राजनीति को चाहिए विरोध का नया शास्त्र
– हरिवंश – गांधी ने हमें विरोध का नया औजार दिया, नयी तरकीब, नये हथियार. वह भी हम भूल गये. क्यों हम भ्रष्ट नेताओं को आदर देते हैं? प्रतिकार के मामूली रास्ते भी नहीं अपनाते? अगर कहीं भ्रष्ट विधायक, मंत्री-नेता आते हैं, तो उनके कार्यक्रमों से सब लोग चुपचाप चले जायें, बहिष्कार करें, माला पहनाना […]
– हरिवंश –
गांधी ने हमें विरोध का नया औजार दिया, नयी तरकीब, नये हथियार. वह भी हम भूल गये. क्यों हम भ्रष्ट नेताओं को आदर देते हैं? प्रतिकार के मामूली रास्ते भी नहीं अपनाते? अगर कहीं भ्रष्ट विधायक, मंत्री-नेता आते हैं, तो उनके कार्यक्रमों से सब लोग चुपचाप चले जायें, बहिष्कार करें, माला पहनाना छोड़ दें, जयकार करना बंद कर दें,
ताली बजाना बंद कर दें. जिस रास्ते वे निकल रहे हों, चुपचाप पीठ घुमाकर खड़े हो जायें. ऐसे अनेक रास्ते हैं, जिनसे हम (जनता) इस देश के शासकों-राजनेताओं को संदेश दे सकते हैं कि आपके बात-विचार, काम से हमें नफरत है, घृणा है.
भारतीय राजनीति की आत्मा मर गयी है. पक्ष से अधिक, विपक्ष की राजनीति में जो अनाचार हो रहे हैं, सत्ता के अहंकार में डूबे लोग कुछ भी कह रहे हैं. न उनका प्रतिकार है, न विरोध. एक मधु लिमये, एक जार्ज फर्नांडीज संसद में संख्या बल में कम होते हुए भी मुद्दों के कारण सत्ता पक्ष के लिए संकट बन जाते थे. आज सत्ता पक्ष से अधिक बेबस विपक्ष दिखता है. इसकी जुबान और आत्मा खत्म हो गयी है. देश में घोटाले, घूस, भ्रष्टाचार और महंगाई का ऐसा दौर पहले कभी नहीं रहा. पर कहीं-कोई प्रतिकार नहीं दिखता.
उस प्रतिकार के पीछे प्रतिबद्धता नहीं दिखती. प्रतिकार क्यों नहीं है? क्योंकि न विचार है, न आइडियोलॉजी. चरित्र का गहरा संकट है.
मुंबई में फिर सीरियल बम ब्लास्ट हुए. इसके बाद क्या हुआ? जो ऐसी हर घटना में होता है और आगे होने वाली ऐसी हर आतंकवादी घटना में भी होगा. ‘निंदा टेप’ शुरू होता है.
प्रधानमंत्री से लेकर हर अदना घटना की निंदा करता है. इससे बेहतर होता, मौन रहकर हम इसकी गंभीरता, दुख-दर्द और प्रभावित लोगों के उजड़े संसार की आह, आत्मसात करते. कौन सुनता है, शासकों-नेताओं की यह भर्त्सना-निंदा? हिंसा करने वाले उग्रवादी-आतंकवादी? क्या वे मनुष्य हैं? उनमें मन, विचार, संवेदना है? हद तो तब होगी कि कुछ ही दिनों बाद वोट के लिए ऐसी आतंकवादी घटनाओं के पक्ष में तर्क देने वाले नेता खड़े हो जायेंगे.
आजमगढ़-दिल्ली में सबूतों के बाद पुलिस ने छापे डाले, एनकाउंटर किया, तो कांग्रेस के नेता आतंकवादियों के पक्ष में बोलने लगे, उनके घर गये. मरनेवाले के घर नहीं, मारनेवालों के घर गये. क्या इससे आतंकवाद रुकेगा. आतंकवाद किसी के पक्ष में नहीं होता. आतंकवादी देश के शत्रु हैं. वोट के लिए आतंकियों की पनाह लेने वाली राजनीति? ओसामा जी कहकर उन आतंकवादियों को सम्मान देने वाली राजनीति? संसद और मुंबई कांड में दोषी पाये गये अपराधी अब तक सजा की प्रतीक्षा में हैं. अनेक उग्रवादी घटनाओं में पकड़े गये आतंकवादी सबूतों के अभाव में रिहा हो गये. यही व्यवस्था यह राजनीति चला रही है.
