवसर है.
इसलिए वह जल्द से जल्द चुनाव चाहेंगे, ताकि लोकसभा में उनकी ताकत बढ़े. कहीं देश और देशहित है ही नहीं.
आज चीन, भारत के लिए चुनौती बन गया है. उसका रक्षा बजट भारत से लगभग तीन गुना अधिक हो गया है. सेना पर उसका खर्च 100 बिलियन डॉलर (लगभग 5 लाख करोड़ रुपये) हो गया है. 2010 में भारत का रक्षा बजट 3,0862 करोड़ था, तो चीन का 7,6361 करोड़.
उसके पास 22,85,000 सैनिक हैं, तो भारत के पास 13,25,000. पारा मिलिट्री चीन के पास 6,60,000 हैं, तो भारत के पास 3,01,000. युद्ध टैंक चीन के पास 2800 हैं, तो भारत के पास 568. चीन के पास 60 पनडुब्बी हैं, तो भारत के पास 15. फोर्थ जेनरेशन ट्रेक्टीकल एयरक्राफ्ट (अधुनातन लड़ाकू विमान) चीन के पास 747 हैं, तो भारत के पास 280. जमीन पर मार करनेवाने 1669 हवाई जहाज चीन के पास हैं, तो भारत के पास 784. चीन के पास इंटर कांटिनेंटल बैलीस्टिक मिसाइल लांचर 66 हैं, तो भारत के पास शून्य. हवाई हमले की सूचना देनेवाले अधुनातन 14 विमान चीन के पास हैं, तो भारत के पास दो. अधुनातन लड़ाकू गाड़ियां चीन के पास 2390 हैं, तो भारत के पास 1105.
छोटे लड़ाकू जलपोत चीन के पास 65 हैं, तो भारत के पास 11. भारत में कई सेनाध्यक्ष कह गये हैं कि सरकारी फाइलों में उलझ कर भारतीय सेना का आधुनिकीकरण ठहर गया है. इंटरनेशनल इंस्टीट्यूट फार स्ट्रेटजीक स्टडीज (दुनिया की प्रख्यात संस्था) भी भारत के बारे में यही राय रखती है. ब्रिटेन स्थित यह संस्था कहती है कि भारतीय सेना को समय से पूरा पैसा नहीं मिलता. भ्रष्टाचार के कारण. नौकरशाही में विलंब के कारण और सरकारी कार्यसंस्कृति में अक्षमता के कारण.
यही हाल भारतीय रेल में है. एक-एक प्रोजेक्ट 5-10 वर्ष विलंब से चल रहे हैं. कहीं पैसा नहीं है. कहीं सरकारी कार्यसंस्कृति के कारण विलंब है. कोई देश के लिए जहमत नहीं उठाता.
हाल ही में चीन की कम्युनिस्ट पार्टी के मुखपत्र ने भारत की स्थिति पर टिप्पणी की थी कि यहां के लोकतंत्र का कामकाज या कार्यसंस्कृति ही सबसे बड़ी चुनौती है.
यहां अनेक दलों का होना, दिल्ली के लिए सबसे बड़ा सिरदर्द है. कितनी सटीक टिप्पणी है, चीन की कम्युनिस्ट पार्टी की. दिल्ली में मलयेशिया के पूर्व प्रधानमंत्री ने हाल ही में कहा था, भारत में समस्याओं की जड़ है, लोकतंत्र की अधिकता (टू मच डेमोक्रेसी). ममता बनर्जी जैसे लोगों की राजनीति इसका प्रमाण है.
पर, इसके लिए दोषी सिर्फ ऐसे क्षेत्रीय दल हीं नहीं हैं. आज कांग्रेस के पास कौन ऐसा नेता है, जो उठ कर खड़ा हो और देश से अपील करे कि क्षेत्रीय दलों की ऐसी राजनीति से देश मुसीबत में है. देश चलाने के लिए हम स्पष्ट बहुमत और शासन चाहते हैं. फिर चुनावों में चले. अंतत: कोई न कोई सीमा तो होनी ही चाहिए. ऐसे क्रिटिकल अवसरों पर सोनिया जी या राहुल गांधी की चुप्पी या मौनव्रत खटकता है.
अगर जनता भी नहीं चेती, तो देश खतरे में होगा. बहुत पहले सुनीति कुमार चटर्जी (जानेमाने भाषाविद और पूर्व विधानसभा अध्यक्ष, बंगाल) आगाह कर गये थे कि हम सावधान या सजग नहीं रहे, तो भारत कई उपराष्ट्रीयतावाले खंडों में खंड-खंड बंट जायेगा और वहां निरंकुश शासक होंगे. महान द्रष्टा और राजनेता सी राजगोपालाचारी ने कहा था, भारत के संदर्भ में. भविष्य तो भगवान के हाथ में है. पर जहां तक मैं समझ पाता हूं, अंतत: केंद्रीय ताकतें उभरेंगी… पर देश राजनीतिक अराजकता से गुजरने के लिए अभिशप्त है.
शायद यही प्रकृति का अव्यवस्था और कुशासन (डिसऑर्डर एंड मिसरुल) से निबटने का रास्ता है. ये दोनों बातें 1957 में कही गयी थीं. तब भारत के खंड-खंड होने की चर्चा दुनिया में थी. मशहूर पत्रकार सेलिंग एस हेरियन ने किताब भी लिख डाली. इंडिया, द मोस्ट डेंजरस डिकेड्स (ऑक्सफार्ड यूनिवर्सिटी प्रेस).
ममता बनर्जी जैसों की राजनीति भारत को फिर एक खतरनाक दौर में ढकेल रही है. आनेवाले दशक (अगर कोई चमत्कार न हुआ तो) इन्हीं खतरों से भरा होगा और भारत का भविष्य भी गढ़ेगा. नेता अगर आगाह या चौकस नहीं हैं, तो कम से कम सरदार पटेल की स्मृति में जनता को जगना होगा. चौकस रहना होगा.
दिनांक : 15.03.2012

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