संकट में हर सरकार
– हरिवंश – हर दो-तीन साल बाद 1962 में चीन आक्रमण के बाद से हर दो-तीन साल बाद केंद्र की सरकार लोकसाख खोने लगती है. डगमगाने-लड़खड़ाने लगती है. यह लगातार हो रहा है. क्या हम भारतीयों में शासन क्षमता नहीं है? या हम चर्चिल के कथन कि आजादी की लड़ाई के नेता-योद्धा गुजर जाने दीजिए, […]
– हरिवंश –
हर दो-तीन साल बाद
1962 में चीन आक्रमण के बाद से हर दो-तीन साल बाद केंद्र की सरकार लोकसाख खोने लगती है. डगमगाने-लड़खड़ाने लगती है. यह लगातार हो रहा है. क्या हम भारतीयों में शासन क्षमता नहीं है? या हम चर्चिल के कथन कि आजादी की लड़ाई के नेता-योद्धा गुजर जाने दीजिए, इसके बाद इन भारतीयों की अक्षमता-अयोग्यता से देश बिखर जायेगा, सही सिद्ध करने पर तुले हैं? एक विश्लेषण.
भारत के लिए सबसे जरूरी चीज है शासन. वह भी केंद्र का. शासन यानी केंद्र का ताकतवर होना. मधु लिमये जो सत्ता के विकेंद्रीकरण सिद्धांत के पालने में पल कर बड़े हुए, वह भी मानते थे कि मजबूत भारत के लिए दिल्ली का सशक्त होना जरूरी है.
कांग्रेस की लगातार दुर्दशा व राजा द्वारा होनेवाली रोज की फजीहत ने केंद्र को सबसे अधिक कमजोर कर दिया है. भारतीय जनता पार्टी, भारत में कांग्रेस का विकल्प नहीं बन पायी. येदियुरप्पा जैसों के पाप भाजपा जैसे दलों को डुबो रहे हैं. इसलिए भारतीय जनता पार्टी सशक्त, सार्थक और समय के अनुरूप विपक्ष की भूमिका में नहीं है, क्योंकि येदियुरप्पा के मेंटर (संरक्षक) भाजपा में बड़े पदों पर हैं. येदियुरप्पा प्रसंग पर भाजपा लोक-लाज छोड़ कर सती होना चाहती है, तो उससे देश का बड़ा नुकसान नहीं. भाजपा भय, भूख और भ्रष्टाचार मिटाने की बात करती है, तो उसके दल में येदियुरप्पा जैसे लोग सदस्य भी नहीं होने चाहिए. पर संकेत है कि वह मुख्यमंत्री पद छोड़ेंगे, तो कर्नाटक भाजपा अध्यक्ष पद चाहिए. इसलिए भाजपा तो भविष्यहीन है, पर कांग्रेस? कांग्रेस का, भारत की मुक्ति के संघर्ष और जन्म से जुड़ाव रहा है.
अतीत में यह पार्टी, साझा समाज की अभिव्यक्ति का मंच रही है. अगर वह पार्टी राजा, अमर सिंह जैसों के सवालों से घिर जाये, तो चर्चिल का कहा प्रसंग स्मरण होता है. आजादी मिलनेवाली थी, तब चर्चिल ने कहा था, इस बुजुर्ग पीढ़ी को गुजर जाने दीजिए, फिर पाइयेगा कि इस देश को चलाने की क्षमता यहां के लोगों में नहीं है. यह मुल्क टूट और बिखर जायेगा.
राजा ने अदालत में प्रधानमंत्री और चिदंबरम पर जो पलटवार किया है, उसने केंद्र सरकार की साख खत्म कर दी है. कांग्रेस बचाव में कह रही है कि भाजपा पहले येदियुरप्पा की बात करे, उन्हें हटाये. क्या प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह की तुलना येदियुरप्पा से होगी? यह जवाब कांग्रेस भाजपा को दे रही है या देश को? क्या भाजपा और येदियुरप्पा ही देश है? या येदियुरप्पा और भाजपा के बाहर भी भारत है? प्रधानमंत्री की एक छवि रही है.