जनता के पैसे से, पर जनता की सुरक्षा के लिए कोई उत्तरदायी नहीं है. 1993 में मुंबई में हुए बम विस्फोटों में यह सबूत मिला था. सरकारी विभाग के अधिकारियों ने दाऊद इब्राहिम के लोगों से पैसे लेकर विस्फोटक भारत पहुंचाये. तब तत्कालीन गृह सचिव वोहरा की अध्यक्षता में एक वोहरा कमेटी बनी. उसने आतंकवाद के कारणों की जांच कर, तथ्यगत रिपोर्ट दी. अपराध, राजनीति, पूंजी के गंठजोड़ को उजागर किया. पर वो रिपोर्ट दबा दी गयी. यह है, राजनीति का असल चेहरा.
गांधी ने हमें विरोध का नया औजार दिया, नयी तरकीब, नये हथियार. वह भी हम भूल गये. क्यों हम भ्रष्ट नेताओं को आदर देते हैं? प्रतिकार के मामूली रास्ते भी नहीं अपनाते? अगर कहीं भ्रष्ट विधायक, मंत्री-नेता आते हैं, तो उनके कार्यक्रमों से सब लोग चुपचाप चले जायें, बहिष्कार करें, माला पहनाना छोड़ दें, जयकार करना बंद कर दें, ताली बजाना बंद कर दें.
जिस रास्ते वे निकल रहे हों, चुपचाप पीठ घुमाकर खड़े हो जायें. ऐसे अनेक रास्ते हैं, जिनसे हम (जनता) इस देश के शासकों-राजनेताओं को संदेश दे सकते हैं कि आपके बात-विचार, काम से हमें नफरत है, घृणा है. आपने हमारे जीवन को, समाज को, संस्कृति को इतना दूषित कर दिया है कि यह इंसानों के रहने योग्य नहीं रहा.
डॉ राममनोहर लोहिया ने 50 के दशक में ही कहा था, यह देश डेढ़ हजार वर्षों तक गुलाम रहा, इसलिए इसकी आत्मा मर गयी है. हम पालतू लोग हैं, हमें जीवन और संसार से मोह है.
इसलिए हम चीजों से चिपके रहते हैं. यही हाल है देश का. कोई विपक्षी दल यह संकल्प नहीं ले सकता कि हमें 100 वर्ष तक सत्ता नहीं चाहिए, पर हम सच बोलेंगे. हम देश और मुद्दों की बात करेंगे. आतंकवाद, भ्रष्टाचार मिटाने और कालाधन खत्म करने का अभियान चलायेंगे. 74 के आंदोलन में छात्रों ने विरोध के नये तरीके ढूंढ़े, थाली बजाने से लेकर जनता कर्फ्यू तक. क्या हम शांतिपूर्ण तरीके से इस व्यवस्था के बाहर की राजनीति को यह नहीं बता सकते कि हम जनता को आपसे नफरत है. हम (जनता) जानते हैं कि राजनीति ही चीजों को सुधार सकती है. हमें बेहतर समाज बनाकर धरती पर जीने का स्वर्ग दे सकती है.
पर, उस राजनीति के सिपहसालार आज के राजनेता नहीं हैं? आज भी अपवाद राजनेता हैं, सत्ता में भी हैं. उनका सम्मान जरूर करें. पर बहुसंख्यक राजनेता आपद धर्म भी नहीं निभा रहे. उनके खिलाफ नफरत की आंधी और घृणा का पहाड़, मुल्क में बनना चाहिए, जिससे कि लूट की राजनीति, मूल्यविहीनता की राजनीति, अनैतिकता की राजनीति, कहीं भी कुछ कह देने-बोल देने की गैर जिम्मेदार राजनीति के खिलाफ माहौल बने.
राजनीति की यह हालत देखकर रजनीश का राजनीति के बारे में कहा एक प्रसंग याद आता है- ‘दुनिया में एक और तरह के शासन की जरूरत है. राजनेता का नहीं-विशेषज्ञ का. राजनेता का नहीं-वैज्ञानिक का, राजनेता का नहीं, बुद्धिमत्ता का. और तब दुनिया एक और तरह की दुनिया होगी.
लेकिन आज तो कल्पना करनी भी कठिन है. राजनीति की व्यर्थता को समझो. और राजनेता को इतना आदर देना बंद करो. क्या कारण है कि राजनेता को इतना सिर पर उठाये फिरते हो? यह क्षुद्र, क्रूर शक्ति की पूजा है. यह हिंसक संगीनों की पूजा है. राजनेता की ताकत क्या है? क्योंकि अब संगीनें उसके हाथ में हैं. सत्ता की पूजा तुम्हारे भीतर इस बात की खबर देती है कि न तो तुम्हें संस्कार है, न तुम्हें समझ है.’
