कुप्रबंध की संस्कृति!

-समय से संवाद- -हरिवंश- देश, वाचाल वृत्ति, बौद्धिक विलासिता, पर-उपदेश वगैरह की ‘लचर जीवन संस्कृति’ से नहीं चलता. आज के भारत में सरकार, राजनीति से लेकर समाज स्तर पर यही जीवन संस्कृति है. अमर्त्य सेन जिस ‘आर्ग्यूमेंटेटिव इंडिया’ (बहस में डूबे भारत) की बात करते हैं, उसे जमीन पर देखें-समझें तो बात ज्यादा स्पष्ट और […]

By Prabhat Khabar Digital Desk | October 13, 2013 3:35 AM

-समय से संवाद-

-हरिवंश-

देश, वाचाल वृत्ति, बौद्धिक विलासिता, पर-उपदेश वगैरह की ‘लचर जीवन संस्कृति’ से नहीं चलता. आज के भारत में सरकार, राजनीति से लेकर समाज स्तर पर यही जीवन संस्कृति है. अमर्त्य सेन जिस ‘आर्ग्यूमेंटेटिव इंडिया’ (बहस में डूबे भारत) की बात करते हैं, उसे जमीन पर देखें-समझें तो बात ज्यादा स्पष्ट और साफ होती है. मूलत: हम बातूनी लोग हैं, बिना कर्म बात-बहस करनेवाले. किसी के बारे में कुछ भी टिप्पणी. बिना सिर-पैर बहस. इन प्रवृत्तियों को जोड़ कर देखें, तो भारतीय जीवन में भयावह अगंभीरता दिखती है. यही अगंभीरता आज की राजनीति, प्रशासन और समाज में है. इसके असर गहरे और दूरगामी हैं. भारत की राजनीति व समाज के स्तर पर कुछेक ताजा मुद्दों के संदर्भ में हम इसे समझ सकते हैं.

एयर इंडिया का निजीकरण?

भारत के प्रधानमंत्री अर्थशास्त्री हैं, पर भारत के मौजूदा आर्थिक हालात के बारे में टिप्पणी की जरूरत नहीं. गली-चौराहे (सब्जी-चाय के भाव से ) से ऊपर तक महंगाई बढ़ने, बैंक के बढ़ते सूद वगैरह ने जीवन कठिन बना दिया है. पर देश की अर्थव्यवस्था की सेहत बताने के लिए एक और बड़ी खबर है. ताजा मुद्दा. इस प्रसंग में उस विभाग के मालिक केंद्रीय मंत्री कह रहे हैं कि हालात खराब हैं, पर हम कुछ कर नहीं सकते? क्योंकि इस सरकार के पास महज छह माह समय है. यानी रोग कैंसर बन रहा है. और केंद्र सरकार जिस पर दायित्व है, संभालने का, वह मूकदर्शक बन कर देख रही है. अपना दुख-पीड़ा अखबारों को बता रही है. यह देश चलाने का तरीका है? यह खबर भी भारत सरकार के मंत्री ने ही सार्वजनिक की है. यह किसी आलोचक, विरोधी या विदेशी क्रेडिट रेटिंग एजेंसी की खबर नहीं है. न किसी अखबार या चैनल की खोज खबर है. केंद्रीय उड्डयन मंत्री अजित सिंह ने कहा है कि एयर इंडिया का निजीकरण जरूरी है, हालांकि यह समय इसके लिए उपयुक्त नहीं है (देखें टाइम्स ऑफ इंडिया – 08.10.2013). एक दूसरे अखबार से उन्होंने कहा कि एयर इंडिया को बहुत अच्छा करना होगा या फिर नष्ट होना पड़ेगा (परफॉर्म वेल ऑर पेरिश). याद रखिए हाल ही में केंद्र सरकार ने 32 हजार करोड़ का ‘बेलआउट ‘ पैकेज एयर इंडिया को दिया था. यह भी न भूलें हम, कि यूपीए के कार्यकाल के पहले दौर में लाखों करोड़ के विमान खरीदे गये. प्रफुल्ल पटेल के नेतृत्व में यह अभियान चला कि एयर इंडिया का कायाकल्प करना होगा. अजित सिंह ने अब कहा है कि इस सरकार के पास एयर इंडिया को रिस्ट्रक्चर करने का समय नहीं है. इसलिए नयी केंद्र सरकार को उसे डूबने से बचाना होगा. उन्होंने यह भी साफ किया कि इक्विटी के तौर पर 2021 तक 32 हजार करोड़ देने के बाद सरकार एयर इंडिया को ऋण नहीं देगी. भविष्य की सरकारों को इसके बारे में निर्णय लेना होगा. उन्होंने साफ कहा कि एयर इंडिया को खुद कमाना-खाना होगा. इसके प्रबंधन और कर्मचारियों को ही इसे संभालना होगा. इस वित्तीय वर्ष में भारत सरकार ने एयर इंडिया के लिए जो भी वित्तीय प्रावधान किया, उससे अधिक उसे 3500 करोड़ देना पड़ेगा, यह भी मंत्री ने बताया.

