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एक नेता के उदय के संकेत!

(यहां नेता का अर्थ स्टेट्समैन पॉलिटिशियन से है.) केंद्र में कृषि मंत्री या खास तौर से रेल मंत्री के रूप में नीतीश कुमार ने देश में छाप छोड़ी. पर बिहार को संभाल लेना, दुनिया का सबसे कठिन काम था. इस जीत के बाद एक नये रूप में वह अपनी मौजूदगी का एहसास करा रहे हैं. […]

(यहां नेता का अर्थ स्टेट्समैन पॉलिटिशियन से है.)
केंद्र में कृषि मंत्री या खास तौर से रेल मंत्री के रूप में नीतीश कुमार ने देश में छाप छोड़ी. पर बिहार को संभाल लेना, दुनिया का सबसे कठिन काम था. इस जीत के बाद एक नये रूप में वह अपनी मौजूदगी का एहसास करा रहे हैं. बिना प्रचार, बोले या बताये.
हरिवंश
दृश्य : एक. दिल्ली में हुए 2जी स्पेक्ट्रम घोटाले ने, देश के शासक वर्ग का चरित्र साफ कर दिया है. मीडिया, उद्योग, राजनीति, नौकरशाही वगैरह के टॉप लोगों की बातचीत से उनका उद्देश्य पता चलता है. किनके हाथ में देश है? कैसे लोग हैं, ये? इसमें शरीक लोगों की बातचीत कुछ जगहों पर छपी है. कुछ वीडियो टेप पर उपलब्ध हैं. ये सारी बातचीत एक जगह संकलित कर छप जाये, तो देश की जनता पढ़ कर स्तब्ध रह जायेगी. कैसी ताकतें देश को बंधक बना रही हैं? या बना चुकी हैं? राजनीति कहां पहुंच गयी है. इसके खिलाड़ी कैसे हैं?
दृश्य : दो. नीतीश कुमार के नेतृत्व में बिहार में मिली एनडीए की अभूतपूर्व विजय के बाद नीतीश कुमार का सार्वजनिक आचरण. प्रतिक्रिया और बयान. ध्यान से गौर करें. ये अर्थपूर्ण संकेत देते हैं. राष्ट्रीय निराशा में उम्मीद जगाते हैं. एक मित्र ने कहा – ए स्टेट्समैन इन मेकिंग (एक शासक नेता का उद्भव). जिस बिहार में गर्भ से ही लोग राजनीति सीख कर आते हैं, वहां नेताओं की क्या कमी? देश में भी गली-कूचे में नेता हैं. विधायक-सांसद व मंत्री हैं. बड़े पदों पर आसीन लोग हैं. पर एक पॉलिटिशियन और स्टेट्समैन में फर्क है. आज देश में स्टेट्समैन लगभग खत्म हैं. स्टेट्समैन होते, तो 2जी स्पेक्ट्रम नहीं होता. या होता तो राजनीति का यह स्वरूप नहीं होता.
विधायक और सांसद, फिर मंत्री, मुख्यमंत्री या केंद्र में बड़ा पद पाना आज की राजनीति में सामान्य है. पर इस भीड़ में स्टेट्समैन बन पाना लगभग असंभव. दुर्लभ. 1974 के बाद की राजनीति, खासतौर से 1991 के उदारीकरण के बाद की राजनीति में स्टेट्समैन के रूप में इमर्ज (उद्भव) या इवाल्व (विकसित) होते कितने चेहरे दिखाई देंगे? गिनती के कुछेक. पूरे देश में. पर इन चंद चेहरों में नीतीश कुमार का चेहरा नया, ताजगीभरा और उम्मीद जगानेवाला है.
नीतीश कुमार ने इस अपूर्व विजय के बाद जिस तरह अपने को कंडक्ट (सार्वजनिक आचरण) किया, जो संयम या मर्यादा बरती, उसे देख कर अंगरेजी के कुछ चर्चित मुहावरे याद आये.
(1). ए मैन टू बी वाच्ड (इस इनसान को ध्यान से देखने की जरूरत है).
(2). ए पर्सन डेस्टिन्ड टू डू समथिंग डिफरेंट (एक इनसान, जिसके नसीब में है कुछ अलग करना).