उनकी निजी छवि अब तक बेदाग रही है. पर राजा के सवालों ने वित्त मंत्री और प्रधानमंत्री पद की संवैधानिक भूमिका, मंत्रिमंडल के सामूहिक दायित्व पर गंभीर सवाल खड़े कर दिये हैं. अगर देश अपने प्रधानमंत्री और वित्त मंत्री पर यकीन नहीं करेगा, तो किस पर करेगा? याद रखिए, तब के वित्त मंत्री आज के गृह मंत्री हैं. अदालत में कोई प्रधानमंत्री पर सवाल करता है, कोई तत्कालीन वित्त मंत्री को अदालत में घसीटना चाहता है, कोई पूर्व सरकारी सचिव कहता है, मैं जेल में हूं , तो रिजर्व बैंक के गवर्नर सही कैसे हैं?
भारत संघ की ताकत के प्रतीक हैं प्रधानमंत्री, वित्त मंत्री, गृह मंत्री, रिजर्व बैंक के गवर्नर वगैरह. ये पद भी आरोपों के लपेटे में आये, तो भारत संघ की ताकत का क्या होगा? ये पद महज संवैधानिक-कानूनी सत्ता के प्रतीक नहीं हैं. लोकनिगाह में ये सर्वोच्च पद, वैधता खोने लगें, तो भारत का भविष्य क्या होगा?
उधर, कांग्रेस संगठन की हालत और बुरी है. मणिशंकर अय्यर बयान देते हैं कि कांग्रेस सर्कस है. वह ’24 अकबर रोड’ पुस्तक के लोकार्पण अवसर पर बोल रहे थे. मणिशंकर अय्यर, राजीव गांधी के पारिवारिक मित्र रहे हैं. अफसर से वह मंत्री बने. केंद्रीय मंत्री जयराम रमेश ने कहा है कि पर्यावरण मंत्री के रूप में वह अपनी सरकार में शिखंडी की भूमिका में थे.
दिग्विजय सिंह जैसे नेता नये अवतार में हैं. अगर उस पद का व्यक्ति (जिसमें कभी देश भावी प्रधानमंत्री की छवि देखता था) सड़क पर उतर कर मारपीट करे, तो उस पार्टी के पतन को राष्ट्रीय त्रासदी मान लेनी चाहिए. यही नहीं, कांग्रेस यह भी भूल गयी है कि वह किसी महान परंपरा की देन है (गांधीजी की इच्छानुसार आजादी के बाद अगर भंग होकर लोकसेवक संघ बना होता, तो शायद देश का बड़ा उपकार होता). बड़े कांग्रेसी नेता जब मारपीट करते हैं, तो छोटे कांग्रेसी नेता क्या करेंगे? रांची में कपिल सिब्बल आये थे.
आइसा के कुछ नौजवान बाहर उनका विरोध कर रहे थे. उन्हें कांग्रसियों ने बुरी तरह पीटा. क्या सत्तामद में कांग्रेस के लोग न्यूनतम मर्यादा भी भूल रहे हैं? क्या वे विरोध को कुचल देना चाहते हैं? अगर यह रास्ता सही है, तो जिन पुराने बड़े कांग्रेसी नेताओं ने आजादी की लड़ाई में प्रतिकार या विरोध-प्रर्दशन को राजनीति के तौर पर कारगर हथियार चुना था, क्या वे सब अपराधी थे? क्या कांग्रेस राजनीति का फलसफा (फिलासफी) बदलना चाहती है?
जिन हथियारों से कांग्रेस अस्तित्व में आयी, सत्याग्रह, धरना, सविनय अवज्ञा, प्रदर्शन, विरोध, उन्हें वह खूबसूरती से कुंद कर रही है. याद करिए जब पहली बार लोकतंत्र में ये नये और धारदार सात्विक प्रतिरोधक औजार साधन के रूप में अपनाये गये, तब दुनिया ने चौंक कर भारत की ओर देखा. कांग्रेस ने बाबा रामदेव के आंदोलन को कुचल कर नया हथियार खोज लिया है. विरोध को दबाने-कुचलने के लिए. दिल्ली पुलिस से अन्ना हजारे के आंदोलन पर रोक लगवा दिया. उधर दिग्विजय सिंह ने बयान दिया, सरकार किसी के अनशन से नहीं डरती है.
