खुशी यहां है!
– हरिवंश – दुनिया की सबसे बड़ी अचर्चित खबर क्या है? हर काम (विकास, गवर्नेस, सरकारों का चलना, नयी तकनीक, खोज, बाजार का बढ़ना वगैरह) खुशी या सुख की तलाश के लिए हो रहा है.दुनिया की सबसे प्रतिष्ठित पत्रिकाओं (टाइम, न्यूजवीक, द इकनामिस्ट वगैरह) में इस विषय पर लगातार सर्वे, शोध और खबरें आ रहीं […]
– हरिवंश –
दुनिया की सबसे बड़ी अचर्चित खबर क्या है? हर काम (विकास, गवर्नेस, सरकारों का चलना, नयी तकनीक, खोज, बाजार का बढ़ना वगैरह) खुशी या सुख की तलाश के लिए हो रहा है.दुनिया की सबसे प्रतिष्ठित पत्रिकाओं (टाइम, न्यूजवीक, द इकनामिस्ट वगैरह) में इस विषय पर लगातार सर्वे, शोध और खबरें आ रहीं है. टाइम के ताजा अंक (अक्तूबर 22, 2012) में एक लेख है, द परसूट ऑफ हैपीनेस (खुशी की खोज). इसकी शुरुआत भूटान देश के महल और कोठी से है, जो कई सदियों से हिमालय की गोद में आग, भूकंप और हिमालय की ठंड के बावजूद सुरक्षित है.
जब दुनिया के अर्थशास्त्री, ग्रास नेशनल प्रोडक्ट (जेएनपी – समग्र घरेलू उत्पाद) की वृद्धि में खुशी तलाश रहे थे, यानी धन बढ़े, तो खुशी आती है, यह अवधारणा थी, तब लगभग 30 वर्ष पहले भूटान के चौथे नरेश (राजा) ने इसी महल में कहा, दुनिया को एक विकल्प चाहिए और उन्होंने खुशी के बारे में ग्रास नेशनल हैपीनेस (जीएनएच-समग्र राष्ट्रीय खुशी) का मॉडल दिया. खुशी की तलाश में भटकती पूरी दुनिया में इसी मॉडल की आज सबसे अधिक चर्चा है. टाइम संवाददाता के अनुसार भूटान को धरती का सबसे खुश देश (द हैपीएस्ट प्लेस ऑफ द अर्थ) कहने का साहस तब उन्होंने किया.
आज भूटान के पास वही चुनौतियां और समस्याएं हैं, जो पूरी दुनिया में हैं. खेती से गरीब, जीवन नहीं चला पा रहे हैं. पलायन कर रहे हैं. मध्यवर्ग में पढ़े-लिखे लोगों के पास नौकरी नहीं है. संपन्न लोगों के बच्चे, फेसबुक, आइ-पैड और इंटरनेट पर हैं. पर वह मुल्क एक खुशहाल समाज बनाने की गंभीर कोशिश कर रहा है और आज इस मामले में दुनिया का आदर्श भी बन गया है.
अमेरिकी अर्थशास्त्री रिचर्ड स्टिग्लिज, अपने शोध में यह प्रामाणित करनेवाले पहले व्यक्ति थे कि बढ़ती आय, खुशी नहीं लाती (अमेरिका के संदर्भ में). उनका ताजा शोध चीन पर है, जिसमें यह निष्कर्ष सही पाया गया. भूटान, चार खंभों या नींव पर अपना समाज खड़ा करना चाहता है, ग्रास नेशनल हैपीनेस (जीएनएच) का ढांचा बनाना चाहता है.
सस्टनेबुल आर्थिक विकास, पर्यावरण की रक्षा, संस्कृति की रक्षा और गुड गवर्नेस (सुशासन) द्वारा. आज दुनिया के कई अर्थशास्त्री, भूटान को सहीं आर्थिक प्रयोगशाला मान रहे हैं. भूटान में जीएनएच को लेकर ताजा सर्वे हुआ. उसमें जो सवाल पूछे गये, उनपर गौर करें-
अगर आप बीमार पड़ते हैं, तो कितने लोगों से आपको मदद की उम्मीद है ?