आजादी की लड़ाई ने भारत की राजनीति को सर्वश्रेष्ठ मूल्य दिये. तब गरीब देश की नैतिक और मूल्यपरक राजनीति में दुनिया ने मुक्ति की एक नयी किरण देखी. इतिहासकार अर्नाल्ड टायनबी ने कहा, संकटग्रस्त सभ्यता को पूरब से रोशनी मिलेगी. पूरब से उनका आशय, भारत और चीन में चल रहे मुक्ति संग्रामों से निकलनेवाले मूल्यों से था. उसी दौर की भारतीय राजनीति के पुरोधाओं ने कहा, छोटी-छोटी चीजों से साफ होता है कि संगठन या व्यक्ति किस राह पर हैं? इनकी पहचान (व्यक्ति, संगठन), भावी संभावना और भविष्य आंकने का पैमाना है, यह सूत्र.
इसी सूत्र या कसौटी पर नीतीश कुमार को परखने या वाच करने की जरूरत है. इतनी बड़ी जीत, संयम से हैंडिल कर लेने की ताकत विरले लोगों में होती है. खासतौर से आज की राजनीति में. जीत के बाद, टीवी पर नीतीश कुमार का पहला बयान देखा-सुना. कोई आवेग नहीं. न बहुत खुशी का भाव. न जश्न. और न ही अंगुलियों से विक्टरी साइन दिखाने का दिखावा. न पटाखों को चलाने की इजाजत. भाजपा-जदयू के पार्टी दफ्तरों में पटाखों के दृश्य दिखे, मुख्यमंत्री आवास में नहीं. फर्ज कीजिए यह उपलब्धि, विरोधी खेमे में गयी होती, तो क्या दृश्य होते? कैसी उत्तेजना, प्रतिक्रिया या जश्न होते? विरोध पक्ष के खिलाफ न एक शब्द, न व्यंग्य, न एक चिकोटी काटनेवाली टिप्पणी. नीतीश विरोधी खेमे की जीत होती, तो क्या यही दृश्य होता?
इसके बाद एनडीए के नये विधायकों के बीच नीतीश कुमार का संबोधन पढ़ा. अखबारों में ही. जहां आंशिक बातें छपी थीं. पर ये बातें भविष्य के नीतीश कुमार को समझने के लिए जरूरी हैं. उनका आरंभिक कथन था – जीत का गरूर नहीं हो और विपक्ष का उपहास नहीं हो. यह मेरा विनम्र निवेदन है. इस बयान में भावी रणनीति है. बिहार के नवनिर्माण के लिए बिहारी एकता की पृष्ठभूमि या नींव रखना. राजनीतिक प्रतिद्वंद्विता या शत्रुता को विराम. आर्थिक विकास के इतिहास पलट लें, साफ हो जायेगा कि कोई भी कौम या राज्य या देश मिल कर ही इतिहास की अपराजेय ताकत या शक्ति बनते हैं.
एक और उल्लेखनीय चर्चा की मुख्यमंत्री ने विधायकों से कहा, थोड़ी दिक्कत होती है. हम सभी इससे गुजर चुके हैं. ऐसा न हो कि खाली घर देखा और उस पर अपना बोर्ड टांग दिया. अपनी मर्जी से बोर्ड लटका कर घर में मत घुसियेगा, चाहे समर्थक कितना भी प्रेरित करें. छोटा-छोटा आचरण प्रभाव डालता है.
