बीमार होता समाज!
-हरिवंश- इन दिनों देश की राजनीति में धोतीखोल स्पर्धा है. यह राजनीति है. सत्ता का खेल. पर भारत का समाज, जिस तेजी से टूट और बिखर रहा है, उत्तर से दक्षिण तक, पूरब से पश्चिम तक, उस पर न कोई चर्चा है, न कोई चिंता. राष्ट्रीय एजेंडा में तो पहला सवाल, पहला मुद्दा यह होना […]
-हरिवंश-
इन दिनों देश की राजनीति में धोतीखोल स्पर्धा है. यह राजनीति है. सत्ता का खेल. पर भारत का समाज, जिस तेजी से टूट और बिखर रहा है, उत्तर से दक्षिण तक, पूरब से पश्चिम तक, उस पर न कोई चर्चा है, न कोई चिंता. राष्ट्रीय एजेंडा में तो पहला सवाल, पहला मुद्दा यह होना चाहिए था कि हम क्या थे, क्या हुए और इसी रास्ते पर चलते रहे, तो क्या होंगे? आखिर हमारा समाज जा कहां रहा है? कुछेक तथ्यों पर गौर करिए :
– मुंबई के टाइम्स ऑफ इंडिया (18 अक्तूबर 2012) के पहले पेज पर खबर है कि महाराष्ट्र लगातार असुरक्षित राज्य बन रहा है. 2011 में, 201 मासूम बच्चों की हत्या की गयी. 818 बलात्कार की घटनाएं हुईं. 858 अपहरण हुए.
– अक्तूबर (17.10.2012) में, मुंबई में दो ऐसी घटनाएं सामने आयीं, जो समाज के हालात बताती हैं.11 वर्ष की एक लड़की को मुंबई से राजस्थान ले जाया गया. तीन महीने तक उसके साथ बलात्कार किया गया. यह सब प्रेम के नाम पर हुआ. फिर प्रेमी उसे अपने गांव राजस्थान छोड़ कर लौट गया. फिर गांव के उसके भाई भी लड़की के साथ बलात्कार करने लगे. पहरेदार के रूप में उसके अन्य भाई और मां खड़ी होती थी.
यह सिलसिला कई महीनों तक चला. फिर इन लोगों ने उस लड़की को मारने की कोशिश की. मरा सोच कर फेंक दिया. पर वह बच निकली.
– मुंबई में ही उसी दिन पंद्रह वर्ष के एक लड़के ने अपनी आठ वर्ष की भतीजी का अपहरण कर मार डाला. फिर उसके शव को बक्से में छिपा कर रखा. फिरौती के लिए उसके रिश्तेदार ने यह अपहरण किया था.
– इसी महीने (15.10.2012) का टाइम्स ऑफ इंडिया याद आया. पहले पेज पर बड़ी खबर थी कि देश के प्रतिष्ठित नेशनल लॉ स्कूल, बेंगलुरु में एक लड़की के साथ सात लोगों ने बलात्कार किया. फिर उसे फेंक दिया. उसी दिन उसी अखबार में खबर थी कि दिल्ली से सटे-बसे हरियाणा में, 2011 में हर महीने बलात्कार की 60 घटनाएं हुई. यानी 2011 में कुल 725 बलात्कार की घटनाएं सिर्फ हरियाणा में हुई. 2010 में 705. मध्य प्रदेश में, 2011 में कुल 3396, दिल्ली में 549, राजस्थान में 1757, पंजाब में 473, उत्तर प्रदेश में 2040. जिस पेज पर यह खबर थी, उसी पेज की तीन अन्य खबरों को जान लीजिए. राहुल गांधी की तस्वीर के साथ एक बड़ी खबर थी कि पंजाब के 73.5 फीसदी युवा ड्रग्स एडिक्ट (नशाखोर) हो गये हैं.
यह रिपोर्ट राहुल गांधी ने तैयार नहीं की. अकाली-भाजपा सरकार की यह रिपोर्ट है कि दस में सात पंजाबी युवा-किशोर नशाखोर हो गये हैं. उसी पेज पर यह भी खबर है कि एक नवजात बच्चे को तुरंत दिल्ली के एक अस्पताल से अगवा कर लिया गया. दिल्ली से ही यह भी खबर है कि एक पॉश इलाके में अपराधियों ने चाकू दिखाकर एक 76 वर्ष की महिला के घर से सबकुछ लूट लिया. उसी पेज पर यह भी खबर है कि चंडीगढ़ (भिवानी) में पिछले महीने जिस पंद्रह वर्ष की लड़की के साथ गैंग रेप हुआ, उसमें पुलिस ने अपनी जांच में पाया है कि उसने (लड़की) अपनी सहमति से यौन संबंध बनाया. उसके साथ सामूहिक बलात्कार नहीं हुआ था.
झारखंड के हालात देखिए. यहां वर्ष 2011, 2010, 2009 व 2008 में बलात्कार के मामलों को लें, तो 790-800 के बीच हर वर्ष बलात्कार हुए. 19 अक्तूबर को द टेलीग्राफ (रांची) में खबर है कि 14 वर्ष की एक बच्ची को उसके घर से कैसे एक सामाजिक कार्यकर्ता, प्रेम मोह में ले भागा. महीनों तक जमशेदपुर व कहां-कहां घूमाता रहा.
जरा सोचिए! कैसे समाज में हैं हम
चार महीने तक साथ रखा. लड़की किसी तरह वहां से भाग कर निकली. पुरूलिया पहुंची. फिर उसे पुलिस ने उसके घर पहुंचाया. जांच में पता चला कि वह चार माह की गर्भवती थी. आप खुद से पूछिए, यह पशु समाज है या इंसानों का समाज? गरीब बच्ची को उसके घर से लेकर आप भागते हैं. ऐसा अत्याचार करते हैं. ऐसे मामले बीस वर्ष तक अदालत में चलते हैं और फिर अपराधी छूट जाते हैं. क्या कोई व्यवस्था ऐसे चलती है? पर समाज वोट देते वक्त ऐसे सवालों पर गौर करता है? जब आप अच्छे पौधे नहीं लगायेंगे, अच्छे लोग सरकारी नौकरी में नहीं आयेंगे, चरित्रवान लोग अध्यापक नहीं बनेंगे और न ही कानूनी परिवर्तन कर ऐसे अध्यापकों के लिए कठोर सजा का परिणाम होगा, तो हालात महज नारे लगाने से बदलेंगे?