बाबा रामदेव के प्रदर्शन-धरना में दिल्ली पुलिस ने जो कुछ किया, अब सुप्रीम कोर्ट में इस मामले की सुनवाई के दौरान छुपे-दबे तथ्य और संकेत सामने आ रहे हैं. दिल्ली पुलिस, दिल्ली प्रशासन के मातहत है, पर बाबा रामदेव के धरना के दौरान उसे रामलीला मैदान में कार्रवाई के लिए ऊपर से आदेशमिले? क्या यह संघीय ढांचा के तहत शासन है? अब वही रणनीति अन्ना हजारे के साथ अपनायी जा रही है.
कांग्रेस के इस रुख पर राजद, सपा और साम्यवादियों की भूमिका या चुप्पी गौर करने लायक है? महंगाई का विरोध करते घूम रहे थे मुलायम सिंह यादव और लालू प्रसाद. पर बाहर विरोध, लोकसभा में कांग्रेस को मदद. इसी तरह भ्रष्टाचार के ऐसे-ऐसे मामले सामने आये हैं, जैसे गुजरे 60 वर्षों में नहीं आये. मुलायम सिंह यादव और लालू प्रसाद, भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन की ही उपज हैं. पर आज जैसा भ्रष्टाचार सार्वजनिक जीवन में कभी नहीं रहा, पर ये जमीनी नेता मौन हैं. लालूजी रामदेवजी के खिलाफ बोलते हैं.
लोकपाल मुद्दे पर इन दलों की क्या राय है? नहीं मालूम. सांसद घूसकांड में, बिना पूरी जांच के कांग्रेस और सपा को मुक्त कर दिया गया. कम से कम जांच पूरी होने का लोकलाज तो ध्यान में रहता. जो कट्टर बैरी हो गये थे, एक-दूसरे को मिटाने का शंखनाद कर रहे थे, उन मुलायम सिंह-अमर सिंह में ‘नये प्रेम’ का राज क्या है?
अन्ना हजारे और बाबा रामदेव के प्रसंग में जिस तरह से कांग्रेसियों के बयान आ रहे हैं, वे संकेत हैं कि महान विरासतवाली यह पार्टी कहां पहुंच गयी है? अन्ना हजारे और रामदेव से हम असहमत हो सकते हैं, इन दोनों की सभी मांगों और प्रस्तावों से भी सहमत नहीं हुआ जा सकता. पर, सार्वजनिक जीवन में लोकमर्यादा बनाये रखने का जिम्मा किसका है? शासक पार्टी का या अन्ना हजारे या रामदेव जी का?
यह भी दुर्भाग्य है कि कांग्रेस के निरंतर ह्रास से जन्मे महाशून्य को भरने के लिए आज कोई विकल्प नहीं है. इस विश्लेषण का यह निष्कर्ष भी है कि आजादी के बाद कांग्रेस सत्ता चलाने में निपुण नहीं बन पायी. आजादी की आग से यह पार्टी तप कर निकली.
सबसे अधिक समय तक शासन इसी दल के लोगों ने किया. फिर भी यह दल देश को राजनीतिक स्थिरता नहीं दे सका. पिछले 60 वर्षों के इतिहास पर हम नजर डालें, खासतौर से 1962 के बाद. हर ढाई-तीन साल बाद केंद्र की सरकार लड़खड़ाने लगती है. वह अपनी वैधता, नैतिक-आभा और प्रामाणिकता खोती नजर आती है. शासन संचालन कठिन लगने लगता है. अराजकता के हालात दिखने लगते हैं. जिन्हें जनता ताकत देकर मजबूत बनाती है, गद्दी पर बैठाती है, वे पक्षाघात के शिकार हो जाते हैं.
