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‘आप’ (आम आदमी पार्टी) की चुनौती

-हरिवंश- -भारतीय राजनीति में ताजा हवा- आम आदमी पार्टी (आप) का उदय, मौजूदा सड़ांध में ताजा बयार है. इसका असर स्थायी होगा, दीर्घकालिक या क्षणिक या अल्पकालिक, इस पर फिलहाल बहस की जरूरत ही नहीं? लंबे समय से बेचैन, परेशान और आहत भारतीय मानस की यह अभिव्यक्ति है. इस संकेत को समझना जरूरी है. यह […]

-हरिवंश-

-भारतीय राजनीति में ताजा हवा-

आम आदमी पार्टी (आप) का उदय, मौजूदा सड़ांध में ताजा बयार है. इसका असर स्थायी होगा, दीर्घकालिक या क्षणिक या अल्पकालिक, इस पर फिलहाल बहस की जरूरत ही नहीं? लंबे समय से बेचैन, परेशान और आहत भारतीय मानस की यह अभिव्यक्ति है. इस संकेत को समझना जरूरी है. यह स्थायी होगा या अस्थायी, यह भविष्य की बात है. असल तो वर्तमान है. वर्तमान के गर्भ में ही भविष्य है. भारतीय राजनीति के मौजूदा दौर (वर्तमान) पर गहरा असर डाला है ‘आप’ के उदय ने. इसने एहसास कराया कि

– मूल्य आधारित राजनीति आज भी संभव है. 1974 के संपूर्ण क्रांति और संपूर्ण बदलाव के आंदोलन के मिट जाने, उसके गर्भ से ऐसे लोगों के उदय, जिन्होंने भारतीय राजनीति की सड़ांध (जिसके खिलाफ हुए आंदोलन में उनका उदय हुआ) को चरम पर पहुंचा दिया, तब राष्ट्रीय निराशा के इस क्षण में राजनीति नैतिक हो सकती है, इस एहसास को ‘आप ‘ ने पुन: जिंदा किया है.

– राजनीति में अब भी ईमानदारी की गुंजाइश है, इसका प्रमाण भी ‘आप ‘ का उदय है. डॉ लोहिया कहा करते थे, लोकतंत्र में ऐसी स्थिति बने कि महारानी के खिलाफ मेहतरानी चुनाव में उतरे और जीते. आज समय का संदर्भ बदल गया है. अब नये महारानी, महाराजा, राजा-रजवाड़े या जमींदार (पुराने अर्थों-संदर्भों में नहीं) जीत रहे हैं. आजाद भारत में नये राजाओं, महाराजाओं, जमींदारों का राजनीति में उदय हुआ है. इनकी जाति और धर्म, अलग-अलग हैं. पृष्ठभूमि भी अलग-अलग. पर ये भारतीय राजनीति के सभी विशिष्ट लोग हैं.

इनका वर्ग एक है. समूह हित एक है. हर दल में कुछेक अपवाद और अच्छे लोग हैं, पर वे लोग अब अपने-अपने दलों की मुख्यधारा की आवाज नहीं हैं. दलों में जो अपराधी, बेईमान, तिकड़मबाज, छल-छद्म करनेवाले लोग हैं, वे इस राजनीतिक संस्कृति के नुमाइंदे हैं. इस राजनीतिक संस्कृति की जन्मदात्री और धाय (पालने-पोसने वाली) दोनों ही कांग्रेस रही है. इसी कांग्रेसी राजनीतिक संस्कृति को फूहड़ अर्थों में सभी दलों ने अपना लिया. क्षेत्रीय से लेकर प्रमुख विपक्षी दल सभी ने. इसी कांग्रेसी संस्कृति को बदलने के लिए 1974 में जयप्रकाश नारायण ने कोशिश की, उससे पहले 1967 में डॉ राममनोहर लोहिया ने गैर-कांग्रेसवाद का नारा दिया.

नौ राज्यों में गैर कांग्रेसी सरकार के गठन के वह सूत्रधार बने. पर वह प्रयोग भी विफल हुआ. जेपी और लोहिया, दोनों ही अपने-अपने प्रयोग से निराश हुए. ऐसी हर विफलता के बाद, बदलाव विरोधी राजनीतिक ताकतें और क्रूर हुईं, भ्रष्ट हुईं, वंशवादी हुईं. हर दल, कांग्रेस को हरा कर सत्ता में आया, पर वह भद्दा कांग्रेसी ही रहा. संभव हैं, ‘आप’ का यह प्रयोग ऐसे माहौल में और ऐसी मजबूत ताकतों के खिलाफ क्षणिक साबित हो या नष्ट हो जाये, पर ‘आप’ के उदय ने पुष्ट किया है कि अब भी बदलाव की संभावना है.