बिहार में भी ऐसी घटनाओं को प्राय: देख रहे हैं. छोटे-छोटे कस्बों, गांवों में भी बलात्कार की घटनाएं हो रही हैं. अवैध संबंध के कारण हत्याएं हो रही हैं. बिहार पुलिस के आंकड़े बताते हैं कि राज्य में वर्ष 2008 में 1041, 2009 में 929, 2010 में 795 और 2011 में 934 बलात्कार की घटनाएं दर्ज की गयीं.
इस साल (2012 में) जुलाई तक 562 बलात्कार की घटनाएं थानों में दर्ज की जा चुकी हैं. बिहार में बेटियां पढ़ाई करने, नौकरी के लिए, अपना कैरियर संवारने के लिए घर की चौखट लांघ कर बाहर निकल रही हैं, तो बीमार मानसिकता वाले लोगों को यह नहीं सुहा रहा है.
पटना से सटे मनेर की एक घटना सचमुच विचलित कर देने वाली है. 22 अक्तूबर को महाष्टमी थी. उत्तर भारत के हिंदी पट्टी में इस दिन कुंआरी कन्याओं को पूजने की परंपरा रही है. उसी दिन मनेर में कुछ लफंगे किस्म के युवकों ने रात के वक्त छत पर सो रही दो लड़कियों पर तेजाब फेंक कर उनका चेहरा झुलसा दिया. दोनों बहनें पीएमसीएच में भरती हैं.
दलित परिवार की दोनों बेटियां जब भी कम्प्यूटर का क्लास करने निकलती थीं, मोहल्ले का एक लड़का उनका पीछा करता था. पुलिस बता रही है कि लड़के ने एकतरफा प्यार में अपने दोस्तों के साथ मिलकर इस घटना को अंजाम दिया. हमारी नयी पीढ़ी को प्रतिशोध व क्रूरता से भरी इस कार्रवाई की सीख कहां से मिली? घटना के पहले या इसके बाद मोहल्ले-टोले के लोग चुप क्यों लगा गये?
गांवों-कस्बों तक संचार माध्यमों का जाल फैला है. लेकिन, ये कौन सी शिक्षा-संस्कार दे रहे हैं? पटना जिले का एक छोटा कस्बानुमा शहर है बिक्रम. यहां एक शादीशुदा महिला (दो बच्चों की मां भी) की विशाखापट्टनम में रहने वाले एक युवक से फेसबुक पर दोस्ती हुई. दोस्ती प्यार में बदली और एक जनवरी, 2012 को दोनों पटना में मिले. महिला अपने शिक्षक पति और बच्चों (पांच व सात साल की उम्र के) को छोड़ कर भाग गयी. तीन-चार माह बाद पता चला कि महिला ने फेसबुक के अपने दोस्त से हैदराबाद में शादी कर ली है. उसने अपने पति के बैंक एकाउंट से पैसे भी निकाल लिये.
कुछ दिन पहले पटना में एक छात्रा के साथ उसके दोस्तों ने ही बलात्कार किया. उसकी एमएमएस बनायी और फिर उसे सार्वजनिक कर दिया. जो पकड़े गये, वे सभी टीन एजर हैं. समाज कहां जा रहा है? शेखपुरा की एक घटना पर गौर कीजिए, तब पता चलेगा. एक महिला आरक्षी ने अपने पति की हत्या करा दी. वजह? मंडल कारा में पदस्थापना के दौरान उसे एक कैदी से प्रेम हो गया था. प्रेम में उसका पति बाधक था. उत्तरप्रदेश, मध्यप्रदेश, दक्षिण कहीं जायें, यही स्थिति है! क्राइम रिकॉर्ड ब्यूरो के ताजा आंकड़ों के मुताबिक 2011 में पूरे देश में बच्चियों के साथ बलात्कार के 7112 मामले दर्ज हुए. 2010 की तुलना में 2011 में बलात्कार की घटनाओं में 30 फीसदी की बढ़ोतरी हुई.
देश के किसी बड़े शहर में चले जाइए, रोज की ऐसी खबरों से अखबार भरे हैं. झारखंड में रहना होता है. पाता हूं, बड़े पैमाने पर आदिवासी इलाकों में बलात्कार की खबरें आने लगी हैं, जहां पहले ऐसा नहीं था. ग्रामीण थानेदारों का काम, अपराध रोकने के बदले, प्रेम विवाह कराना हो गया है. प्राय: ऐसी खबरें मिलती है कि थानेदार ने दो भागे प्रेमियों की शादी करायी. थाने में ही. इसके और नीचे जायें, तो समाज कहां खड़ा है या पहुंच गया है? यह पता चलता है.
क्यों ऐसी घटनाओं का विस्फोट इस देश में हुआ है? इसके मूल में क्या है? क्यों 91 के बाद ही भारतीय समाज में इस बड़े पैमाने पर उथल-पुथल और ऐसी खबरों की बाढ़ आ गयी है? चूंकि इन सवालों से किसी को गद्दी नहीं मिलनेवाली, इसलिए ऐसे सवाल अचर्चित हैं. अगर समाज ही नहीं होगा, तो राजनीति कहां रहेगी? जिस मुंबई या महाराष्ट्र की पुलिस को स्कॉटलैंड की पुलिस माना जाता था, उसकी अक्षमता अब दुनिया देख रही है.
दरअसल, हमारी सामाजिक और सांस्कृतिक नीति सड़ गयी है. कोई मूल्य या आदर्श हैं ही नहीं, तो क्या शून्य में समाज खड़ा होगा? टीवी के विज्ञापनों को देखिए. हर विज्ञापन में परोक्ष या अपरोक्ष रूप से सेक्स अपील है. विज्ञापन संदेश है कि आप अच्छी बाइक लेंगे, तो सुंदर लड़की आपके साथ आ जायेगी. अच्छी कार लेंगे, तो सुंदर महिला आपके साथ होगी.
