सियासी संकेत, नरेंद्र मोदी पर उद्योग जगत को भरोसा

चार राज्यों के विधानसभा चुनावों को अगले साल होनेवाले लोकसभा चुनाव का सेमीफाइनल माना जा रहा था. इस कारण इनके नतीजों से उभरनेवाले सियासी संकेत पर बाजार, उद्योग जगत और देसी-विदेशी निवेशकों की भी नजर थी. राज्यों के नतीजों ने केंद्र की सत्ता पर भाजपा और नरेंद्र मोदी की दावेदारी को और मजबूत किया है. […]

By Prabhat Khabar Digital Desk | December 10, 2013 8:41 AM

चार राज्यों के विधानसभा चुनावों को अगले साल होनेवाले लोकसभा चुनाव का सेमीफाइनल माना जा रहा था. इस कारण इनके नतीजों से उभरनेवाले सियासी संकेत पर बाजार, उद्योग जगत और देसी-विदेशी निवेशकों की भी नजर थी. राज्यों के नतीजों ने केंद्र की सत्ता पर भाजपा और नरेंद्र मोदी की दावेदारी को और मजबूत किया है. इस संकेत पर आर्थिक जगत ने अपनी सकारात्मक प्रतिक्रिया दी है. आर्थिक जगत के लिए इस सियासी संकेत के मायनों पर आर्थिक मामलों के जानकारों की राय समेटता यह विशेष.

।। सरीथा रॉय ।।

(आर्थिक मामलों की जानकार)

सोमवार सुबह भारतीय शेयर बाजार और रुपये के मूल्य में रिकार्ड उछाल देखा गया. पिछले चार महीने में अमेरिकी डॉलर की तुलना में रुपये की कीमत सबसे मजबूत दिखी. यह दोनों बदलाव हालिया विधानसभा चुनाव के नतीजे भाजपा के पक्ष में आने के बाद दिखे. कांग्रेस को चारों राज्यों में करारी हार का सामना करना पड़ा. सही मायने में शेयर बाजार में तेजी एक्जिट पोल आने के बाद ही देखी जाने लगी.

इन सर्वेक्षणों में भाजपा की जीत दिखायी गयी थी. साथ ही, इन सर्वेक्षणों से यह भी सामने आया कि 2014 के आम चुनाव में मतदाताओं का रुझान भाजपा के पीएम प्रत्याशी नरेंद्र मोदी के पक्ष में आता दिख रहा है. आम तौर पर मोदी को बिजनेस-फ्रेंडली के देखा व माना जाता है. उनकी अगुआई में गुजरात की अर्थव्यवस्था पिछले दशक में तेजी से आगे बढ़ी है. यह बात अलग है कि उनका विवादों से भी नाता रहा है. नतीजे वाले दिन टीवी पर मिनट दर मिनट चुनावी विशलेषक सोनिया गांधी और राहुल गांधी की अगुआई वाली कांग्रेस का धुंधला भविष्य पेश करते नजर आये. विगत कुछ सालों में भ्रष्टाचार के एक के बाद एक आरोपों, रोजमर्रा की जरूरतों की वस्तुओं की बढ़ती कीमतों, खराब प्रशासन, मंद या रुके हुए आर्थिक सुधारों आदि के चलते कांग्रेस और केंद्र सरकार की छवि प्रभावित हुई. इन स्थितियों के कारण आर्थिक विकास की दर हालिया तिमाही में पांच फीसदी के स्तर पर पहुंच चुकी है. कांग्रेस के प्रति चौतरफा आक्रोश है.

भाजपा के पीएम पद के प्रत्याशी मोदी सशक्त छवि वाले नेता हैं और उद्योग जगत उन पर विश्वास भरी नजरों से देख रहा है. उद्योग जगत को लगता है कि अगर वे प्रधानमंत्री बनते हैं, तो पूरे देश में व्यापार सुधार की दिशा में बेहतर कदम उठाये जायेंगे. विदेशी पूंजी निवेशक बैंकों, जिनमें गोल्डमैन सैक्श, नोमुरा व क्रेडिट स्विस भी मोदी की संभावित जीत को लेकर उत्साहित नजर आ रहे हैं. यह नयी संभावित सरकार की आर्थिक तरक्की और सुधार की दिशा में एक संकेत जैसा है. हालिया संपन्न विधानसभा चुनावों में मोदी और राहुल दोनों अपनी पार्टी के स्टार प्रचारक रहे. एक ओर जहां राहुल गांधी अपनी सभाओं में केंद्र सरकार की जन कल्याणकारी योजनाओं को भुनाने का प्रयास करते नजर आये, वहीं मोदी आर्थिक विकास और युवाओं के सदंर्भ में अपने नजरिये को पेश करते नजर आये. हालांकि, भारत की क्षेत्रीय राजनीति विविधता से भरी है, क्योंकि कई क्षेत्रीय क्षत्रप काफी प्रभावशाली हैं. लेकिन एक चीज तय है कि 2014 का आम चुनाव भारत के आर्थिक दृष्टिकोण से काफी महत्वपूर्ण है.

