वोट के लिए!
हरिवंश इस देश में स्वस्थ बहस बंद है. असल सवाल उठाने के लिए कोई जोखिम लेने या सच कहने को तैयार नहीं. उत्तर प्रदेश में समाजवादी पार्टी ने आतंकवादी हमलों के अनेक आरोपियों के खिलाफ दायर मामले उठा लिये हैं. निर्दोष लोग चाहे किसी भी जाति, धर्म के हों, उनके खिलाफ ऐसा अभियान चले, तो […]
हरिवंश
इस देश में स्वस्थ बहस बंद है. असल सवाल उठाने के लिए कोई जोखिम लेने या सच कहने को तैयार नहीं. उत्तर प्रदेश में समाजवादी पार्टी ने आतंकवादी हमलों के अनेक आरोपियों के खिलाफ दायर मामले उठा लिये हैं. निर्दोष लोग चाहे किसी भी जाति, धर्म के हों, उनके खिलाफ ऐसा अभियान चले, तो व्यवस्था का मानवीय चेहरा दिखता है. पर वोट बैंक के लिए, जिन लोगों पर गंभीर आरोप हैं, उन्हें पूरी छानबीन के बगैर मुक्त कर देना कैसे सही है? देश में लाखों की संख्या में अंडरट्रायल बंदी हैं, उनके लिए कहीं आवाज नहीं. समाजवादी सरकार ने हूजी (हरकत-उल-जिहाद अल-इसलामी) के उग्रवादी तारी कासमी के खिलाफ आतंकवादी हमले के कई मामले वापस कर लिये हैं. 22.05.2007 को गोरखपुर में सीरियल विस्फोट हुए. आधा दर्जन से अधिक लोग गंभीर रूप से घायल हुए. फिर लखनऊ, फैजाबाद और बनारस के अदालत प्रांगणों में सीरियल विस्फोट हुए. इन सब मामलों में कासमी आरोपी है. मान लिया जाये कि कासमी निर्दोष है, पर गोरखपुर, लखनऊ, फैजाबाद और बनारस में जो सीरियल विस्फोट हुए, उनके लिए कोई न कोई तो गुनहगार है. दोषी है. उनमें जो घायल हुए या मारे गये या जो क्षति हुई, उसके लिए कोई न कोई तो मुजरिम है? फिर सरकार ने ह्यनिर्दोषह्ण कासमी को रिहा किया, तो इन घटनाओं के मुजरिमों को क्यों नहीं पकड़ा? यह किसका फर्ज है? आज अमेरिका में कोई आतंकवादी घटना होती है, तो अमेरिका कहता है कि हम घंटों में नहीं, घंटे में दोषी की पहचान कर लेते हैं. हमारे यहां कई गंभीर देशतोड़क घटनाओं को हुए वर्षों गुजर गये, कोई गुनहगार ही नहीं पकड़ा गया. इसके अतिरिक्त हूजी के लगभग आधा दर्जन से अधिक लोगों के खिलाफ देशद्रोह या राजद्रोह या विश्वासघात के मामले दर्ज थे, वे भी वापस ले लिये गये हैं. यह घोषणा उत्तर प्रदेश के गृह सचिव ने की है. दरअसल, कानून-व्यवस्था या न्याय को हम जाति, धर्म और समुदाय की नजर में देखेंगे, वोट के पलड़े में तौलेंगे, तो इससे सबका अहित होगा. देश एक नहीं रहेगा. कानून का धर्म है, अपराध देखना. वह चाहे किसी का हो. अगर कोई बेकसूर है, तो राजधर्म से उसे संरक्षण मिलना जायज है. पर यदि घटनाएं हुई हैं, तो घटनाओं के मुजरिम या दोषी तो कोई हैं, उन्हें पकड़ने और सजा दिलाने का राजधर्म किसका है?
नहीं सीखेंगे!