प्राय: कब-कब आप अपने बच्चों से आध्यात्मिकता पर बात करते हैं?
अंतिम बार आप कब अपने पड़ोसी के साथ बैठ कर गपशप किये थे ?
कितना कर्ज लेकर आप संतुष्ट महसूस करते हैं?
नोबल पुरस्कार विजेता अर्थशास्त्री, स्टिग्लिज ने अमेरिका के अर्थसंकट के समय कहा कि यह अर्थसंकट बहुत मददगार रहा, यह समझने में कि जीडीपी का रास्ता हमें सही-सही कुछ बता नहीं पा रहा था कि हम किधर जा रहे हैं? उन्होंने यह भी कहा कि जब भूटान ने जीएनएच का पैमाना अपनाया, तो कुछ लोगों ने कहा कि वह अपने पिछड़ेपन से ध्यान हटाने के लिए यह कर रहा है.
पर मेरा विचार ठीक इसके उलट है. पश्चिम के अर्थसंकट ने हमें यह बताया कि आर्थिक विकास के हमारे पैमाने कितने खराब थे? क्योंकि अमेरिकी जीडीपी बहुत अच्छी था और अचानक लगा कि सबकुछ भहरा गया (आर्थिक संकट से). फ्रांस सरकार ने स्टिग्लिज के साथ मिल कर नया पैमाना विकसित किया है, योर बेटर लाइफ इंडेक्स (आपके बेहतर जीवन का सूचकांक). कनाडा ने भी भूटान की तर्ज पर इंडेक्स ऑफ वेलवीइंग (खुशहाल होने का पैमाना) बनाया है. ब्रिटेन में सबसे बड़ा राष्ट्रीय सर्वे चल रहा है, जिसमें ये सवाल शामिल किये गये हैं –
कल आप कितने प्रसन्न रहे या आप अपने जीवन से कितने संतुष्ट हैं ?
प्रधानमंत्री डेविड कैमरन, ब्रिटेन के समाज में खुशी पर शोध (हैपीनेस रिसर्च) के बड़े समर्थक रहे हैं. इसी तरह दुनिया मान रही है कि यह अरजेंट इश्यू है. भूटान तो पूरी तरह अपनी खनन नीति का रिव्यू कर रहा है और अनेक अध्ययन कर रहा है, जिससे लोगों के बीच संतोष, प्रसन्नता और खुशी बढ़ायी जा सके. एक तरह से दुनिया में बहस शुरू हो गयी है, धन बनाम खुशी.
संसार में प्रख्यात न्यूरोसाइंटिस्ट, अर्थशास्त्री, दार्शनिक, सामाजिक चिंतक, आध्यात्मिक गुरु, इतिहासकार लगातार खुशी की तलाश में बड़े-बड़े ग्रंथ लिख रहे हैं, जो दुनिया के बेस्टसेलर्स हैं.
लगभग हर महीने कुछ न कुछ शोध इस विषय पर हो रहा है. पर जितना शोध हो रहा है, उससे अधिक खुशी या सुख चाहनेवालों की संख्या बढ़ रही है? अध्येताओं का निष्कर्षों के आधार पर यह मानना है कि हम सुख या खुशी से लगातार दूर हो रहे हैं. हालांकि आज सुख या खुशी उपलब्ध कराने या एहसास करने या पाने का बाजार, एक मोटे आकलन के अनुसार 50 हजार करोड़ से अधिक का हो गया है. आप स्तब्ध होंगे जानकर कि 50 वर्षों में दुनिया आर्थिक प्रगति के पैमाने पर बहुत ऊपर पहुंची है, पर खुशी की सीढ़ी पर वह नीचे लुढ़की है.