– ईमानदार तरीके से राजनीति करने की गुंजाइश बची है. ईमानदारी, बोझ और फालतू चीज नहीं है. नैतिक लोगों की कद्र है. ‘आप ‘ के उदय ने यह भी साबित किया है कि अपराध से समाज को अब भी नफरत है. अगर साफ -सुथरे रास्ते आप चलें, तो हार्स ट्रेडिंग (जत्थे में दल-बदल) भी रुक सकती है.

– एक तरह से राजनीतिक या सार्वजनिक जीवन में मूल्यों की वापसी की गुंजाइश अब भी है, यह ‘आप ‘ के उदय ने दिखाया है. वरना ‘आया राम, गया राम’ की जनक तो कांग्रेस रही ही है. यह संस्कृति पराकष्ठा पर तब पहुंची, जब कांग्रेस के संरक्षण में भजनलाल जैसे लोग रातोंरात सरकार और पार्टी समेत दल-बदल कर, जनता दल से कांग्रेसी हो गये. 1980 के दशक में. समझ सकते हैं कि यह बीमारी कितनी गहरी और पुरानी है. इस नासूर बनी राजनीतिक संस्कृति के खिलाफ, लंबी लड़ाई से ही बदलाव की भूमिका-पृष्ठभूमि बनेगी, यह स्पष्ट है. पर दिल्ली में चुनाव नतीजे आ गये हैं, लेकिन कोई साहस नहीं कर रहा है कि वह आगे बढ़ कर, तोड़-फोड़ कर सरकार बनाये. जोड़-तोड़ की बात तो दूर, सब अपनी-अपनी टेक पर अड़े हैं. यह स्थिति ‘आप’ के सार्थक हस्तक्षेप से बनी है.

यह माहौल ‘आप’ के कारण बना है. नहीं तो क्या इस देश ने नहीं देखा है कि कांग्रेस, भाजपा , सपा, बसपा, वामपंथी दल, सब रातोंरात इधर-उधर होकर, किसी के साथ मिल कर सरकार गिरा-बना सकते हैं. खासतौर से गुजरे 30 वर्षों में अनेक राज्यों में सरकार बनाने-बिगाड़ने के जो महापाप हुए, खरीद-फरोख्त हुई, सौदेबाजी हुई, अपराधियों की ताजपोशी हुई, निर्दलीयों की खुलेआम नीलामी हुई, क्या यह सब देश ने नहीं देखा है? मनमोहन सिंह की पहली सरकार में अमेरिका के साथ परमाणविक डील के सवाल पर लोकसभा में क्या कुछ नहीं हुआ, यह देश नहीं जानता? सांसदों पर बिकने के आरोप लगे. 2005 में आपरेशन दुर्योधन (कोबरा पोस्ट द्वारा खुलासा) में क्या लोगों ने नहीं देखा कि ग्यारह सांसद, पैसे लेकर संसद में सवाल पूछने के लिए तैयार थे? अब फिर मामला सामने आया है.

कोबरा पोस्ट द्वारा ही यह स्टिंग आपरेशन हुआ. ग्यारह सांसदों (जिसमें कांग्रेस, जदयू, भाजपा, एआइडीएमके, बसपा के सांसद हैं) ने सिफारिश करने के लिए पैसे मांगे. एक कंपनी के फेवर में पत्र लिखने (किसी ने तो लॉबिंग करने की पेशकश की थी) के लिए 50 हजार से लेकर 50 लाख रुपये तक की मांग की गयी. यह है, पारंपरिक राजनीति का चरित्र. इसी बिकाऊ राजनीति के खिलाफ एक नये विकल्प के रूप में लोगों ने ‘आप’ को चुना. अब यह हालत है कि दिल्ली में हर दल आश्वस्त है कि उनके विधायक को कोई तोड़ेगा नहीं और न ही वे किसी और के विधायक को तोड़ने में लगे हैं. एनडीए के कार्यकाल में कुछ यादगार चीजें हुईं. मंत्रियों की संख्या, विधानसभा सदस्यों के अनुपात में निर्धारित हुई. वरना कांग्रेसी परंपरा में सैकड़ों मंत्री बनते थे, छोटे राज्यों में. फिर दल-बदल कानून बना. इसके बाद भी रातोंरात पाला बदल कर विभिन्न कारणों से इधर से उधर हो कर सरकारें बनती-गिरती रहीं.

