अपराधियों की नैतिकता!
– हरिवंश – वर्षों पहले देश के बड़े राजस्व अफसर एके पांडेय की पुस्तक पढ़ी थी. ग्रिट दैट डिफीट्स आड्स : ए रिफ्लेक्शन ऑफ ए रेवेन्यू आफिसर (चरित्र, जिन्होंने विषम हालातों को पछाड़ा : एक राजस्व अधिकारी के संस्मरण). श्री एके पांडेय भारतीय कस्टम और राजस्व विभाग के वरिष्ठ अधिकारी रहे. 36 वर्षो तक. वित्त […]
– हरिवंश –
वर्षों पहले देश के बड़े राजस्व अफसर एके पांडेय की पुस्तक पढ़ी थी. ग्रिट दैट डिफीट्स आड्स : ए रिफ्लेक्शन ऑफ ए रेवेन्यू आफिसर (चरित्र, जिन्होंने विषम हालातों को पछाड़ा : एक राजस्व अधिकारी के संस्मरण). श्री एके पांडेय भारतीय कस्टम और राजस्व विभाग के वरिष्ठ अधिकारी रहे. 36 वर्षो तक. वित्त मंत्रालय में. वह अत्यंत वरिष्ठ पद से रिटायर हुए.
अनेक महत्वपूर्ण पदों पर रहने के बाद उन्हीं द्वारा लिखित यह पुस्तक छपी, कोणार्क पब्लिकेशन प्राइवेट लिमिटेड द्वारा. कोणार्क के प्रकाशक ने अनेक ऐसी किताबें छापीं, जिन्होंने देश के अनेक महत्वपूर्ण मुद्दों के सच बेनकाब किये. उनके द्वारा छपी अधिकतर पुस्तकें, भारत सरकार के ही बड़े पदों पर रहे अफसरों द्वारा लिखी गयी हैं. सरकार के अंदर की बातों और गंभीर व्यवस्था में लिपटी सरकारी कार्यप्रणाली पर वरिष्ठ सरकारी अफसरों द्वारा ही लिखे जाने के कारण कोणार्क के प्रकाशकों के खिलाफ आयकर के छापे पड़े. अनेक कानूनी कार्रवाई शुरू हुई.
कोणार्क का अपराध यह था कि भारत सरकार के वरिष्ठतम पदों पर रहे ईमानदार अफसरों के संस्मरण उसने छापे, जिनसे व्यवस्था के अंदरूनी और असली सच सामने आये. बड़े और प्रभावी नेताओं के नकाब उतरे.
बहरहाल, इसी पुस्तक में एक अध्याय ‘आफिसर दया’ (अफसर दयाशंकर) पर था. इस पुस्तक की समीक्षा के क्रम में हमने खासतौर पर कस्टम अधिकारी दयाशंकर के बारे में वर्षों पहले लिखा था. उसी अफसर दयाशंकर का निधन हाल में हुआ. (देखें प्रभात खबर के दिनांक 22.08.12 का पेज एक टॉप बाक्स). दयाशंकर के न रहने पर प्रभात खबर में ब्रजेश कुमार सिंह की बड़ी प्रभावी व मार्मिक रिपोर्ट छपी, जिसमें अपने समय के सबसे बड़े तस्कर लल्लू जोगी का भी उल्लेख है.
उन दिनों पश्चिम के स्वराष्ट्र तट से लेकर दमन व बलसार तट तक स्मगलिंग के माल लल्लू जोगी की मरजी से ही चढ़ते-उतरते थे. दयाशंकर जी की पोस्टिंग दमन-दीव में थी. कस्टम अफसर के रूप में. एक रात लल्लू जोगी साथियों के साथ दमन के समुद्र तट पर रात के वक्त चांदी की सिल्लियां उतारने में लगा था. तब अचानक दयाशंकर ने छापा मारा. लल्लू जोगी ने अपनी कारबाइन दयाशंकर पर तान दी.
हटने को कहा. दयाशंकर बिना खौफ लल्लू जोगी की तरफ बढ़े. लल्लू जोगी को चांदी की सिल्लियां भी बचानी थीं और अपनी गिरफ्तारी से भी बचना था. उसने दयाशंकर के दायें-बायें फायरिंग की. पीछे भागा. पर, उन पर गोलियां नहीं चलायी. चांदी की इतनी बड़ी खेप पकड़ी गयी. करोड़ों-करोड़ों का माल. फिर भी उसने दयाशंकर को निशाना नहीं बनाया. इस प्रसंग को याद करते हुए पत्रकार, ब्रजेश कुमार सिंह को लल्लू जोगी ने बहुत वर्षों बाद कहा, शेर, शेर का शिकार नहीं करता. पत्रकार ब्रजेश कुमार का सवाल था कि आप (लल्लू जोगी) गोली चला सकने की स्थिति में थे, पर आपने दयाशंकर पर गोली नहीं चलायी ? यानी अपराधी लल्लू जोगी में भी ईमानदार दयाशंकर के प्रति एक आदर था. दाऊद इब्राहीम ने द इलस्ट्रेटेड वीकली को एक इंटरव्यू दिया था. 1988 में.
