नयी सुबह की प्रतीक्षा!

– हरिवंश – महान इतिहासकार आर्नाल्ड टायनबी ने कहा है. अपनी चुनौतियों और समाधान खोजने की ताकत के आधार पर ही सभ्यताएं नयी मंजिल पर पहुंचती हैं. जब अंदरुनी गंभीर चुनौतियों के हल की तरकीबें नहीं ढूंढ पातीं, सभ्यताएं, तो वे खुद मिट जाती हैं. खत्म हो जाती हैं. 21 जुलाई को लोकसभा में विश्वासमत […]

By Prabhat Khabar Digital Desk | September 18, 2015 12:00 AM
– हरिवंश –
महान इतिहासकार आर्नाल्ड टायनबी ने कहा है. अपनी चुनौतियों और समाधान खोजने की ताकत के आधार पर ही सभ्यताएं नयी मंजिल पर पहुंचती हैं. जब अंदरुनी गंभीर चुनौतियों के हल की तरकीबें नहीं ढूंढ पातीं, सभ्यताएं, तो वे खुद मिट जाती हैं. खत्म हो जाती हैं.
21 जुलाई को लोकसभा में विश्वासमत के दृश्य. बहस स्तर. सांसदों के चरित्र की जो झलकें मिलीं, वे पर्याप्त सबूत हैं कि 60 वर्ष की आजादी को हम छिन्न-भिन्न करने के कगार पर पहुंचा चुके हैं. लगभग दो हजार वर्षों बाद, भारत की राजनीतिक-भौगोलिक एका का जो तानाबाना बना, उसे हम संकट में डाल चुके हैं. खासतौर से सरदार पटेल जैसे महान लोगों ने भारत की एकता का जो ऐतिहासिक काम किया, आज के नेता उसकी नींव खोद चुके हैं.
ब्रिटेन के एक बड़े पत्रकार वर्स्टथ्रोन ने कभी अपने नेताओं के बारे में टिप्पणी की थी, ‘हमारे नेता असाधारण लगते हैं….अपनी महानता के कारण नहीं, क्षुद्रता की वजह से. नीचता, संकीर्णता की वजह से. देश को, समाज को प्रेरित करने की अपनी क्षमता के कारण नहीं, बल्कि देश को, समाज को हताश, निराश, उदास करने की अपनी कलाबाजी और क्षमता के कारण’. कोई भी संवेदनशील नागरिक आज अपने नेताओं को देख कर यही कहता और महसूस करता है.
इस असाधारण दौर में मनमोहन सिंह की सरकार ने भले ही विश्वास मत जीत लिया हो, पर देश हार गया है. लोकतंत्र बुझा है और लोकसभा श्रीहीन हुई है.
बचपन में अध्यापक पढ़ाते थे. गांव के प्राइमरी स्कूलों में. अस्वस्थता में टीवी पर लोकसभा बहस देख व सुन कर वह कथन याद आया. आशय था. सत्ता गयी, कोई बात नहीं. पैसा गया, परवाह नहीं. स्वास्थ्य गया, यानी कुछ खोया आपने, पर जिस दिन आपने चरित्र खो दिया, फिर कुछ नहीं बचा. सब कुछ चला गया.
इस लोकसभा विश्वास मत के दौरान बहस, स्तर, सांसदों की भूमिकाएं, सत्ता और विपक्ष के आचरण देख कर इस बात की पुष्टि हो गयी कि भारत ने राष्ट्रीय चरित्र खो दिया है. आजादी की लड़ाई से निकले उदात्त मूल्य, करुणा (कंपैशन), तेजस्वी, प्रतिभा, क्षमतावान (कांपिटेंस), साहस (करेज), गंभीर चुनौतियों के अनुरूप ऊंचा उठने की क्षमता, इंटीग्रिटी, परपस (उद्देश्य), टीम वर्क और विजन, लोकसभा में झलकते थे.