शुरू में 15 साल तक पंडित नेहरू ने भारत पर एकछत्र राज किया.1962 में कांग्रेस को जनता ने भारी बहुमत से चुना, लेकिन चीन युद्ध ने कांग्रेस को असमय निस्तेज कर दिया. 1957 से1962 तक कांग्रेस को अधिक बहुमत मिला था. चीन के हमले के साथ ही 10 महीनों में वह लोक समर्थन बिखर गया.
कांग्रेस निस्तेज हो गयी. केंद्र सरकार की विश्वसनीयता, प्रशासन कौशल पर सवाल उठने लगे. इस पराजय ने देश के मन और मान दोनों को तोड़ दिया. पंडितजी आंदोलन की देन थे. वह भांप गये. लोक निगाह में पार्टी मुजरिम बन रही है. पंडितजी का अध्याय खत्म हो रहा था. फिर भी उन्होंने पार्टी का तेज-शौर्य लौटाने की कोशिश की. कामराज प्लान से.1963 में पंडित नेहरू ने कामराज योजना लागू की. बड़े-बड़े कांग्रेसी मोरारजी देसाई, लाल बहादुर शास्त्री, जगजीवन राम, कामराज, बीजू पटनायक, भगवंतराम मंडलोई, विनोदानंद झा जैसे नेता हटे-हटाये गये. पंडित नेहरू ने समझ लिया, जनता नाराज है, इसलिए कांग्रेस के अंदर सफाई जरूरी है.
पंडित नेहरू अस्वस्थ थे और प्रधानमंत्री रहते हुए भी अप्रभावी भूमिका में थे. फिर पंडित जी नहीं रहे. लालबहादुर शास्त्री ने कमान संभाली, फिर इंदिरा गांधी ने. इस दौर में अकाल, कश्मीर में मुजाहिद, पाक युद्ध, दो प्रधानमंत्रियों की मौत, देश ने सब देखा-भोगा. उन्हीं दिनों दिल्ली को कमजोर जानकर राज्यों में अराजकता पांव पसारने लगी. 1966 में अलग पंजाब के लिए संत फत्ते सिंह ने आत्मदाह की धमकी दी. विशाखापत्तनम में स्टील कारखाने के सवाल पर आंध्र में दंगे फैले. गोवध के सवाल पर संसद का घेराव हुआ. इन सब चीजों के परिणाम ने भारत के नौ राज्यों से कांग्रेस का सफाया कर दिया.
फिर 1966 से इंदिरा गांधी के दौर की शुरुआत हुई. 1967 से 1971 के बीच दल-बदल से लेकर राजनीति में हर अनैतिक हथकंडे को लोक-मान्यता देने का दौर शुरू हुआ. इंदिरा गांधी ने 1969 में कांग्रेस का बंटवारा कर दिया. कांग्रेस के कायाकल्प के लिए. 1967 में लोकसभा में कांग्रेस को बहुमत जरूर मिला था, पर संख्या काफी घट गयी थी. श्रीमती गांधी ने राजनीति को बुनियादी सवालों से जोड़ने की पहल की. कांग्रेस को तोड़ा और देश को नये सपने दिये. उन्हें दो-तिहाई बहुमत मिला, पर क्या हश्र हुआ? इस दो-तिहाई बहुमत का?
1971 में देश ने इंदिरा गांधी को वह सत्ता दी, जो पंडित नेहरू जैसे कद्दावर नेता को नहीं मिली थी. 1971 के अंत में बांग्लादेश युद्ध हुआ. श्रीमती गांधी महाशक्तिशाली हुईं. तब अटल बिहारी वाजपेयी ने उन्हें ‘दुर्गा’ भी कहा. 1973 में तेल के दाम बढ़े, महंगाई दस्तक देने लगी, सूखा पड़ा, गेहूं के थोक व्यापार का राष्ट्रीयकरण हुआ, तो श्रीमती गांधी ने भी माना कि देश को एक आर्थिक जादूगर चाहिए. उन्होंने जर्मनी के लूडवीक की चर्चा की, जिन्होंने पश्चिम जर्मनी का आर्थिक कायापलट किया था. पर भारत में कोई चमत्कार नहीं हुआ.