(साभार : फोर्ब्स डॉट कॉम)

* राजनीति और अर्थशास्‍त्र का निरंतर गहरा हो रहा है रिश्ता

।। धर्मेद्रपाल सिंह ।।

(वरिष्ठ पत्रकार)

ताजा विधानसभा चुनाव परिणाम से यह बात साफ हो गयी है कि देश की जनता केवल वादों पर नहीं विकास पर यकीन करती है. इस बार विकास के साथ-साथ महंगाई भी मुख्य मुद्दा रहा है. हाल ही में हुए कुछ अध्ययनों के आधार पर भी यह बात मोटे तौर पर कही जा सकती है कि राजनीति और अर्थशास्त्र का रिश्ता निरंतर गहरा होता जा रहा है. जिस प्रदेश में आर्थिक विकास की रफ्तार अच्छी रहती है, वहां सत्तारूढ़ दल के जीतने की संभावना प्रबल होती है. मतलब यह कि वोटर अब खालिस वादों के झांसे में नहीं आता, सरकार के काम और उपलब्धियों का आकलन करने के बाद ही वह किसी दल या प्रत्याशी को वोट देता है.

हैदराबाद के इंडियन स्कूल ऑफ बिजनेस के एक शोध पत्र में वर्ष 1980 से 2012 के बीच हुए चुनावों के परिणामों का विश्‍लेषण करने के बाद यह निष्कर्ष निकाला कि अच्छी सरकार (जो विकास करे) का साथ लोग आसानी से नहीं छोड़ते. इस अध्ययन के अनुसार किसी राज्य की विकास दर में एक फीसदी इजाफा होने पर सत्तारूढ़ सरकार की विजय की संभावना 0.6 प्रतिशत बढ़ जाती है.

इसका अर्थ हुआ कि विकास जितना तेज होगा, चुनावी समर में काम करने वाले नेताओं की विजय की संभावना उतनी ही बढ़ जायेगी. इस अध्ययन से नेताओं की एक गलतफहमी दूर हो जानी चाहिए. इसका निष्कर्ष बताता है कि जो सरकार पूरे पांच साल डटकर काम करती है, जीतती वही है.

चुनाव से पहले जन-कल्याण के लिए खजाने का मुंह खोलने वाले नेताओं पर मतदाता विश्वास नहीं करते. उन्हें लगता है कि चुनावी वर्ष में किये गये वादे या दी गयी सुविधाओं की जिंदगी ज्यादा लंबी नहीं होती. तीसरा निष्कर्ष यह भी निकला कि पढ़े-लिखे मतदाता विकास के मुद्दे को ज्यादा महत्व देते हैं. यानी जिन राज्यों में साक्षरता दर ज्यादा है, वहां विकास को चुनावी मुद्दा बनाना और इसके नाम पर वोट मांगना आसान होता है.

पिछले दो दशक के चुनाव परिणामों पर नजर डालकर देखें तो ये बातें ठीक ही लगती हैं. नवीन पटनायक (ओड़िशा), नरेंद्र मोदी (गुजरात), शीला दीक्षित (दिल्ली), रमन सिंह (छत्तीसगढ़), मानिक सरकार (त्रिपुरा), तरुण गोगोई (असम), नीतीश कुमार (बिहार) और भूपेंद्र हुड्डा (हरियाणा) अपने-अपने राज्यों को विकास की पटरी पर डालने में सफल रहे और चुनाव में उन्हें इसका फल भी मिला. ये सभी मुख्यमंत्री लगातार दो-दो, तीन-तीन चुनाव जीत चुके हैं और उनकी पार्टियों को जनता ने भरपूर समर्थन दिया है.