अब इनकी जगह ले ली है, किसी कीमत पर सफलता, सत्ता का आत्म अहंकार, अपने को महान साबित करने की भूख, पावर और पोजिशन हथियाने में पतन की खाई तक जाने में स्पर्द्धा. ये नये राजनीतिक मूल्य हैं, भारतीय राजनीति के. पुराने मूल्य आधारित थे. गांधी के सोच-चिंतन पर. साध्य और साधन में एकता. पवित्र साधनों (रास्तों) से ही साध्य तक पहुंचना.
21 जुलाई को लोकसभा में हुई बहस ने स्पष्ट कर दिया कि भारतीय राजनीति ने गांधी के सपनों को तिलांजलि देकर नये मूल्य गढ़ लिये हैं. किसी रास्ते सफलता की मंजिल. गांधी को अलविदा कर मैकियावेली के राजनीतिक दर्शन पर भारतीय राजनीति चल पड़ी है. मैकियावेली का मानना था, हर पाप कर्म, कूटनीति, चाल और षडयंत्र, मंजिल तक पहुंचने के लिए जरूरी है. सही है.
सबसे पहले भाजपा! भय, भूख और भ्रष्टाचार को मुद्दा बनानेवाली. चाल, चरित्र और अनुशासन की बात करनेवाली पार्टी है, यह? क्या भाजपा के सदस्य लोक जीवन में यह सब मानते-करते हैं? या यह सब उनके लिए सिद्धांत की बाते हैं या लोगों को ठगने के औजार हैं? क्या भाजपा ने कभी आत्मनिरीक्षण किया है कि उसके सांसद, विधायक क्यों बिकते हैं? राष्ट्रीय अध्यक्ष बंगारू लक्ष्मण पैसे लेते पकड़े गये, उस घटना के बाद दल ने अपने चाल-चरित्र पर आत्ममंथन किया?
क्यों इस दल के लोग भी सत्ता मिलने पर वही सब पाप कर्म करते हैं, जो दूसरे? कल बारह सांसदों ने (जिनमें से आठ भाजपा के हैं) क्रास वोटिंग नहीं की होती, तो दृश्य दूसरा होता. इसकी जड़ है कि यह पार्टी भी अपने तपे-तपाये कार्यकर्ताओं की जगह ‘पॉलिटिकल मैनेजर्स’ ठेकेदार कम राजनेता और डीलरों को तरजीह देती है. जब ऐसे तत्व आपकी पार्टी में होंगे, तो वे बिकेंगे ही. खरीदार आयेंगे ही. बहेलिया, दाना डालेगा ही?
भाजपा की क्रॉस वोटिंग के बाद अगर कल दल के नेता, यह कहते कि हमारे दल के संगठन, विचार और हमारी कमियों का परिणाम है कि हमारे सांसद ‘घोड़ामंडी’ में जा रहे हैं, इस देश से वादा करते हैं, पतन की इस धारा को रोकना हमारी पहली प्राथमिकता है, सत्ता बाद में. तब लोग भाजपा को अलग देखते.
इसी तरह भाजपा के जिन तीन सांसदों को घूस देने की कथित कोशिश हुई, वे अगर अपने नेता के साथ स्पीकर से अलग मिल कर सबकुछ बताये होते और तुरंत कार्रवाई की मांग की होती, तो यह ज्यादा गरिमामय होता. फिर विश्वास मत के बाद इसका राष्ट्रीय भंडाफोड़ किया जाता. यह असाधारण घटना है. या तो इन तीनों भाजपाइयों के आरोप सही हैं या नितांत झूठे हैं? यह तय होना जरूरी है, ताकि देश सच्चाई को जान सके.
अब वामपंथ और उनकी भूमिका पर !
यह सच है कि हवाला, घोटाला और भ्रष्टाचार से जिस तरह अन्य दल लकवाग्रस्त हैं, वामपंथी उनके मुकाबले साफ-सुथरे हैं. पर वैचारिक हेराफेरी के मास्टर. जिन निर्दल, लोभी सांसदों को कोई पूछता नहीं था, उनके भाव इस शक्ति परीक्षण के दौरान आसमान छूने लगे. खुलेआम सौदेबाजियां होने लगीं.
