रामदेव जी की असल परीक्षा!

– हरिवंश – क्या आतंकवादियों और दाऊद से बड़े खतरे हैं, रामदेवजी, बालकृष्ण और पतंजलि योगपीठ? कम से कम स्वास्थ्य क्षेत्र में रामदेवजी ने एक नयी चेतना-जागरूकता पैदा की है. आज राजनीति और बाजार ने चिकित्सा को इतना महंगा और पहुंच से बाहर कर दिया है कि सामान्य लोग मरना पसंद करते हैं, अस्पतालों में […]

By Prabhat Khabar Digital Desk | July 3, 2015 11:40 AM
– हरिवंश –
क्या आतंकवादियों और दाऊद से बड़े खतरे हैं, रामदेवजी, बालकृष्ण और पतंजलि योगपीठ? कम से कम स्वास्थ्य क्षेत्र में रामदेवजी ने एक नयी चेतना-जागरूकता पैदा की है. आज राजनीति और बाजार ने चिकित्सा को इतना महंगा और पहुंच से बाहर कर दिया है कि सामान्य लोग मरना पसंद करते हैं, अस्पतालों में जाने से, तब रामदेव जी ने देसी परंपरा को पुनर्जीवित कर एक अलग माहौल बनाया.
यह उनकी बड़ी देन है. उनके मुकाबले हमारे राजनीतिज्ञों की देन क्या है? कैसे हमारे राजनीतिज्ञ, बिना घोषित आमद के दिल्ली में शहंशाहों का जीवन जीते हैं? उनकी कौन-सी नौकरी है? क्या आमद है? व्यवसाय है?
बाबा रामदेव के अनन्य सहयोगी बालकृष्ण फरार या भूमिगत हैं. कारण, सीबीआइ व पुलिस उन्हें तलाश रही है. यह भी सूचना है कि बाबा रामदेव भी पुलिस शिकंजे में आयेंगे. इन दोनों व पतंजलि विद्यापीठ (बाबा रामदेव की चिकित्सा संस्था) के खिलाफ भी जांच शुरू हो गयी है.
बाबा रामदेव, बालकृष्ण और पतंजलि विद्यापीठ के खिलाफ जांच की शुरुआत कब हुई? इनके घोषित अपराध क्या हैं? जिस दिन बाबा रामदेव ने भ्रष्टाचार के खिलाफ हुंकार भरी, वह सत्ता की निगाह में चढ़ गये. काला धन, विदेशी बैंकों में जमा धन वगैरह पर साहस के साथ बोलना, लोगों को जगाना, उनके मुख्य आपराधिक काम लगते हैं.
बहाने जो भी बनाये जायें, जिस दिन दिल्ली के रामलीला मैदान में उन्होंने भ्रष्टाचार और विदेशों में रखे कालेधन के मुद्दे पर अनशन, आंदोलन और सत्याग्रह का रास्ता अख्तियार किया, वह सत्ता के सिरदर्द हो गये. जनता की भावना-बात बताने का उन्होंने अक्षम्य अपराध किया.
आज की राजनीति में सत्ता के खिलाफ बोलना मामूली जुर्म नहीं है. याद रखिए, रामलीला मैदान (दिल्ली) की आवाज, दिल्ली में सत्ता चलाने वालों को तुरंत सुनाई देती है. 26 जून 1975 को इसी मैदान से जयप्रकाश नारायण ने भी भ्रष्टाचार मिटाने के संघर्ष का आवाहन किया था.
आधी रात वह जेल भेजे गये. जेपी और बाबा रामदेव की तुलना करने की अक्षम्य या भारी भूल मैं नहीं कर रहा. जेपी जैसे इंसान कभी-कभार आते हैं. पर जेपी की राह पर चलने की भूल बाबा रामदेव ने की, बाबा ने भी लोकशक्ति को जगाने और भ्रष्टाचार मिटाने की बात की, वह भी दिल्ली के सत्ताधीशों को सुनाकर, तो उनके व उनसे जुड़े लोगों के खिलाफ जांच होनी ही थी. याद रहे, तब जेपी को सीआइए एजेंट कहा गया.