यह बयान अर्थपूर्ण है. ऊपर उल्लेख किया है कि कैसे छोटी-छोटी चीजों से आप लोगों को परखते हैं. यह आजादी की लड़ाई की राजनीति का सूत्र था. 1974 का दृश्य याद करिए. जेपी आंदोलन के आदर्श क्या थे? भ्रष्टाचार मिटाओ. राजनीति में संपूर्ण क्रांति. पर 1977 में जो युवा इस आंदोलन से निकले, राजनीति में उनकी मुख्यधारा क्या रही? अपवाद क्षमा करेंगे. इसी पटना में 1974 के आदर्श-सिद्धांत के पुजारी अनेक नये विधायकों ने रातों-रात बड़े-बड़े आवासों पर कब्जा जमा लिये. ताले तोड़ कर. न नियम-कानून की परवाह की, न आंदोलन के सत्वों की याद. बाहरी आक्रामकों की तरह आचरण-धावा. इनमें से अनेक लोग देश की राजनीति में निर्णायक बने. आज भी दिल्ली में कुछेक ऐसे लोग पावरफुल पदों पर हैं. जिन लोगों का आचरण सरकारी घर कब्जा करने में ऐसा रहा, वे कैसे संपूर्ण क्रांति या बदलाव के सूत्रधार बन सकते थे. जो छोटी-छोटी चीजों में, निजी आचरण में संयम नहीं बरत सकते, वे क्या लकीर खीचेंगे? इस तरह 1977 में ही ऐसे आचरण से संकेत मिल गये, पूत के पांव पालने में. 1974 आंदोलन से निकले जो लोग राजनीति में निर्णायक हुए, वे भ्रष्टाचार को शीर्ष पर पहुंचानेवाली व्यवस्था की ऊर्जा बने. पोषक बने. उनकी अलग पहचान, अलग संस्कृति नहीं बन सकी. नीतीश कुमार इन छोटी बातों के प्रति इतने सावधान हैं, लोहिया के वाणी और कर्म में एका की बात के प्रति सजग हैं. जानते हैं. साधन और साध्य का बढ़ा फासला खेल बिगाड़ देगा. इसलिए एक नयी राजनीतिक संस्कृति के उदय की उम्मीद बनती है.
बहुमत के बाद तुरत शपथ. वह भी अकेले या दो-चार नहीं, पूरी कैबिनेट. कुछेक घंटों में ही विभागों का बंटवारा. ऐसे अवसरों पर देश में आम परंपरा या संस्कृति आज क्या है? साफ या प्रचंड बहुमत मिला. फिर जोड़-तोड़. कई दिनों तक अनिश्चितता. विभागों को लेकर झगड़ा. इसके बाद ग्रह-नक्षत्रों पर विचार. ज्योतिष का गुणा, घटाव, जोड़. जो अपवाद, ज्योतिष नहीं मानते, वे माननेवालों को दस भला-बुरा कहेंगे. अपने को प्रगतिशील घोषित करेंगे. आचरण से नहीं. प्रचार और वाक् शंखनाद से. फिर बड़ी-बड़ी घोषणाएं करेंगे. वे घोषणाएं धरती पर उतरेंगी या नहीं, यह समझे बिना. इस बीच भावी मुख्यमंत्री के नाते – रिश्तेदार और परिवार के लोगों का अलग रुतबा होगा. लाइजनिंग या दलाली के जो तत्व आज देश की राजनीति की दिशा तय कर रहे हैं, उनका जबरदस्त फैलाव राज्य की राजधानियों, जिलों और ब्लॉकों तक अब हो गया है. इस तरह के शपथ ग्रहण समारोहों में ऐसे तत्व आ टपकेंगे. कमान संभाल लेंगे. बिना अधिकार या नेतृत्व दिये आगे हो जायेंगे.
इसके ठीक विपरीत नीतीश कुमार का शपथ ग्रहण रहा. उनके स्वजन कहीं नीचे, भीड़ में रहे होंगे. चुपचाप. कोई जान भी न सका. न वे आकर्षण के केंद्र थे, न उनकी उपस्थिति बोल रही थी. न नीतीश कुमार ने ज्योतिष या पंडित से समय दिखाया. न कहीं पूजा पाठ या मनौती का स्वांग किया. एक ही बात बार-बार दोहराया, बड़ा दायित्व मिला है, बहुत काम करना है. फिर मंत्रिमंडल की बैठक. विधानसभा बुलाने की तिथि तय कर लेना. महाधिवक्ता की नियुक्ति, यानी पूरे स्टेट आर्गंस (राज्य के स्तंभों) को तुरत प्रभावी करना. महज 3-4 दिनों में ही. मैनेजमेंट की शब्दावली या मुहावरे में कहें, तो यह सब बिजनेस शैली में हुआ. रिजल्ट ओरिएंटेड. बिहार की कार्यशैली, मानस और राजनीतिक संस्कृति में ये कदम दूरगामी संकेत देते हैं.