सांसदों की मंडी की चर्चाएं आने लगीं. भारतीय राजनीति के कारपोरेट हाउसों, पूंजी और लाइजनर्स (दलालों) के खुलेआम खेल की पृष्ठभूमि या माहौल किसने बनाया? किसने यह स्थिति पैदा की? वामपंथियों की इस कार्रवाई से देश की राजनीति का स्तर, सुधरा या बिगड़ा? नेता वह होता है, जो सही समय पर सही कदम उठाये? कांग्रेस को इसे करीब से जानने के बाद क्या वामपंथी यह नहीं जानते थे कि कांग्रेस सत्ता नहीं छोड़ेगी. वह बहुमत साबित करने के लिए किसी सीमा तक जायेगी.
1993 के आसपास हुए सांसद रिश्वतकांड की पृष्ठभूमि भी थी. यह भी साफ था कि चूंकि किसी तत्कालीन सांसद (घूस देनेवाले और घूस लेनेवाले) को इस मामले में आज तक सजा नहीं हुई, तो हमारे सांसद तो ‘घोड़ामंडी’ के लिए तैयार थे ही. वे इसी अवसर और ताक की प्रतीक्षा में थे. दरअसल झामुमो से लेकर अन्य जितने बड़े-छोटे दलों-स्वतंत्र सांसदों को इस संकट ने जो हैसियत, अवसर और लाभ दे दिया, इसके लिए उन्हें कांग्रेस का शुक्रगुजार नहीं, करात साहब का आभारी होना चाहिए.
नेता वह होता है, जो सामान्य जनता के मुकाबले आगे या दूर देखता है. क्या वामपंथी नेताओं को यह एहसास नहीं था कि भारतीय राजनीति के लोभी इंसान और डीलर दल इसी अवसर की प्रतीक्षा में हैं. जो निर्दलीय सांसद, छोटी पार्टियां या अन्य ऐसे तत्व थे, उन्होंने इस अवसर का लाभ उठाया.
जेपी आंदोलन की तटस्थ समीक्षा करनेवाले भी आंदोलन को लेकर एक गंभीर सवाल उठाते हैं. वह आंदोलन भ्रष्टाचार के खिलाफ था. अब्दुल गफूर, चिमनभाई पटेल, तुलाराम वगैरह उसके प्रतीक थे. हालांकि गफूर निजी तौर पर ईमानदार नेता थे. उस आंदोलन के गर्भ से क्या निकला? आंदोलन के पूर्व भारतीय राजनीति में भ्रष्टाचार की मात्रा सीमित थी, भ्रष्टाचारी मुख्यधारा के सूत्रधार नहीं थे. समाज और सत्ता में उन्हें पीछे ही रहना पड़ता था.
पर जेपी आंदोलन के बाद क्या हस्र हुआ? भ्रष्टाचार की जो नदी, बाड़ से कैद थी, वह निरंकुश बहने लगी. क्योंकि जेपी जो नैतिक ताकत खड़ा करना चाहते थे, समय और स्वास्थ्य के कारण खड़ा नहीं कर पाये और उनके चेलों के राज्य में तो भ्रष्टाचार कोई मुद्दा नहीं रह गया. उनके राजनीतिक चेलों में प्रतिस्पर्द्धा हो गयी कि कौन कितना बड़ा भ्रष्टाचारी? राजगोपालाचारी ने गांधीजी को चेताया था, धरना, आंदोलन, सत्याग्रह और बंद जैसे हथियार जब आपके अनुशासित सिपाहियों, संयमित कार्यकर्ताओं के हाथ से निकल कर अराजक राजनीतिकतत्वों के हाथ पहुंचेंगे, तो क्या होगा? इस कारण गांधी जी राजाजी को ‘कसांइंसकीपर’ (आत्मा की आवाज के प्रहरी) कहा करते थे. नेता वह जो दूर की देख और सुन सके.
नेता को देखना और परखना चाहिए कि उसके कदम, आंदोलन या फैसले का समाज पर, राजनीति पर क्या असर होगा? तात्कालिक और दूरगामी प्रभाव? क्या माकपाई या वामपंथी यह कर पाये?
