इस लाश को तुरंत दफनाइए!
– हरिवंश – भयानक संकट या जनउबाल के दौर में ही नयी बहस शुरू होती है. उथल-पुथल के माहौल में ही नये विचार, नयी दृष्टि और नयी नीति की संभावना, समाज या देश तलाशता है. दुर्भाग्य से 1991 के अर्थसंकट ने महज उदारीकरण का रास्ता प्रशस्त किया. इस संकट को लेकर भारतीय समाज में कोई […]
– हरिवंश –
भयानक संकट या जनउबाल के दौर में ही नयी बहस शुरू होती है. उथल-पुथल के माहौल में ही नये विचार, नयी दृष्टि और नयी नीति की संभावना, समाज या देश तलाशता है. दुर्भाग्य से 1991 के अर्थसंकट ने महज उदारीकरण का रास्ता प्रशस्त किया. इस संकट को लेकर भारतीय समाज में कोई गंभीर बहस शुरू नहीं हो सकी.
आखिर कैसे और क्यों हम इस संकट के कगार पर पहुंचे? किसका दोष था? क्यों सोना गिरवी रखना पड़ा? 1991 का संकट अचानक तो था नहीं. वर्षों के कुप्रबंधन का परिणाम था. कोई प्रधानमंत्री देश की साख बचाने के लिए कठोर व अलोकप्रिय कदम उठाने को तैयार नहीं था. अंतत: चंद्रशेखर सरकार ने अंतरराष्ट्रीय बाजार में भारत को दिवालिया न होने देने के लिए सोना गिरवी रखने का विकल्प चुना.
तब प्रधानमंत्री, चंद्रशेखर ने तत्कालीन वित्त सचिव से पूछा, जब आर्थिक संकट इतने भयावह और गहरे थे, तो पूर्व के प्रधानमंत्रियों ने विदेशी मुद्रा संकट फाइल पर त्वरित फैसले क्यों नहीं किये? पता चला, हर प्रधानमंत्री ने फाइल देखी थी, पर आगे आनेवाले प्रधानमंत्री के लिए छोड़ दी. क्योंकि कोई अप्रिय और साहसिक फैसला नहीं लेना चाहता था. क्योंकि उन्हें कुरसी, सत्ता और गद्दी मोह था, देश हित नहीं.
भारतीय समाज में आज भी जमीन और सोना का खास महत्व है. संकट में सोना गिरवी रख अपनी आर्थिक सेहत सुधारने का काम भारतीय समाज करता रहा है. अर्थसंकट होने पर जमीन बेच कर या गिरवी रख कर भी अपने हालात बेहतर करने का काम भारत में होता रहा है.
1991 में केंद्र सरकार सोना गिरवी रखने के लिए विवश हुई. 2012 में मनमोहन सरकार भी आर्थिक संकट से निकलने के लिए सरप्लस सरकारी जमीन बेचने की तैयारी कर रही है. पर अब भी कहीं बहस नहीं हो रही है कि जमीन और सोना बेचने के लिए देश को विवश क्यों होना पड़ा? दरअसल कोई भी केंद्र में, सत्ता में होता, तो वह यह करने के लिए विवश है.
क्योंकि अंतरराष्ट्रीय बाजार में तेल के भाव में आग लगी हो, तो आप पानी के भाव तेल या डीजल नहीं बेच सकते? खाना पकाने की गैस की उत्पादन लागत बढ़े, तो आप मुफ्त में गैस उपलब्ध नहीं करा सकते. यह सब सही है, पर इस हालात के लिए पूरी भारतीय राजनीति और सभी दल जिम्मेवार हैं.
आज जब यूरोपीय देशों में आर्थिक संकट गहरा रहा है, तो वहां की राजनीति में सादगी, खर्च कटौती जैसे सवाल निर्णायक बन गये हैं. जिस भारत में 70-80 के दशक तक गांधी युग की सादगी, मितव्ययिता और सामान्य रहन-सहन आदर्श थे, वहां ‘90 आते-आते तक फैशन, फिजूलखर्ची और विलासपूर्ण भौतिक जीवन आदर्श हो गया है. इसके लिए राजनीति दोषी है. क्योंकि राजनीति के संस्कार, सरोकार और संस्कृति बदल गये हैं. हर समाज में मध्यवर्ग या युवा वर्ग इतिहास का हिरावल दस्ता माना जाता है. यह नया इतिहास बनाता और गढ़ता है. पुराना दफनाता है.
पर भारत का मध्यवर्ग या नौजवान, बुनियादी सार्वजनिक सवालों में दिलचस्पी नहीं रखता. वह शाहखर्ची, फैशन और टीवी के विज्ञापनों में दिखाये जानेवाले इंद्रलोक की कल्पना में डूब गया है. मध्यवर्ग का जब तक यह मानस होगा या भौतिक जीवन दर्शन रहेगा, राजनीति भ्रष्ट ही रहेगी. महंगे होटल, रोज बदलनेवाले फैशन, देश के नगर-नगर तक फैलता कालगर्ल रैकेट, यह सब क्या है?
