यह एंटी इनकंबेंसी नहीं है!

हरिवंश 1977 के बाद हारनेवाले राजनीतिक दल प्राय: कहते हैं, एंटी इनकंबेंसी फैक्टर (पद पर रहने के कारण विरोध) की वजह से हार गये. जीतनेवाले दल मानते हैं कि वोटरों ने हमारी नीतियों पर मुहर लगायी है. जनादेश 2004 के बाद भी यही दलीलें दोहरायी जा रही हैं. क्या यह निष्कर्ष इतना सामान्य और साधारण […]

By Prabhat Khabar Digital Desk | November 28, 2015 4:40 PM
हरिवंश
1977 के बाद हारनेवाले राजनीतिक दल प्राय: कहते हैं, एंटी इनकंबेंसी फैक्टर (पद पर रहने के कारण विरोध) की वजह से हार गये. जीतनेवाले दल मानते हैं कि वोटरों ने हमारी नीतियों पर मुहर लगायी है.
जनादेश 2004 के बाद भी यही दलीलें दोहरायी जा रही हैं. क्या यह निष्कर्ष इतना सामान्य और साधारण है?
नहीं! 1977 के बाद लगातार वोटर यथास्थिति में बदलाव के लिए वोट दे रहा है. वह वर्तमान से ऊब का विकल्प ढूंढ़ रहा है. रोज के जीवन के कर्कश स्वर से मुक्ति और एक नये विकल्प की तलाश में वोट डाल रहा है. यह वर्तमान क्या है? जीवन का लगातार कठिन होते जाना. रोजगार का घटना. अवसर का सिमटाव. अच्छी शिक्षा, आसान एडमिशन, सीमा में खर्चवाली शिक्षा व्यवस्था की तलाश. कम खर्च में इलाजवाली व्यवस्था. शहर हो तो पानी, ट्रांसपोर्ट, आवागमन, आवास यानी शहरी जीवन को बेहतर बनानेवाली प्रणाली. गांव-देहात हो तो खेती से लेकर आवागमन, पढ़ाई और चिकित्सा की चुस्त व्यवस्था. बिजली-पानी-सिंचाई की उपलब्धता. जो बिल्कुल गरीब हैं, उनकी पीड़ा समझनेवाली संवेदनशील व्यवस्था…
1977 के बाद वोटर एक नयी राजनीतिक संस्कृति और बेहतर विकल्प की तलाश में है. इस यात्रा की शुरुआत 1967 के गैर कांग्रेसवाद से शुरू हुई. 1977 आते-आते वोटरों ने कांग्रेस का 92 साल पुराना खेत साफ कर दिया. यह न तब एंटी इनकंबेंसी (नकारात्मक) था, न अब है. हर बार वोटर आस्था के साथ नयी राजनीतिक संस्कृति की तलाश में है. 1971 में सिंडिकेट के राजनीतिक वर्चस्व के खिलाफ मैडम इंदिरा गांधी को नयी शुरुआत के लिए भारी बहुमत मिला. पर 1974 आते-आते बाजी पलट गयी और प्रचंड बहुमत और करिश्माई व्यक्तित्व के बावजूद मैडम पस्त हो गयीं. मोहन कुमार मंगलम, हक्सर और धर की वैचारिक व बौद्धिक आभा से फिसल कर वह टाइपिस्ट धवन और बेटे संजय तक पहंच गयीं. पर वोटरों को नयी व्यवस्था नहीं मिली. गरीबी हटाओ, बैंकों का राष्ट्रीयकरण और विचारपरक कदमों की राजनीति, परिवारवाद पर पहुंच गयी.
1977 की जनता पार्टी से 1980 में मोहभंग हुआ. वोटरों के लिए यह सबसे बड़ा सदमा था. जयप्रकाश आंदोलन की पृष्ठभूमि में हुए 1977 के चुनावों से लगा कि यह लड़ाई महज कुर्सी के लिए नहीं है. 1974 आते-आते लगा कि कांग्रेस जो परंपरा-इतिहास और काया में एक विचार थी, अब परिवार और वंश है. राजनीतिक दल अपने सिद्धांत-आचरण से परखे जाते थे. धीरे-धीरे सिद्धांत, आचरण और विचार राजनीति से खत्म होने लगे थे. इसीलिए जेपी आंदोलन से विचारपरक राजनीति की बात उठी. राजनीतिक दलों में कार्यक्रमों के प्रति यकीन, अमल और मिशन का बोध पैदा हो, ऐसी राजनीति की जरूरत महसूस हई. इसलिए बड़े उत्साह से कांग्रेस संस्कृति का विकल्प ढूंढ़ने के लिए जनता पार्टी उभरी. पर वह सपना, तड़प जो देश बदलने के लिए आतुर था, जल्द ही टूट गया. 1984 में युवा राजीव गांधी को प्रचंड बहमत मिला. युवा दृष्टि और युवा स्पर्श से यथास्थिति में बदलाव के आसार बने, पर 1987 आते-आते सब बिखर गया. अनुभव तो यही है कि हर सरकार दो-ढाई वर्षों में अपनी प्रामाणिकता खो देती है. 1971 और 1984 के प्रचंड बहमत के बावजूद दो-तीन वर्षों में ही कांग्रेस अस्थिर होने लगी.
श्रीमती गांधी और राजीव गांधी (दो तिहाई बहुमत) प्रचंड बहुमत के बावजूद असहाय बन गये. यहां उल्लेख करना मुनासिब होगा कि प्रचंड बहुमत और स्थायित्व का सीधा रिश्ता नहीं है, इस अनुभव से हम गुजर चुके हैं.