क्यों नहीं यह सवाल उठना चाहिए, कि जब प्राइवेट एयरलाइंस कंपनियां अपनी सक्षमता और श्रेष्ठ सेवा से इस बाजार में कमा सकती हैं, तो एयर इंडिया घाटे में क्यों? दरअसल, सक्षम प्रबंधन, इफिशियेंसी वगैरह शब्द सरकारी अर्थतंत्र में हैं ही नहीं. भ्रष्टाचार, बेईमानी के सवाल अलग हैं. पिछले दिनों खबर आयी कि एयर इंडिया की चार सौ से अधिक एयर होस्टेस वर्षों से दफ्तर नहीं आ रही. कई का तो वर्षों से कुछ पता नहीं है. यह भी चर्चा रही कि इनमें से अनेक वर्षो से प्राइवेट एयरलांइस में काम कर रहीं हैं. क्या ऐसे कोई सरकारी विभाग या सार्वजनिक उपक्रम चलता है? याद करिए सरकार जहां भी हाथ रखती है, वह विभाग डूब जाता है. चाहे राज्य सरकारें हों या केंद्र. अगर कोई सरकारी क्षेत्र अपवाद स्वरूप अच्छा काम कर रहा है, तो इसका श्रेय वहां के तत्कालीन प्रबंधन पर बैठे वहां के शीर्ष व्यक्ति को है. देश की सरकारी कार्यसंस्कृति ही यहां सड़ चुकी है. चीन के सार्वजनिक क्षेत्र के कारखाने दुनिया की फार्चून पांच सौ कंपनियों में टॉप पर हैं. पर भारत में क्या हाल हैं? अनुशासनहीनता, राजनीतिक हस्तक्षेप से अयोग्य, भ्रष्ट व काहिल लोगों को शीर्ष पर थोपने की प्रवृत्ति व दफ्तरों में कार्यसंस्कृति के अभाव ने हालात चौपट कर दिया है. दरअसल, ऐसे सवाल सरकार के कुप्रबंधन से जुड़े हैं. रोजगार नहीं बढ़ रहे हैं. महंगाई आसमान पर है, भ्रष्टाचार बेकाबू है. आर्थिक विकास दर लगातार घट रहा है. सबकी जड़ में है, ऊपर बैठे लोगों का इनकांपिटेंस, दृष्टिहीनता और संकल्पहीनता. क्या कोई मुल्क इस रास्ते नयी तकदीर लिख सकता है?