‘आने दो राजनेताओं को, जाने दो राजनेताओं को. उपेक्षा करो. राजनेताओं की, जितनी उपेक्षा की जाये, उतना अच्छा है. मैं चाहता हूं कि लोग सत्ता अपने हाथ में वापस ले लें. जिंदगी अपनी है, उसे जीओ, जितने सुंदर ढंग से जी सको, जीओ. उसे राज्य पर मत छोड़ो. और राज्य के हाथ में शक्ति को इकट्ठा मत होने दो. यह सारी पृथ्वी संपन्न हो सकती है, सुख से भर सकती है. लेकिन धीरे-धीरे इसकी बागडोर वैज्ञानिक, दार्शनिक, संत के हाथ में जानी चाहिए.’
हालांकि रजनीश के इस कथन से आप पूर्ण सहमत नहीं हो सकते. क्योंकि यह सदियों से बहस का विषय रहा है कि दुनिया के बारे में सोचने और बदलने वाले एक नहीं हुआ करते. सर्वोदय के चिंतक दादा धर्माधिकारी कहा करते थे, दार्शनिक हों या चिंतक, पर जो दुनिया को धरातल पर बदलता है, वह भिन्न होता है. इसलिए दुनिया को बदलना है, पर कौन और किससे बदलेगी दुनिया? राजनीति ही दुनिया को बदलने का कारगर यंत्र और मंच है.
बगल के चीन में देखिए, एक देश जो आज से 30-40 साल पहले हैसियत नहीं रखता था, आज दुनिया की नयी महाशक्ति है. उसे किसने बदला? चीन की कम्युनिस्ट पार्टी ने. आज यह पार्टी अपनी स्थापना का 90वां साल मना रही है. चीन के शासकों ने क्या अत्याचार, अनाचार किये, यह अलग प्रसंग है. पर उन्होंने देश को एक गौरव, गरिमा और ऊंचाई दी. चीनी समाज को पूरी दुनिया में सम्मान, प्रतिष्ठा और हैसियत दी, यह जगजाहिर है.
गरीबी रेखा से नीचे रहने वाले करोड़ों, अरबों लोगों का जीवन बदल दिया. हाल के आये आंक़ड़े पुष्ट करते हैं कि चीन में गरीबों की संख्या काफी घटी है. इस तरह वहां के राजनीतिज्ञ गर्व कर सकते हैं कि हमें देश जहां मिला था, उसे आज हमने बेहतर स्थिति में पहुंचा दिया है. क्या भारत के राजनीतिज्ञ यह गर्व कर सकते हैं? समाज का नैतिक स्तर कहां पहुंचा दिया?
आज राजनीतिक दलों में कार्यकर्ता नहीं, ठेकेदार आ गये हैं. सांसद फंड के ठेकेदार, विधायक फंड के ठेकेदार. कहीं कोई कन्विक्शन नहीं है. न संकल्प है, न चरित्र. हम भारतीय स्वभाव से भी वाचाल हैं.
परनिंदा, परचर्चा में रस लेने वाले. हमारी संसद और विधानमंडलों के कामों के मूल्यांकन का भी मापदंड होना चाहिए? किस स्तर पर समाज और देश को नयी संसद या विधान सभाएं संभालती हैं. और जब उनका कार्यकाल खत्म होता है, तो समाज किस स्तर पर पहुंचता है? भौतिक विकास की दृष्टि से, मानसिक विकास की दृष्टि से, सांस्कृतिक उत्थान की दृष्टि से. कहीं कोई पैमाना तो हो, जिससे यह माना जा सके कि लोकतंत्र के नये राजा, नयी संस्थाएं समाज को क्या दे रहे हैं?
इनकी उपलब्धि क्या है? ये व्यवस्था के सबसे बड़े लाभ-भोग करने वाले लोग हैं. पर वे बदले में समाज को दे क्या रहे हैं? इनकी योग्यता, इंटीग्रिटी और देशभक्ति क्या है? इन्हीं सब लोगों की छत्रछाया में. देश बदलना है, तो राजनीति बदलनी ही चाहिए. कम से कम सरकार-नेता अपनी जिम्मेवारी (एकांउटिबिलिटी) तो स्वीकार करे? कब तक चलेंगे सीरियल ब्लास्ट? क्या इसके लिए कोई जिम्मेवार है? या हम असहाय जनता ही दोषी हैं?
दिनांक 17.07.2011