‘संत को सिकरी सों काम?’

-हरिवंश- अकबर जैसे सम्राट के दरबार को समस्कार करनेवाले कवि कुंभनदास ने कहा था कि संत को राजसत्ता या राजदरबार से क्या सरोकर? इसी राजसत्ता को चुनौती दे कर-त्याग कर भारतीय संतों-त्यागियों और तपस्वियों की एक लंबी समृद्ध परंपरा विकसित हुई है. आज भी जग, जहान और माया त्यागनेवाले (चाहे वे किसी भी जाति के […]

By Prabhat Khabar Digital Desk | November 26, 2015 11:10 AM

-हरिवंश-

अकबर जैसे सम्राट के दरबार को समस्कार करनेवाले कवि कुंभनदास ने कहा था कि संत को राजसत्ता या राजदरबार से क्या सरोकर? इसी राजसत्ता को चुनौती दे कर-त्याग कर भारतीय संतों-त्यागियों और तपस्वियों की एक लंबी समृद्ध परंपरा विकसित हुई है. आज भी जग, जहान और माया त्यागनेवाले (चाहे वे किसी भी जाति के हों) भारत के गांवों में पूज्य हैं. इन संतों के संदर्भ में अव्यक्त धारणा है कि निजी और सामाजिक मुक्ति-कल्याण के लिए इन्होंने कठोर जीवन-साधना का मार्ग अपनाया है, इस कारण ये वरेण्य और पूज्य है.

पर पिछले कुछ वर्षों से भारत में सधुक्कड़ी-संतई जैसे पूज्य और महान भावों का इस्तेमाल, राजसत्ता प्राप्त करने के लिए हो रहा है. कोई मौनी बाबा, कोई पायलट बाबा और कोई पवहारी बाबा के यहां सांसद बनने. मंत्री बनने या महत्वपूर्ण बनने के लिए दौड़ता रहा. इंदिरा जी भी साधुओं के यहां आशीर्वाद लेने गयीं. राजनारायण और हेमवतीनंदन बहुगुणा का क्या कहना? अब वह सिलसिला पलट गया है. अब राजसत्ता से जुड़े साधु-संत (राज्याश्रित) राजनेताओं को सत्तारूढ़ होने के लिए आशीर्वाद नहीं देते, बल्कि खुद राज्यारोहण के लिए उतावले हैं.

अनेक संत-परमहंस-साध्वी और स्वामी संसद में पहुंच चुके हैं. भारतीय मनीषा-संस्कार के तहत यह तय होना चाहिए कि क्या सांसारिकता और सत्ता चाहनेवालों को संत, परमहंस, साध्वी और स्वामी कहा जाना चाहिए? अब इन संतों ने आवाहन किया है कि वे भारत के संविधान को नहीं मानते. संभव है भारत के संविधान में अनेक खामियां हों, पर इस संविधान के निर्माताओं का अतीत क्या था? 1857 से 1946 तक लाखों भारतवासी आजाद होने के लिए फांसी चढ़ गये. 1942 में गांव के गांव, महज विधवाओं और बेवाओं के गांव रह गये.

बच्चे-वयस्क-कैशोर्य – लड़कियां – बूढ़े फांसी के तख्तों पर झूल गये. चंद्रशेखर आजाद, भगत सिंह और सुभाष बाबू जैसे सैकड़ों कुरबानियों-आत्माहुतियों को तो हम स्मरण करते हैं, पर लाखों अनाम कुरबानियों को आज भी नहीं जानते. इनके अलावा महात्मा गांधी के नेतृत्व में तत्कालीन कांग्रेस के लाखों लोगों ने त्याग किया. घर छोड़ा, पद छोड़ा, सांसारिकता छोड़ी और आजादी के दीवाने बन गये. जेलों में जमीन पर सोना और मानव सेवा का व्रत लिया. दरअसल इन पूज्य और महान संतों के खून के बूंद-बूंद से आजादी मिली और भारत का यह संविधान (अनंत खामियों के बाद भी) उसी रक्त से तैयार पवित्र और पूज्य दस्तावेज है.

जब आजादी की लड़ाई चल रही थी, तब हजार-डेढ़ हजार एकड़धारी ये महंत और संत कहां थे? भारतीय परंपरा में तो मोह-लोभ-पाश से मुक्त इंसान ही संत कहे जाते हैं. क्या पांच सौ-हजार एकड़धारियों को भी संत कहना सही है? 1942 में माफी मांग कर जेल से निकलनेवाले आज नये मुक्तिदाता बन रहे हैं. अमेरिका में जा कर लालकृष्ण आडवाणी ने नरसिंह राव की आर्थिक नीतियों की मुक्त कंठ से प्रशंसा की थी. तब भाजपा संत राजनेता कहां थे? राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के भाउसाहब देवरस जब आजादी के बाद के सबसे महान प्रधानमंत्री नरसिंह राव को बता रहे थे, कांग्रेस और संघ में समझौते की बात कर रहे थे, तब ये नये संत राजनेता क्या फरमा रहे थे?

क्या इन नये संत सांसदों-राजनेताओं को पांच सितारा जीवन जीने, भौतिक सुख पाने और दुनियादारी में रमने की आध्यात्मिक इजाजत है? सातवीं से बारहवीं शताब्दी के बीच भारत में जब बाहरी आक्रमणकारी बड़ी संख्या में आये, तब क्या हालत थी. बकौल हजारी प्रसाद द्विवेदी सिद्धों-नाथपंथियों के चमत्कार और तंत्र-मंत्र के मोहपाश-आकर्षण में बंध कर राजा इन तांत्रिकों-सिद्धों-संतों के गुलाम हो चुके थे. पर इन तांत्रिकों के तंत्र-मंत्र से बाहरी आक्रमणकारी नहीं रूक सके. और भारत गुलाम हुआ. क्या भारत के ये नये सिद्ध तांत्रिक-संत भारत को बचा पायेंगे? आज भारत कहां है?

बगल में चीन है. दुनिया की मशहूर पत्रिका ‘इकानामिस्ट’ ने अपने हाल के अंक में लिखा है कि चीन आगामी पांच-सात वर्षों में दुनिया की सबसे बड़ी महाशक्ति होगा. चीन का आर्थिक विकास, शैक्षिक क्रांति, उद्योग-धंधों का बढ़ावा और सृजन का दौर. उसी चीन के पास हमारी लाखों एकड़ जमीन है. बलात अधिकृत. पर हमारे बाजुओं-श्रम-शौर्य और पौरुषत्व को क्या हो गया? जहां के संत, बौद्धिक अपनी अस्मिता खो देते हैं, वह समाज देश तो टूटने-बिखरने के लिए ही अभिशप्त हैं. अकबर ने अपने दरबार में सम्मान देने के लिए अपने युग के चर्चित संत कवि श्रीधर को आमंत्रित किया, तो श्रीधर जी ने यह जवाब दिया :

‘राजदुआरे साधुजन, तीनि वस्तु को जायें
कै मीठा, कै मान को, कै माया की चाह’
राजदुआरे घूमनेवाले ये संत क्या भारत की अस्मिता समझते हैं.

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