फर्ज करिए, आज जो स्थिति दिल्ली में बनी है, पूरे देश की राजनीति में हो, तब राजनीति आदर्श की नींव या दीवार पर खड़ी होगी. वह सिद्धांत और विचारों से संचालित होगी, किसी भी सूरत में सिद्धांत और आदर्श से प्रभावित राजनीति आज की सड़ी राजनीति से कई गुना बेहतर होगी. यही राजनीति देश को एक रख सकती है. ऐसा हो सकता है, राजनीति में, यह ‘आप’ की विजय ने दिखाया है.

आप’ की इसी वैकल्पिक राजनीति ने बड़े-बड़ों के सूपड़े साफ कर दिये हैं. दलितों के लिए 12 आरक्षित सीटें दिल्ली में थीं, जिनमें से नौ पर ‘आप’ जीती है. बहुजन समाजवादी पार्टी के दिल्ली चुनावों के प्रभारी एमएल तोमर ने कहा है कि बहुजन समाजवादी पार्टी, ‘आप’ के कारण फेल हो गयी. कहां है, दिल्ली विधानसभा चुनावों में समाजवादी पार्टी, जिसके उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री ने धूमधाम से खूब प्रचार किया था? मुस्लिम आबादी बहुल सीटों पर (दिल्ली चुनाव) ‘आप’ के उम्मीदवारों को 15 हजार से 19 हजार तक वोट मिले. देश और विदेश से कार्यकर्ता, अपना काम-धाम छोड़ कर दिल्ली पहुंच गये, ‘आप’ के चुनाव प्रचार के लिए. जी-जान लगा दी. अपने पैसे-साधन से.

जब राजनीतिक दलों में पेड कार्यकत्ताओं का दौर हो, तब सिद्धांत और आदर्श से प्रेरित, देश-दुनिया से लोगों का दिल्ली में आना और ‘आप’ के लिए घर-घर काम करना, गांधी के दिनों की कांग्रेस की राजनीति का स्मरण है. लोहिया या जेपी के सपनों की राजनीति में लगभग ऐसी ही स्थिति की कामना रही है. यह विचारों की राजनीति, आदर्श की राजनीति का नमूना है. गुजरे 30 वर्षों में ऐसे उत्साहवर्धक दृश्य, राजनीति में दिखायी नहीं दे रहे थे. जब 25-50 करोड़ रुपये एक -एक संसदीय सीट पर खर्च होते हों, कई करोड़ एक विधायक के चुनाव में लगते हों, चुनाव जीतने के लिए पैसा अनिवार्य शर्त हो, तब लाख-दो लाख खर्च कर, सादगी से लोगों के घर-घर जाना, क्या एक नयी संस्कृति की झलक नहीं है? दिल्ली पढ़ी-लिखी है. यहां पैसे और सत्ता का अहं है.

वहां की जनता अपनी अमीरी और हेकड़ी के बावजूद गरीब, अचर्चित व साधनविहीन उम्मीदवार को वोट देकर जिता सकती है, मामूली और फटेहाल भी इस दिल्ली में जनप्रतिनिधि बन सकते हैं, क्या यह आज की राजनीति में स्तब्धकारी घटना नहीं है? जब चुनाव के दिन बूथ मैनेजमेंट के लिए शराब और धन बांटने की होड़ हो, हथियारों से भय, आतंक का माहौल बनाने की बात हो, तब ‘आप’ के कार्यर्ताओं द्वारा शराब वितरण की जासूसी, बिना गोली-बंदूक; दावत या बूथ मैनेजमेंट फंड के बगैर विधानसभा में पहुंच जाना, क्या असाधारण घटना नहीं है? क्या यह पारंपरिक रूप से बने वोट बैंक की राजनीति के खत्म होने की शुरुआत का संकेत नहीं है?

