केंद्र ने सुप्रीम कोर्ट से कहा: बार-बार दया याचिकाओं से कानून सिद्धांत का उल्लंघन
नयी दिल्ली: केंद्र सरकार ने आज उच्चतम न्यायालय से कहा कि सजा में छूट या सजा कम करने के लिये बार बार राष्ट्रपति और राज्यपाल के पास दोषियों की दया याचिकायें अंतिम अवस्था के सिद्धांत का उल्लंघन करती हैं.न्यायालय ने याकूब मेमन के नाम का उल्लेख किये बगैर ही उसके प्रकरण का जिक्र करते हुये […]
नयी दिल्ली: केंद्र सरकार ने आज उच्चतम न्यायालय से कहा कि सजा में छूट या सजा कम करने के लिये बार बार राष्ट्रपति और राज्यपाल के पास दोषियों की दया याचिकायें अंतिम अवस्था के सिद्धांत का उल्लंघन करती हैं.न्यायालय ने याकूब मेमन के नाम का उल्लेख किये बगैर ही उसके प्रकरण का जिक्र करते हुये सालिसीटर जनरल से कहा कि वह इस संबंध में निर्देश प्राप्त करें कि क्या दया याचिकाओं के मामले में कोई प्रक्रिया है या इसके लिये कोई नया कानून बनाने की आवश्यकता है.सालिसीटर जनरल ने कहा कि राष्ट्रपति द्वारा दया याचिका अस्वीकार किये जाने के बाद भी राज्यपाल मौत की सजा पाने वाले दोषी की दया याचिका पर फैसला ले सकते हैं बशर्ते इसके लिये बदली हुयी परिस्थितियां हों.
इसके साथ ही रंजीत कुमार ने कहा कि राष्ट्रपति और राज्यपाल जैसे सांविधानिक प्राधिकारी द्वारा दया याचिका अस्वीकार किये जाने के बाद दंड प्रक्रिया संहिता के प्रावधान के तहत दोषी की सजा में छूट नहीं दी जा सकती है.
इस पर न्यायाधीशों ने सवाल किया, क्या आपका कहने का तात्पर्य यह है कि एक बार इस अधिकार के इस्तेमाल के बाद इसका फिर प्रयोग नहीं किया जा सकता. राज्य सरकार क्यों नहीं फैसला ले सकती है? सालिसीटर जनरल ने कहा कि सवाल यह है कि क्या कार्यपालिका द्वारा फिर से दया याचिकाओं पर विचार विधायिका और संविधान की योजना की अवहेलना तो नहीं है.
रंजीत कुमार ने कहा कि सीबीआई की जांच और अभियोजन वाले मामलों में, जिनमें व्यक्तियों को विदेशी नागरिक कानून, पासपोर्ट कानून जैसे केंद्रीय कानूनों के तहत दोषी ठहराया गया है, राज्य सरकारें उनकी दया याचिकाओं पर फैसला नहीं कर सकती हैं.उन्होंने कहा कि यदि राज्य के मकोका जैसे कानून के तहत दोषसिद्धि हुयी है तो राज्यपाल को मौत की सजा या किसी अन्य दंड को कम करने का अधिकार है.
सुनवाई के दौरान संविधान पीठ ने बलात्कार के मामले में नये कानूनी प्रावधानों का जिक्र किया और सालिसीटर जनरल से पूछा कि इसमें स्पष्ट रुप से क्यों कहा गया है कि उम्र कैद का मतलब ह्यह्यदोषी की शेष जिन्दगी है.
शीर्ष अदालत के तमाम फैसलों का हवाला देते हुये सालिसीटर जनरल ने कहा कि महिलाओं के प्रति अपराध की बढती संख्या को देखते हुये ऐसा किया गया है और यह भी एक तथ्य है कि कई बार राज्य बहुत ठोस कानूनी सिद्धांतों के बगैर ही दोषियों की सजा कम कर देते हैं. बहस आज भी अधूरी रही.
प्रधान न्यायाधीश एच एल दत्तू की अध्यक्षता वाली पांच सदस्यीय संविधान पीठ राजीव गांधी हत्याकांड के सात दोषियों की उम्र कैद की सजा माफ कर उन्हें रिहा करने के तमिलनाडु सरकार के फैसले के खिलाफ केंद्र सरकार की याचिका पर सुनवाई कर रही है. संविधान पीठ ने इस दौरान सजा में छूट देने के केंद्र और राज्य सरकार के अधिकारों पर कई सवाल किये.
इस मामले में दिन भर चली सुनवाई के दौरान संविधान पीठ ने जानना चाहा कि किसी दोषी की दया याचिका राष्ट्रपति द्वारा अस्वीकार किये जाने के बाद भी क्या वह इसे लेकर राज्यपाल के पास पहुंच सकता है.
संविधान पीठ के अन्य सदस्यों में न्यायमूर्ति एफएमआई कलीफुल्ला, न्यायमूर्ति पिनाकी चन्द्र घोष, न्यायमूर्ति अभय मनोहन सप्रे और न्यायमूर्ति उदय यू ललित शामिल हैं. केंद्र सरकार की ओर से सालिसीटर जनरल रंजीत कुमार ने कहा, बार-बार दायर होने वाली दया याचिकायें अंतिम अवस्था के सिद्धांत का उल्लंघन करती हैं.
संविधान पीठ ने सालिसीटर जनरल से इस सारे मसले पर जवाब मांगते हुये कहा कि राष्ट्रपति के कार्यालय द्वारा दया याचिका अस्वीकार किये जाने के बाद यदि राज्यपाल इसे स्वीकार कर लेते हैं तो क्या इससे राष्ट्रपति का अधिकार कमतर नहीं होता है.राजीव गांधी हत्याकांड के सात दोषियों में वी श्रीहरन उर्फ मुरुगन, संतन, राबर्ट पायस और जय कुमार श्रीलंका के नागरिक हैं जबकि महिला दोषी नलिनी, रविचन्द्रन और अरिवु भारतीय हैं.