महंगे डीयो (बाडी स्प्रे) लगायेंगे, तो लड़कियां खींची चली आयेंगी. अच्छे मोबाइल का विज्ञापन देखिए. इसे लड़कियों से चैट करने का माध्यम बताया जाता है. ऐसे विज्ञापनों में सेक्स ओवरटोन (यौन संबंध के परोक्ष-अपरोक्ष संकेत) हैं. देर रात टीवी चैनलों को देखिए. यौन इच्छा बढ़ाने का दावा करने वाली दवाओं के विज्ञापन घंटों दिखते रहेंगे. टीवी के धारावाहिकों को देखिए. हर छोटे-बड़े धारावाहिक की आधारभूमि और थीम, अवैध संबंध और हिंसा हैं. कुछ अपवाद हो सकते हैं. फिल्मी गाने सुनिए. लगभग सब द्विअर्थी या एकअर्थी. फिल्म जिस्म-दो की सफलता देखिए. सेक्स विषय पर बंपर बिजनेस.
डर्टी पिक्चर का थीम देखिए. छोटे-छोटे बच्चों के रियलिटी शो को देख लीजिए. वे कैसे-कैसे फिल्मी गानों पर डांस (नृत्य) करते हैं या गाते हैं. शीला की जवानी, नहीं चाहिए मुझे तेरी सेकेंड हैंड जवानी, जैसे गाने बच्चे गाते हैं. उधर, बच्चों के अभिभावक खूब तालियां बजाते हैं. रियलिटी शो बिग बॉस भी इसी श्रेणी में है.
कहां बची है, शर्म और हया? क्या शर्म या हया से मुक्त समाज हो सकता है? बच्चों को अच्छी शिक्षा नहीं देंगे, वलगर विज्ञापन दिखायेंगे, टीवी प्रतियोगिता में उतारेंगे, सिनेमा दिखायेंगे और फिर बात करेंगे कि 12-14 वर्ष के बच्चे घरों से भाग क्यों रहे हैं? दरअसल, भारतीय समाज तेजी से टूट रहा है. जिस तरह बुगी-बुगी (रियलिटी डांस शो) में बिकनी पहनाकर छोटे बच्चों को भी नचाया गया, वह क्या है? कहीं से तो कोई आवाज उठे इन चीजों के खिलाफ. न मां-बाप आवाज उठाते हैं, न समाज आवाज उठाता है, बल्कि ऐसा आयोजन करनेवाले या फिल्म बनानेवाले, आज की भाषा में बंपर बिजनेस करते हैं. अब तो बिजनेस ही सबकुछ है. न मॉरल है, न इथिक्स. अश्लील (वल्गर) चीजों के साहित्य की उपलब्धि में विस्फोट हो गया है.
अनेक ऐसी पत्रिकाओं में लोगों के अनुभव पढ़िए. कैसे अश्लील अनुभव छपते हैं? इंटरनेट, टीवी पर विज्ञापन, मोबाइल पर एसएमएस व एमएमएस आना कि क्या आप किसी लड़की से बात करेंगे, इससे सब पीड़ित हैं. पर हम सब प्रतीक्षा में हैं कि कोई ईश्वर अवतार ले या कोई दिग्विजयी सम्राट आये व हमें इन चीजों से मुक्त कराये. अपने अकर्म की कीमत हमसब चुका रहे हैं. ऐसे सामाजिक हालातों से सरोकार सबको है. इस बीमारी से पीड़ित सब हैं. पर, ऐसे विषय पर विरोध में, न शिक्षकों की आवाज सुनी, न अभिभावकों की, न सरकार की, न सामाजिक संगठनों की.
एनजीओ तो बोलेंगे नहीं, क्योंकि ऐसे कार्यों के लिए फंड नहीं मिलते. क्या यही मुक्त, आजाद या लिबरल समाज है? सरकार और राजनीतिक दल तो चुप हैं ही. उन्हें पता है कि जनता और लोग के बीच पॉपुलर ट्रेंड, टेस्ट और रूझान क्या है, तो वे अश्लील चीजों पर क्यों पाबंदी लगायेंगे? वे देखते हैं कि जिन गलत मुद्दों पर बनी फिल्म के लिए भीड़ उमड़ती है, तो उनका काम तो भीड़ बढ़ाना, वोट बढ़ाना ही है. वह ऐसे मुद्दों पर क्यों रोक लगायेंगे. इसलिए वे ऐसे कार्यक्रमों में अतिथि बनते हैं.
कभी गांधी को पलटकर पढ़िए. पूरी सामाजिक व्यवस्था और शिक्षा की उनकी कल्पना क्या थी? उनके जमाने में उनके आंदोलन से प्रभावित एक शिक्षक हुए, गिजू भाई. जिन्हें मूछों वाली मां कहा गया. भारतीय परिवेश में शिक्षा कैसी हो, इस पर उन्होंने अद्भुत काम किया. ग्रंथ लिखा और स्कूल चलाकर साबित किया. 18-20 खंडों में उनके ग्रंथ हैं. पहले संभवत: नवजीवन ट्रस्ट ने इसे छापा.
अब दिल्ली के कई प्रकाशकों ने प्रकाशित किया है. हर स्कूल के शिक्षक के लिए यह किताब बुनियादी पाठ है, बाइबिल, गीता जैसा. हमारे यहां शिक्षकों का चरित्र क्या है? प्राइमरी से लेकर ऊपर तक? इस पर नजर रखने की जरूरत है. अनेक अपवाद हैं और मिलेंगे, पर अपवाद शिक्षक मुख्यधारा नहीं बदल सकते. आज लोग गांवों में परेशान है कि बच्चे-बच्चियां बिगड़ रहे हैं.