15 लाख करोड़ की लंबित परियोजनाएं

अर्थव्यवस्था को बेहतर करने के लिए प्रधानमंत्री के स्तर पर अलग-अलग बड़े प्रोजेक्टों की मानिटरिंग (निगरानी) के लिए प्रधानमंत्री कार्यालय की पहल पर जून-2013 में पीएमजी (प्राइम मिनिस्टर्स प्रोजेक्ट मानिटरिंग ग्रुप) का गठन हुआ. चूंकि अर्थव्यवस्था में चौतरफा गिरावट के संकेत मिल रहे थे, इसलिए यह कदम प्रधानमंत्री स्तर पर उठाया गया. उपलब्ध आंकड़ों के अनुसार 15 लाख करोड़ से अधिक पूंजी की औद्योगिक परियोजनाएं केंद्र सरकार या सरकारी गलियारों – फाइलों में क्लीयरेंस या अनुमोदन की प्रतीक्षा में हैं. अटके प्रोजेक्टों की संख्या लगातार बढ़ रही है. क्योंकि सरकार स्तर पर काम ही नहीं हो रहा. 15 लाख की लंबित परियोजनाओं में से 136 बिजली (पावर) उत्पादन से जुड़ी हैं, 7.4 लाख करोड़ की. स्टील की 25 परियोजनाएं हैं, जिनमें 3.36 लाख करोड़ का निवेश अधर में है. इसके साथ गैस सेक्टर है, जहां 32 परियोजनाएं 2.08 लाख करोड़ निवेश की रुकी हैं. विशेष आर्थिक क्षेत्र की कई परियोजनाएं हैं. 52,271 करोड़ की. सड़कें बननी हैं, 40,155 करोड़ की. खनन से जुड़ी परियोजनाएं हैं, 37,399 करोड़ की. इस तरह कुल 319 परियोजनाएं हैं, जिनमें 15.19 लाख करोड़ के निवेश लटके हुए हैं या अधर में हैं. पीएमजी ने जून से अब तक 78 परियोजनाओं को क्लीयर (अनुमोदन) किया है. इन्हीं में झारखंड के तिलैया में 4000 करोड़ मेगावाट बिजली उत्पादन की परियोजना भी है. पांच महत्वपूर्ण रेलवे लाइन विस्तार से जुड़ी परियोजनाएं (14505 करोड़) भी लंबित हैं.

जब देश गहरे आर्थिक संकट में है, तब इतनी परियोजनाएं लंबित हों, तो इससे सरकार की कार्यशैली साफ होती है. प्रधानमंत्री को विवश होकर जून में इसकी मानिटरिंग के लिए अपने स्तर पर कमिटी बनानी पड़ी. यह जरूरी नहीं था, अगर सभी मंत्रालय समयबद्ध तरीके से काम कर रहे होते, तो पीएम के स्तर पर इस कमिटी की क्या जरूरत थी? पर, ऊपर बैठे लोग काम ही नहीं करते क्योंकि वे निर्भय हैं. कोई उनका कुछ बिगाड़ नहीं सकता. क्या कोई मंत्री काम में विलंब या खराब परफारमेंस के आधार पर हटाया जाता है? भारतीय लोकतंत्र की बुनियाद में यह सिद्धांत बैठ गया है कि मंत्रियों को, सांसदों को, नेताओं को, अफसरों को, महज सत्तासुख भोगने का अधिकार है, खूब तनख्वाहें, राजाओं से भी कई गुना उच्च स्तर की सुरक्षा और टैक्स देनेवालों के खर्चे पर विलासपूर्ण जीवन. पूरी अवधारणा में कहीं एकांउटेबिलिटी है ही नहीं. मतदाता या देश के लोग जो बेहतर सरकार या बेहतर जीवन चाहते हैं, अगर चुनावों में इन मूल सवालों (जो हमारे जीवन को प्रभावित करते हैं, हमारे बच्चों व देश का भविष्य भी तय करेंगे) पर गौर कर नेताओं को वोट करने लगें, तभी स्थिति सुधर सकती है. जब देश की अर्थव्यवस्था दुर्दिन झेल रही हो, तब 15 लाख करोड़ का निवेश नेताओं की लापरवाही से लटका हो, इससे बड़ा ‘क्रिमिनल ऑफेंस’ (आपराधिक काम) कुछ और नहीं हो सकता. जब मुल्क में रोजगार घट रहे हों, पढ़े-लिखे युवा नौकरी के लिए सड़कों पर भटक रहे हों, तब अगर 15 लाख करोड़ से अधिक की पूंजी विभिन्न क्षेत्रों में निवेश होता, तो लाखों को रोजगार मिलते. इन्फ्रास्ट्रक्चर सुधरता. देश की आर्थिक वृद्धि दर बेहतर होती. महंगाई और आर्थिक संकट का यह दौर टलता. क्या ऐसा न कर देश को संकट में झोंकनेवाले अपराधी माने जाने चाहिए या नहीं? यह बहस मुल्क में जरूरी है.

नये कानून के बाद बढ़ी घटनाएं!