डॉ लोहिया के शब्दों में कहें, तो धन, समय, प्यार, आत्मा और शरीर का यह सब अपव्यय है.
उन्हीं के अनुसार नेहरू युग आते-आते हम पहनावे, आदतों, विचारों, खर्च और जीवन में विलासी हो गये. क्यों नहीं संसद या भारत की राजनीति में इस बात पर बहस होती कि जब तक देश में संपदा नहीं हो जाती, तब तक फालतू फैशन, विलास, महंगी चीजों पर अपव्यय की अनुमति बंद हो. व्यक्तिगत खर्च सीमा तय हो. भ्रष्टाचार करनेवालों या सार्वजनिक धन लूटनेवालों को फांसी दी जाये. एक तरफ सरकारी कर्मचारियों को आप छठे वेतन आयोग का तोहफा देते हैं, निजी क्षेत्रों में करोड़ों की तनख्वाह मिलती है.
दूसरी तरफ सरकारी, निजी क्षेत्रों के बाहर रह रहे भारतीयों की दुनिया कौन देखता है? फर्ज कीजिए, सरकारी मुलाजिम (केंद्र सरकार या राज्य सरकारों के कर्मचारी + सार्वजनिक क्षेत्र या उपक्रम के कर्मचारी + निजी क्षेत्रों में काम करनेवाले लोग) को एक साथ जोड़ लें, तो मोटे तौर पर यह संख्या 10-15 करोड़ के बीच होगी. तब भी 100 करोड़ से अधिक भारतीय इस सरकारी या गैर सरकारी अर्थव्यवस्था की दुनिया से बाहर हैं. वे अपने हाल पर हैं. उन्हें कौन पूछ रहा है? सार्वजनिक क्षेत्रों में एक -एक तेल कंपनियों में 60-70 हजार का वेतन चपरासी पाते हैं.
बाबुओं की बात ही छोड़ दीजिए. क्या इनलोगों के काम की उत्पादकता और वेतन में कोई अनुपात होना चाहिए या नहीं? अगर ऐसे ही बैठा कर आप लगातार तनख्वाह बढ़ायेंगे. अरबों-अरबों की राशि अनुत्पादक क्षेत्रों पर खर्च करेंगे, तो तेल की कीमतें तो बढ़ेंगी ही. बहस तो यह होनी चाहिए कि जब भारत, आज विदेशी कर्ज में डूबा है, हर भारतीय पर आज 46 हजार का कर्ज है (देखें द फाइनेंशियल एक्सप्रेस, 01.10.2012), तब हमारे शासक वर्ग हवाई जहाज के फस्र्ट क्लास या एक्जक्यूटिव क्लास में क्यों यात्रा करें, महंगे होटलों में क्यों ठहरें? महंगी गाड़ियों में क्यों चलें? हमारे नेताओं, नौकरशाहों या आभिजात्यों पर इतना खर्च क्यों? क्यों संसद की कैंटीन में दो-चार-छह रुपये में शाही भोजन मिले और सड़क पर गरीब दस रुपये में चाय पीये?
राजनीति में अब क्यों यह सवाल नहीं उठता कि एक आम आदमी पर सरकार का क्या खर्च है, और एक सांसद या विधायक, एक प्रधानमंत्री, एक राष्ट्रपति या एक नौकरशाह पर कितना खर्च होता है? डॉ लोहिया, 1963 में जब संसद पहुंचे, तो उन्होंने सवाल उठाया कि भारत की औसत आदमी की आमदनी प्रतिदिन तीन आना है, जबकि प्रधानमंत्री के कुत्ते पर रोज तीन रुपये खर्च होते हैं और प्रधानमंत्री का खर्च 25 हजार रुपये है. हंगामा हुआ.
छह दिनों तक अर्थनीति पर संसद में बहस हुई. समता की बात उठी. न्यूनतम एक और अधिकतम दस के अनुपात में खर्च सीमा बंधे, यह चर्चा हुई. आज के संदर्भ में ऐसे सवाल क्यों नहीं उठते? हकीकत यह है कि आज शासक दल के नेता भी विदेश में छुट्टियां बिताते हैं, मौज-मस्ती करते हैं और विपक्ष के नेता भी. हाल के भ्रष्टाचार के कई मामलों को जोड़ दें, तो कई लाख करोड़ के घोटाले सामने दिखायी देते हैं. फर्ज करिए, अगर ये घोटाले नहीं हुए होते, तो संभव है गैस का यह संकट इतना बड़ा नहीं होता? पेट्रोल-डीजल की कीमतें इतनी नहीं बढ़तीं? फ्रांस की क्रांति के पहले रूसो ने कहा था कि फ्रांस में पादरी प्रार्थना करते हैं, सामंत लड़ते हैं और सामान्य लोग कर देते हैं. उसी तरह आज आम भारतीय कर वसूलने की दुधारू गाय बन गया है.