उन्हें खुद से पूछना चाहिए कि बिहार और झारखंड में जब पारा शिक्षकों की नियुक्ति हो रही थी, तो क्या-क्या खेल हुए? अनेक ऐसे मामले हैं, जिसमें रिश्तेदारों को, पैसा लेकर, फर्जी अंकपत्र पर, सिफारिश पर, शिक्षक के पदों पर बहाल कराया गया. पहले लॉट में अधिक. हमने 70-80 का दौर भी देखा है. पहले के मुखिया ईमानदारी पर चुने जाते थे. अगर गरीब व्यक्ति भी मुखिया बन गया, तो पांच वर्षों में वह अमीर या करोड़पति नहीं बन जाता था. आज अगर कोई मुखिया ठान ले, तो अपने प्राइमरी स्कूल, माध्यमिक स्कूल और प्राइमरी हेल्थ सेंटर वगैरह को कैसे नहीं सुधार सकता है?
अंतत: लोकतंत्र नीचे तक कैसे उतरेगा? मुखिया पर क्या किसी की नजर है? एक मुख्यमंत्री क्या-क्या कर सकता है? हर मुखिया अगर ठीक हो जाये, तो उसका असर ग्राम पंचायत पर देखिए. एक मुखिया को एक लाख रुपये से अधिक की राशि का काम कराने का पावर है. पर, वे ज्यादातर काम मिट्टी का कराते हैं. बरसात में मिट्टी बह गयी. काम का ठिकाना नहीं. कोई सरकार क्या करेगी?
मनरेगा के तहत एक-एक पंचायत में पांच-पांच तालाब खुदे जाने हैं. पर मनरेगा तो महालूट का पर्याय है.
जानकार बताते हैं कि एक-एक मुखिया ने 35 लाख के मिट्टी के काम कराये हैं. रोजगार गारंटी योजना में मुखिया सौदेबाजी करते हैं. साल में 150 दिनों तक काम देने का प्रावधान है. वे मजदूरों को कहते हैं, तुम सिर्फ दस्तख्त कर दो. 75 दिनों की मजदूरी तुम रखो, बाकी मेरा. फरजी मस्टर रॉल बनता है. ऐसी धांधली दुनिया में कहीं चली है. यह हमारे समाज में है. कहां-कहां सरकार व पुलिस पकड़ेगी? हर पंचायत में वृक्षारोपण की योजना बनी. यह अद्भुत योजना है. इससे सृष्टि और मनुष्य का अस्तित्व जुड़ा है.
कितने पेड़ लगे, कितने सूख गये, किसे पता है. इसका सोशल ऑडिट हुआ? मुखिया और मजदूर बैठे-बैठे पैसे पा गये. बिना काम के मजदूरी देकर काहिलों की फौज तैयार की जा रही है. हर पंचायत में सोलर सिस्टम लगाने की अद्भुत योजना है. पर जांच करा लें, कितने मुखियाओं ने ओरिजनल सोलर सिस्टम लगाया है. कई जेल में हैं. दो नवबर के सोलर सिस्टम लगाये गये. 10-12 हजार रुपये का सोलर सिस्टम खरीदा, 35-36 हजार रुपये का बिल बनाया गया. उनमें भी कितने काम कर रहे हैं, कितने लगे? इसके सोशल ऑडिट की जरूरत है. लेकिन, इसके लिए किसी को तो आगे आना होगा? सरकारी चापाकल कितने ठीक हैं.
गांवों में जाइए? जो चापाकल किसी के दरवाजे पर लगे हैं, वे तो ठीक हैं. पर बाकी में गिने-चुने ही सही-सलामत मिलेंगे. 200 फीट नीचे तक पाइप डालना है. पाइप डाला गया सिर्फ 60-70 फीट. पाइप भी प्लास्टिक के होते हैं. कोई निकाल कर जांच भी नहीं कर सकता. सार्वजनिक जीवन में यह काम और स्थिति है, ग्राम पंचायत स्तर पर? क्या गांव के लोग सोये रहें, गलत कार्यों में साझीदार रहें या मौन दर्शक, फिर उन्हें स्वर्ग चाहिए?
पूरा गांव अगर साफ-सुथरी व्यवस्था चाहता है, अपनी प्रगति चाहता है, नैतिक समाज चाहता है, बच्चों में संस्कार और मूल्य चाहता है, तो मुखिया को विवश कर दे कि हमारे स्कूल का शिक्षक नैतिक ढंग से पढ़ायेगा. हमारा विकास करेगा. हमारे यहां की संस्थाएं ईमानदारी से चलेंगी. आप यह सब करियेगा नहीं. गांव की बुनियादी संस्थाओं की जड़ में मट्ठा डालेंगे और उम्मीद करेंगे कि आपके समाज में विषैले पैदा न हों, अच्छे लोग पैदा हों, यह कैसे संभव है? तोड़ दीजिए ऐसे भ्रम को. अगर बचपन से ही बच्चा, शराब में डुबा हुआ है, तो बड़ा होकर वह परिवार, समाज, राज्य, देश पर बोझ ही बननेवाला है. हमने स्कूलों में ही कबीर को सुना, बिना समझे. रहीम के दोहे सुने, बिना अर्थ या मर्म जाने.
सूरदास, तुलसीदास, रसखान, मीरा और जायसी के नाम तब हमारी पीढ़ी के कानों में गूंजे, बिना मर्म जाने? रामचरितमानस की पंक्तियां गूंजी. परशुराम और लक्ष्मण संवाद गूंजा. कक्षा चार या पांच में ही सुदर्शन की वह ऐतिहासिक कहानी, हार की जीत पढ़ी, जो हर इंसान को महीने में एक बार पढ़नी चाहिए. सरदार पूरण सिंह के निबंध पढ़े, जिन्होंने मन को छुआ और इन जैसे पवित्र नामों के स्पर्श का जादू था कि हम जैसे मिट्टी के लोथ भी कामचलाऊ बन गये.
पर अब तो स्कूलों में अंताक्षरी भी फिल्मी गीतों पर होने लगी है. पहले यह कविता में होती थी. कविता और फिल्मी गानों में फर्क आज का समाज नहीं जानेगा. कविता, संस्कार देती है. मूल्य देती है. दृष्टि देती है. मानवीय बनाती है. फिल्मी गानें इंद्रिय को छूते हैं. भौतिक भूख-भोग बढ़ाते हैं. भौतिक आकांक्षाओं की आग में घी डालते हैं.