इस अध्ययन में अपवादों की ओर भी इशारा किया गया है. पहली बात तो यह कि जब जन-आक्रोश या जन-सहानुभूति की सुनामी आती है, तब विकास का मुद्दा पीछे रह जाता है. 1977 और 1984 के लोकसभा चुनाव परिणाम इसका प्रमाण हैं. इंदिरा गांधी द्वारा देश में आपात स्थिति लगाने के विरोध में मतदाताओं ने कांग्रेस को 1977 के आम चुनाव में बुरी तरह पराजित कर दिया था.

इसी प्रकार इंदिरा गांधी की हत्या के बाद पूरे देश में चली सहानुभूति की लहर की बदौलत कांग्रेस को 1984 के लोकसभा चुनाव में तीन-चौथाई सीट मिली थी. दूसरा अपवाद यह है कि साक्षर और विकसित राज्य में सरकार लगातार चुनाव जीते, यह जरूरी नहीं. तमिलनाडु और केरल इसका प्रमाण हैं. वहां बहुधा पांच साल बाद सरकार बदल जाती है. एक बात और है. महंगाई और बेरोजगारी दो ऐसे मुद्दे हैं, जो मतदान को सर्वाधिक प्रभावित करते हैं.

पिछले पांच बरस से समाजशास्त्री, राजनीति के पंडित और मनोवैज्ञानिक भारतीय चुनावों के विश्‍लेषण का काम बड़े पैमाने पर कर रहे हैं. सत्तर के दशक तक देश में कांग्रेस का एकछत्र राज था. 1967 के चुनाव में कांग्रेस को पहली बार करारा झटका लगा और कई राज्यों में विपक्ष की सरकार बनी. तब पहली बार अधिकांश चुनाव पूर्व अनुमान गलत सिद्ध हुए. पिछले दो दशक में क्षेत्रीय दल तेजी से उभरे और 1996 में पहली बार क्षेत्रीय दलों का मत प्रतिशत आधे से अधिक (51 फीसदी) हो गया. अर्थात दोनों राष्ट्रीय दलों कांग्रेस और भारतीय जनता पार्टी की कुल पड़े वोटों में हिस्सेदारी आधी भी नहीं रही. पिछले तीन लोकसभा चुनावों में क्षेत्रीय दलों का वोट बैंक लगातार बढ़ा है. 1999 के लोकसभा चुनावों में क्षेत्रीय दलों को 48 फीसदी वोट मिले, जो 2004 में बढ़ कर 51 फीसदी और 2009 के आम चुनावों में 53 फीसदी हो गये.

मौजूदा लोकसभा में कुल 38 क्षेत्रीय दलों के सांसद भी हैं, जो 41 फीसदी सीटों पर काबिज हैं. यह भारतीय राजनीति के बदलते चरित्र का प्रतीक है. राष्ट्रीय दलों से निराश होकर जनता क्षेत्रीय दलों से जुड़ी है और कुछ क्षेत्रीय दलों ने विकास के बल पर लगातार जीत हासिल की है. आज स्थिति यह है कि उत्तर प्रदेश, बिहार, पश्चिम बंगाल, उड़ीसा और तमिलनाडु जैसे बड़े राज्यों में गैर-कांग्रेस और गैर-भाजपा सरकारें हैं.

क्षेत्रीय दल राज्यों ही नहीं, केंद्र की नीतियों को भी प्रभावित करते हैं. नीति निर्माण और संसाधनों के बंटवारे में अब राष्ट्रीय दलों की मनमानी नहीं चल पाती. केंद्र में अकेले दम सरकार बनाने की ताकत आज कांग्रेस या भाजपा में नहीं है. सत्ता पाने के लिए ये दोनों बड़ी पार्टियां क्षेत्रीय दलों से समझौता करने को मजबूर हैं.

जिस दल का गंठबंधन जितना बड़ा होता है, उसके जीतने की संभावना उतनी ज्यादा बढ़ जाती है. अपने सूबे में कांग्रेस और भाजपा का विरोध करने वाले कुछ दल मिलकर केंद्र में फिर तीसरा मोर्चा खड़ा करने की कोशिश में हैं. अगले साल होने वाले आम चुनावों से पहले और तुरंत बाद भारतीय राजनीति में कई नाटकीय बदलाव देखने को मिलेंगे. इस सबके बावजूद यह कहा जा सकता है कि जो पार्टी विकास को मुद्दा बनायेगी उसे लाभ जरूर मिलेगा.