जर्मनी उन देशों में से है, जिसने लोकतंत्र की बहाली के पहले बहुत भोगा है. हिटलर को सहा है. अब वहां के संविधान में प्रावधान है कि विपक्ष सरकार गिराना चाहता है, तो उसे पहले विकल्प तैयार कर लेना होगा. फिर सरकार गिरने की स्थिति में, विपक्ष को सरकार बनाना ही पड़ेगा. एकाउंटबिलिटी, पक्ष और विपक्ष, दोनों के लिए लोकतंत्र में जरूरी है.
भारत में विपक्ष सरकार गिराने में तो भिड़ा था, पर वैकल्पिक इंतजाम क्या था? स्पष्ट है कि विपक्ष के पास न कोई तैयारी थी, न साफ दृष्टि थी? जिस मायावती को या जाति आधारित राजनीति को माकपा ने अपने पिछले अधिवेशन में नकारा था, उसे ही अपनाने की क्या बाध्यता थी? यह वैचारिक द्वंद्व या पतन या बदलाव या अवसरवादिता क्यों?
क्या वामपंथियों या माकपा को यह नहीं मालूम था कि वे रोज चिल्ला रहे हैं, आरोप लगा रहे हैं कि इस डील के पीछे बड़े कारपोरेट घराने हैं, विदेशी हाथ हैं, बड़ी पूंजी हैं, तो ये ताकतें भी ऐसी परिस्थिति में चुप नहीं बैठेंगी? भारत की राजनीति के लोभी तत्वों को, विपक्ष के इस कदम ने सौदेबाजी व लूट के भंडार तक पहुंचाया? फिर ये लुटेरे मूकदर्शक और संयमी कैसे बने रहते? यह कल्पना कैसे की, विपक्ष के नेताओं ने?
विश्वास मत के इस समुद्र मंथन से कैसे रत्न निकले? महारत्न तो अमर सिंह हैं. नयी राष्ट्रीय राजनीति के प्रतिनिधि चरित्र. उन्हें टीवी पर देखिए, चीखना-चिल्लाना, आरोप-प्रत्यारोप, आक्रोश, दंभ? याद रखिए यह वही अमर सिंह हैं, जिनकी कुछेक वर्षों पूर्व एक सीडी को लेकर देशव्यापी चर्चाएं हुईं. वे सुप्रीम कोर्ट गये कि इसके कंटेंट (तथ्य) सार्वजनिक न किये जायें.
आरोप लगे कि उसी सीडी में उन्होंने सोनिया जी के बारे में न जाने क्या-क्या कहा था? कांग्रेस से मित्रता के पूर्व वह कांग्रेसियों के लिए सार्वजनिक रूप से ऐसे विशेषण इस्तेमाल करते रहे हैं, जो सभ्य समाज के नाम पर कलंक हैं. अमर सिंह की पृष्ठभूमि देश जानता है. माकपा की परिभाषा में वह ‘लीडर’ नहीं डीलर हैं. जब विश्वास मत के इस समुद्र मंथन में ‘डीलरों’ की ही चांदी होनी थी, तब इस समुद्र मंथन में विपक्ष सोच-समझ कर कूदा या बिना सोचे समझे?
इस पूरे प्रकरण में जिन व्यक्तियों या दलों की सर्वाधिक क्षति हुई है, वे हैं, कांग्रेस, प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह और कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी. आज से चार वर्ष पूर्व जिस तरह प्रधानमंत्री का पद ठुकरा कर सोनिया गांधी, अचानक कदविहीन नेताओं की जमात में सबसे कद्दावर बन गयी थीं या अपने आसपास साफ-सुथरी राजनीति का जो आभामंडल बना लिया था, वह इस झटके में ध्वस्त हो गया. प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह की राजनीतिक पूंजी क्या थी?