एनरॉन की घटना
2003-04 के आसपास की घटना है. एनरॉन दुनिया की मशहूर मल्टीनेशनल कंपनी थी. अचानक एनरॉन और अमेरिकन कंपनियां दिवालिया हो गयीं. उस वक्त टाइम की एक महिला पत्रकार ने शोध किया कि जिन कंपनियों का टर्नओवर कई बड़े देश के जीडीपी से अधिक थे, वे रातोंरात दरिद्र, कंगाल या डूब क्यों गये? कैसे दिवालिया हो गये? उसे इस बेहतर शोध रिपोर्ट करने के लिए, उस वर्ष का सबसे सम्मानित पुलित्जर सम्मान भी मिला.
उसने पाया कि इन बड़ी-बड़ी कंपनियों के जो टॉप एक्सक्यूटिव (शीर्ष पदों पर बैठे लोग) या ब्रेन्स (दिमाग) थे, वे दुनिया के सर्वश्रेष्ठ प्रबंधन संस्थानों से पढ़कर निकले थे, जिन्हें सेंटर ऑफ एक्सीलेंस कहते हैं. यहां से पढ़कर निकलते ही करोड़ों की नौकरी के अवसर पांव चूमते हैं. जहां एडमिशन होना, आज की दुनिया में मोक्ष माना जाता है. अलभ्य उपलब्धि या नोबेल पुरस्कार पाने जैसी उपलब्धि. ऐसे सर्वश्रेष्ठ संस्थानों से निकले लोगों ने इन बड़ी कंपनियों में फर्जीवाड़ा किया. एकाउंटिंग में हेरफेर की. ऐसा करनेवाले लोग अत्यंत मेधावी, तेज यानी दुनिया के बेस्ट ब्रेंस थे. दुनिया की सर्वश्रेष्ठ जगहों से पढ़े लोग थे. पर ये लोग धोखाधड़ी, छल-प्रपंच क्यों करते रहे? इस पर कई मनोवैज्ञानिकों ने राय दी कि इनमें प्रतिभा थी, पर मूल्य और इथिक्स नहीं थे.
संस्कारविहीन. उन लोगों ने पाया कि किसी भी इनसान में मूल्य और इथिक्स गढ़ने का काम तो समाज के मूल्य या साहित्य, कविता-कहानी या आध्यात्मिक साहित्य ही करते हैं. तब से इन प्रबंधन स्कूलों में गांधी, अरबिंद, गीता या अन्य भाषाओं के ऐसे साहित्य की चर्चा बढ़ी है. इन्हें भी पाठ्यक्रमों में शामिल किया जाने लगा. दुनिया की सर्वश्रेष्ठ संस्थाएं, अपने पाठ्यक्रमों में मूल्य और सरोकार पैदा करनेवाले साहित्य को रख रहे हैं. लेकिन पता कर लीजिए, हमारे स्कूलों में या अध्यापकों में, अब इन चीजों के प्रति कितना सरोकार है? जब कुम्हार को मिट्टी गढ़ना ही नहीं मालूम, तो वह कैसा इंसान गढ़ेगा?
अपने बच्चों के जीवन पर गौर करें. घर से ही शुरूआत हो. एक क्लास के बाद लगातार बच्चे ट्यूशन के लिए भागते हैं. देर रात घर पहुंचते हैं. डॉक्टर कहते हैं कि स्कूलों में असमय पुस्तकों का बढ़ता बोझ, बच्चों को कूबड़ा बना रहा है. तनाव इतना है कि कम उम्र में ही बच्चों को डायबिटीज (मधुमेह) जैसे गंभीर रोग होने लगे हैं. स्कूल अगर महंगे हैं, तो काउंसलर (सही सलाह देनेवाले) मिल जाते हैं. यह अत्यंत महंगे स्कूलों में ही संभव है.
कितने भारतीय आज की महंगाई में, महंगे स्कूलों में अपने बच्चों को पढ़ा सकते हैं? घर में एक नहीं, कई बच्चे हैं. जनसंख्या पर आत्मसंयम तो है नहीं. बच्चों के शिक्षक कैसे हैं? इस विषय पर कहने की जरूरत नहीं है. चीन का एक उदाहरण समझ लीजिए. वह देश या समाज अपने नागरिकों या आनेवाली पीढ़ी में जो मूल्य-संस्कार देखना चाहता है, उन्हीं मूल्यों व संस्कारों के अनुरूप अध्यापकों का टेस्ट (परीक्षा) कराता है, विषय के अनुरूप नहीं. उनके बारे में गोपनीय रिपोर्ट ली जाती है कि इन अध्यापकों का जीवन कैसा है? इनका चरित्र कैसा है? इनमें वे दाग तो नहीं हैं, जो हम आज के अपने चीनी समाज या भविष्य के अपने चीनी समाज में देखना नहीं चाहते. भारत सरकार की अनेक नौकरियों में अंग्रेजों ने प्रावधान तय किया था कि चयन के बाद उनकी पारिवारिक या निजी पृष्ठभूमि की गोपनीय रपटें मंगायी जाती थी.
अब ऐसी सब प्रथा बंद है. बिहार के एक पूर्व डीजीपी ने बताया कि आज से 20 वर्ष पहले जीटी रोड पर एक थानेदार ने दो-तीन बेकसूर व्यवसायियों को गोली मार दी थी. रंगदारी के लिए. बाद में वह बड़ा मामला हुआ. वह गिरफ्तार हुए. तहकीकात में पता चला कि नौकरी में आने के पूर्व भी वह कई हत्याएं कर चुके थे. पुलिस में हत्यारा भरती हो गया. मालूम भी नहीं चला. ऐसे अनेक प्रसंग हैं. यह है, हमारा सिस्टम. अगर ऐसी पृष्ठभूमि के लोग सरकारी नौकरी में आयेंगे, तो वे कैसा काम करेंगे?