संभव है, जिन राज्यों में या क्षेत्रों में जाति-धर्म का अभी गहरा असर है, वहां इस संस्कृति को पहुंचते-पहुंचते थोड़ा समय लगे, पर एक नयी शुरुआत तो हो चुकी है, वैकल्पिक राजनीति की. ठेठ गंवई भाषा में समझिए कि आज राजनीति है, क्या? जिस पिच या मैदान में, जिन शर्तो या स्व-स्थापित परंपराओं के तहत आज सभी बड़े या क्षेत्रीय दल राजनीति में सत्ता पाने का यह खेल, खेल रहे हैं, उस खेल के पारंपरिक नियमों को ही ‘आप’ ने बदलने की पहल की है. सभी दल, वाम से दक्षिण, क्षेत्रीय, हजारों-कई सौ करोड़ के चुनाव बजट रखते हैं. ‘आप’ के लोग अनैतिकता से नैतिकता की ओर जाना चाहते हैं. वे पाप की राजनीति से सात्विक राजनीति की ओर बढ़ना चाहते हैं. वे साधन नहीं, साध्य को महत्वपूर्ण मान रहे हैं. वे धनबल को और अपराध की ताकत को एक नयी मर्यादा और शुचिता से बदल रहे हैं. यह बिल्कुल एक नयी जमीन या पिच या खेल का मैदान है, जिस पर ‘आप’ की राजनीति टिकी है. दिल्ली में इसी नयी जमीन के ऊपर अब यह नया राजनीतिक मैच हुआ है, जिसमें कोई सरकार बनाने के लिए आगे नहीं बढ़ रहा. सब अपने-अपने सिद्धांत-आदर्श पर अड़े हैं, यह कितनी अच्छी बात है?

यह असाधारण उपलब्धि है. हम मान लें कि ‘आप’ का इस क्षण या चुनाव के बाद भविष्य नहीं है, तब भी ‘आप’ ने अपनी राजनीति से एक नये खेल की शुरुआत तो कर दी है. साफ -सुथरी राजनीति की संभावना को साकार कर दिया है. आज कंपटीटिव पॉलिटिक्स (स्पर्धात्मक राजनीति) का दौर है. यह क्या है? सहज और सरल शब्दों में समझें, तो ‘आप’ ने जिन शर्तों पर राजनीति शुरू की है, उन्हीं शर्तों पर अब कांग्रेस या भाजपा भी दिल्ली में राजनीतिक खेल के नियम मानने को बाध्य हो गये हैं. लोक-लाज से. अगर मौजूदा बड़े राजनीतिक दलों या क्षेत्रीय दलों का यह चरित्रगत बदलाव (दल तोड़ कर गंठबंधन की सरकार न बनाना वगैरह) दिखे, तो यह क्या कोई मामूली उपलब्धि है? आनेवाले दिनों में लोकसभा चुनावों में ‘आप’ के उदय के दबाव में अगर अच्छे लोगों को टिकट देने के लिए सभी दल बाध्य हो जायें, अपराधियों, बेईमानों, चरित्रहीनों, लॉबिंग या दलाली करनेवालों के टिकट हर दल में कटने लगें, पैसे के लिए देश बेच देने का काम करनेवालों को टिकट न मिले, पैसा लेकर संसद या विधानमंडलों में सवाल पूछनेवालों और पत्र लिखनेवालों के टिकट कटने लगें, तो 2014 के आम चुनाव में ‘आप’ को कामयाबी मिले या न मिले, ‘आप’ ने तो अपने उदय से एक बड़े फलक पर राजनीतिक संस्कृति के बदलाव का काम कर लिया.

आनेवाले दिनों में राज्यसभा में धनकुबेरों को टिकट देने में हिचक होगी या नहीं? धर्म और जाति के आधार पर अपराधियों को पालने-पोसने से सावधानी रहेगी? यह माहौल बनने की एक ही शर्त है, जनता का हमेशा चौकस रहना. ‘आप’ कोई बड़ी पार्टी बने या न बने, यह भविष्य की बात है.