1974 में देश फिर राजनीतिक संकट में फंसने लगा. बढ़ते भ्रष्टाचार, अनैतिक राजनीति, चुनावों में सुधार जैसे गंभीर मसलों पर कोई हल नहीं निकला. गवर्नेंस का कोई मॉडल कांग्रेस विकसित नहीं कर सकी. कुशासन, भ्रष्टाचार, चुनावों में धांधली, अपराधियों के हाथ जाती राजनीति, ब्लैक मनी की बढ़ती ताकत, पार्टियों के अंदर खत्म होता लोकतंत्र, कांग्रेस का विकल्प न उभरना जैसे अनेक बुनियादी सवाल थे, जो पिछले दो दशकों से देश की पीठ पर बोझ बन चुके थे. पर इन्हें हल करने की कोशिश किसी स्तर पर नहीं थी.
इन्हें हल करने के दो ही रास्ते थे. पहला आदर्श राजनीति, जो अपने विचारों, सिद्धांतों, कल्पनाओं और सपनों से बुझे मन और कौम को एक नया बोध, गति और अर्थ दे सके, एक नयी राह पर ले जा सके. पर लोक सत्ता को जगानेवाली वह राजनीति ही खत्म हो गयी. राजनीति का अर्थ हो गया सत्ता.
जयप्रकाश नारायण अपवाद थे, वह लोक राजनीति के अगुआ थे. उस लोक राजनीति ने सत्ता राजनीति को चुनौती दी. उसका हश्र सामने था. देश को पटरी पर लाने का दूसरा रास्ता था, श्रेष्ठ शासन. पंडित नेहरू के जीवन काल में ही प्रो गुन्नार मिर्डल ने भारत को फंक्शनल एनार्की कहा. इसके चौपट होते शासकीय मापदंडों को देख कर. यह समस्या लगातार गंभीर और बेकाबू होती गयी है. आज भारत का बड़ा हिस्सा लगभग अशासित है. वहां सत्ता की नहीं, बल्कि सत्ता के समानांतर केंद्रों का राज है.
लोकसभा में प्रबल और प्रचंड बहुमत के बाद भी इंदिरा गांधी देश की राजनीतिक-आर्थिक चुनौतियों का हल नहीं ढूंढ सकीं. 1975 में इलाहाबाद हाइकोर्ट के फैसले के बाद वह सत्ता में रहते हुए भी अपनी आभा खो बैठीं. अंतत: इमरजेंसी लगा कर उन्होंने अपनी चमक वापस लाने की कोशिश की. पर 21 महीने में वह भी ध्वस्त हो गया. 1977 में जनता पार्टी दो-तिहाई बहुमत से जीती. पहली बार कांग्रेस केंद्र से हटी. पर यह जनता लहर भी 28 महीनों के अंदर उतर गयी. देश की बुनियादी समस्याएं अपनी जगह बनी रही.
1980 में फिर श्रीमती गांधी सत्ता में लौटीं. 1983 आते-आते तक वह असहाय दिखने लगीं. वह अपना जादुई स्पर्श खो चुकी थीं. पंजाब की समस्या, भिंडरावाले की चुनौती नये संकट के रूप में सामने थे. 1984 में उनका दुखद अंत हुआ. उनकी मौत की लहर ने राजीव गांधी को वह ताकत और समर्थन दिया, जो पंडित नेहरू या इंदिरा गांधी को नहीं मिले थे.