लगभग दो दशक पहले खुली अर्थव्यवस्था को अपनाने के बाद देश का तेजी से आर्थिक विकास हुआ. इस विकास का असर राजनीति पर भी पड़ा है. राजनीति पर धन-बल का प्रभाव निरंतर बढ़ता जा रहा है. आज जहां देश में 78 प्रतिशत आबादी की आमदनी बीस रुपये रोजाना से कम है, वहीं लोकसभा में 58 फीसदी सांसद करोड़पति हैं. कायदे से संसद को देश का आइना होना चाहिए, लेकिन हमारे सांसदों की खुशहाली देखकर कोई अनजान आदमी देश की बदहाली का अनुमान नहीं लगा सकता.

चुनाव लड़ना महंगा होता जा रहा है. अपनी पसंद की पार्टी और प्रत्याशी को जिताने के लिए कॉरपोरेट जगत ने पूरी ताकत झोंक रखी है. कई बार अच्छे और ईमानदार उम्मीदवारों का जीतना कठिन हो जाता है. उत्तराखंड के पिछले विधानसभा चुनावों में तत्कालीन मुख्यमंत्री खंडूरी को थैलीशाहों की ताकत के सामने खुद अपनी सीट गंवानी पड़ी थी. कई बार विकास कार्यों से मिलने वाले लाभ पर पैसे की ताकत से पानी फेर दिया जाता है. वास्तव में भारतीय राजनीति की चाल बेढब है. इस पर कोई मॉडल या सिद्धांत पूरी तरह फिट नहीं हो सकता.

* चुनावी नतीजों का स्वागत कर रहा है बाजार

।। एससी गुलाटी ।।

(अर्थशास्त्री)

चार प्रमुख राज्यों में हुए चुनाव के नतीजों की तसवीर विभिन्न सर्वेक्षणों से ही साफ हो गयी थी. परिणाम के बाद भले ही किसी राजनीतिक दल में उत्साह का वातावरण हो या किसी में मायूसी का, लेकिन बाजार के लिए यह राहत की खबर है. परिणाम आने के पहले से ही कहा जा रहा था कि अगर सर्वेक्षणों के उलट नतीजे आते हैं, तो इसका बाजार पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ेगा. पूर्व में देखा गया है कि राजनीतिक अनिश्चितता के दौर में बाजार धराशायी होता है. अगर चुनाव परिणाम बाजार की उम्मीदों के प्रतिकूल होते, तो निवेशकों की ओर से अच्छी प्रतिक्रिया नहीं मिलती.

दरअसल, अच्छी राजनीति से आर्थिक हालात भी बेहतर होते हैं. बाजार को अगले वर्ष मई में होने वाले लोकसभा चुनाव में संभावित बदलाव से काफी अपेक्षाएं हैं. जैसे-जैसे आम चुनाव का समय नजदीक आता जायेगा, वैसे-वैसे ये अपेक्षाएं पहले की तुलना में प्रबल होती जायेंगी.

हम जानते हैं कि बाजार का रुख माहौल से भी तय होता है. सवाल है कि विदेशी निवेशक भारत से क्या चाहते हैं? इसका जबाव है आर्थिक विकास. हमने देखा कि जनमत सर्वेक्षण के आकलन से ही विदेशी पूंजी निवेशक आकलन करने लगे थे कि आर्थिक विकास दर में सुधार होगा और उम्मीद कर रहे थे कि भारत में राजनीतिक स्थिति में बदलाव से आर्थिक हालात भी बदलेंगे. हालांकि, इस सोच के पीछे कई अन्य सवाल भी हैं, लेकिन मौजूदा समय में निवेशक उस पर गौर नहीं कर रहे हैं. निवेशकों को राजनीतिक दलों से मतलब नहीं होता, उनकी चिंता विकास दर को लेकर होती है.

वर्ष 2009 के आम चुनाव में जब यूपीए सरकार दोबारा सत्ता में लौटी तो निवेशकों ने इसका जोरदार स्वागत किया था. लेकिन पिछले कुछ सालों से आर्थिक विकास दर में कमी आने से वे निराश हैं और वे मानते हैं कि आने वाला चुनाव विकास दर को बढ़ाने में कारगर साबित होगा. हालांकि, पिछले कुछ महीनों से निवेशकों का भरोसा एक बार फिर भारत के प्रति सकारात्मक हुआ है.