एक दलाल वर्ग देश में खड़ा हो गया है. यह वर्ग न श्रम करता है, न पूंजी लगाता है, पर पांच सितारा जीवन जीता है. 1980 में जाने-माने अर्थशास्त्री, प्रो जयदेव सेट्ठी ने तब आकलन कर कहा था कि 25 लाख लोग ऐसे हैं, जो एक धेला का श्रम नहीं करते, पर पांच सितारा जीवन जीते हैं. इस दलाल वर्ग के बारे में एक सुंदर उद्धरण है, ऐन रेंड का. वह कहते हैं, आप जब यह जानते या देखते हैं कि उत्पादन के लिए आपको उस आदमी से अनुमति लेनी है, जो किसी चीज का उत्पादन नहीं करता, जब आप देखते हैं कि उन लोगों के पास धन की नदी बह रही है, जो सौदेबाजी करते हैं, व्यापार नहीं करते, उपार्जन नहीं करते, बल्कि अफसरों या सरकारों से लोगों का काम करा देते हैं.
जब आप यह देखते हैं या पाते हैं कि लोग घूस से अर्जित पैसा पाकर धनाढय़ हो रहे हैं, काम करके नहीं. और ऐसे लोगों को सजा दिलवाने में कानून आपकी कोई मदद नहीं करता, बल्कि इन चीजों का विरोध करनेवाले आप जैसे लोगों के खिलाफ आपका कानून भ्रष्टों की हिफाजत करता है, तब समझ लीजिए कि आपके समाज को डूबना ही है. इसका सर्वनाश या सत्यानाश होना तय है. यही हाल है मौजूदा राजनीति का. विचारहीन और नयी संभावनाओं को जन्म देने की दृष्टि से यह बांझ और अनुर्वर है.
भारत सरकार के मौजूदा वरिष्ठ आर्थिक सलाहकार एवं अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष के पूर्व प्रधान अर्थशास्त्री, रघुराम राजन ने बहुत साफ स्वर में भारतीय भ्रष्टाचार और नौकरशाही की भूमिका की आलोचना की है. फिर क्यों नहीं कानून बना कर भ्रष्टाचारियों को फांसी की सजा दी जाती है. उल्टे राजा, कनिमोझी और सुरेश कलमाडी, अब संसद की समितियों में रखे जा रहे हैं.
भ्रष्टाचार का कीर्तिमान बनाने और जेल से लौटने के बाद इनका राजनीतिक अलंकरण या ताजपोशी हो रही है. किसी दल से या कहीं से आपने इसके खिलाफ आवाज सुनी? भारतीय राजनीति में अगर राजा, कनिमोझी और कलमाडी जैसे पात्र ही फलेंगे-फूलेंगे, तो आनेवाले दिनों में पांच-दस हजार में गैस सिलेंडर मिलेंगे और हजारों रुपयों में एक लीटर पेट्रोल-डीजल मिलेगा.
हाल में ब्रिटेन यात्रा के दौरान लंदन स्कूल ऑफ इकानामिक्स की पुस्तक दुकान में एक नयी पुस्तक मिली. ब्रिटेन आज संकट से गुजर रहा है. वहां के कंजरवेटिव पार्टी के उभरते पांच सांसदों ने मिल कर ब्रिटेनिया अनचेंड पुस्तक लिखी है. पुस्तक का मर्म है कि आज ब्रिटेन चौराहे पर है.
उसे फैसला करना है कि भविष्य की दुनिया में उसकी जगह कहां होगी? ब्रिटेन की आनेवाली पीढ़ियों को कैसा समाज और देश मिलेगा? अर्थव्यवस्था कैसी होगी? शिक्षा-प्रणाली कैसी होगी? सामाजिक न्याय और सामाजिक गतिशीलता क्या होगी? कैसे यह (ब्रिटेन) औसत प्रतिभावालों का मुल्क न रहे. 21वीं शताब्दी में यह देश कैसे उभर कर अपनी जगह बनाये. यह बेचैनी है, आज उस मुल्क में भी, जो भारत से बहुत आगे हैं. दरअसल, कोई तुलना ही नहीं है.
पर, कहीं आपने भारत के किसी दल या राजनीतिक खेमे में यह चर्चा सुनी कि इस देश को महान बनाने का दस्तावेज हमने तैयार किया है. हम इस पर राष्ट्रीय बहस चला रहे हैं. हम गांव-गांव जायेंगे, घर-घर जायेंगे और राजनीति में नयी इबारत लिखेंगे. भारतीय राजनीति सड़ गयी है.
इसकी मौजूदा लाश को तुरत दफना देना ही शुभ होगा. इसमें नयी हवा, नयी ऊर्जा चाहिए. नयी दृष्टि, नये विचार की ताकत चाहिए और नया खून चाहिए, तब शायद कहीं मौलिक ढंग से अपनी चुनौतियों को हम देख-समझ पायेंगे.
दिनांक 07.10.2012