एक नये सपने के साथ राजीव गांधी का उदय हुआ. पर तीन वर्ष भी नहीं गुजरा कि बोफोर्स का मुद्दा उन्हें ले डूबा. फिर एक बार गैर-कांग्रेसी सरकार बनी. विश्वनाथ प्रताप सिंह प्रधानमंत्री बने, पर भ्रष्टाचार मुक्ति या चुनाव सुधार जैसे बुनियादी सवाल पीछे छूट गये. देश में मंडल और कमंडल का दौर शुरू हुआ. चंद्रशेखर को कांग्रेस ने सत्ता में बैठाया, फिर कुछेक माह में गिराया. चरण सिंह की तरह. इन दोनों सरकारों को गिराने का काम कांग्रेस ने किया. फिर नरसिंह राव की सरकार बनी. पर दो वर्षों में ही वह अपना तेज खो बैठी.
पहली बार सांसदों को घूस देने का आरोप उन पर लगा. सांसदों को सुखी रखने के लिए उन्होंने सांसद फंड शुरू किया. हर्षद मेहता और लक्खू भाई ने सीधे प्रधानमंत्री को घूस देने के आरोप लगाये. हर्षद मेहता ने सीधे प्रधानमंत्री आवास में घूस देने के आरोप लगाये. देवगौड़ा, गुजराल की सरकारें देश में अस्थिरता का दौर ले आयीं. 5-6 वर्षों में 2-3 सरकारें आयीं-गयीं. फिर आया एनडीए का दौर, जिसमें कई मुद्दे उभरे. गुजरात से लेकर रक्षा सौदे तक के.
इसके बाद यूपीए की वापसी हुई. मनमोहन सिंह प्रधानमंत्री बने. साफ-सुथरी छविवाले. पर उनके मंत्रिमंडल में अनेक गंभीर आरोपों से घिरे लोग थे. दो- ढाई वर्षों में ही अनेक गंभीर आरोपों से उनकी सरकार घिर गयी. अंत आते-आते तक संसद में एटमी परीक्षण के प्रसंग पर सांसदों को घूस देने के प्रकरण ने यूपीए सरकार का बचा-खुचा यश धो डाला. अब वह मामला भी पलट कर रंग लाने लगा है. विकीलीक्स से लेकर कई अन्य स्त्रोतों से खुलासे हुए. फिर अमर सिंह के बचाव में सत्ता की भूमिका, पूरी जांच के पहले ही कांग्रेस और समाजवादी पार्टी को क्लीन चीट.
यूपीए का दूसरा दौर तो और भी संकटपूर्ण है. लोकसभा चुनावों के डेढ़ वर्ष के बाद ही यह सरकार श्रीहीन होने लगी. इसके मंत्रियों पर अनेक गंभीर आरोप लगे. राजा प्रकरण, कॉमनवेल्थ घोटाला जैसे अनेक घोटालों ने केंद्र सरकार को सत्वहीन बना दिया है, इसका नैतिक प्रताप खत्म हो चुका है.
इस तरह आप गौर करें कि हर ढाई से तीन साल बाद केंद्र एक गंभीर संकट से घिर जाता है. यह संकट क्यों है? इसके मूल कारण क्या हैं? क्या हम भारतीय शासन चलाने-संभालने योग्य नहीं हैं? क्या चर्चिल ने हमारी योग्यता की सही भविष्यवाणी की थी? किन कारणों से ऐसा बार-बार हो रहा है? जब तक वे कारण नहीं तलाशे जायेंगे, हालात नहीं सुधरनेवाले. देश लगभग अशासित हो गया है. इसे ठीक करने के लिए पहली जरूरत है – चुनाव सुधार, भ्रष्टाचार के खिलाफ सख्त कानून, भ्रष्ट लोगों को फांसी या आजीवन कारावास की सजा.
विदेशों में रखे भारतीय धन की वापसी. कॉरपोरेट हाउसों के दलालों का राजनीति से सफाया. त्वरित न्याय प्रक्रिया और मुकदमों का निपटारा. प्राकृतिक संसाधनों की लूट पर पाबंदी. जिन्हें असीमित अधिकार (डिसक्रिशनरी पावर) है, उनकी कटौती. संस्थाओं को मजबूत बनाना. प्रतिभा को संरक्षण, वोट की राजनीति से देश को ऊपर मानना.
