नेता बनाम जनता
– हरिवंश – परंपरा रही है कि पारदर्शी और ईमानदार राजनीति में, जो आरोपों के घेरे में आते हैं, उन्हें बेदाग या निर्दोष साबित होने तक बिना कहे स्वेच्छा से पद त्याग देना चाहिए. आदर्श लोकतंत्र की यह बुनियादी बात है. क्योंकि आप सत्ता के सर्वोच्च शिखर पर हैं, तो आपके मातहत के तंत्र, जो […]
– हरिवंश –
परंपरा रही है कि पारदर्शी और ईमानदार राजनीति में, जो आरोपों के घेरे में आते हैं, उन्हें बेदाग या निर्दोष साबित होने तक बिना कहे स्वेच्छा से पद त्याग देना चाहिए. आदर्श लोकतंत्र की यह बुनियादी बात है.
क्योंकि आप सत्ता के सर्वोच्च शिखर पर हैं, तो आपके मातहत के तंत्र, जो आपके खिलाफ जांच करता है, उस पर एक मनोवैज्ञानिक दबाव होता है. यह अलग बात है कि इस मनोवैज्ञानिक दबाव के बावजूद ईमानदार अफसर पीछे नहीं हटते पर यह अपवाद स्थिति है. ट्रेजडी तो यह है कि केंद्र के दो-दो मंत्रियों से सीबीआइ घोटालों में पूछताछ करे पर विपक्ष उनके इस्तीफे की मांग भी न करे.
इंसान की तरह, देश को भी जीने-बढ़ने और हौसला रखने के लिए प्रेरणास्रोत चाहिए. निजी जिंदगी में, नायक या रोल मॉडल प्रेरित करते हैं. निराशा, चुनौतियों, संकट की घड़ी या कठिन दौर में पस्त मनोबल को नयी ऊर्जा देते हैं. हताश नहीं होने देते. मोटिवेट करते हैं. गिर-गिर कर खड़ा होने का बल देते हैं. धूल और राख में पड़े इंसान या राष्ट्र को जोश देते हैं.
आज के भारत में ये रोल मॉडल या प्रेरणास्रोत कहां हैं? पहले क्या स्थिति थी? आजादी की लड़ाई के दिनों की बात तो भूल जायें, उसके बाद, सत्ता संभालते हुए लोगों ने आदर्श कायम किये. एक नहीं अनेक. हालांकि ऐसे लोगों की परवरिश आजादी की लड़ाई में हुई थी. पर वे साधारण इंसान, अपने कामों से असाधारण बन गये.
एक मामूली रेल दुर्घटना पर इस्तीफा देकर लाल बहादुर शास्त्री ने क्या संदेश दिया? ऊपर बैठे लोग, अपने मातहत के कामों की नैतिक जिम्मेदारी-जवाबदेही लें. उसी तरह आचार्य नरेंद्र देव ने जब कांग्रेस से त्यागपत्र दिया, तब अपनी जीती हुई सीट को भी त्याग दिया. ऐसे असंख्य उदाहरण हैं, जिन्होंने सार्वजनिक जीवन में एक मापदंड स्थापित किया. ये उदाहरण-आचरण सार्वजनिक जीवन की कसौटी बन गये.
आज हम कहां खड़े हैं? चार अगस्त का एक अंगरेजी समाचार पत्र (दिल्ली) खोला, तो खबर पढ़ी, ‘आदर्श हाउसिंग सोसाइटी घोटाले में अब केंद्रीय मंत्री विलास राव देशमुख से सीबीआइ पूछताछ करेगी. इसी मामले में एक और केंद्रीय मंत्री (सुशील कुमार शिंदे, ऊर्जा मंत्री) से भी सीबीआइ पूछताछ कर चुकी है. दो कैबिनेट मंत्रियों पर गंभीर आरोप लगे, उनसे सीबीआइ पूछताछ करे, पर सार्वजनिक जीवन में सवाल न उठे. कोई बेचैन-चिंतित न हो, यह अजीब माहौल है.