इस साक्षात्कार में उसने कहा था, यदि उसे सुधरने का मौका मिला, तो वह दयाशंकर के नीचे इंस्पेक्टर के रूप में काम करने को तैयार है. लल्लू जोगी और दाऊद इब्राहिम, अपराध और तस्करी के पर्याय थे. दयाशंकर कस्टम के अधिकारी. कानून के रखवाले.
अत्यंत ईमानदार. 24 कैरेट के. जिन्हें पकड़े गये माल में, इनाम के तौर पर हिस्सा मिलने का कानूनी प्रावधान था, फिर भी अरबों का माल पकड़नेवाले, उस व्यक्ति ने करोड़ों-करोड़ों की अपनी वैधानिक राशि छोड़ दी. उस तरह के ईमानदार. अपराधी तत्वों को किसी कीमत पर पकड़ने और दंडित करनेवाले ? ऐसे दुश्मन ! ऐसे गलत काम करनेवालों के मन में भी ऐसे ईमानदार अफसर के प्रति इतना आदर और सम्मान था. क्यों ? इस सम्मान का मूल स्रोत क्या था?
हम किशोर हो रहे थे. तब चंबल के डकैतों की गूंज थी. कहा जाता था कि उनकी दुनिया में लौकिक व्यवहार या नैतिक मापदंड बड़े जबरदस्त थे. आमतौर से गरीबों पर अत्याचार नहीं, असहाय और कमजोर लोगों पर पलटवार नहीं. विधवा औरतों, महिलाओं और लड़कियों को पूर्ण सुरक्षा. गरीबों के खिलाफ आमतौर से अपराध नहीं, यानी एक सख्त नैतिक आचार-संहिता वहां भी थी. उन अपराधियों की दुनिया में, जिन्हें हम जंगलराज या खौफ का पर्याय कहते हैं.
अंगुलीमाल या वाल्मीकि जैसे लोग भारतीय समाज में हुए, जिनके शुरुआती दिन अत्यंत खौफनाक और डरावने थे. पर उनमें भी विचार और नैतिकता की नदी की एक धारा थी. जो समय मिलने पर फूटी. अंकुरित हुई फिर प्रवाहित भी. ईमानदार नेताओं, कार्यकर्ताओं या समाज में वसूलों के लिए लड़नेवाले फकीरों के खिलाफ तब खूंखार अपराधी सामान्यतया सुपारी या नुकसान पहुंचाने का ठेका नहीं लेते थे. बल्कि उन अपराधियों के मन में भी ऐसे ईमानदार लोगों के प्रति एक आदर था. इसका कारण महज अपराध बोध नहीं था. एक सतह के नीचे, वह अपराधी बन गये लोग भी संपूर्ण मानव थे.
नैतिक मानव थे. इसलिए सुदर्शन की कहानी, हार की जीत एक कालजयी कहानी बन गयी. बाबा भारती और डाकू खड़गसिंह अमरपात्र हो गये. कहानी में बाबा भारती के पास एक अनमोल घोड़ा था. डाकू खड़गसिंह, इलाके का सबसे बड़ा डकैत. उसका भय है. वह घोड़े पर फिदा है. अपाहिज बन कर वह बाबा भारती से घोड़ा ठग लेता है. बाबा को घोड़ा खोने से अधिक अपाहिज लोगों की बातों से भरोसा, यकीन उठ जाने का भय है. वह डाकू खड़ग सिंह से कहते हैं, घोड़ा ले जाओ, पर यह बात किसी को मत बताना कि तुमने अपाहिज बन कर मुझसे घोड़ा ठगा? फिर लोग बातों पर यकीन करना छोड़ देंगे.
इस तरह झूठ और छल का सहारा लेकर एक संत बाबा भारती से एक डकैत खड़गसिंह घोड़े का अपहरण करता है. पर, इस झूठ और छल से उस डकैत की नींद गायब हो जाती है. उसकी आत्मा कचोटती है. संत की चिंता है कि इस छल को जानकर लोग कहीं गरीबों और अपंग लोगों पर विश्वास करना न बंद कर दें. डकैत बेचैन है कि उसने एक संत के साथ क्या किया? वह चुपचाप घोड़ा लौटा देता है.
ये बातें महज कहानी तक नहीं थीं. गांवों में विधवाएं अकेले गुजर करती थीं. आमतौर से बेईमान और खूंखार लोग ऐसे लोगों को सताने से बचते थे. आजादी की लड़ाई में गांव-गांव तक गांधी की राह चलनेवाले लोग उभरे थे. अपढ़, अशिक्षित पर अद्भुत चरित्र, तेज और नैतिक बल से संपन्न.