ईमानदारी, विश्वसनीयता, अपने कौल (जुबान) का पक्का होना. विश्वासमत प्रकरण की लपटों और धुएं में मनमोहन सिंह जी के व्यक्तित्व की सारी परतें दब और ढक गयी है. छह-सात माह और वह पीएम रह लेंगे, इसके बाद तो चुनाव ही होने हैं. पर आनेवाले छह-सात माह का प्रधानमंत्रित्व, उनके सुनहले अतीत पर अंधकार भरे बादल की तरह ही रहेंगे? इस दागदार बहुमत ने कांग्रेस को अश्वथामा की स्थिति में पहुंचा दिया है. अश्वथामा के सिर से कृष्ण के आदेश पर मणि निकाल ली गयी, यह मान्यता है, तब से वह श्रीहीन, क्रूर और बेचैन होकर भटक रहे हैं. नेहरू की कांग्रेस नैतिक मणि खोकर अब श्रीहीन हो गयी है.
कैसे इस परीक्षा से निकली है, कांग्रेस या यूपीए सरकार?
यूपीए सरकार जीती है, क्रास वोटिंग से. 12 सांसदों ने क्रास वोटिंग की. आठ भाजपा के, दो टीडीपी के, एक बीजद और जेडीएस के? इन बारह सांसदों के वोट के बाद सरकार के पक्ष में 275 मत पड़े. ये विपक्षी बारह, सरकार की मदद में नहीं होते, तो सरकार की स्थिति होती, 263 सांसदों का समर्थन. ये 12 वोट विपक्ष के थे, विपक्ष के साथ गये होते, तो क्या स्थिति होती? विपक्ष में गये 256 वोट +12 विपक्षी क्रास वोटिंग के वोट यानी 268. ऐसी स्थिति में सरकार पांच मतों से हारी होती? पर यह या ऐसा नहीं हुआ? क्यों?
क्यों यह स्वाभाविक स्थिति नहीं होने दी गयी? स्वाभाविक तो यही था न कि विपक्ष के वोट, विपक्ष के पास? पर ऐसा नहीं हुआ? क्यों? क्योंकि राजनीति डीलरों और क्राइसिस मैनेजरों ने सौदेबाजी की? पर इस पर चर्चा बाद में.
पहले कांग्रेस को स्पष्ट करना चाहिए कि उसने ‘कम्युनल’ भाजपा सांसदों का समर्थन क्यों लिया? क्या इन ‘कम्युनल भाजपाइयों’ का ‘अचानक कांग्रेसीकरण’ हो गया? अगर ये आठ भाजपा सांसद, एक सप्ताह-दस दिन पहले, प्रेस क्रांफ्रेंस करते और कहते कि अब तक हम कम्युनल थे, अब सेकुलर हो गये हैं.
अब भाजपाई नहीं, कांग्रेसी हैं. पहले हमारे विचार यह थे, अब हमारे नये विचार ये हैं? इस न्यूक्लीयर डील के इन-इन मुद्दों पर भाजपा से असहमत और कांग्रेस से सहमत हैं? हम और हमारे परिवार, सगे-संबंधियों की संपत्ति का कुल ब्योरा यह है, हमारे इस दल बदल के दो वर्षों बाद क्या संपत्ति विवरण होगा, हम यह भी बतायेंगे, तब शायद एक विश्वसनीयता का पुट इस क्रास वोटिंग में होता. ऐसी ही प्रक्रिया टीडीपी, जेडीएस और बीजद के क्रास वोटिंग करनेवाले सांसदों ने अपनायी होती, तो वे भी मुंह दिखाने लायक रहते. पर गुपचुप कम्युनल से सेकुलर की छलांग के पीछे के तथ्य, कांग्रेस, प्रधानमंत्री या शासक जाने या न जानें, देश और जनता समझ रही है? शायद बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने कहा ‘यूपीए, यूनाइटेड पोचर्स’ की भूमिका में आ गया है. वह दूसरे दलों के सांसदों की पोचिंग (अपने साथ करना) में लगा है. विश्वास मत के बाद यूपीए ने अपने कर्म से इस पोचिंग कला को प्रमाणित कर दिया.