उनसे जुड़ी संस्थाओं के खिलाफ सीबीआइ जांच शुरू हुई. कुदाल आयोग बना. हर तरह से प्रताड़ना, जांच और लांछनों का दौर चला. यह भी याद कर लें कि सारी ताकत झोंक देने के बाद भी जेपी और उनसे जुड़ी संस्थाओं के खिलाफ एक भी आरोप सिद्ध नहीं हुए. पर यह क्लीन चिट जेपी व उनकी संस्थाओं को कब मिला? राजीव गांधी प्रधानमंत्री बने, विपक्ष ने मुद्दा बनाया, तब? लगभग दस वर्षों बाद. कुदाल आयोग पर सरकारी खर्च करोड़ों रुपये का, लेकिन जांच रिजल्ट शून्य.
जेपी की गिरफ्तारी के बाद कांग्रेसी इतने प्रसन्न थे कि वे कहते थे, देख लिया एक पत्ता नहीं खटका. यही इन लोगों का जनाधार है? पर सत्ता में डूबे लोग भूल गये, जेपी की वह शालीन प्रतिक्रिया, जो उन्होंने गिरफ्तारी के बाद आधी रात (25 जून 1975) को कही. विनाशकाले विपरीत बुद्धि.
मार्च 1977 की रात (जिस दिन चुनाव परिणाम आये) जब देश ने अपनी प्रतिक्रिया दी, तब सत्ताधीशों को समझ में आया कि किसका क्या जनाधार है?
जेपी की प्रतिक्रिया चिरंतन-सनातन सच है. आज भी यह उतनी ही प्रासंगिक. संभव है सीबीआइ-पुलिस जांच में बालकृष्ण-बाबा रामदेव बड़े अपराधी सिद्ध हों. जालसाज साबित हों. पर सार्वजनिक जीवन में भ्रष्टाचार को मुद्दा बनाने के पहले या रामलीला मैदान प्रकरण के पहले से ही वह गलत रहे होंगे.
तब क्यों जांच शुरू नहीं हुई? उनके खिलाफ पहले भी कई आरोप लगाये गये, तब सरकार क्यों मौन रही? क्यों रामलीला मैदान घटना के पहले बाबा को मनाने या उनके साथ समझौते की कोशिश करती रही सरकार, जब वह अपराधी हैं? यानी जब तक बाबा का आंदोलन, भ्रष्टाचार, विदेशी बैंकों में जमा धन जैसे सवाल, सरकार या सत्ताधीशों के लिए परेशानी के सबब नहीं बने, तब तक बाबा के हर गुनाह माफ थे.
निष्कर्ष यह है कि बाबा और उनके सहयोगी अगर कोई गलत या फरजी काम में लगे थे, तो आजीवन लगे रहते, मौज में रहते, अगर उन्होंने राजनीति की सफाई की बात न की होती. आज भ्रष्टाचार के खिलाफ लड़ना, खतरनाक अपराध है. गांव से दिल्ली तक जो ईमानदारी से भ्रष्टाचार के खिलाफ लड़ रहे हैं, उनकी गति देखिए. पूरा तंत्र, समाज उन्हें ही सिरफिरा, गलत और अपराधी साबित करने पर तुला है.
शांतिभूषण, प्रशांतभूषण और अन्ना हजारे भी तब तक पाक साफ थे, जब तक उन्होंने सत्ता की दुखती रग (भ्रष्टाचार) पर हाथ नहीं डाला. दिल्ली में अन्ना के अनशन-उपवास के बाद क्या-क्या हुआ? अन्ना की पंचायत में उनके कामकाज, हिसाब और भ्रष्टाचार के आरोप गूंजे. भूषण परिवार पर ‘अमरसिंह’ जैसों के गंभीर आरोप लगे, यह सब सत्ता के संकेत हैं कि भ्रष्टाचार पर कोई न बोले.