पर ‘आप’ की राजनीतिक संस्कृति के दबाव के तहत, मौजूदा सारे बड़े दलों का चरित्र, कामकाज, आचरण, बात-व्यवहार थोड़ा भी बदल जाये, तो यह देश के लिए बड़ी उपलब्धि होगी. यह होगा कंपटीटिव राजनीति के कारण. देश में जो भी चाहते हैं कि राजनीति बदले, उनके लिए ‘आप’ की जीत एक सामूहिक विजय का क्षण है. अगर कोई अच्छे सिद्धांतों को लेकर कामयाब होता है, तो यह बड़ी प्रेरक चीज है. फिर खराब रास्ते पर चल कर राजनीति करनेवाले सचेत होंगे. राहुल गांधी ने कहा है कि वह ‘आप’ से सीखेंगे. ‘आप’ की संस्कृति से वह इस अर्थ में सीखें, तो बड़ी बात होगी. अगर जनदबाव होगा, तो बात बड़े दलों या छोटे दलों के सीखने या पालन करने की नहीं रहेगी, वे लोक-दबाव में बदलने के लिए बाध्य हो जायेंगे. दिल्ली में तीस फीसदी वोट ‘आप’ को मिले हैं.

हैदराबाद में भी एक लोकसत्ता नामक पार्टी बनी थी. 2009 में. उसको भी वहां दस फीसदी वोट मिले. इस तरह अब जाति में, धर्म में, समुदाय में, गोत्र में बांटनेवाली राजनीति या लोभ-लालच देकर खरीदनेवाली राजनीति के खिलाफ धीरे-धीरे लोग जाग और खड़े हो रहे हैं. ‘आप’ का तो खुलेआम नारा है कि हम समाज बांटनेवाली राजनीति और धनबल की राजनीति के खिलाफ हैं. ‘आप’ का उदय पूरे देश की मौजूदा राजनीतिक व्यवस्था को एक चुनौती है. यह प्रतीक है कि देश में बदलाव की एक बेचैनी है. राजस्थान, मध्यप्रदेश के मतदान बताते हैं कि मुसलमान, भाजपा को भी वोट दे रहे हैं. वे अब समझ रहे हैं कि बांटने की राजनीति ने देश को कहां पहुंचाया? इसलिए अब हर धर्म और जाति की आवाज धीरे-धीरे एक बन रही है कि एक बेहतर, पारदर्शी और अच्छी राजनीति इस मुल्क में चाहिए. ‘आप’ के मामूली कार्यकर्ताओं ने कांग्रेस के दिग्गज और महारथी नेताओं को हरा दिया. अरविंद केजरीवाल जब कहते हैं कि भ्रष्टाचार के खिलाफ जनता का यह आक्रोश है, तो बात समझ में आती है.

– 13.12.2013 की खबर है (टाइम्स ऑफ इंडिया) ग्लोबल फाइनेंशियल इंटीग्रिटी की रिपोर्ट (यह अंतरराष्ट्रीय वाचडॉग संस्था है) के आधार पर. दुनिया में गलत धंधों की सूची में भारत तीसरे नंबर पर आ गया है. इस रिपोर्ट के अनुसार, 2011 में भारत से लगभग चार लाख करोड़ रुपये ब्लैकमनी बाहर गयी है. 2010 के मुकाबले 24 फीसदी अधिक. 2002 से 2011 के बीच भारत से बाहर जानेवाली कुल ब्लैकमनी है, 15.47 लाख करोड़. 2011 में 4 लाख करोड़ की ब्लैकमनी गलत ढंग से बाहर ले जायी गयी. 2011 में भारत सरकार के कुल बजट खर्च (13 लाख करोड़) का यह लगभग एक -तिहाई है. उस वर्ष स्वास्थ्य मद पर भारत सरकार के द्वारा कुल खर्च का यह 14 गुना है. शिक्षा पर भारत सरकार द्वारा 2011 में हुए खर्च का यह सात गुना है. 2011 में ग्रामीण विकास मद में हुए खर्च का यह पांच गुना है.

याद करिए, इन्हीं कुछेक वर्षों में बड़े घोटाले इस देश में हुए. टूजी, कोलगेट, सिंचाई घोटाला, कामनवेल्थ खेल घोटाला वगैरह. अण्णा हजारे का आंदोलन इसी भ्रष्टाचार के खिलाफ था, जिसके गर्भ से आम आदमी पार्टी का जन्म हुआ. भ्रष्टाचार और ब्लैकमनी की इस राजनीति के विकल्प में ‘आप’ ने अपना राजनीतिक चरित्र ऊंचा कर एक नमूना पेश किया है. अगर जनदबाव रहा, तो इस रास्ते पर अन्य दलों को भी चलना होगा. दागियों को टिकट देना, शायद इस प्रक्रिया में रुके. इससे भारतीय राजनीति में चरित्र का जो संकट खड़ा हुआ है, शायद वह बेहतर हो.