‘आन रिकार्ड’ विभिन्न टीवी चैनलों पर देश ने स्तब्ध ढंग से सार्वजनिक जीवन में मर्यादा के साथ बलात्कार देखा है. गौर करिए इन तथ्यों पर!
(1) 21 जुलाई की शाम यह खबर इस पत्रकार ने खुद सीएनएन-आइबीएन पर देखी थी. बार-बार लगातार. एनडीए के दस सांसद गैरहाजिर हो सकते हैं. यह खबर 22 जुलाई की सुबह अखबारों में छपी थी. यह खबर, कांग्रेस सूत्रों के हवाले से दी जा रही थी.
स्पष्ट है, कांग्रेस किन कामों में लगी थी और उसके आत्मविश्वास की वजह क्या थी?
(2) 22 की दोपहर के आसपास अमर सिंह का बयान चैनलों पर दिखाया गया. उसी दिन विश्वास मत होना था. उन्होंने टीवीवालों से कहा, आप सब मेरे आसपास न हों, आपकी निगाहें न हों, तो और सांसद मैं जुगाड़ कर देता. शाम को जब ‘नोट विस्फोट’ या नोट तंत्र के दर्शन लोकसभा में हुए, और अमर सिंह पर आरोप लगे, तो टीवी चैनल इन दोनों बयानों को साथ-साथ दिखा रहे थे. क्या इन दोनों बयानों में कोई संबंध है? क्या इस प्रकरण की निष्पक्ष जांच संभव है?
(3) कांग्रेस के बागी सांसद कुलदीप विश्नोई के बयान को सभी चैनलों ने दिखाया. मतदान से गैरहाजिर होने का रेट अलग. सरकार के समर्थन में वोट देने का रेट अलग. साथ में मंत्री पद. यह बयान सभी टीवी चैनलों पर रिकार्ड है?
किसने यह ऑफर दिया? क्या इसकी निष्पक्ष जांच संभव है?
(4) मुन्नवर हसन समेत अनेक सांसदों ने ‘ऑफर’ के बयान आन रिकार्ड दिये हैं? क्या इन बयानों की निष्पक्षता जनता जानेगी?
(5) खुद अमर सिंह ने आन रिकार्ड कहा है कि उनके सांसदों को 25 से 30 करोड़ का ऑफर मायावती पक्ष से था.
(6) भाकपा के एबी वर्द्धन साहब, पुराने मूल्यों के नेता हैं. ‘लूज टाक’ न करनेवालों की पीढ़ी के. उन्होंने आरंभ में ही आरोप लगाया कि 25-30 करोड़ के डील में विपक्ष के सांसदों को तोड़ने की कोशिश हो रही है.
क्या इस आरोप के खंडन के सिवा, गंभीर जांच की कोशिश हुई.
(7) झारखंड के पूर्व मुख्यमंत्री बाबूलाल मरांडी ने कहा है कि उन्हें भी सरकार के पक्ष में वोट देने और अनुपस्थित रहने के लिए अलग-अलग ऑफर दिये गये.
ये सारे बयान आन रिकार्ड हैं. ऐसे अनेक बयान हैं. जिम्मेवार लोगों के बयान. अब इन बयानों के आलोक में भाजपा के तीन सांसदों से होनेवाले डील, संसद पटल पर पैसा और पूरे घटनाक्रम को देखने से सारी स्थितियां साफ हो जाती हैं. राजनीतिक सौदेबाजी, डील और लेनदेन के रहस्यों से लिपट गया है, बहुमत साबित करने की यह प्रक्रिया. इसीलिए टीवी समीक्षकों ने इसे ‘दागदार बहुमत’ कहा है.