हाल में वित्त मंत्रालय और रिजर्व बैंक द्वारा उठाये गये कदमों से विकास दर को नीचे जाने से रोकने में मदद मिली है. आर्थिक विकास दर को बढ़ाने के लिए चालू बचत घाटे में कमी करने और डॉलर के मुकाबले रुपये की गिरावट को रोकने से निवेशकों का भरोसा भारतीय बाजार के प्रति बढ़ा है. मौजूदा विधान सभा चुनावों को लेकर निवेशकों की आयी प्रतिक्रिया को इसी संदर्भ में देखा जाना चाहिए.

भारत के प्रति निवेशकों का भरोसा जीतने के लिए हालिया विधानसभा चुनाव परिणाम के दो अन्य पहलू भी हैं. सभी जानते हैं कि भारत का लोकतंत्र मजबूती से काम करता है और उसमें अपनी गलतियों को अंदर से ही ठीक करने की क्षमता भी है. विदेशी निवेशकों को आकर्षित करने का यह एक महत्वपूर्ण पहलू है और विधानसभा चुनाव परिणामों ने एक बार फिर साबित किया है कि भारतीय लोकतंत्र अभी भी काम कर रहा है. दूसरा महत्वपूर्ण पहलू है, सभी राज्यों में बड़े पैमाने पर हुआ मतदान और लोकतांत्रिक प्रक्रिया में लोगों की सक्रिय भागीदारी. यह हमारी मजबूत और भागीदारी वाले लोकतंत्र की छवि को पुख्ता करता है, जहां लोग वैसे मुद्दों के आधार पर मतदान करते हैं, जो उन्हें सबसे अधिक प्रभावित करता है. बड़े पैमाने पर युवाओं की भागीदारी से साफ हो गया है कि अब शिक्षा और रोजगार मुख्य मुद्दा होगा.

पूर्व में भी देखा गया है कि महंगाई सरकारों के लिए परेशानी का सबब रही है और इसका खामियाजा भी उठाना पड़ा है. महंगाई एक अहम मुद्दा है क्योंकि यह सभी को प्रभावित करता है और इसके चलते सरकारों को चुनावों में बड़ी कीमत चुकानी पड़ी है. चुनाव परिणाम आते ही बाजार पर इसका सकारात्मक असर पड़ा. लेकिन चतुर निवेशक इन परिणामों के आधार पर 2014 के आम चुनाव परिणाम का आकलन करने में सतर्कता बरतेंगे क्योंकि देखा गया है कि विधानसभा और लोकसभा में मुद्दे अलग होते हैं और मतदाताओं की पसंद भी बदल जाती है.

अकसर चुनावों में देखा जाता है कि किसी पार्टी के पक्ष में थोड़े से मतों का रुझान कम या ज्यादा होने से सीटों की संख्या पर काफी असर पड़ता है. इसलिए निवेशक भी इन चुनाव परिणामों के आधार पर 2014 के आम चुनाव का आकलन आंख मूंद कर नहीं करेंगे. इन चुनाव परिणामों से निश्चित ही निवेशकों का भरोसा भारत के प्रति बढ़ेगा, लेकिन इसका असर कुछ दिनों बाद वैश्विक कारणों से प्रभावित होगा. अगले हफ्ते अमेरिकी फेडरल रिजर्व की होने वाली बैठक और रिजर्व बैंक की आने वाली मौद्रिक नीति एक बार फिर केंद्र बिंदु बन जायेंगे.

मुंबई का शेयर सूचकांक सोमवार को उछल कर 21,483 तक पहुंच गया. इससे पहले तीन नवंबर को यह 21,321 तक पहुंचा था, जो अब तक का सबसे ऊंचा रिकॉर्ड था. इसके अलावा भारतीय मुद्रा यानी रुपया भी अपनी खोती साख पर फिर से पकड़ बनाता दिख रहा है. अमेरिकी डॉलर के मुकाबले यह बेहतर होकर 60.84 तक पहुंच गया. अगस्त के बाद यह रुपये की सबसे अच्छी कीमत है. शुक्रवार को यह डॉलर के मुकाबले 61.42 पर बंद हुआ था.

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