– हरिवंश –
यह राजनीति का भोग युग है. गांधी युग को ‘सतयुग’ मानें, तो द्वापर, त्रेता होते-होते अब कलयुग में राजनीति है. ऐसा नहीं है कि सतयुग में यानी गांधी दौर में सब बड़ा पाक साफ था. पर मुख्यधारा तप, त्याग, चरित्र, नैतिक आभा और सच की थी. पाप, मैल, झूठ और कीच-कादो, खुद ही अलग-थलग पड़ जाते थे.
आज की राजनीति की मुख्यधारा में पाप, झूठ, पाखंड, छल-छद्म और षडयंत्र का जोर है. ऐसा नहीं है कि सच, चरित्र, टेक और नेकवाले तत्व आज की राजनीति में हैं ही नहीं. पर वे ‘साइडलाइंड’ भी नहीं हैं, बल्कि कोने में कहीं पड़े हैं.
इसलिए इस कलयुग की राजनीति में ‘सादगी’, ‘फिजूलखर्ची’, ‘मितव्ययिता’ जैसे शब्द गूंजे, तो मीडिया में बड़ी-बड़ी खबरें आने लगी. हालांकि सोनिया गांधी, राहुल गांधी के कंसर्न (चिंता) से अचानक पुरानी राजनीति के ये स्वाभाविक शब्द पुनजीर्वित हुए, तो यह भी लगा, सोनियाजी-राहुलजी जेनुइनली इन शब्दों की वापसी चाहते हैं.
कांग्रेस में, कांग्रेसियों में और सरकार में. पर दोनों चाह कर भी कुछ कर-करा नहीं सकते, क्योंकि इसके उद्गम में कांग्रेसी संस्कृति है, जो धीरे-धीरे सारे दलों की संस्कृति बन गयी. अब पूरी राजनीति इस भोग संस्कृति की गिरफ्त में है. यह भी सच है कि इस भोग-धारा को पलटे बिना, देश नहीं बदलनेवाला.
गांधी युग की राजनीति का बड़ा गुण था, अपरिग्रह. गांधी बाद लोहिया-जेपी वगैरह ने (उसी पीढ़ी के कांग्रेसी नेताओं ने भी) कभी व्यक्तिगत माल-असबाब रखा ही नहीं. लोहिया तो निसंग थे. एक बक्सा और किताबें, यही संपत्ति थी. उस युग का अघोषित एजेंडा था, सादगी. यह सर्वस्वीकृत विचार था कि यही भारत की समृद्धि की सीढ़ी है. वह युग इस विचार के खिलाफ था कि गांधी के राजनीतिक वारिस, अंगरेजों के द्वारा खाली महलों में रहें. वही भाषा, भूषा और संस्कृति बढ़ायें.
1962 में राममनोहर लोहिया ने सवाल उठाया कि प्रधानमंत्री पर इतना अधिक फिजूलखर्च, तामझाम और शानोशौकत क्यों? तब देश के बुद्धिजीवियों और राजनीतिक दलों ने या तो मखौल उड़ाया या चुप हो गये. धीरे-धीरे मंत्रियों का खर्च बढ़ता गया. अब मनमोहन सरकार के दो मंत्री महीनों-महीनों, रोजाना लाख रुपये किराये के होटल-सूट में रहें, तो आश्चर्य क्यों?
’60 के दशक में ही ऊपर की फिजूलखर्ची देख कर, नकल कर नौकरशाह-कार्यकर्ता भी उसी रास्ते पर चल पड़े. सच यह है कि शीर्ष पर बैठे लोगों का फिजूलखर्च और भोग विलास, समाज को भ्रष्ट बनाता है. आज यह फिजूलखर्च या विलासखर्च समाज की संस्कृति का हिस्सा बन गया है.