केंद्र सरकार, कांग्रेस और सरकार के समर्थकों को इस ‘दागदार बहुमत’ की स्थिति को स्पष्ट करना ही पड़ेगा. किन छोटी-बड़ी डीलों, महाडीलों ने ‘न्यूक्लीयर डील’ मामले में कांग्रेस का बेड़ा पार कराया? अगर शासक चाहें, तो ‘हाइपावकर निष्पक्ष जांच समिति’ से इन सारी चीजों की समयबद्ध जांच करा कर, पतित होते सार्वजनिक जीवन में ब्रेक लगा सकते हैं? पर कांग्रेस करेगी? हां, मनमोहन सिंह और सोनिया गांधी जैसे लोग बोलें, भले न, पर उनकी अंतरात्मा बेचैन रहेगी. कोई मुल्क अपनी अंतरात्मा से सौदेबाजी कर बच नहीं सकता. भारत के नेताओं ने भारत की अंतरात्मा से सौदेबाजी की है. नैतिक स्टैंड नहीं लेकर.
राजनीतिक जीवन में यह स्वाभाविक है कि आप अलग विचार रखते हैं. कई बार दल से अलग सोचने को मजबूर होते हैं. देश हित में. क्रास वोटिंग करनेवाले विपक्षी सांसदों ने, शुरू से ही न्यूक्लीयर डील पर अपनी सहमति जता दी होती, अपने दलों से विरोध दर्ज करा दिया होता, तब वे कांग्रेस को वोट करते, तो लोकतंत्र की लाज रहती.
पर जिस न्यूक्लीयर डील पर, देश की राजनीति में डीलर और सौदागर सबसे ऊपर पहुंच गये हैं, उस विषय पर लोकसभा में बहस का स्तर देश ने देखा. लालकृष्ण आडवाणी, प्रणब मुखर्जी और राहुल गांधी ‘न्यूक्लीयर डील’ की पहलुओं पर बोले. साढ़े पांच सौ सांसदों में सिर्फ तीन. इसके बाद लोकसभा बहस में यह ‘दरिद्रता’, ‘यह अज्ञानता’ और अहंकार भरा यह आचरण शायद कभी संसद ने देखा हो. बहस का स्तर, इतना निम्न, ओछा और घटिया, वह भी उस मंदिर में, जो सबसे ताकतवर, पवित्र और भविष्य की राह दिखानेवाला है.
इसी लोकसभा में अटल बिहारी वाजपेयी ने दो बार विश्वासमत फेस किया. एक 13 दिन की अल्पमत सरकार. दूसरी बार जब एक मत से वाजपेयी सरकार हारी. दोनों ही दौर में उम्दा बहसें, नोकझोंक, तर्क-वितर्क, पांडित्यपूर्ण विवेचन हुए. वाजपेयी के 13 दिनों की सरकार के विश्वासमत के दौरान तो नरसिंह राव ने ‘सेक्यूलरिज्म’ की अवधारणा पर सर्वश्रेष्ठ भाषण दिया. इस संसद ने, नेहरू जी, लोहिया, कृपलानी, नाथ पै, एके गोपालन, समर गुहा, भूपेश गुप्त, ज्योर्तिमय बसु, मधु लिमये, जॉर्ज फर्नांडीस, चंद्रशेखर, और अटल बिहारी वाजपेयी की परंपरा को देखा है.
अब इस संसद में अपराध में कुख्यात लोगों, जेलों में बंद सांसद देश की नियति तय करने की भूमिका में हैं. निश्चित रूप से मनमोहन सिंह और सोनिया गांधी का निजी असर होता, तो दागी, जेलों में बंद या डील से आये समर्थकों से कांग्रेस विश्वास मत में मदद नहीं चाहती. यह अब भी यकीन नहीं होता कि प्रधानमंत्री की गद्दी ठुकरानेवाली सोनिया जी और ईमानदार मनमोहन सिंह की अंतरात्मा ने यह सब कबूल किया है.
सवाल यह नहीं है कि इस विश्वासमत में हमारे कुछेक सांसदों ने कैसे चरित्र का परिचय दिया, बल्कि खतरा यह है कि यही आदत-संस्कृति रही, तो ये देश का क्या करेंगे? कहा जाता है कि अंग्रेज व्यापारियों ने जहांगीर के दरबार में कैसे उनके खास दरबारियों को ‘खुश’ किया. परिणाम था, भारत की लंबी गुलामी. अगर सांसद इस रास्ते पर चले, तो देश का भविष्य क्या होगा?