इकॉनामिक टाइम्स की प्रमुख खबर है (07.10.2013 की). यौन उत्पीड़न के नये सख्त कानून बनने के बाद यौन उत्पीड़न की घटनाएं कई गुना बढ़ गयी हैं. 2010 के मुकाबले. पीपीसी वर्ल्ड वाइड (जो भारत में सौ कंपनियों में इंप्लायमेंट असिस्टेंस प्रोग्राम चलाता है) के अनुसार यौन उत्पीड़न की घटनांए चार गुना बढ़ी हैं. विभिन्न नगरों, शहरों और राज्यों समेत महानगरों से जो तथ्य आ रहे हैं, दिल्ली और देश से जो सूचनाएं मिल रही हैं, उनके अनुसार रेप वगैरह की घटनाएं बढ़ी हैं. सख्त कानून बनने के बाद. क्या राजनीति या समाज में इस विषय पर कहीं गंभीर विचार या मंथन या आत्मविश्लेषण की कोशिश है कि भारतीय समाज में ऐसा हो क्यों रहा है? लोग क्या अचानक निर्भीक हो गये हैं या उद्दंड हो गये हैं या कानून के प्रति भय खत्म हो गया है? हम अराजकता की ओर बढ़ रहे हैं? यह सिर्फ रेप का ही सवाल नहीं है, चाहे भ्रष्टाचार का प्रसंग हो, या कानून-व्यवस्था तोड़ने का, हत्या करने का प्रसंग हो या देश की संपदा लूटने का मामला हो, लोग खुलेआम इन चीजों में लगे हैं. लगता है, भारतीय समाज के मन से भय, लाज, शर्म, संकोच वगैरह ही खत्म हो गया है? देश के लिए यह बड़ा गहरा संकट है, पर अद्भुत है यह देश, जिसमें अपने गंभीर सवालों के प्रति कहीं चर्चा या चिंता ही नहीं?

खूब धन कमाने की लालसा!

इस नयी ग्लोबल व उदारीकृत दुनिया में लोग धन को ही भगवान मानने लगे हैं. पर ऐसे लोगों के लिए चिंताजनक खबर है (देखें द इकॉनामिक टाइम्स 10.10.13). जो लोग 24×7 धुन में काम कर रहे हैं, उनके बच्चे कैसे निकल रहे हैं? जिन बच्चों के माता-पिता नयी अर्थव्यवस्था में ईमानदार तरीके से सातों दिन, 24 घंटे काम कर रहे हैं, उनके बच्चों में शुरू से ही, मनोवैज्ञानिकों के अध्ययन के अनुसार, ‘बिहेवियरल प्राब्लम्स’ (व्यवहार समस्याएं) अचानक बहुत बढ़ गयी हैं. बेंगलुरु स्थित भारत के सर्वश्रेष्ठ संस्थानों में से एक नीमहंस (मनोवैज्ञानिक चिकित्सा केंद्र) ने एक अध्ययन किया है. जिन बच्चों के मां-बाप काम के दबाव में लंबे समय तक काम करते हैं, उनके बच्चों को उनका समय नहीं मिलता, मां-बाप का ध्यान नहीं जाता, न व्यस्तता के कारण वे देखभाल कर पाते हैं (टाइम, अटेंशन एंड केयर का अभाव). इससे छोटे-छोटे बच्चे, पांच वर्ष से कम उम्र के बच्चे, भावनात्मक रूप से अत्यंत मुसीबत में हैं. दिल्ली, मुंबई और पुणो के मनोवैज्ञानिक चिकित्सकों ने भी इस निष्कर्ष की पुष्टि की है. एक वर्ष के बच्चों पर भी अध्ययन हुआ, जो अपने मां-बाप को पहचान नहीं पाते. उधर, मां-बाप की परेशानी है कि वे बच्चों पर समय खपाते हैं, तो उनकी नौकरी खतरे में पड़ सकती है. उन्होंने बेहतर जिंदगी के लिए भारी कर्ज ले रखा है, जिसे उन्हें चुकाना है. इसलिए वह बच्चों को आया के हवाले छोड़ काम में डूबे रहते हैं. पर इससे मानसिक रूप से बीमार और अस्वस्थ बच्चों की संख्या बढ़ रही है. अंतत: किसी भी समाज या व्यक्ति को इस यक्ष-प्रश्न को हल करना ही होगा कि हमें कितने पैसे चाहिए? कितनी सुख-सुविधा चाहिए? किस कीमत पर चाहिए? या हमें आंख बंद कर अंधाधुंध महज दौड़ना है? परिवार की कीमत पर, सेहत की कीमत पर. अंतत: इससे देश और समाज ही प्रभावित होते हैं.

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