केंद्रीय मंत्री देश की रहनुमाई करते हैं. वे सर्वोच्च संवैधानिक सत्ता के प्रतीक हैं, उन्हें अपने हर आचरण, काम और जीवनशैली में बेदाग होना ही चाहिए. क्योंकि वे 120 करोड़ लोगों की अगुवाई करते हैं, उनके लिए आदर्श प्रस्तुत करते हैं. उनके चले रास्ते, सार्वजनिक जीवन की राह, मान, मर्यादा और मूल्य तय करते हैं. परंपरा रही है कि पारदर्शी और ईमानदार राजनीति में, जो आरोपों के घेरे में आते हैं, उन्हें बेदाग या निर्दोष साबित होने तक बिना कहे स्वेच्छा से पद त्याग देना चाहिए. आदर्श लोकतंत्र की यह बुनियादी बात है. क्योंकि आप सत्ता के सर्वोच्च शिखर पर हैं, तो आपके मातहत के तंत्र, जो आपके खिलाफ जांच करता है, उस पर एक मनोवैज्ञानिक दबाव होता है. यह अलग बात है कि इस मनोवैज्ञानिक दबाव के बावजूद ईमानदार अफसर पीछे नहीं हटते पर यह अपवाद स्थिति है.
ट्रेजडी तो यह है कि केंद्र के दो-दो मंत्रियों से सीबीआइ घोटालों में पूछताछ करें पर विपक्ष उनके इस्तीफे की मांग भी न करे. सत्ता पक्ष की आभा तो अनेक घोटालों में फंस कर मलिन हो ही चुकी है. पर असल दुखद प्रसंग है, विपक्ष द्वारा अपनी सार्थक व प्रभावी भूमिका छोड़ देना. विपक्ष क्यों नहीं ऐसे मंत्रियों से इस्तीफा मांग रहा है?
तो कौन मांगेगा? राजद? समाजवादी पार्टी? बसपा? या भाजपा? हर एक के बड़े नेता समय-असमय बड़े पदों पर रहते हुए इसी क्रम से गुजर रहे हैं या गुजर सकते हैं. विपक्ष में भी ऐसे लोग हैं जो मुख्यमंत्री या मंत्री रहते हुए कहते थे कि किसी घोटाले में सीबीआइ ने पूछताछ कर ली, तो हम दोषी नहीं हो गये.
फिर क्यों पद छोड़ें? सब जानते हैं कि इस देश की न्यायिक व्यवस्था में दोषी साबित होने में कितने दशक लगते हैं या उम्र गुजर जाती है. इस तरह सत्ता और विपक्ष ने अघोषित समझौते के तहत तय कर लिया है कि सार्वजनिक जीवन में नैतिक मापदंड रहने ही नहीं देना है. इसलिए ऐसे प्रसंगों पर सब मौन हैं.
इन दो केंद्रीय मंत्रियों से सीबीआइ द्वारा पूछताछ के पीछे एक रोचक तथ्य है. यह भी न्यायपालिका के हस्तक्षेप से संभव हुआ है. बंबई हाइकोर्ट में एक पीआइएल की सुनवाई में अदालत ने कहा कि इसमें जिन-जिन लोगों पर आशंका, सुबहा-संदेह है, उन सबको समान दोषी मानकर, सबके साथ एक जैसा बरताव हो. विलास राव देशमुख और सुशील शिंदे जब महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री थे, तो इस 31 मंजिल की बिल्डिंग को (आदर्श हाउसिंग सोसाइटी घोटाला) बनाने की प्रक्रिया चल रही थी. सभी कानूनों की धज्जियां उड़ाते हुए मुख्यमंत्री की हैसियत से इन दोनों ने इस फाइल को ‘डील’ किया था.
