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भिखमंगों पर राजनीति
– हरिवंश – जिस तरह की राजनीतिक गतिविधियां चल रही हैं, उनसे देश के भविष्य के लिए अच्छे संकेत नहीं हैं. स्वतंत्रता आंदोलन ने, मधु लिमये के शब्दों में राष्ट्रीयता के नये मूल्य सृजित किये थे. उन मूल्यों का संपोषण करने के बजाय प्रादेशिकता, सांप्रदायिकता आज पूरे मुल्क पर छा गये हैं. आगे मधु लिमये […]
– हरिवंश –
जिस तरह की राजनीतिक गतिविधियां चल रही हैं, उनसे देश के भविष्य के लिए अच्छे संकेत नहीं हैं. स्वतंत्रता आंदोलन ने, मधु लिमये के शब्दों में राष्ट्रीयता के नये मूल्य सृजित किये थे. उन मूल्यों का संपोषण करने के बजाय प्रादेशिकता, सांप्रदायिकता आज पूरे मुल्क पर छा गये हैं.
आगे मधु लिमये कहते हैं, अगर राष्ट्रीय एकता के लिए त्याग करना है, तो सब राज्यों को करना चाहिए. यह नहीं कि जो राज्य, प्रदेश या संप्रदाय हिंसा और पशुबल का इस्तेमाल करता है, उसके सामने केंद्र सिर झुकाये और जो अनुनय-विनय और शांतिपूर्ण तरीकों का अनुशरण करते हैं, उनके हितों को बेरहमी के साथ रौंद दे.
शरद पवार को लगे-पड़े थप्पड़ पर सबसे सही और समझदार प्रतिक्रिया, प्रणब मुखर्जी की थी. ‘आइ डोंट नो, व्हेयर दिस कंट्री इज गोइंग!’ यह देश कहां जा रहा है? वित्त मंत्री प्रणब दा राजनीति की देन हैं, इसलिए वह इसका अर्थ समझ रहे हैं. दूरगामी असर भी. राजनीति ही सृजन करती है. समाज बनाती है. राजनीति से यह नफरत हमें कहां पहुंचायेगी? आज के राजनेता और राजनीति, गलत हो सकते हैं, पर अराजनीतिक चिंतन-विचार कहां पहुंचायेंगे?
पर राजनीतिक दल भी समझने को तैयार नहीं है? महज निंदा, प्रस्ताव या थप्पड़ मारनेवाले को कानूनी दंड इलाज या हल नहीं है? नेताओं को समझना-स्वीकारना होगा कि राजनीतिज्ञ-राजनीति घृणा-नफरत (अपवादों को छोड़ कर) के पात्र बनते जा रहे हैं. पूरी ताकत से इसे रोकने की कोशिश होनी चाहिए.
पर, यह कोशिश राजनीति से ही संभव है ! सिर्फ गद्दी के लिए राजनीति ने हमें यहां पहुंचा दिया है. चरित्र, मूल्य, त्याग, वचन के प्रति निष्ठा जैसी चीजों से राजनीति विश्वसनीय बनेगी? क्या कोई दल इस रास्ते पर है?
आज की राजनीति के कुछ चर्चित मुद्दों को देखा, तो मधु लिमये की याद आयी.
=भिखारी खुद को उत्तर प्रदेश का बताते हैं- राहुल गांधी
=हम सब समझते हैं या सब जानते हैं. उत्तर प्रदेश में राहुल गांधी ने 22 नवंबर को कहा. टीवी पर दिखाया गया.
=ग्यारह मिनट में उत्तर प्रदेश को चार भागों में बांटने का फैसला. बिना बहस के.
=22 नवंबर को ट्रेन में लगी आग में सात लोग मरे. पिछले एक साल में पूरे देश में अलग-अलग ट्रेन दुर्घटनाओं में चार सौ लोग मारे गये. पर आज तक इन निर्दोष यात्रियों की हत्या का दोषी कौन है? यह स्पष्ट नहीं है.
आखिर किसी न किसी की एकांउटबिलीटी है? इन हत्याओं का कोई न कोई तो दोषी है? और वह दोषी सरकार और व्यवस्था है. पर कोई यहां जुबान खोलने को तैयार नहीं कि इन हत्याओं के अपराधी कौन हैं?
=सांसदों पर फोन बिल के 7.30 करोड़ बकाया. ये सांसद हमारे नैतिक आदर्श और देश के भाग्य विधाता हैं.
इन बयानों-खबरों को पढ़ कर मधु लिमये से कोलकाता में हुई मुलाकात याद आयी. 1982 के आसपास. वह दिल्ली से कोलकाता आये थे. एक व्याख्यानमाला में बोलने के लिए. उन्होंने खबर की मिलने के लिए. पहले के नेताओं में अद्भुत स्नेह था. वे जिस शहर में जाते थे, अपने परिचितों को बुला कर मिलते थे. आज जब लौट कर सोचता हूं, तो यह एक संस्कृति का हिस्सा लगता है.