सार्वजनिक जीवन में बड़े पदों पर बैठे लोग ही समाज में मार्गदर्शक की भूमिका में होते हैं. इस कसौटी पर नीतीश कुमार परखे जा सकते हैं. यह खबर कहीं छपी, कहीं नहीं. छपी भी, तो कुछेक पंक्तियों में. पर ऐसी चंद पंक्तियों की खबरें ही बहुत कुछ कहती-बताती हैं. सितंबर के दूसरे सप्ताह में खबर आयी. शायद आठ सितंबर को. चुनाव की घोषणा हो चुकी थी. नीतीश कुमार ने तत्काल मुख्यमंत्री के लिए तय बुलेटप्रूफ गाड़ी लौटा दी. उपमुख्यमंत्री सुशील कुमार मोदी ने भी. नीतीश कुमार ने मुख्य सचिव को निर्देश दिया. सरकारी फाइलें न भेजें. निहायत जरूरी फाइलों को छोड़ कर कुछ भी न भेजें. मुख्यमंत्री के अपने चैंबर में भी जाना बंद कर दिया.
दुनिया में जबसे वाद (पूंजीवाद, साम्यवाद, समाजवाद) ढह गये, तब से प्रबंधनवाद का जोर है. बड़े-बड़े मैनेजमेंट एक्सपर्ट चीजें तय करते हैं. कुशल प्रबंधन करते हैं. इसलिए भारत सरकार से लेकर कई राज्यों में हार्वर्ड या स्टैनफोर्ड या केलॉग वगैरह से लौटे लोग आज सरकारी टीमों में हैं. बिहार में नीतीश कुमार ने मैनेजमेंट की देशज शैली विकसित की. एक प्रबंध विशेषज्ञ कहते हैं -नीतीश कुमार की खासियत है कि वह अपने आसपास के लोगों से ही कारगर टीम बना लेते हैं. वह तुरत नये आइडियाज से खुद को जोड़ते हैं और उसे आगे ले जाकर विजन देने की कोशिश करते हैं. मुंबई में रहनेवाले डॉ पीएन सिंह (देश के जाने-माने प्रबंधन विशेषज्ञ) कहते हैं कि नेतृत्व की अवधारणाएं बदली हैं. आज का नेतृत्व विजिबल (दृश्यमान) होना चाहिए. वह बताते हैं कि फिलहाल दो तरह के नेताओं की अवधारणा है. पहला – किंग लीडर (राज नेतृत्व), दूसरा सर्वेंट लीडर (सेवक नेतृत्व). प्रबंधन विशेषज्ञ डॉ सिंह की दृष्टि में डॉ श्रीकृष्ण सिंह से लेकर अब तक बिहार में राजा लीडर हुए. कुछेक मुख्यमंत्री तो कहते भी थे कि वे आधुनिक राजा हैं. और उनके शब्द कानून हैं. ऐसे नेता ही कहते थे – यह पद (मुख्यमंत्री) मेरे लिए रिजर्व है. यहां कोई वेकेंसी नहीं है. यह राजशाही नेतृत्व का एप्रोच है. आधुनिक प्रबंधन में जिस सेवक लीडर की कल्पना है, वह खुद को जनता के लिए काम करनेवाला मानता है. डॉ पीएन सिंह के अनुसार नीतीश कुमार इस दूसरे राह पर चलते दिखाई दे रहे हैं.
एक्सएलआरआइ में प्रोफेसर रहे और प्रबंधन के क्षेत्र में देश के जाने-माने डॉ गौरव बल्लभ (दिल्ली) का कहना है कि नीतीश कुमार अलग दिख रहे हैं, क्योंकि वह अपने सबसे प्रबल विरोधी के खिलाफ भी बहुत निगेटिव नहीं बोलते. आक्रामक नहीं दिखते. गवर्नेंस को लेकर उनमें पॉजिटिव आउटलुक (सकारात्मक दृष्टिकोण) है. अपने फैसलों में वह (फर्म) कठोर रहते हैं. जैसे उन्होंने तय किया कि नरेंद्र मोदी को बिहार के चुनाव में नहीं आना है, तो वह नहीं आये. उनकी आवाज दिल्ली से नियंत्रित नहीं है. आज जो नेतृत्व देश को नयी दिशा दे सकता है, उसे पारदर्शी होना होगा, उसमें विजन होना चाहिए. वह जमीन के सवालों को अच्छी तरह समझे, यह जरूरी है. सुदूर गांवों की चुनौतियों से खुद को जोड़ ले. विदेशपलट मैनेजमेंट एक्सपर्ट टीम की बदौलत नहीं. डॉ वल्लभ की नजर में ये संकेत नीतीश कुमार में दिखाई देते हैं. आज नेतृत्व दो तरह से पनपता है. पहला, बना-बनाया प्लेटफार्म विरासत में मिल जाये, तो अपनी नेतृत्व क्षमता का विकास या प्रदर्शन करना. दूसरा, लोकतांत्रिक प्रक्रिया में वंशवाद का यह धरातल छोड़ कर एक-एक इंच जगह के लिए लड़ना और अपनी हैसियत खुद बनाना. आज देश के कुछेक राज्यों में ऐसे नेतृत्व दिख रहे हैं, जो जड़ से बात कर रहे हैं. दिल्ली के सामने याचक बन कर नहीं. प्रो बल्लभ के अनुसार इस दूसरी श्रेणी में नीतीश कुमार भी अपनी छाप छोड़ते दिखाई दे रहे हैं.