पर ये दोनों ही दोषी क्यों माने जायें, जब हर तरफ यही आलम है. कैग (कंपट्रोलर एंड ऑडिटर जनरल) की रिपोर्ट ने काफी खोजबीन, मशक्कत और श्रम से ‘टेंडरों’ में खेल के जो सबूत एकत्र किये हैं, उनसे दिल्ली की मुख्यमंत्री की नींद गायब है. एक टेंडर देनेवाली कंपनी को पहले अयोग्य करार देकर हटाना, फिर उसे टेंडर दे देना, जैसे अनगिनत अकाट्य आरोप. साफ, सीधे और चुभनेवाले आरोप. अब मुख्य सचिव (दिल्ली) रोज सफाई देते घूम रहे हैं. शीला दीक्षित मौन हैं. विपक्ष भी चुप है.
उधर भाजपा अध्यक्ष नितिन गडकरी फरमा रहे हैं कि जमीन घोटाले पर ही येदुरप्पा ने इस्तीफा दे दिया है, तो हरियाणा के मुख्यमंत्री भूपेंद्र सिंह हुड्डा अपने पद पर क्यों हैं? गुजरे सप्ताह, यह भंडाफोड़ हुआ कि राजीव गांधी चैरिटेबुल ट्रस्ट को गुड़गांव में कैसे जमीन मिली? इसमें क्या-क्या अनियमितताएं हुईं, उन पर मीडिया में काफी तथ्य सामने आये हैं.
अब कांग्रेस के लिए भी मुसीबत है कि वह कहां-कहां सार्वजनिक जीवन में श्रेष्ठ मापदंड अपनाये? इस प्रयास में सफाई शुरू हो, तो कौन बचेगा? उधर विपक्ष भी जानता है कि जमीन आरोपों से घिरे होने पर पद छोड़ने की परंपरा चल पड़ी, तो विपक्ष में भी कितने चेहरे बचेंगे? धूमिल की एक कविता की पंक्ति का आशय है कि,’जहां पूंछ उठायी, मादा पाया’ वही हाल है राजनीति का. जहां-जिस दल में देखिए, वही हाल. क्या यही लोग हमारे रोल मॉडल है? सही सवालों पर पक्ष-विपक्ष की एक तरह भूमिका-आचरण.
इसलिए सत्ता पक्ष-विपक्ष में ऐसे सवालों पर तालमेल लगता है. दिल्ली में यह चर्चा भी है अन्ना हजारे या जगती जनता का भय है.
इस बार संसद अच्छी तरह से क्यों चल रही है?( हालांकि यह स्वस्थ परंपरा है.) क्यों सत्ता पक्ष-विपक्ष, बहिष्कार, अड़ियल रवैये नहीं अपना रहे? निजी बातचीत में सांसद कहते हैं कि राजनीतिज्ञों से जनता नफरत कर रही है, यह हमें पता है, पर अब इस लोकशाही को जमाने में अन्ना के उदय से हम राजनीतिज्ञों को खतरा है. इसलिए हम मिल-जुलकर लोकतंत्र को बेहतर करना चाहते हैं. यानी लोक का दबाव बढ़े तो राजनीति का स्तर सुधरे.
दिल्ली की एक और दिलचस्प चर्चा. कैग के विनोद राय और भारत के मुख्य न्यायाधीश एसएच कापड़िया की खरी भूमिका से आज देश की बीमारियां पता चल रही हैं. अगर बालाकृष्णन जैसे मुख्य न्यायाधीश या उसी प्रवृत्ति के कैग प्रमुख हो जायें, तो राजनीतिज्ञ चैन पायेंगे.
यह कोशिश चल रही है कि कैग में विनोद राय के बाद कोई सत्ताचारण बैठा दिया जाये, तो सिरदर्द खत्म. पर ऐसे प्रयास भी लोक दबाव से ही खत्म होंगे. सीवीसी की नियुक्ति के लिए जो मापदंड, सुप्रीम कोर्ट ने तय किये हैं, वैसे ही मापदंड कैग प्रमुख की नियुक्ति के लिए बनें. सुप्रीम कोर्ट में नियुक्ति की आचरण संहिता तय करने के लिए कोई मापदंड बने, यह भी पीआइएल से ही संभव है. पर यह भी लोक दबाव या लोक पहल से ही मुमकिन है.
दिनांक : 07.08.2011