इतने प्रयास और खर्च के बाद क्या खुशी की झलक या आहट, देश-दुनिया को मिल रही है? शायद नहीं. बढ़ती विकास दर के साथ बढ़ती बेचैनी. अर्थशास्त्र की जड़ में मूल मान्यता है, वेल्थ इज द सोर्स ऑफ हैपीनेस. द मोर यू हैव, द हैपीयर यू आर (खुशी का स्रोत धन है. अधिक धन आपके पास है, आप अधिक खुश हैं). यह एक हद तक सच है. भारतीय संस्कृति में भी चार प्रमुख चीजों में से एक अर्थ माना जाता है. फिर दुनिया के अमीर देश आज दुखी क्यों हैं?
अमीर देश भी दुखी, गरीब देश भी दुखी. क्यों आज दुनिया को कोई महान अर्थशास्त्री यह कह रहा है कि दुख का कारण है, माइंडलेस डेवलपमेंट (बिना सोच-समझे विकास). इसलिए अब दुनिया में जीडीआर की जगह जीएनएच का प्रयोग अपने देश की खुशी मापने के लिए अधिकांश देश करने लगे हैं. ह्यूमन डेवलपमेंट रिपोर्ट (एचडीआर) की तर्ज पर. 2007 के सर्वे में भूटान ने खुशी मापने के नौ पैमाने तय किये.
मानसिक स्थिति, स्वास्थ्य, समय का उपयोग कैसे, व्यक्ति से समाज-समूह का रिश्ता, शिक्षा, संस्कृति, पर्यावरण, गवर्नेंस और रहन-सहन का स्तर. दुनिया में खुशी लाने के लिए ही मिलेनियम डेवलपमेंट गोल (एमडीजी) पर 189 देशों ने सितंबर’2000 में एक हस्ताक्षर किये, ताकि पूरी दुनिया खुशी पा सके. इसी दुनिया में खुशी के लिए लगातार बढ़ती बेचैनी के बीच झारखंड की धरती में एक गरीब इंसान से मिली सीख नहीं भूलती. शायद दुनिया के लिए खुशी पाने का यही एक मात्र नुस्खा है. झारखंड के सातोगांव (गुमला) का वह अनुभव भूलने जैसा नहीं. नवंवर 2010 का प्रसंग है.
छठ के दिन का. विकास भारती, बिशुनपुर जाना हुआ. रात में आदिवासियों के संग रहने के अनुभव वर्षों पुराने हो चुके थे. इसी पृष्ठभूमि में अशोक भगत जी के यहां कई वर्षों बाद फिर बिशुनपुर जाना हुआ. वहीं सातोगांव जाने-देखने की योजना बनी. सड़कें साबूत नहीं थी. कच्ची. पहाड़ों से घिरी. नक्सली समूहों-खौफ में जीता, सातोगांव. स्वतंत्रता सेनानी रहे रत्ती टाना भगत का गांव. वह स्थानीय कांग्रेस अध्यक्ष रहे. प्रखंड प्रमुख भी. राज्य 20 सूत्री (बिहार सरकार) के भी अध्यक्ष रहे. 11 पहाड़ों की गोद में हैं, सातोगांव. सात माइल में. बेड़ो के हैं, गंगा टाना भगत. मांडर से विधायक भी रहे. वे टाना भगतों के बड़े नेता हैं.
दशकों पहले मई-जून की चिलचिलाती धूप में एक दिन पैदल गंगा टाना भगत, रती टाना भगत और अशोक भगत सातोगांव पहुंचे. दोपहर का भोजन हो, इसके पहले तालाब में नहाने की बात हुई. अशोक जी दशकों पहले की बात याद करते हैं कि नहाने तालाब पहुंचा, तो पाया कि वह कीचड़ भरा है. नहा नहीं पाये. पर गांव वाले वहीं अपना काम करते थे. इस तरह सातोगांव, अशोक भगत का आना-जाना और संपर्क हुआ. इसी बीच रती टाना भगत नहीं रहे.