मधु लिमये से ऐसी मुलाकातों ने हमेशा बहुत कुछ दिया. संस्कार, मूल्य, सात्विकता, पढ़ने की ललक वगैरह. उन्होंने कहा भारत वर्ष के 2500 वर्षों का इतिहास देखो. स्थिर शासन में चार छोटे-छोटे दौर रहे. पहला मौर्यकाल, दूसरा मुगलकाल, तीसरा ब्रिटिशकाल और चौथा आजादी के बाद का काल. पहले और अंतिम शासन की जड़ें देश की धरती में हैं.
तीसरा संपूर्ण रूप से विदेशी था. दूसरा शुरू में विदेशी रहा, तीन पीढ़ियों बाद देशी रूप में ढलने लगा. इन छह सौ सालों को हटा दें, तो शेष 1900 वर्षों में भारत में आपस में लड़ते राजाओं और संघर्षरत क्षेत्रीय ताकतों का दौर रहा.
हाल का दौर और ऊपर उल्लिखित ऐसी अनगिनत खबरों को देखने से लगता है कि संयुक्त भारत का मौजूदा दौर कहीं और छोटा न हो जाये? तब मधु लिमये ने कहा कि जिस तरह की घटनाएं हो रही हैं, वे देश की एकता को लेकर चिंतित करनेवाली हैं. आज कोई राहुल गांधी से पूछे कि इस देश में सबसे अधिक शासन किसका रहा? शुरू से आज तक केंद्र में कौन शासन करता रहा?
देवगौड़ा, इंद्रकुमार गुजराल और चंद्रशेखर की सरकारें भी कांग्रेस के रहमोकरम पर थीं. जवाहरलाल जी, लालबहादुर शास्त्री जी, इंदिरा जी, राजीव गांधी और अब मनमोहन सिंह किस दल के हैं? वी.पी सिंह और अटल बिहारी वाजपेयी को छोड़ दें, तो 62 वर्षों में लगभग 55-56 साल कांग्रेस या कांग्रेस समर्थित लोगों का दौर रहा है.
उसमें भी जवाहरलाल जी, इंदिरा जी और राजीव गांधी एक ही परिवार के रहे. अब अगर उत्तर प्रदेश या किसी राज्य में लोग भीख मांगते हैं, तो उसके लिए दोषी आप किसे कहेंगे? उत्तर प्रदेश में भी कांग्रेस का लंबा शासनकाल रहा है. 1947 से ही. बीच के 1967- 1969 और 1978-80 को छोड़ दें, तो उत्तर प्रदेश में 1990 तक कौन शासन में रहा? 1990 के बाद उत्तर प्रदेश में भाजपा, मुलायम सिंह और मायावती सत्ता में आये हैं. इसलिए देश या किसी खास राज्य के पिछड़ेपन के लिए दोषी कौन है और निर्दोष कौन, यह बहस का विषय नहीं है. सवाल है कि राजनीति को एकांउटेबल (उत्तरदायित्वपूर्ण) बनाने की कोशिश शुरू से क्यों नहीं हुई? एक राजनीतिज्ञ की क्या जिम्मेदारी है?
वह जब सत्ता में आता है या राजनीति शुरू करता है, तो देश या समाज को जहां पाता है, वहां से अपने कार्यकाल या जीवन में देश को आगे पहुंचाता है या नहीं? यानी उसकी उत्पादकता (प्रोडक्टविटी) क्या है? देश की प्रतिव्यक्ति आमद कितनी बढ़ी, सड़कें कितनी बनीं, कल-कारखाने कितने लगे, नौकरियां कितनी बढ़ी? विषमता कितनी घटी, समाज में सौहार्द कितना रहा? देश की एकता कितनी मजबूत हुई? देश नैतिक रूप से कितना सात्विक बना? संस्थाएं कितनी मजबूत हुईं? सार्वजनिक चरित्र कितना निष्पाप और अनुकरणीय बना? मानव विकास सूचकांक देश-प्रदेश कहां पहुंचा? भ्रष्टाचार कितना कम हुआ?
कानून कितना प्रभावी बना? सुखी और खुश होने के सूचकांक पर देश या समाज कहां पहुंचा? इस तरह के अनेक मापदंड हैं, जिनपर नेताओं, सरकारों, राजनीतिक दलों, विधायकों, सांसदों वगैरह को परखा जाना चाहिए? क्या इन मापदंडों या सवालों पर किसी नेता, दल या सरकार की परख भारत में होती है? निजी स्तर पर भी हर नेता का मूल्यांकन होना चाहिए कि उसने आधुनिकता और विकास के इन पैमानों पर देश-समाज को कहां पाया? हर साल अपने काम से कहां पहुंचाया? हर नेता (चाहे वह सत्ता में हो, या न हो) संपत्ति का ब्योरा क्यों न दे? माना जाता है कि नेतागीरी सबसे कमाऊ और आराम का धंधा है. मुखिया, विधायक, कारपोरेटर, सांसद बन जाइए और एक कार्यकाल में जीवन भर के लिए कमा लीजिए. यह लोक धारणा है.