डॉ गौरव वल्लभ कहते हैं कि चुनावी भाषणों में नीतीश कुमार जाति या धर्म की भावना नहीं उभारते. फर्ज करिए मैं ब्राह्मण हूं, मुझे लगता है कि कोई समाज में जातिगत बातें नहीं कर रहा, वह विकास की बात कर रहा है, पूरे समाज की बात करता है, उसकी निजी छवि साफ है, वह जमीनी सच्चाई जानता है. उनके प्रति संवेदनशील है, तो स्वाभाविक है कि मेरा रूझान ऐसे ही नेता के प्रति होगा. उनकी दृष्टि में नीतीश कुमार की सफलता के पीछे ऐसा ही लोक मानस है.
बिहार की राजनीति में एक और बड़ा प्रयोग चल रहा है, देश की दृष्टि से. लगभग 15 वर्षों से भाजपा-जदयू गंठबंधन का सफल ढंग से चलना. पिछले पांच वर्षों में इस सरकार ने बिहार में अपनी छाप छोड़ी है. न कोई बड़ा विवाद, न अलग-अलग राग. दिल्ली के एक राजनीतिक विश्लेषक मित्र कहते हैं भाजपा को सेकुलर ढांचे के करीब लाना, यह भी देश की राजनीति के लिए दूरगामी महत्व का कदम है. सकारात्मक ढंग से. पूरे समाज-देश के लिए. देश में कांग्रेस का सबल विपक्ष चाहिए, पर जरूरी है कि वह सेकुलर ताना- बाना का हो. मुसलमानों ने (सौजन्य नीतीश कुमार) भाजपा को बड़े पैमाने पर वोट दिया है. यह भाजपा के लिए भी नयी संभावनाओं के द्वार खोलता है. बिहार में नहीं, देश में. यह बिहार मॉडल है. इसके जनक नीतीश कुमार हैं. जो नरेंद्र मोदी का गुजरात मॉडल है, उससे भाजपा के लिए देश में नयी संभावनाओं के द्वार नहीं खुलनेवाले. खोलने की कोशिश हुई, तो देश अमन चैन और प्रगति के सपने खो देगा. वैसे भी जो दो मॉडल आजकल चर्चा में है, उनमें बुनियादी फर्क है. गुजरात मॉडल का रिश्ता पूरी तरह उदारीकरण की नीतियों से है. स्पेशल इकॉनोमिक जोन (एसइजेड) से है. बिहार का नहीं. बिहार या नीतीश मॉडल की जड़ें, आजादी की लड़ाई के क्षीण होते राजनीतिक मूल्यों से कहीं-न-कहीं जुड़ी हैं. गुजरात मॉडल या मोदी मॉडल की जड़ें शुद्ध रूप से बाजारवाद में हैं. बाजारवाद से बिल्कुल परहेज, आज की दुनिया में संभव नहीं है. पर बिहार मॉडल का संकेत है, जितना जरूरी है, उतना ही उस रास्ते. बिहार मॉडल में समाज के धुर नीचे से ऊपर तक के लोग एक जमात में साथ खड़े दिख रहे हैं. समाजशास्त्र या राजनीति की दृष्टि से अनोखी उपलब्धि. पर गुजरात मॉडल में समरसता नहीं है. इस उपलब्धि ने नीतीश कुमार को मजबूती से राष्ट्रीय फलक पर पहुंचा दिया है. उनका हर कदम-प्रयोग दुनिया और देश में वॉच होगा. चौकस निगाहें रहेंगी. प्रधानमंत्री बनने के सवाल पर उनसे पूछा गया, तो उन्होंने साफ उत्तर दिया. यह भी कहा, न बायें देखेंगे, न दायें. इसके दोनों अर्थ हैं. पहला, उनकी पहली प्राथमिकता बिहार को श्रेष्ठ बनाना है. सच तो यह है कि बिहार को बेहतर बना देना, देश को आगे ले जाने से कहीं अधिक कठिन है. 1995 की अपनी शानदार जीत के बाद लालू जी अक्सर कहते थे कि बिहार चला लेना सबके बूते की बात नहीं है. यह सच है. पर नीतीश कुमार के न बायें-न दायें कथन का दूसरा मर्म भी है. नीतियों में, दर्शन में न वाम, न दक्षिण. कहें, तो बुद्ध का मध्यमार्ग. वह वैसे भी बुद्ध के तप क्षेत्र के हैं. नालंदा विश्वविद्यालय के प्रभाव क्षेत्र से आते हैं.
