कांग्रेस के ‘बहादुर शाह जफर’?

-हरिवंश- आंध्रप्रदेश और कर्नाटक के चुनावी नतीजों के विश्लेषण के बाद दिल्ली में राजनीतिक समीक्षक यह सवाल उठाने लगे हैं कि क्या नरसिंह राव कांग्रेस के बहादुर शाह जफर सिद्ध होंगे. आंध्र और कर्नाटक के चुनावी नतीजे कांग्रेस के प्रतिकूल गये हैं, जबकि इन दोनों ही राज्यों में कांग्रेस की ही सरकार थी. चार राज्यों […]

By Prabhat Khabar Digital Desk | November 25, 2015 3:40 PM

-हरिवंश-

आंध्रप्रदेश और कर्नाटक के चुनावी नतीजों के विश्लेषण के बाद दिल्ली में राजनीतिक समीक्षक यह सवाल उठाने लगे हैं कि क्या नरसिंह राव कांग्रेस के बहादुर शाह जफर सिद्ध होंगे. आंध्र और कर्नाटक के चुनावी नतीजे कांग्रेस के प्रतिकूल गये हैं, जबकि इन दोनों ही राज्यों में कांग्रेस की ही सरकार थी.
चार राज्यों के ये नतीजे उस समय सामने आये हैं, जब पांच और राज्यों महाराष्ट्र, गुजरात, बिहार, अरुणाचल प्रदेश और उड़ीसा में विधानसभा चुनावों के कार्यक्रम घोषित कर दिये गये हैं. इन सभी राज्यों में से मात्र महाराष्ट्र ही ऐसा है, जहां की स्थिति कांग्रेस के पक्ष में मानी जा सकती है, पर नागपुर में गाबरी आदिवासी समुदाय के लाठी चार्ज और भगदड़ में 120 से भी अधिक लोगों की मौत का चुनाव में कांग्रेस पर प्रतिकूल असर पड़ सकता है. दूसरे शब्दों में तो यही कहा जा सकता है कि एक के बाद एक पराजय ही कांग्रेस की नियति बनती जा रही है.
यह भी कहा जा सकता है कि पीवी नरसिंह राव ने उस समय कांग्रेस की बागडोर संभाली, जब पार्टी की लोकप्रियता का ‘ग्राफ’ नीचे की ओर जाना शुरू हो चुका था. वह भी वैसे समय के बाद, जब 1984 में पार्टी को ऐतिहासिक सफलता (420 सीट) हासिल हुई थी. 1984 के चुनाव में इंदिरा गांधी की हत्या से उपजी सहानुभूति ने प्रमुख भूमिका अदा की थी. राजनीति में तब अपरिपक्व राजीव गांधी के लिए 420 सीट पाना एक बहुत बड़ी उपलब्धि थी, तब कांग्रेस को गरीबों का ठोस समर्थन मिला करता था.
राजीव के पहले बजट में तत्कालीन वित्त मंत्री वीपी सिंह ने बजट में यह संकेत भी दिया कि गरीबों के लिए उन्हें कोई चिंता नहीं है. फिर शाहबानों प्रकरण और अयोध्या मुद्दे से भी कांग्रेस से मुसलमानों का भी मोहभंग होने लगा.राजीव गांधी की हत्या के बाद कांग्रेस की कमान संभालनेवाले पीवी नरसिंह राव को देश में गरीबों और अल्पसंख्यकों के बीच घटती पार्टी की लोकप्रियता को पाने का कई अवसर भी मिला.

अयोध्या में बाबरी मसजिद तोड़े जाने के ठीक एक माह पूर्व मुलायम सिंह यादव द्वारा श्री राव से किया गया आग्रह एक उदाहरण है. श्री यादव ने श्री राव से तब कहा था, सर अभी यूपी में भाजपा बनाम मेरे बीच संघर्ष है, यदि आप भाजपा सरकार को अभी हटा दें, तो यह संघर्ष कांग्रेस और भाजपा के बीच हो जायेगा. मैं जो यह सुझाव दे रहा हूं, यह अपने स्वार्थ के लिए नहीं, बल्कि राष्ट्रहित में. पर श्री राव ने मुलायम के सुझाव पर ध्यान नहीं दिया.परिणाम सबके सामने है. मुसलिम वर्ग इससे काफी खफा हो गया.

श्रीमती इंदिरा गांधी और पीवी नरसिंह राव की रणनीतियों में विरोधाभास भी कम नहीं है. 1979 के चुनाव में इंदिरा गांधी ने कांग्रेस का नारा दिया था, ‘न जात पर न पात पर मुहर लगेगी हाथ पर’ इसी चमत्कारिक नारे की बदौलत इंदिरा ने चुनाव जीत कर अपनी श्रेष्ठता का उदाहरण पेश किया. वह एक दृढ़ इच्छाशक्ति वाली नेता थीं. मध्यवर्ग, अल्पसंख्यक एवं सामाजिक समरूपता के बल पर यह चुनाव जीतती रहीं.

जहां तक गरीब वर्ग का सवाल है, राजीव गांधी के समय से ही इस वर्ग का कांग्रेस से मोहभंग होता चला गया. नरसिंह राव को इसे सुधारने का मौका भी मिला, पर उन्होंने इस ओर ध्यान ही नहीं दिया, श्री राव के वित्तमंत्री मनमोहन सिंह पर यह आरोप लगाया जा सकता है कि उदारीकरण प्रक्रिया को सही ढंग से उन्होंने उजागर भी नहीं किया. इसे पूरी तरह बाजार व्यवस्था पर छोड़ दिया गया.
उदारीकरण की प्रक्रिया के पहले ही दौर में गरीब वर्ग काफी आहत हो गया. इससे यही संकेत मिलने लगा कि कांग्रेस को अब गरीबों का ध्यान नहीं रहा. उसकी नीतियां सिर्फ अमीरों के लिए ही है.जहां तक आंध्र प्रदेश का सवाल है, वहां के 50 वर्ष से ऊपर के जो भी व्यक्ति कांग्रेस को वोट देते हैं, वह कांग्रेस की वर्तमान नीति की बदौलत नहीं, बल्कि इंदिरा को श्रद्धांजलि के रूप में, अन्यथा गरीबों को तो राव सरकार के तीन वर्ष के शासनकाल में राजीव सरकार की ही याद आती रही.

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