गांव वालों ने अशोक भगत के सामने तीन प्रस्ताव रखें. जतरा टाना भगत (आजादी के लड़ाई के कद्दावर नेता)की प्रतिमा लगे, रती टाना भगत की भी मूर्ति बने और पहाड़ पर सिंचाई के लिए बांध बने. याद रखें, 1967 के भीषण अकाल के बाद से ही गांव वाले यहां बांध बनाने के लिए हर संभव कोशिश कर रहे थे. सरकार से. नेताओं से, जहां उम्मीद दिखती, उनसे आग्रह करते.
फिर अशोक भगत का सातोगांव से संपर्क बना. अशोक जी की पहल पर मकर संक्रांति का मेला सातोगांव में लगना शुरू हुआ. जनपहल और सहयोग से जतरा टाना भगत की भव्य प्रतिमा बिशुनपुर में लगी. रती टाना भगत की मूर्ति भी बनी-लगी. पर तीसरा काम पहाड़ पर बांध बांध कर पानी रोकना था. गांव पहुंचाना था.
तब अविभाजित बिहार में गुमला में डीसी थे, अनिल सिन्हा. अशोक भगत ने उन्हें सारी चीजें बतायीं. डीसी के आदेश से इंजीनियरों की टोली पहाड़ पर पहुंची. इन विशेषज्ञों का निष्कर्ष था कि यह काम असंभव है. फिर कमिश्नर नरेंद्रपाल सिंह के पास पहुंचे अशोक भगत, उन्होंने एक निजी घराने के लोगों से मदद के लिए कहा. इस तरह उस घराने के इंजीनियरों ने आकर देखा.
समझा-डिजाइन बनाया. फिर जिला योजना के तहत यह प्रस्ताव गया. कुल 90 हजार खर्च का इस्टीमेट बना. पर सरकार की ओर से महज 80 हजार पास हुए. गांव वाले तो यह कहते थे कि छड़ और सीमेंट हमें दे दें, हम खुद बांध बनाने का अपना काम करेंगे. अब गांव वालों ने पहल शुरूकी, जो सरकारी विकास दर्शन के लिए सबक और प्रेरक है. सातोगांव में पानी पहुंचाने के लिए ऊपर पहाड़ पर बांध बनाने, फिर पानी को उतारने के लिए 90 हजार का इस्टीमेट बना. सरकार द्वारा पास हुआ 80 हजार. शेष 10 हजार के लिए गरीब गांव वालों ने आपसी चंदा सहयोग अभियान चलाया. घर-घर से अन्य जरूरी प्राथमिकताएं छोड़ कर लोगों ने चंदे दिये. दो साल तक, गांव वालों ने श्रमदान किया. कुछेक खाना-पीना लेकर पहाड़ पर ही रहते थे. दो सालों में तीन-तीन माह ऐसे गुजरे, जब गांव से औरतें सुबह तड़के खाना बना कर पहाड़ पर पहुंचाती थीं.
गांव वाले पहाड़ तोड़ कर नाली बनाने में लगे हुए थे. बड़ी मशीनों से नहीं, ठेकेदारों के बड़े-बड़े औजारों के बल नहीं. खेती के अपने हरवे-हथियार व औजार से. इस तरह धीरे-धीरे पहाड़ पर बांध बना. फिर पहाड़ से नीचे नाली बना कर उसे गांव स्थित तालाब से जोड़ा. गांव वालों के लिए यह भगीरथ प्रयास था. पहाड़ से पानी नीचे तालाब तक लाना.
इस श्रमदान, लोकप्रयास का असर? लगभग 500 एकड़ की सिंचाई. झारखंड जब से बना, सिंचाई मद में हजारों करोड़ खर्च हो गये. पर कुल सिंचाई कितनी हो रही है? सातोगांव वालों ने अपने श्रम और मामूली सरकारी पूंजी 80 हजार रुपये के बल पर 500 एकड़ भूमि को सिंचित कर दिया.