इस पूरे घटनाक्रम ने संसद और स्पीकर को भी सांसत में डाल दिया है. भाजपा के जिन तीन सदस्यों को ‘डील’ के ऑफर थे, इस पूरे प्रकरण की सीडी है. ऐसा कहा जा रहा है. बताया गया है कि इसे भी स्पीकर को दिया गया है.
यह सीडी सीएनएन-आइबीएन के पास भी है. अगर इसकी निष्पक्ष जांच नहीं हुई, समयबद्ध तरीके से, तो स्पीकर और संसद की गरिमा को भी ठेस पहुंचेगी. वैसे इस सीडी को देश को दिखाना चाहिए. क्योंकि संसद से देश की जनता बड़ी है. देश की जनता को जानने का हक है कि सीडी में जब्त तथ्य और सच क्या है?
इस विश्वासमत बहस में संस्थाओं की बची-खुची मर्यादा को भी नष्ट कर दिया गया. अमर सिंह ने उसी दिन उत्तर प्रदेश के दो वरिष्ठ आइएएस अफसरों के नाम लिये और कहा कि इन दो अफसरों ने उनके दलों के कुछ सांसदों का अपहरण किया है.
बसपा ने लोकसभा में आरोप लगाया कि सीबीआइ का इस्तेमाल, मायावती के खिलाफ कैसे हो रहा है?
संस्थाएं ही देश का तान-बाना चलाती हैं. वे नष्ट हुईं, तो देश को तबाह करने के लिए और किसी चीज की जरूरत नहीं है. नौकरशाही, सीबीआइ, पुलिस, प्रशासन, आयकर, आज सबकी निष्पक्षता संदेह के घेरे में है. इसके लिए भी कांग्रेस दोषी है.
लंबे समय से मांग होती रही है या विभिन्न आयोगों (धर्मवीर आयोग, शाह कमीशन आयोग वगैरह) की रपटें आती रही हैं कि इन संस्थाओं को स्वायत्त बनाया जाये, ताकि वे निष्पक्ष और पारदर्शी तरीके से काम कर सकें. पर यह होने नहीं दिया गया, क्योंकि इन्हें अपने राजनीतिक शत्रुओं के खिलाफ सत्ताधीश इस्तेमाल करते हैं. हाल ही में तीन पुस्तकें आयी हैं. (1) ‘ग्रिट दैट डिफाइड आड्स’ : एके पांडेय (2) इंसाइड आइबी एंड रा : के शंकरन नायर और (3) इंडियाज एक्सटरनल इंटेलिजेंस : मेजर जनरल वीके सिंह. पहली पुस्तक कोणार्क ने छापी है.
दूसरे और तीसरे नंबर की पुस्तकों को मानस पब्लिकेशंस ने छापा है. इन पुस्तकों के छापने के बाद लेखकों-प्रकाशकों को सरकार ने तंग किया. कुछेक के यहां छापे डाले गये. अब सरकार ने नियम बना दिया है कि कोई रिटायर्ड अफसर अपने संस्मरण नहीं लिख सकता. यह लोकतांत्रिक सरकार का आचरण है.
क्या है, इन पुस्तकों में? कैसे संस्थाओं का सत्ताधीश दुरुपयोग करते हैं? सप्रमाण घटनाओं के ब्योरे हैं.
इन सारे तथ्यों को जोड़ कर देखें, तो हम समझ पायेंगे कि देश जाने-अनजाने कहां पहुंच गया है? क्या डार्विन के मत्स्य न्याय (सरवाइवल आफ द फिटेस्ट) से समाज-राजनीति चलेगी?
या आज जो देश की सबसे बड़ी जरूरत है, एक मौलिक रचनात्मक नेतृत्व की (क्रिएटिव लीडरशीप), वह देश-समाज ढूंढ़ेगा? हमारी दुर्गंध देती राजनीति के गर्भ में कोई फूल खिलेगा?
यह पतन की घटाटोप, डरावनी, अंधेरी रात में खूबसूरत सुबह-सूर्योदय-उजास की प्रतीक्षा जैसी स्थिति है.
दिनांक : 24-07-08

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