1989 में जनता दल ने व्यवस्था बदलाव के सपने जगाये. एक नयी व्यवस्था के सपनों के साथ पुन: वोटर उतरे, पर दो सालों में ही पुन: चुनाव हए. 1991 आते-आते कुशासन और यथास्थिति से देश कंगाल बन गया और सोना गिरवी रखना पड़ा. यह कंगाली, खास तौर से 1972 के बाद की व्यवस्था-कुशासन की देन थी. जिससे मुक्ति के लिए लगातार वोटर हर नये दल-विचार को गद्दी तक पहंचा रहा था. 1991, 1996, 1998, 1999 के चुनावों में भी लोगों ने हर दल-विचार को मौका दिया. कांग्रेस, संयुक्त मोरचा-वाम मोरचा और राजग को.
भय, भूख और भ्रष्टाचार मिटाने और सुशासन के नारे पर बदलाव के सपनों के साथ भाजपा को भी वोटरों ने अवसर दिया. उसके सांप्रदायिक दागदार अतीत को भुला कर मौका दिया. पर धारावाहिकता और यथास्थितिवाद से राजग भी भारत को बाहर नहीं निकाल सका. एक नयी शासकीय शैली. एक नयी राजनीतिक संस्कृति, एक वैकल्पिक देशज नैतिक ढांचा, विकसित नहीं हो सका. वोटर ने आज भी उसी वैकल्पिक राजनीतिक-व्यवस्था के सपने के साथ कांग्रेस-मोरचा को समर्थन दिया है.
उस सपने के कैलकुलस क्या हैं?
राजनीति, दलालों के चंगुल से मुक्त हो. सरकारें आती-जाती हैं, पर दलालों का दबदबा-प्रभाव कायम रहता है, वह खत्म हो. यह दलाली संस्कृति कांग्रेस की ही देन है. आज एक अमर सिंह इस संस्कृति के सबसे विजबुल (प्रत्यक्ष) प्रतीक हैं. कांग्रेस के लिए यह अवसर है. दिल्ली से लेकर राज्य की राजधानियों-जिलों में पसरे अपने सही कार्यकर्ताओं से वह जुड़े और जड़हीन दलालों से मुक्ति पाये. कई अमर सिंह कांग्रेस में फल-फूल रहे हैं, उन्हें सत्ता से दूर रखना कांग्रेस की पहली चुनौती है. कसौटी भी. इससे ही स्पष्ट होगा कि कांग्रेस ने अपनी भूलों से क्या कुछ सीखा है? भाजपा, इस लाबिंग संस्कृति-दलाल संस्कृति के आधिपत्य-चंगुल में इस तरह आ गयी कि वह कॉरपोरेट जगत का हिस्सा नजर आने लगी थी. इसकी कीमत है, यह पराजय.
कॉरपोरेट जगत के बढ़ते आधिपत्य से राजनीति को मुक्त कराने का अवसर कांग्रेस को मिला है. राजनीतिज्ञों ने अपने कामकाज से यह धारणा बना दी है कि 1991 के बाद सत्ता में कोई आये, शासन कॉरपोरेट जगत ही चला रहा है. दलाल चला रहे हैं. याद करिए, 1996 में प्रधानमंत्री पद के लिए चुन लिये जाने के बाद एचडी देवगौड़ा किस घराने के निजी विमान से बेंगलुरू गये? भाजपा शासन में किस बड़े घराने के दिल्ली स्थित अफसर के घर से वित्त मंत्रालय के अति संवेदनशील दस्तावेज (क्लासिफाइड डॉक्यूमेंट्स) मिले? किस घराने के लोगों के यहां भारत सरकार से रिटायर होकर या वीआरएस लेकर बड़े-बड़े अफसर काम कर रहे हैं? क्यों भारत सरकार के इन टॉप अफसरों को निजी घराने भारी पैसे देकर नौकरी दे रहे हैं? किस घराने का दखल प्रधानमंत्री कार्यालय तक है? कौन घराना नीतियों को बदलवा कर अरबों बैठे-बैठे कमा रहा है? कैसे हमारे सांसद, घरानों की लड़ाई में पाट बनते हैं? सोनिया गांधी के प्रधानमंत्री बनने की संभावना के साथ ही किस घराने के मालिक ने उनसे सवा-डेढ़ घंटे विमर्श किया? क्या कॉरपोरेट जगत के ये मालिक, राजनीतिक मशविरा देते हैं? दरअसल 1991 के बाद हर सरकारी मंत्रालय में लॉबिस्टों-दलालों का काम नीतियां बदलवाना, एक दूसरे घराने के खिलाफ जासूसी करना, अपनी लाबिंग करना रह गया है. वे दलों का इस्तेमाल निजी स्वार्थ के लिए करते हैं. 1991 से अब तक सारे दल इस काम में बेहिचक-बिना शर्म जुड़ते गये हैं. कांग्रेस के लिए चुनौती यह है कि वह अत्यंत शक्तिशाली दलाल लॉबी-कॉरपोरेट वर्ल्ड की लॉबिंग ताकत के खिलाफ खड़ी होगी? इस दलाली की संस्कृति से अलग होने की पहल करेगी? यह एक कदम मौजूदा राजनीतिक सड़ांध और धारावाहिकता की राजनीति के खिलाफ सार्थक अभियान की शक्ल ले सकता है. इस मामूली शुरुआत से राजनीतिक सफाई की अनंत संभावनाएं पनप सकती हैं. (जारी)

Next Article

Exit mobile version