हमारा दावा है कि हम दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र हैं. पर लोकतंत्र की सर्वश्रेष्ठ खूबियों, मर्यादाओं, आत्मानुशासन के अनुपालन में हम कहां खड़े हैं? प्रसंग पुराना है. 2012 के अमेरिकी राष्ट्रपति चुनाव के दौरान की बात. मित्र रवि वाजपेयी अच्छी-अच्छी चीजें पढ़ाते रहते हैं. उन्होंने ही यह प्रसंग आस्ट्रेलिया से भेजा है. घटना 2012 की है. राष्ट्रपति ओबामा मतदान के पहले शिकागो में अपना वोट डालने गये. शाम का समय था. तय चुनाव दिन से पहले वोट डालनेवाले वह पहले अमेरिकी राष्ट्रपति थे. जहां वह वोट देने गये, वहां एक महिला अधिकारी थी. वोट डालने के पहले उसने राष्ट्रपति ओबामा से उनका पहचान पत्र मांगा. ओबामा ने अपना ड्राइविंग लाइसेंस दिखाया और मजाक में कहा भी कि इस तसवीर को इग्नोर (नजरअंदाज) करें, क्योंकि इसमें सिर पर कोई सफेद या भूरा बाल नहीं है. यानी पहचान पत्र में लगी तसवीर थोड़ी पुरानी है.
इस घटना के संदर्भ में हम अपनी व्यवस्था का चेहरा देखें. आकलन करें. हवाई अड्डों पर बड़े-बड़े लोगों की सूची लगी है, जो बगैर सुरक्षा जांच के हवाई जहाज तक आते-जाते हैं. अपवाद छोड़ दें. भारत के किसी जिले में कोई ट्रैफिक सिपाही किसी डीसी, एसपी या किसी आइपीएस-आइएएस से ड्राइविंग लाइसेंस मांग सकता है? विधायक, सांसद या मंत्री से उनका पहचानपत्र पूछ सकता है? दरअसल, कहने को यह लोकतंत्र है. असल में यह नेताओं का राजतंत्र है. मित्र रवि वाजपेयी ने यह भी लिखा कि 1996 में आस्ट्रेलिया के तत्कालीन प्रधानमंत्री जान हावर्ड को सिडनी में दोपहर के भोजन अवकाश में अकेले सड़क पर पैदल चलते मैंने देखा था. 11 सितंबर की घटना के बाद उनके साथ कुछ सुरक्षाकर्मी होते थे. आज भी यही हाल इंग्लैंड, अमेरिका, आस्ट्रेलिया के राजप्रमुखों की सुरक्षा का है. पर भारत अद्भुत देश है. यहां के नेताओं की सुरक्षा, राजशाही शैली देखिए. जब इनके काफिले सड़क से गुजरते हैं, सामान्य लोगों को हटना पड़ता है. ऐसी अनेक चीजें हैं, जो हम दुनिया की अन्य लोकतांत्रिक व्यवस्थाओं से सीख सकते हैं. यह भी सही है कि कुछ बड़े नेताओं पर खतरे हैं, पर जिन्हें खतरा है, उन्हें सुरक्षा मिले. सभी को क्यों? सुरक्षा जांच में भेदभाव क्यों? सुरक्षा स्टेटस सिंबल क्यों? जो पद पर हैं, उन्हें विशेष लाभ क्यों? कानून तो सबके लिए एक है. लोकतंत्र को भारत में मजबूत बनना है, तो बिना समय खोये हमें ऐसे मौलिक सुधारों के बारे में सोचना चाहिए. अगर अमेरिका में एक ही स्कूल में सब बच्चे पढ़ सकते हैं, तो भारत में गरीबों के बच्चों और अमीरों के बच्चों के लिए अलग-अलग स्कूल क्यों? समाज में भेद की शुरुआत की बुनियाद तो यहां से है. पहले राजनीतिक दल व्यवस्था में सुधार की लड़ाई लड़ते थे. सत्ता पाना उनका पहला या सर्वोपरि मकसद नहीं होता था, बल्कि समतापूर्ण समाज कायम करना, मानवीय व्यवस्था के लिए संघर्ष करना उनका प्राथमिक धर्म होता था. पर आज के भारत में सत्ता, धन-दौलत और भोग की बाढ़ में राजनीतिक दल अपने मूल फर्ज भूल गये हैं. उन्हें सिर्फ और सिर्फ सत्ता चाहिए, इसके लिए वह कोई भी कीमत चुका सकते हैं.
दिनांक 28.04.13