आज हिंदी प्रदेशों में सबसे अधिक तिरस्कृत (नेगलेट) प्राइमरी स्कूल की शिक्षा व्यवस्था है. कितने शिक्षा अधिकारी आज स्कूलों में औचक निरीक्षण करते हैं? गरीब गांव के सबसे खस्ताहाल स्कूलों से हमारी पीढ़ी निकली है. पर गांव के स्कूल में इंस्पेक्टर का आना ऐतिहासिक घटना होती थी. महीनों से तैयारी चलती थी. शिक्षक चौकस, छात्र चौकस, कोई अभिभावक कुछ कह न दे, इसकी चिंता, स्कूलों में साफ सफाई. आजादी के बाद जो अच्छी चीजें हमें विरासत में मिली, हम उसे भी तहस-नहस और बरबाद कर चुके हैं. सच कहिए, तो हमारे अंदर लुर (ज्ञान) का अभाव है. शऊर नहीं है, हमें. काम करने की कला-संस्कृति हम नहीं जानते. किसी काम को परफेक्शन (सही तरीका) से करना हमारे व्यक्तित्व में नहीं है.
अगर अमेरिका जैसे संपन्न देश में यह व्यवस्था है कि एक स्कूल में एक समान शिक्षा हो, तो भारत जैसे गरीब मुल्क में क्यों नहीं हो सकता? इसी मुल्क के जिला स्कूल, अंगरेजों के जमाने में कैसे थे? उनमें शिक्षा का क्या स्तर था? आजादी के बाद भी गांव के प्राइमरी स्कूल, जिला स्वास्थ केंद्र कैसे होते थे? जहां आने-जाने का साधन नहीं था, उस गांव में डॉक्टर को रहते हमने देखा है. आज हालात बहुत बदले हैं, पर वह व्यवस्था ही नहीं रह गयी है? बेहतर व्यवस्था, सक्षम व्यवस्था तो राजनीति ही गढ़ती है, पर लोक दबाव पर या जन दबाव पर. आज शिक्षक, इंजीनियर, डॉक्टर अपना काम दूसरों के जिम्मे लगा देते हैं.
अपने वेतन का एक निश्चित हिस्सा उसे देकर. खुद दूसरे धंधे से जुड़े रहते हैं. समाज में आधुनिक शिष्टाचार क्या रह गया है? अधकचरे पश्चिमी संस्कार (हाय-हैलो वगैरह). दुनिया की जानीमानी संस्थाओं ने अध्ययन कर कहा है कि भारत के 70 फीसदी इंजीनियर या मैनेजमेंट ग्रेजुएट नौकरी देने योग्य नहीं हैं. वस्तुत: ये अयोग्य हैं, लेकिन इन्होंने डिग्री पायी है. इस देश में अब यह व्यवस्था हो रही है कि प्राइमरी स्कूलों में पांच वर्ष से अधिक कोई छात्र नहीं रहेगा. उसे हर हाल में पास किया जायेगा. यानी सब धन बाईस पसेरी. योग्य, अयोग्य, सक्षम, अक्षम सब एक साथ. यह कौन सी व्यवस्था हम गढ़ रहे हैं?
बिहार में, झारखंड में बड़ी संख्या में शिक्षकों की बहाली में अयोग्य व अक्षम लोग नौकरी पा गये. जो अंगरेजी में अपने पिता का नाम शुद्ध नहीं लिख सकते हैं, वे भी शिक्षक हैं. अयोग्य शिक्षक, योग्य छात्र कैसे पैदा करेंगे? बिहार में कुछ माह पहले शिक्षक योग्यता परीक्षा (टीइटी) हुई थी. पंचायत शिक्षक की परीक्षा में करीब 95 फीसदी अभ्यर्थी फेल हो गये. कैसी पढ़ाई हो रही है, हमारे स्कूलों में?
बिहार के एक नवोदय स्कूल के प्राचार्य ने कहा, न स्कूल में सही शिक्षा है, न घर में सही परवरिश. हालत क्या है. सीवान की एक घटना से समझिए. एक इंजीनियरिंग कॉलेज के छात्र बस में जा रहे थे. एक रेल ढाला से गुजरते समय बाघ एक्सप्रेस आयी. बस से टकरायी. सात-आठ लड़के नहीं रहे. यह जांच हो रही है कि लड़कों ने क्या रेलवे गेटमैन को धमका कर गेट खुलवाया या नहीं.
पर छात्रों के लाश से गांव के लोग चेन, घड़ी और मोबाइल लूट रहे थे. खड़ी ट्रेन में आग लगा दी. यात्रियों से भी उन्होंने लूटपाट की. कहां पहुंच गये हैं हम? यह मानव समाज है या जंगली समाज. इसी तरह, मधुबनी में मेडिकल बोर्ड बार-बार यह कह रहा था कि हमारे पास जो लाश है, उसकी उम्र 26 साल के आसपास है. पर जो लड़का भागा, वह 17 साल का था. उसकी मां ने कहा, मेरे बच्चे का शव है. यह इमोशनल ब्लैकमेल है. अनशन पर बैठीं. शहर जला. क्या किसी की अंतरात्मा बची है या नहीं? कोई कुछ भी कह सकता है.
और इसी आग में राजनीति का धंधा करने वाले घी डालने का काम करते हैं. ब्रिटेन मे भी पिछले साल बड़े पैमाने पर लूटपाट हुई. उपद्रव व दंगे हुए. एक साल के अंदर उन्होंने हजारों उपद्रवियों को सख्त सजा दी. सभी जेलों के भीतर हैं. लंबी सजा काट रहे हैं. इस दंगे को लेकर ब्रिटेन के समाज में गहरा आत्ममंथन हुआ. सरकार व कानून ने अपना काम किया और समाज ने अपना. हमारे यहां सब कुछ सरकार और कानून करे और हम उपद्रवी की भूमिका में रहें?