22-23 साल पहले गया के दशरथ मांझी ने पहाड़ काट कर रास्ता बनाया था. अकेले. यह एक इंसान के संकल्प की विजय थी. 21 वर्षों पहले, इसकी पहली खबर प्रभात खबर में छपी. बहुत बाद में नीतीश कुमार सत्ता में आये, तो दशरथ मांझी को राज्य से लेकर दिल्ली तक सम्मान-पहचान मिली. क्या झारखंड सरकार सातोगांव के बहादुरों का सम्मान कर, अपना सम्मान कर सकती है? 12 साल हो गये, झारखंड को बने, क्या किसी ने सातोगांव जैसे काम करने वालों को पहचाना और सम्मान दिया?
झारखंड के लिए सूखा, अकाल और दुर्भिक्ष चुनौतियां हैं. हर वर्ष लगातार कोई न कोई प्राकृतिक संकट. 2010 में बरसात नहीं हुई, खेती में भारी नुकसान. उन्हीं दिनों द टेलिग्राफ अखबार में सात कालम में बड़ी लीड खबर छपी. बंपर हार्वेस्ट इन पार्चड लैंड. 400 विलेजर्स एक्ट आन ए ड्रिम, बीट फार्मिंग इनसिक्यूरिटीज फार एवर. (सूखी जमीन पर लहलहाती फसल. चार सौ गांव वालों ने एक सपना साकार किया, खेती की अनिश्चितता को हमेशा के लिए खत्म किया) रिपोर्ट संतोष कुमार किड़ो की थी. झारखंड के सवालों पर उम्दा लिखने वाले चुनिंदा नामों में से एक. बड़ी तसवीरें छपी थीं. लहलहाते खेत. खूब हरियाली. धान की लहलहाती फसल. याद रखिए, तब अन्य जगहों पर बरसात न होने के कारण रोपनी नहीं हुई थी. खेत सूखे और बंजर पड़े थे. बहरहाल यह बताना उद्देश्य नहीं कि उस गांव की तकदीर कैसे लोगों ने अपने हाथों से बदल दी.
उसी गांव में अशोक भगत जी के साथ हम बैठे थे. बरगद के विशाल छतनार पेड़ के नीचे. गांव के बुजुर्ग और युवा जमा थे. उन्होंने बताया कि पहले इन खेतों में सिलयाटी घास (जंगली) उगती थी. घरों में खाने का बंदोबस्त साल में बमुश्किल चार-पांच माह ही होता था.
इस एक बांध ने गांव की स्थिति बदल दी है. पलायन रुका है. बच्चे स्कूल जा रहे हैं. पूरे साल खाने का जुगाड़ हो गया है. 2010 में ग्राम स्वास्थ्य समिति मद से 10 हजार रुपया गांव वालों ने इसे बांध के मरम्मत में लगाया. अब वहां गेहूं, आलू, सब्जी, मटर वगैरह का उत्पादन होने लगा है. खेती से नगद पैसा घरों में आने लगा हैं. अब 18 किसान बीज उत्पादन में लगे हैं. वे यहीं बीज उत्पादित कर आसपास के गांवों में देंगे. इस प्रयास से खाने-पीने, पहनने का स्तर सुधरा है.
उस गांव जाते, रास्ते में हमने पाया था, दूर-दूर तक सूखे खेत. पर उस गांव के किनारे पहुंच कर खेतों में हरियाली देख कर हम स्तब्ध थे. गांव वाले कहते हैं कि थोड़ी मदद मिले, तो हम हरियाणा-पंजाब जैसी हरियाली ला देंगे. यहां ईख की खेती संभव है. गुड़ की फैक्ट्री संभव है. गांव वालों की बातें सुन कर, रांची और दिल्ली की सरकारें याद आती है. कृषि से लेकर फूड प्रोसेसिंग में उनकी बड़ी-बड़ी झूठी घोषणाएं या बड़े ख्वाब.