स्वभावत: भारतीय मन-मिजाज भी मध्यमार्गी ही है. अति से परहेज. इसलिए कांग्रेस भी मध्यमार्ग पर ही शुरू से चली. इसी मध्यमार्ग ने उसे भारतीय मन के करीब पहुंचाया. नीतीश कुमार के इसी मध्यमार्गी दर्शन की नींव पर, उन्हें यह अप्रत्याशित सफलता मिली है. नितांत गरीब से अगड़े यानी हर जाति-धर्म के लोग एक साथ. समर्थक. एक राष्ट्रीय चैनल पर (24 नवंबर) बहस उठी कि बिहार चुनाव परिणामों में भाजपा का स्ट्राइक रेट (सीट अनुपात में विजय) अधिक क्यों है? इस संवाददाता का साफ जवाब था, इस दृष्टि से बिहार चुनावों को देखना ही सरासर भूल है. उस रूप में जदयू एक लुंजपुंज पार्टी रही है. भाजपा के पास संगठन है. सक्रिय कार्यकर्ता भी. पर इन चुनावों की कामयाबी संगठनों और कार्यकर्ताओं के कारण नहीं. इस चुनाव में ध्रुवीकरण था. जाति और धर्म के आधार पर नहीं. नीतीश और लालूजी में. एक सर्वे आया था, चुनाव परिणाम से एकाध माह पहले. मुख्यमंत्री के रूप में किसे चाहते हैं? 77 फीसदी लोगों की पसंद थे, नीतीश कुमार. शेष में अन्य. इसी रूझान पर मतदान भी हुए, वही परिणाम एनडीए बनाम अन्य की सीटों में दिखाई देता है.
इस तरह नीतीश एक नये राजनीतिक द्वार पर खड़े हैं. बिहार भी. घोटालों से घिरी देश की राजनीति को भी हवा का नया झोंका या ताजगी चाहिए. क्या बिहार फिर 74 जैसा कोई नया अध्याय लिखेगा, जो देशव्यापी हो? आनेवाले दिनों में यह देखना-परखना भी दिलचस्प होगा. बिहार के हर नये प्रयोग-कदम की दस्तक -गूंज देश में होगी. जिस दिन नीतीश कुमार भ्रष्टाचार नियंत्रण के लिए बने कानून पर अमल करेंगे, देश-दुनिया में उसकी धमक होनेवाली है.
एक पत्रकार के रूप में नीतीश कुमार को बाहर से परखने के अनुभव हैं. थोड़े. वह निजी जीवन में लोनर (एकांकी) रूझान के लगते हैं. अत्यंत शिष्ट-शालीन. प्रो-एक्टिव. चीजों को बारीक ढंग से देखने-करने के आदी. अपने काम के प्रति बहुत साफ. निर्णायक. आज की राजनीति में, देश में ऐसे थोड़े चेहरे हैं (सभी दलों को जोड़ कर), जो राजनीति को धंधा नहीं मानते. धन और परिवार के लिए राजनीति नहीं करते. जो नितांत बेदाग हैं. भविष्य में नयी संभावनाओं के द्वार पर ऐसे ही लोग दस्तक देते हैं. फिलहाल नीतीश कुमार ने देश-बिहार में एक नयी उम्मीद पैदा की है. वह कहां तक जायेंगे? यह तो भविष्य और उनकी भूमिका ही तय करेंगे.

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