इसी धारा से जन्मे रिश्वत, गबन, सार्वजनिक धन की चोरी, स्विस बैंक में जाता भारत का अपार पैसा….. और अब तो सार्वजनिक ‘जीवन में’ निर्ल्लजता पराकाष्ठा पर है. राष्ट्रपति से लेकर नीचे के नेता के वंश के भविष्य की हिफाजत में राजनीतिक दल चौकस हैं. सार्वजनिक जीवन में भ्रष्टाचार मुद्दा नहीं रहा. साधन, साध्य शब्द ही वनवास में हैं. जहां निज स्वार्थ, भोग और धन से राजनीति चल रही हो, वहां ‘सादगी’, ‘मितव्ययिता’ वगैरह की चर्चा? अंधे को देखने की सलाह देने जैसा ही है.
पर सोनियाजी या राहुलजी चाहें, तो कांग्रेस की ही पुरानी परंपरा कांग्रेसियों को स्मरण करा सकते हैं. आज देश बापू को याद करेगा, पर लालबहादुर शास्त्री का जन्मदिन भी दो अक्तूबर ही है. लालबहादुरजी की पुण्य स्मृति से ही कांग्रेस व अन्य दल कुछ सीख सकें, तो वे अपने पाप भंडार को कुछ कम कर सकेंगे.
प्रसंग 1964 का है. लालबहादुर शास्त्री प्रधानमंत्री थे. यह प्रसंग लिखा है डॉ वर्गीज कुरियन ने. पेंगुइन से प्रकाशित पुस्तक ‘आइडियाज दैट हैव वर्क्ड’ (विचार जो कामयाब रहे) के अध्याय ‘बूंद से बाढ़ तक’ में. डॉ वर्गीज कुरियन, श्वेत क्रांति के सूत्रधार -आणंद दुग्ध विकास कार्यक्रम के जनक.
प्रधानमंत्री एक कार्यक्रम में आणंद आ रहे थे. उनका संदेश आया. वे रात में एक छोटे किसान के घर अतिथि रहेंगे. अकेले. लोगों के पसीने छूटने लगे. यह कैसे संभव है? सुरक्षा में एक आदमी नहीं, यह असंभव है. पर इच्छा तो प्रधानमंत्री की थी. वह भी गांधीयुग के चरित्रवान राजनेता की.
रास्ता निकाला डॉ कुरियन ने. एक गांव, आणंद से सात किमी दूर, वह गये. गांव के लोगों से कहा, दो विदेशी मेहमान आ रहे हैं. किसी एक घर में रहेंगे. एक किसान तुरंत सहमत हो गया. कुरियन ने उस किसान से कहा, घर की थोड़ी साफ-सफाई कर दे. पूरी योजना गोपनीय रही. यहां तक कि गुजरात के मुख्यमंत्री को भी उस गांव की जानकारी नहीं दी गयी.
अचानक कार्यक्रम की रात प्रधानमंत्री लालबहादुर शास्त्री और गुजरात के तत्कालीन मुख्यमंत्री को लेकर डॉ कुरियन उस छोटे किसान के घर पहंचे. किसान देखते ही स्तब्ध. उसने डॉ कुरियन को अलग हटाया, बोला, ‘यह आपने मेरे साथ क्या किया? मैंने तो खाने में कुछ भी खास नहीं बनाया. प्रधानमंत्री क्या खायेंगे? अब मेरा क्या होगा?’ वह अवाक् और घबड़ाया था. कुरियन ने उस किसान से कहा, ‘चिंता मत करो, कुछ नहीं होगा.
वे लोग बहुत अच्छे हैं. बिलकुल मेरी और तुम्हारी तरह.’ डॉ कुरियन प्रधानमंत्री और मुख्यमंत्री को उस किसान के घर पहुंचा कर उस गांव से लौट गये. सिर्फ पीएम और सीएम गांव में रह गये. बिना सुरक्षा या किसी और सहयोगी के. शाम के साढ़े सात बजे थे. शास्त्रीजी और मुख्यमंत्री ने उस किसान परिवार के साथ रात का भोजन किया. पंगत में बैठ कर. फिर शास्त्रीजी ने कहा कि वे गांव की हर झोपड़ी में जाना चाहते हैं.