विश्वविद्यालयों का हाल देख लीजिए. प्रोफेसरों और सबको लाखों की तनख्वाह चाहिए. रिटायरमेंट और सेलरी बढ़ाने के आंदोलन रोज हो रहे हैं, पर इनकी योग्यता की परख कोई करता है? एक अत्यंत अनुभवी प्राध्यापक ने बताया 80 फीसदी अध्यापक चाहें भी तो पढ़ा नहीं सकते, क्योंकि वे अयोग्य हैं. पश्चिमी देशों में खासतौर से अमेरिका में हर साल हर प्राध्यापक-प्रोफेसर को परफॉरमेंस रिव्यू प्रक्रिया से गुजरना होता है. उन्हें जज किया जाता है. इस ऑडिट के बाद ही इनका इंक्रिमेंट (वेतन वृद्धि) या तनख्वाह तय होता है. परीक्षाओं में बच्चे के परफॉरमेंस से भी शिक्षक के इंक्रिमेंट का संबंध है. भारत में ये शिक्षक पैदा कर रहे अनइंपलायबुल यानी अयोग्य ग्रेजुएट, पर उनकी तनख्वाह लाखों में है. इन्हें हर साल वेतन वृद्धि चाहिए.
चीन ने हाल में टैलेंट पुल बनाया है. सर्वश्रेष्ठ विद्यार्थियों को छांट कर. अलग ढंग से प्रशिक्षित करने का प्रयास. भविष्य में प्रतिभा ही तय करनेवाली है कि किस मुल्क की क्या हैसियत होगी? ओलंपिक खेलों के लिए चीन में चार-पांच वर्ष की उम्र से ही बच्चों को सख्त ट्रेनिंग का प्रावधान है. एक हद तक क्रूर ट्रेनिंग का. क्योंकि यह जज्बे का सवाल नहीं है.
साधना और तप का सवाल है. हमारे बच्चे को हम क्या परिवेश और माहौल दे रहे हैं? चीन का सवाल उठेगा नहीं कि हम तुरंत कह देंगे कि वहां व्यवस्था ही दूसरी है. पर शिक्षा में जो उनके प्रयोग हैं, यह तो डेमोक्रेटिक सिस्टम में भी संभव है. उत्तर प्रदेश में राजनाथ सिंह ने शिक्षा मंत्री के रूप में एक ही काम किया, जिससे उनकी पहचान अखिल भारतीय बन गयी. उन्होंने कहा, कक्षा दस (हाइस्कूल) और बारह (इंटर) में नकल नहीं होने देंगे. इस मुद्दे की कीमत अगले चुनाव में उन्हें चुकानी पड़ी. विरोधी पार्टियों ने आह्वान कर दिया कि वे नकल की छूट देंगे. क्यों नहीं सारे दल मिलकर यह तय करते हैं कि देश व समाज बड़ा है, उनकी गद्दी नहीं. कोई भी दल सत्ता में आये, वह नकल की छूट नहीं देगा.
यह महज एक उदाहरण है या बानगी है. एक क्षेत्र का, हर क्षेत्र में राष्ट्र निर्माण के लिए ऐसी आम सहमति की जरूरत है. और यह राजनीति दलों पर लोक दबाव से ही संभव है. हमारी सामाजिक नीति क्या है? क्या 21 वीं सदी का समाज 19वीं सदी के सामाजिक नियमों से चलेगा. पहले लड़कियों या बच्चों के किशोर होने की उम्र थी, पंद्रह-सोलह वर्ष. अब वह 12-13 वर्षों में ही किशोर हो रहे हैं. पर हमारी नीति क्या है?
आज स्कूलों के कितने बच्चे पुस्तकालय जाते हैं. शहरों की पब्लिक लाइब्रेरी किस हाल में है? प्रतियोगी परीक्षाओं के लिए होड़ है. पर सही अर्थ में ज्ञान पाने, खुद के व्यक्तित्व को विकसित करने का कहीं माहौल है? क्या आपको मालूम है कि हर संसदीय क्षेत्र में हर सांसद को अपने इलाके की लाइब्रेरी में 22 लाख रुपये की पुस्तकें देने का प्रावधान है.
भारत सरकार के मानव संसाधन मंत्रालय द्वारा. पता करना चाहिए कि कितने सांसद इस योजना से लाभ लेकर अपने-अपने इलाके में अच्छी लाइब्रेरी चलवा रहे हैं. अच्छे साहित्य और किताबें सार्वजनिक लाइब्रेरी में आ रही हैं? अगर गहराई से इसकी जांच हो, तो इसमें भी कई भ्रष्टाचार और सड़ांध के तथ्य मिलेंगे.
अभी गांव-गांव में पढ़ने की ललक का विस्फोट है,जिन गरीबों के पुरखों ने कभी स्कूल के दरवाजे नहीं देखे, उनके बच्चे-बच्चियां साइकिल से मीलों स्कूल जाते हैं. सबके अंदर कुछ करने और पाने की हसरत है. पर उस हसरत-सपने को एक अनुशासन, संस्कार और मूल्य में बांधकर हम दें, ताकि बच्चों की वे पीढ़ियां नये मानव समाज की सृष्टि का आधार बनें, क्या यह हो रहा है? हम बीज बोयेंगे नीम और बबूल का और फल खोजेंगे आम का? यह कहीं भी दुनिया में संभव है?
सबकुछ सरकार के भरोसे है या राजनीतिक दलों के भरोसे या अफसरों के भरोसे? समाज के पास अपना फ र्ज क्या है? अपनी दुनिया में डूबे रहना. उपभोक्तावाद में डूबना, भौतिक सफलताएं खोजना. अब इस माहौल में आप सोचते हैं कि कोई दूसरा आकर आपके लिए सबकुछ कर देगा? यह नामुमकिन है. आज केंद्र सरकार हर राज्य से अच्छे अफसरों के नाम मांगती है. पर कई राज्य नाम नहीं दे पाते? एक अच्छा अफसर नहीं मिलता. 16-17-18 साल की लड़की से कोई पूछे कि क्या वह अकेले किसी सांसद-विधायक से (अपवादों को छोड़कर) मिल कर मदद मांग सकती है. यह लड़कियों से ही सर्वे करके पता कर लेना चाहिए, तब व्यवस्था की हकीकत पता चलेगी.