राजनीतिक दलों में विचारों की वापसी. राजनीतिक दलों के अंदर लोकतंत्र, परिवारवाद का खात्मा. सिस्टम को नैतिक बनाना, ताकि एकाउंटिबिलिटी तय हो. इतने बड़े-बड़े घोटाले हुए, पर किसी एक ने इसकी जवाबदेही ली? ब्रिटेन में मर्डोक प्रकरण हुआ है. वहां के प्रधानमंत्री ने जवाबदेही ली है. अपनी भूल मानी है. उसे ठीक करने के लिए संवैधानिक पहल की है.
भारत में 2जी से लेकर राष्ट्रमंडल खेलों में हुए घोटालों में किसी ने भी कहा है कि हमसे भूल हुई है. यह मामूली लोक-लाज और शर्म भी राष्ट्रीय जीवन में नहीं बचा है. शासन कैसे लुंज-पुंज चल रहा है? चिदंबरम हार्वर्ड से पढ़े-लिखे हैं.
बड़े तेज-तर्रार और सक्षम गिने-माने जाते हैं. उन्होंने पाकिस्तान में बंद आतंकवादियों की जो सूची सौंपी, उसमें से कई भारतीय जेलों में हैं. इससे पूरे दुनिया में भारत की जग-हंसाई हुई. इसका दोषी कोई है या नहीं? हकीकत यह है कि हमारा पूरा सिस्टम इनिइफीशियंट, काहिल, अक्षम और अकर्मण्य लोगों से भर गया है. काहिलों की फौज तो ऐसे ही काम करेगी न?
उधर, पाकिस्तान में घुस कर अमेरिका ने लादेन को मारा, तो भारतीय सेनाध्यक्ष का अमर्यादित, गैर जरूरी बयान आया कि हमारे अंदर भी यह करने की क्षमता है. क्या यह एक यही गंभीर राष्ट्र और समाज का बयान है? इतने बड़े पदों पर बैठे लोग कैसे ऐसी गैर जिम्मेदार बातें कर सकते हैं?
परकाष्ठा तो तब हुई, जब प्रधानमंत्री ने इस विषय पर कहा कि अमेरिका जैसी कार्रवाई की हमारे अंदर क्षमता ही नहीं. सेनाध्यक्ष कुछ कहते हैं, प्रधानमंत्री कुछ बोलते हैं. याद रखिए, ये विरोधियों के बयान नहीं हैं. सरकार में बैठे शिखर के लोगों के बयान हैं. यह देश कैसे चल रहा है? ऊपर के स्तर पर कैसा तालमेल है? किसके नियंत्रण में है यह मुल्क? यह साफ नहीं है. लगातार आतंकवादी हमले हो रहे हैं, उन्हें हम रोक नहीं पा रहे हैं.
न इन गिरोहों को ध्वस्त कर पा रहे हैं, न असली मुजरिमों को पकड़ पा रहे हैं. पर हमारे एअर चीफ मार्शल पीवी नाइक ने 26 जुलाई को बयान दिया कि पाक ने दु:साहस किया, तो हम मिटा कर रख देंगे. यह बयान उस समय आया, जब दोनों देशों के विदेश सचिव और विदेश मंत्री 27 जुलाई की बातचीत की तैयारी में लगे थे. क्या यही राजनीति या डिप्लोमेसी है?
ताकत का एहसास कैसे होता है, यह देखना हो, तो चीन से सीखें. हाल ही में ओबामा, दलाई लामा से मिले. इस मुलाकात पर चीन के विदेश मंत्रालय के प्रवक्ता ने गंभीर आपत्ति की. अगले दिन ह्वाइट हाउस से माफीनुमा सफाई आ गयी. चीन के किसी बड़े नेता या मंत्री ने बयान नहीं दिया था. बल्कि महज प्रवक्ता के बयान पर, अमेरिका जैसे महाशक्तिशाली देश को तुरंत सफाई देनी पड़ी. यह है ताकत का राज. पुरानी कहावत है. करनेवाले या बरसनेवाले गरजते नहीं.
दिनांक 31.07.2011