आज सबसे अधिक खर्च शासक वर्ग पर है. उनकी सुरक्षा, तनख्वाह – सुविधाएं, ऐशोआराम, महल जैसे निवास, यह सब जनता के पैसे से, जनता की गा़ढ़ी कमाई से. पर इन नेताओं का योगदान क्या है? आजादी के छह दशकों बाद बहस हो रही है कि सभी भिखमंगे उत्तर प्रदेश के. सवाल हो कि सिर्फ उत्तर प्रदेश के ही नहीं, देश के सारे भिखमंगों के लिए जिम्मेदार कौन? चीन में भिखमंगे नहीं हैं. चीन तीन दशकों में दुनिया की सबसे बड़ी ताकत बन गया.
किसकी बदौलत? अपनी राजनीति के कारण ही न. यानी एक राजनीति कंगाल और भ्रष्ट बनाती है, देश के संस्कार और मूल्य कम करती है और दूसरी राजनीति किसी देश को दुनिया का सिरमौर बना देती है. यह है राजनीति की ताकत. पर हम और हमारी राजनीति कैसे है? ग्यारह मिनट में उत्तर प्रदेश को चार भागों में बांटने का प्रस्ताव पास हो गया. उत्तर प्रदेश विधानसभा से बिना बहस के. किसी ने सोचा कि प्रदेश क्यों बंटना चाहिए? क्या सिर्फ कुछ लोगों को मुख्यमंत्री, मंत्री, विधायक बना देने के लिए? या फिर कुछेक हजार को सरकारी नौकरी दे देने के लिए? या गवर्नेंस इंप्रूव करने के लिए? मौजूदा हालात में देश को सात सौ भागों में भी बांट दीजिए, तो भी इस राजनीतिक कल्चर से देश का गर्वनेंस इंप्रूव होता नजर नहीं आता. फिर क्यों हो बंटवारा?
कैसे काम हो रहा है देश में, इसका एक और नमूना.
इशरत जहां का मामला पूरे देश में चर्चित हुआ. पहले भारत सरकार की एक स्वत्रंत एजेंसी (जो केंद्र सरकार के अधीन है) ने कहा कि इशरत आतंकवादी थी. लश्कर ने उसे शहीद का दर्जा दिया था. अब गुजरात हाइकोर्ट मान रहा है कि यह फर्जी मुठभेड़ थी. फिर सही क्या है? देश के पूर्व गृह सचिव जी के पिल्लई का बयान आया है. श्री पिल्लई आउटस्टैंडिग अफसर रहे हैं. देश के गृह सचिव भी. उनका ताजा बयान है, जिसमें उन्होंने गुजरात सरकार के दावे को सही कहा है.
उन्होंने कहा, इशरत जहां के खिलाफ आइबी की ओर से खुफिया इनपुट था. आइबी ने उसे संदिग्ध आतंकवादी कहा. श्री पिल्लई का तर्क है कि उपलब्ध सबूतों के आधार पर पुख्ता प्रमाण थे कि इशरत और उसके साथ के लोग संदिग्ध गतिविधियों में शरीक थे. उनके अनुसार वह अलग-अलग होटलों में ऐसे लोगों के साथ रुकती थी, जो बिलकुल संदिग्ध थे. श्री पिल्लई के अनुसार लश्कर-ए-तैयबा की वेबसाइट ने इशरत को शहीद का दर्जा दिया. बाद में वह पेज हटा दिया.
इस एक प्रकरण से पता चलता है कि देश की कार्यसंस्कृति क्या है? किसके भरोसे चल रहा है देश. जिस तरह की राजनीतिक गतिविधियां चल रही हैं, उनसे देश के भविष्य के लिए अच्छे संकेत नहीं हैं. स्वतंत्रता आंदोलन ने, मधु लिमये के शब्दों में राष्ट्रीयता के नये मूल्य सृजित किये थे. उन मूल्यों का संपोषण करने के बजाय प्रादेशिकता, सांप्रदायिकता आज पूरे मुल्क पर छा गये हैं.
आगे मधु लिमये कहते हैं, अगर राष्ट्रीय एकता के लिए त्याग करना है, तो सब राज्यों को करना चाहिए. यह नहीं कि जो राज्य, प्रदेश या संप्रदाय हिंसा और पशुबल का इस्तेमाल करता है, उसके सामने केंद्र सिर झुकाये और जो अनुनय-विनय और शांतिपूर्ण तरीकों का अनुशरण करते हैं, उनके हितों को बेरहमी के साथ रौंद दे.
क्या मधु लिमये का यह कथन किसी को आज याद है? क्या कोई पूरे मुल्क के बारे में सोचता है? अपने दल, गद्दी और निजी स्वार्थों से ऊपर उठ कर? कम से कम जनता नये ढंग से देश के बारे में सोचना शुरू करे.
दिनांक : 27.11.2011
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