गांव के बुजुर्ग लोगों से बात हो रही थी. तब धीरजा भगत, जो 70 साल के थे. बांध जब बनना शुरू हुआ, तब 50 साल के थे. बांध या सिंचाई के शुरुआती सपना देखने वालों में से एक. उनसे पूछा अब तो खुश हैं?
उनका जो जवाब सुना, वह मन से उतरता नहीं. वह जवाब शहरी भाषा में कहें, तो एक जंगली से, अनपढ़ से, गरीब से सुना. पर सच कहूं, ताकतवर दुनिया देखने का थोड़ा-बहुत अवसर मिला है. समाज के संपन्न, विद्वान और ताकतवर लोगों को भी देखा है. नजदीक से. पर वैसा जवाब किसी से नहीं सुना. यही भारतीय मनीषा है.
आदिवासी संपदा है. मानव समाज को मुक्ति की राह ले जाने वाली एकमात्र सीढ़ी. इसी आदिवासी मनीषा के बल भारत आज भी दुनिया में खुशी के लिए बेचैन संसार की रहनुमाई कर सकता है.
क्या था, धीरजा भगत का जवाब? मेरा सवाल था, अब आप खुश हैं ना? यह प्रगति देख कर? पलायन रुका. बच्चे स्कूल जा रहे हैं. घर में सालभर के लिए अनाज है. सब्जियों की उपज से नगद पैसा मिल रहा है. दुख दूर हुआ.
धीरजा भगत ने मेरी ओर देखा. एक मिनट निहारा, कहा, कैसी खुशी? हम सातोगांव वाले खा रहे हैं, पर बगल के कोटा गांव वाले भूखे रहें, यह ठीक है? कोटा में सूखा है. बगल के निमरला, वरटोली, विचार, जोकारी सब गांव में सूखा है. खेत में ही बिचड़ा (धान का पौधा) रह गया. सड़ गया. वे भूखे रहें, हम भरपेट खायें, यह सुख है? खुशी है?
मैं स्तब्ध था.
खामोश और चुप. उनका चेहरा निहारता. पुरखे कह गये हैं कि मनुष्य जीवन के दो सबसे बड़े लक्ष्य हैं. पहला, सृष्टि को समझना, मानव जीवन का अर्थ तलाशना, मनुष्य होने (वीइंग) की वजह जानना और दूसरा, मानव जीवन या धरती को स्वर्ग बनाना, खुशी (हैपीनेस) पाना, ताकि जीवन स्वर्ग हो. सभी व्यवस्थाएं, विचार और दर्शन इसीलिए हैं न. इसके लिए हजारों वर्ष पहले भारतीय ऋषियों ने कहा कि न मेरा, न तेरा, ऐसा तो छोटे मन के लोग सोचते हैं. मेरा-तुम्हारा फर्क गलत है. वसुधैव कुटुंबकम. पूरी दुनिया ही परिवार है.
यही बात सातोगांव (जंगल का गांव) के गरीब किसान-अपढ़ किसान ने कही कि हम खुश नहीं हैं, क्योंकि हमारे पड़ोसी गांव संकट में हैं.
यह है भारतीय मनीषा. जीवन का सत्व. मनुष्य होने की गरिमा. धर्म, समुदाय, क्षेत्र, जाति से इसका कोई सरोकार नहीं. आज यही भारतीय चिंतन-मनीषा खतरे में है. इसे बचाना धर्म है. इस धरोहर को युवा पीढ़ी को सौंपना आज की बड़ी चुनौती है. जब दुनिया के बाजार में सबसे अधिक खोज, खुशी (हैपीनेस) की हो रही है, तब झारखंड के गांवों में यह अनमोल हीरा (विचार) जीवित है, इसे बचाने-बढ़ाने का भी कहीं प्रयास हो रहा है?
दिनांक 20.10.2012