दिल (डील) मांगे मोर !
– हरिवंश – गाने की यह पंक्ति, कभी देश की जुबान पर थी, ‘दिल मांगे मोर’ (मोर अंगरेजी शब्द है, यानी अधिक). आज भारतीय नेताओं का यह करतब जुबान पर है, ‘डील मांगे मोर’ . कभी मुंबइया फिल्मी गानों की यह पंक्ति भी खूब चली थी, ‘दिलवाले दुल्हनिया ले जायेंगे’ . अब दिल्ली की सियासत […]
– हरिवंश –
गाने की यह पंक्ति, कभी देश की जुबान पर थी, ‘दिल मांगे मोर’ (मोर अंगरेजी शब्द है, यानी अधिक). आज भारतीय नेताओं का यह करतब जुबान पर है, ‘डील मांगे मोर’ . कभी मुंबइया फिल्मी गानों की यह पंक्ति भी खूब चली थी, ‘दिलवाले दुल्हनिया ले जायेंगे’ . अब दिल्ली की सियासत में यह चर्चा है, ‘डीलवाले दुल्हनिया (यानी सत्ता) ले जायेंगे.
सार्वजनिक जीवन में इतनी बेशर्मी, यह निल्लर्जता, नेताओं का असली आत्मकेंद्रित ऐसा चेहरा शायद ही कभी देश ने देखा हो. पैसा और पद, इन दो चीजों के लिए खुलेआम जमीर बेचने को तैयार ये नेता क्या चाहते हैं? अपना हित, अपने परिवार का भला, फिर अपनी पार्टी की सुध. देश और देश की जनता तो हाशिये पर है ही. इनकी पार्टी के कार्यकर्ता भी इन नेताओं की प्राथमिकता सूची में नहीं हैं.
पर कांग्रेस की कोर कमेटी को, ऐसे माहौल में एक साहसिक निर्णय के लिए बधाई. इस कमेटी ने तय किया है कि हम फिलहाल कैबिनेट का एक्सटेंशन (विस्तार) नहीं करेंगे. दलाल और ब्लैकमेलर राजनेताओं के लिए यह अच्छा सबक है. काश, और दल भी ऐसा करते. कांग्रेस को यहीं नहीं रुकना चाहिए. उसे सांसदों की खरीद-फरोख्त के चर्चों पर विराम लगाने के लिए साहसिक कदम उठाना चाहिए. देश की राजनीति में कॉरपोरेट हाउसों की बढ़ती भूमिका और दखलंदाजी पर रुख स्पष्ट करना चाहिए. चौधरी चरण सिंह देश की मिट्टी से जुड़े एक बड़े नेता थे.
पर चौधरी साहब के सुपुत्र चौधरी अजित सिंह को देखिए. पिता के नाम एयरपोर्ट उनकी एक मांग थी. अन्य शर्तें (या डील) वह और कांग्रेस जानें. भारतीय जीवन में एक लोक कहावत रही है, बढ़े पूत, पिता के धर्मे. सो चौधरी अजित सिंह, चौधरी चरण सिंह के अर्जित पुण्य-प्रताप से यहां तक पहुंच गये हैं.
पर उनकी इच्छा लगती है कि खुद गद्दी (सत्ता) भी पायें और पिता के नाम पर संस्थाओं का नामकरण करा कर उन्हें भी अमर करा दें. जो इंसान घर-परिवार और खुद से बाहर नहीं सोच सकता, वह क्या समाज और देश की रहनुमाई कर पायेगा? और ऐसे ही स्वार्थियों और खुदगर्जों की जमात आज मुल्क पर राज कर रही है. चाहे पक्ष हो या विपक्ष. रंग एक है.
(जेडी-एस) के एक नेता हैं, एचडी देवगौड़ा जी. कभी किस्मत से पीएम बन गये. उनका बयान सुनिए. वह फरमाते हैं कि उनकी पार्टी का हित सर्वोपरि है. जहां देश के भविष्य का सवाल हो, वहां उनकी पार्टी पहले है और पार्टी भी क्या है? कर्नाटक में सिमटी पारिवारिक संपत्ति जैसी. सच पूछिए, तो मन के इतने छोटे लोग, सार्वजनिक जीवन में कॉरपोरेटर भी नहीं होने चाहिए. पर जैसी जनता, वैसे नेता. ये देश के भाग्य विधाता हैं.
और अजित सिंह, एचडी देवगौड़ा, अमर सिंह, जैसे नेता ही आज के राजनीतिज्ञों की ब्रीड (नस्ल) हैं. एक दूसरी नस्ल भी है, गोविंदा हीरो जैसा. जो कभी-कभार संसद पहुंच कर संसद को धन्य कराने का एहसास कराते हैं. उनसे बार-बार पूछा गया कि न्यूक्लीयर डील के बारे में एक पंक्ति भी बोलिए. वह सिर्फ यही कह पाये कि बड़े-बुजुर्ग जो करेंगे, अच्छा करेंगे. अब ऐसे लोग अगर हमारी नियति (भविष्य) तय करने की पीठ पर होंगे, तो और क्या हो सकता है?
जिनके अपराध, साबित हो चुके हैं, जो जेल काट रहे हैं, वे हमारे और आपके भाग्य का फैसला करेंगे? देश का भविष्य तय करेंगे? वे संसद में मतदान कर सरकार की किस्मत का फैसला करेंगे? लोकतंत्र का यह चेहरा, लोकतंत्र को अविश्वसनीय बना रहा है.
देश के राष्ट्रीय मुद्दे, नेशनल एजेंडा से गायब हैं.
महंगाई. इसे रोकने के लिए कोई पहल नहीं. कांग्रेस भी खुश है. लोगों का ध्यान महंगाई से हटा रही है. फैलती अराजकता, ध्वस्त हो चुका गवर्नेंस, शासकों का भ्रष्टाचार, राजनीति में कॉरपोरेट हाउसों का बढ़ता दखल, सार्वजनिक जीवन में चरम पर पहुंच चुका नैतिक पतन, भोग, लूट, अमर्यादा, नेताओं का अहं, …..यही है आज का भारत!
दिनांक : 19-07-08