एक झोपड़ी में वे किसानों के परिवारों के साथ बैठे. बातचीत की कि जिंदगी कैसी चल रही है? क्या सब सहकारी समिति के सदस्य हैं? यह समिति कैसे काम कर रही है? ठीक-ठाक चल रही है? वे समिति के दामों से संतुष्ट हैं? वगैरह-वगैरह. चौपाल में लंबी बातचीत के बाद प्रधानमंत्री ने पूछा, इस गांव में मुसलमान रहते हैं? मैं उनके घरों में जाना चाहता हं. इस तरह उनके घर गये. वहां भी बैठे, बातें की. फिर पूछा, क्या यहां हरिजन हैं?
वहां से वे हरिजन के घर गये. भीड़ को पीछे छोड़ कर. उनसे पूछा कि क्या आपका दूध भी उसी बर्तन में डाला जाता है, जिसमें औरों का डाला जाता है? क्या आप उसी कतार में खड़े होते हैं, जिसमें ब्राह्मण खड़े होते हैं? इस तरह सुबह दो बजे तक प्रधानमंत्री गांव के लोगों के साथ बातें करते रहे. घर-घर घूम कर. इसके बाद डॉक्टर ने उन्हें सोने के लिए जोर दिया. अगली सुबह डॉ कुरियन तड़के पहंचे, तो देखा, प्रधानमंत्री लोगों के साथ भीड़ में बैठ कर बतिया रहे हैं.
प्रधानमंत्री और गांववालों की बातचीत बड़ी दिलचस्प और रोचक है. पर वह अलग विषय है. यहां यह बताना भर मकसद है कि तब के कांग्रेसी नेता कैसे आदर्श जीते थे. उनके लिए ‘सादगी’, ‘मितव्ययिता’ महज शब्द नहीं कर्म थे. दो अक्तूबर शास्त्रीजी का भी जन्मदिन है और गांधीजी का भी. गांधीजी ने भी यह सपना पाला कि आजाद भारत के मंत्री कैसे रहेंगे.
उनका काम-काज, चाल-चरित्र और जीवन कैसा होगा? गांधीजी ने इस संदर्भ में बंगाल के तत्कालीन गवर्नर राजगोपालाचारी को पत्र भी लिखा. 15 अगस्त 1947 को. यह पश्चिम बंगाल के मंत्रियों को गांधीजी की सलाह थी. उन्होंने कहा, ‘आज से आपके सिर पर कांटों का ताज है. हमेशा सच और अहिंसा बरतें. विनम्र बनें. अब आपकी परख होगी.
सत्ता से सावधान रहें. सत्ता भ्रष्ट बनाती है. सत्ता के दिखावे से बचें. याद रखिए, आप भारत के गरीब लोगों की सेवा के लिए सरकार में हैं. भगवान आपकी मदद करे’. यह थी, गांधी की सलाह. एक भारतीय राज्यपाल कैसा हो, इस पर17 अगस्त 1947 को गांधी ने लिखा. यह सब पढ़ कर, अब यकीन नहीं होता कि इस देश में ऐसे सपने देखनेवाले लोग भी थे.
पर यह सिर्फ सपना और आदर्श ही नहीं था. इस पर गांधीयुग के लोग चले भी. गांधीजी द्वारा आहूत आजादी के यज्ञ में दो अक्तूबर को ही जन्मे शास्त्रीजी ने ही आहुति दी थी. बापू के न रहने पर, उस शास्त्रीजी ने प्रधानमंत्री पद पर रह कर दिखाया भी कि बापू के यज्ञ में दीक्षित सिपाही कैसे देश के सात्विक सेवक बन सकते हैं? क्या आज के शासक इनसे कुछ सीखेंगे?
दिनांक : 02.10.2009