उनका सम्मान अत्यंत पैसेवाले से लेकर दबंग लोग करते थे. 1972 में चंबल के डाकुओं ने जयप्रकाश नारायण (जेपी) के सामने आत्मसमर्पण किया. इसके पहले 1960 में, तब के खूंखार चंबल डकैतों ने बिनोवा के आगे आत्मसमर्पण किया था. 1960 के आसपास डाकू मानसिंह और पंडित लुका दीक्षित के गिरोह के लोग. 1972 में, एक लाख के इनामी डकैत माधव सिंह छिप कर जेपी से मिलने आया. आत्मसमर्पण की बात करने. तब जेपी ने कहा, आप अकेले नहीं, चंबल के अन्य डकैतों से भी बात करें. सबका एक साथ आत्मसमर्पण हो.
तब चंबल के नंबर एक बागी (वहां के डकैत खुद को बागी ही कहते थे) मोहर सिंह थे. उन पर उन दिनों ढाई लाख का इनाम था. माधव सिंह पर डेढ़ लाख का. माधव सिंह ने जेपी से कहा, मोहर सिंह से कौन बात करेगा ? जेपी ने कहा, आप करेंगे. माधव सिंह सन्न. क्योंकि दोनों एक-दूसरे के खून के प्यासे थे. अनेक बार आपस में मुठभेड़ हो चुकी थी. दोनों ओर से अनेक लोग मारे गये थे. माधव सिंह ने कहा, वो तो देखते ही गोली मार देंगे. जेपी ने कहा, आप मन से बदल रहे हैं, तो आपको यह करना होगा.
जोखिम उठाना होगा. तब माधव सिंह संदेश भेज कर निहत्थे मिलने गये. मोहर सिंह अपने घोर दुश्मन को सामने निहत्था देख अवाक. पर दिल खोल कर स्वागत किया. फिर आने का मकसद पूछा ? यानी जानी दुश्मन और एक-दूसरे के खून के प्यासे दुश्मनों के बीच भी नैतिक वसूल थे. अपने घर आये अतिथि, अपनी शरण में आये व्यक्ति या निहत्थे व्यक्ति पर वार नहीं.
भारतीय परंपरा में यह मूल्य, मान्यता और संस्कार रहे हैं. हाल-हाल तक. कस्टम आफिसर, दयाशंकर का प्रसंग बमुश्किल 20 वर्षों पुराना है. जिस दयाशंकर से सबसे अधिक जिन अपराधियों को नुकसान था, लल्लू जोगी या दाऊद इब्राहिम को, वे अपराधी ही उस अफसर की ईमानदारी पर फख्र करते थे. सम्मान करते थे. इतना सम्मान कि उन्हें निहत्थे पाकर भी, अपना करोड़ों गवां कर भी उन पर गोली नहीं चला पाते थे. बातचीत में उन्हें अपना आदर्श मानते थे. क्यों ?
क्योंकि एक ईमानदार व्यक्ति पूरे समाज की अनमोल थाती या पूंजी है. धरोहर है. वह अंधेरे में प्रकाश की तरह है. क्या प्रकाश के अभाव में महज अंधेरे में समाज जी सकता है? कोई भी समाज या देश ईमानदारी से ही निखरता है. आगे बढ़ता है. बेईमान, अपराधी या गलत लोग भी अपनी भावी पीढ़ी के लिए, अपने बच्चों के लिए, अपने परिवार के लिए, एक ईमानदार, विश्वास भरा और बेहतर माहौल ही चाहते हैं. यही वजह है कि एक बेईमान, अपराधी या गलत इंसान भी सामने के ईमानदार इंसान को सम्मान देता था. आज माहौल बदल गया है.
महज गुजरे 20 वर्षों में. इंदिरा गांधी के दौर तक (1974 तक) आजादी की लड़ाई के मूल्य जीवित थे. राजनीति में या नौकरशाही में ईमानदारी, सादगी, कर्तव्यनिष्ठा, प्रतिबद्धता, मूल्य एवं संस्कार को जनता पूजती थी. राजनीति ही प्रेरित करती है. अगुवाई करती है. दिशा देती है. जब राजनीति का मूल स्रोत गंदे तत्वों से भर जाये, तो राजनीति की यह ताकत गायब हो जाती है. भारत में यही हुआ है. इसलिए राजनीति अब समाज के लिए आदर्श नहीं रही. प्रेरणा का स्रोत नहीं रही. राजनीति (अपवादों को छोड़ कर) नफरत पैदा करती है. इस बदलाव ने समाज के सारे मूल्यों और वसूलों को पलट दिया है.
अब ईमानदार की कोई कद्र नहीं. अनेक ईमानदारों को जानता हूं, जिनके लिए ईमानदारी ही बोझ बन गयी है. वे अपने दिल का बोझ बांट नहीं सकते. उलटे प्रताड़ित हो रहे हैं. लगातार निराशा के सागर में डूबे रहते हैं. ऐसे माहौल में दयाशंकर जैसे अफसर के प्रति अपने समय के सबसे बड़े अपराधियों द्वारा व्यक्त सम्मान हमें याद दिलाता है कि हम कहां से कहां पहुंच गये हैं ?
दिनांक 02.09.2012