याद है, असम से एक कांग्रेसी सांसद थे, सुब्बा. उन पर अपार संपदा एकत्र करने, हत्या से लेकर न जाने कितने गंभीर आरोप लगे? फिर उन पर नेपाली नागरिक होने का आरोप लगा. पर क्या हुआ उनका? अब आंध्र के पूर्व मुख्यमंत्री राजशेखर रेड्डी के बेटे के बारे में सीबीआइ को साक्ष्य मिले हैं, कि चौंका देने वाली मात्रा में उन्होंने मनी-लाउंडरिंग की है.
जगन रेड्डी ने कांग्रेस से विद्रोह किया, तो उनके खिलाफ जांच शुरू हुई. यह व्यवसाय-मनी-लाउंडरिंग तो राजशेखर रेड्डी के मुख्यमंत्री रहते हुआ, तब क्यों जांच नहीं हुई? अगर जगन रेड्डी कांग्रेस में ही रहते, तो ये रहस्य उजागर होते? यानी कांग्रेस की छत्रछाया में रहकर आप कुछ भी कर सकते हैं. पर विरोध में रहकर ईमानदार होते हुए भी कांग्रेस, उसके शासन और भ्रष्टाचार के खिलाफ अंगुली नहीं उठा सकते?
देश में एक राजनीतिक शून्यता है. सिद्धांत, मूल्य, नैतिक और निष्ठा को भारतीय राजनीति ने तिलांजलि दे दी है. कोई पूछे कि आतंकवादी पकड़े नहीं जा रहे, निर्दोष लोगों की वे लगातार हत्याएं कर रहे हैं. पर पुलिस, सीबीआइ और सुरक्षा बल रामदेव-बालकृष्ण के पीछे पड़े हैं? क्या आतंकवादियों और दाऊद से बड़े खतरे हैं, रामदेव जी, बालकृष्ण और पतंजलि योगपीठ? कम से कम स्वास्थ्य क्षेत्र में रामदेवजी ने एक नयी चेतना-जागरूकता पैदा की है.
आज राजनीति और बाजार ने चिकित्सा को इतना महंगा और पहुंच से बाहर कर दिया है कि सामान्य लोग मरना पसंद करते हैं, अस्पतालों में जाने से, तब रामदेव जी ने देशी परंपरा को पुनर्जीवित कर एक अलग माहौल बनाया. यह उनकी बड़ी देन है. उनके मुकाबले हमारे राजनीतिज्ञों की देन क्या है? कैसे हमारे राजनीतिज्ञ, बिना घोषित आमद के दिल्ली में शहंशाहों का जीवन जीते हैं? उनकी कौन-सी नौकरी है? क्या आमद है? व्यवसाय है? और जीवनशैली क्या है? क्या यह जांच का विषय नहीं है?
हां, रामदेव-बालकृष्ण राजनीतिज्ञ नहीं हैं. न उन्हें राजनीति या संघर्ष का अनुभव है? हास्यास्पद स्थिति तो तब हो गयी, जब रामलीला मैदान से बाबा महिलाओं के ड्रेस में फरार हो रहे थे. क्या जरूरत थी, वेश बदलने या महिलाओं के कपड़े पहनने या फरार होने की? उसी तरह बालकृष्ण के फरार-भूमिगत होने का प्रसंग है. बाबा सचमुच राजनीति की सफाई करना चाहते हैं, तो उन्हें घोषित करना होगा कि मैं कभी राजनीति नहीं करूंगा. सत्ता में नहीं आऊंगा.
इसके बाद, वह गांव-गांव घूम कर देश जगाने में लगें, तो एक नया माहौल बनेगा. पर दो-चार वर्षों तक लगातार सघन, तेज और अबाधित यात्रा के बाद. बाबा अगर यह कीमत नहीं चुका सकते, तो उन्हें इस संघर्ष में कूदना ही नहीं चाहिए था. अब असल परीक्षा बाबा रामदेव की है.
दिनांक : 31.07.2011

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