अब सांसद बन रहे हैं, अरबपति-खरबपति, लाइजनर वगैरह. ऐसे लोग भारत के किस वर्ग के हित की बात करेंगे? कैसी पीढ़ी और संस्कार विकसित होंगे, इनके नेतृत्व में? प्रशांत भूषण का यह कहना कि संसद, भ्रष्टाचरियों का क्लब है, गलत है. संसदीय लोकतंत्र में संसद सर्वोपरि संस्था है. पर इस संसद की छवि किन लोगों ने खराब की? ऐसे लोगों को चुनते कौन हैं? हमारे-आपके जैसे लोग ही न! एडीआर (एसोसिसेशन फार डेमोक्रेटिक राइट्स) के आंकड़ों पर गौर करें.
कैसे लखपति-करोड़पति-अरबपति सांसद बन रहे हैं. उससे भी अधिक दुखद प्रसंग है कि ऐसे जनप्रतिनिधियों की संपत्ति पांच-दस वर्षों में कई गुना बढ़ जाती है. इसका राज या मैकेनिज्म क्या है? यह कोई छुपी बात नहीं है. दशकों पहले, गांव में ही हमने देखा है कि सबसे अच्छा प्रधान वह माना जाता था, जहां झगड़े कम होते थे. गांव-समाज में मिल्लत होती थी. यह भी देखा कि कई विधवाएं अकेले घर बना कर रहती थीं. पूरा गांव ही उनका परिवार होता था.
आमतौर से गांव की जानकारी में कोई भूखा नहीं सोता था. मौत होने, शादी होने पर तो पास-पड़ोस के गांव के लोग भी चौबीसों घंटे काम के लिए तत्पर रहते थे. यह समाज या ऐसे मूल्य थे हमारे. हम बहुत आगे बढ़ गये. प्रति व्यक्ति आमद बढ़ गयी. सड़क -बिजली आ गयी. पर अकेलापन बढ़ गया. बुजुर्ग बोझ बन गये. पहले किसी के पास अधिक पैसा आता था, तो समाज की नजर होती थी कि पैसा आ कहां से रहा है? गलत पैसा पानेवाले को सम्मान नहीं मिलता था. अध्यापक व चरित्रवान लोग पूजे जाते थे. अब गांव-शहर के लोग या समाज के लोग सबसे सुखी और आनंद में रहना चाहते हैं. पर पूजते हैं, भ्रष्टाचारियों को. फिर परिवर्तन कैसे संभव है?
गांवों में पहले चंद्रशेखर आजाद, भगत सिंह, सुभाष, गांधी, नेहरू वगैरह नाम रखने की होड़ थी. यह महज एक होड़ नहीं थी. इसके पीछे एक दर्शन था. ऐसे बड़े नामों के चरित्र, संस्कार और रास्ते पर चलने का अपरोक्ष या बिना संकल्प प्रयास. आज शहरी या ग्रामीण समाज में सोशल ऑडिट रह ही नहीं गया है.
किसी के पास किसी भी तरीके से सत्ता और पैसा है, तो वह पूज्य है. हमने परिवर्तन के दौर में संयुक्त परिवार को तोड़ दिया. पर नया विकल्प नहीं खोजा. इसलिए भारतीय समाज बीमार है. पिछले कई दशकों से अमेरिका-ब्रिटेन वगैरह परिचमी देशों में परिवार मजबूत बनाने के आंदोलन चल रहे हैं. इस मुद्दे पर राष्ट्रीय चुनाव लड़े जा रहे हैं. पर हम यूरोपीय और पश्चिमी समाज के रास्ते चल पड़े हैं.
यूरोपीय समाज में दो सौ वर्ष पुरानी परंपराएं हैं, समाज की. वह सौ-दो सौ वर्ष पुरानी पंरपरा है. सामाजिक सुरक्षा की अनेक योजनाएं है. अगर बेटा या बेटी 18 वर्ष की उम्र में घर-परिवार छोड़ता है, अपनी अलग जिंदगी गुजारता है. यदि वह बेराजगार भी है, तो सरकारी भत्ते उसे मिलते हैं. बड़े-बूढ़े, समाज परिवार से अलग हैं, तो सरकार के ओल्ड एज होमों में शरण पाते हैं. अच्छी चिकित्सा या देखरेख में रहते हैं. हमारे यहां क्या है? बच्चे-बूढ़ों की स्थिति कैसी है? यूरोप में परिवार-समाज, सरकार की जिम्मेदारी है. वहां की व्यवस्था एक इनसान को पालती है. पर न्यूक्लियर फैमिली ने भारत की पुरानी सामाजिक व्यवस्था को छिन्न-भिन्न कर दिया है.
नयी सामाजिक सुरक्षा की व्यवस्था यूरोपीय पैटर्न पर हमने बनायी नहीं है. अधिसंख्य सामाजिक बीमारियों की जड़ या बढ़ते अकेलापन के मूल में यह पश्चिमी व्यवस्था है. यहां सब लोग आंटी हैं, अंकल हैं. बड़े बाबूजी, छोटे बाबूजी, बड़ी अम्मा, छोटी अम्मा, मौसा वगैरह सब गायब हैं. भारतीय व्यवस्था में ये महज रिश्ते नहीं थे, बल्कि समाज बांधने के सूत्र भी थे. अफ्रीका जैसे देश में आज परिवार बचाने का आंदोलन चल रहा है. सरकार द्वारा नहीं, समाज द्वारा. उनके कैंपेन का नारा है सेव द फैमिली नाउ. यानी अभी परिवार बचाइए 2012 तक. इसके मुख्य उद्देश्यों पर गौर करिए –
– अश्वेत परिवार में तलाक दर को 25 फीसदी घटाना.
– अश्वेत समुदाय की किशोरियों में गर्भधारण की संख्याओं को 25 फीसदी घटाना.
– एचआइवी, एड्स वायरस जैसी उच्च घटनाओं को 25 फीसदी घटाना.
– उच्च विद्यालयों से बच्चों के निकाल दिये जाने की दर को 33 फीसदी घटना.
– वरिष्ठ नागरिकों की रक्षा और अमेरिका के 25 शहरी केंद्रों में वृद्धों के लिए सुरक्षित घरों का निर्माण करना.
दिनांक 28.10.2012