दरअसल भारतीय राजनीति का असल संकट है, चरित्र का संकट. क्यों कांग्रेस की यह दुर्गति हो रही है? साल 2002 से 2011 के बीच भारत से अगर 15.7 लाख करोड़ रुपये ब्लैकमनी बाहर गयी, तो इसमें मुख्य कार्यकाल कांग्रेस का रहा है. एक छोटा दौर 2002 से 2004 एनडीए का रहा. क्या किया इस राजनीति ने इस चोरी को रोकने के लिए? आज आम आदमी महंगाई से कराह रहा है. गैस की कीमतें बढ़ रही हैं. सिलिंडर पर राशनिंग (सीमा) है. पेट्रोल-डीजल के भाव लगातार बढ़ रहे हैं. अगर यह सब अंतरराष्ट्रीय मजबूरी बतायी जाती है, तो ठीक है.

जनता यह झेल सकती है. पर यह जो 15.07 लाख करोड़ रुपये देश से बाहर गये, ब्लैकमनी के रूप में, अगर यह देश में होता, जनकल्याण में लगा होता, तो आज क्या हालात बेहतर नहीं होते? महंगाई की इस मार से लोगों को राहत नहीं मिलती? देश इस अर्थसंकट से नहीं बचता? डॉलर के मुकाबले रुपये की यह दुर्दशा होती? पर ऐसे सवाल राजनीति में मुद्दे रह ही नहीं गये हैं. अब अगर ऐसे सवाल राजनीति में निर्णायक मुद्दे बनते हैं, तो संभव है, देश बनाने की नयी राजनीति शुरू हो?

समाज-विज्ञानी दीपंकर गुप्ता कहते हैं कि इन चुनाव परिणामों से लगता है कि युवा मतदाता बड़े राजनीतिक दलों से कह रहे हैं कि आप जिस तौर-तरीके से काम करते हो, वह अब हमें पसंद नहीं. आपका दिखावा, तड़क-भड़क नहीं सुहाता. लाल बत्ती गाड़ी से हमें नफरत है. हम व्यवस्थागत परिवर्तन चाहते हैं. देश-दुनिया के जानेमाने समाजशास्त्री योगेंद्र सिंह कहते हैं कि राहत की राजनीति या खैरात की राजनीति, अब नयी पीढ़ी पसंद नहीं कर रही. मानसिक तौर से नयी पीढ़ी, अपनी मानसिक बुनावट में उद्यमी है. उसमें आत्मविश्वास है कि वह अपने बूते, सही अवसर व हालत हों तो, कुछ भी कर या पा सकती है.

इस नयी पीढ़ी के बारे में अन्य समाजशास्त्री कहते हैं कि नयी पीढ़ी सिद्धांत से नहीं चलती, वह व्यवहारवाद से प्रभावित है. यह पीढ़ी वैसे किसी आदमी के आसपास एकत्र होती है, जिसके बारे में लगता है कि वह कुछ कर सकता है. परफॉर्मर है. इस तरह ‘आप’ के असर से एक नयी राजनीति के संकेत दिख रहे हैं. संभव है, ‘आप’ का प्रयोग भी क्षणिक हो, पर एक बड़ी तसल्ली है कि ‘आप’ के उदय ने यह साबित कर दिया है कि लोगों के मन में बेहतर राजनीति की भूख मरी नहीं है. कुछ लोग ‘आप’ पार्टी के भविष्य को लेकर सवाल उठाते हैं.

वे तीस वर्ष पहले का, एनटी रामराव का उदाहरण देते हैं. उन्होंने तेलुगु देशम पार्टी बनायी. 29.03.1982 को. 09.01.1983 को भारी बहुमत से सत्ता में बैठे. कुछ दिनों बाद उनका अस्तित्व नहीं रहा. कांशीराम की पार्टी, बहुजन समाज पार्टी पहली बार हारने के लिए लड़ी. तत्कालीन स्थिर या जड़ सामाजिक-राजनीतिक समीकरण को प्रभावित करती हुई. दूसरी बार वह किंगमेकर की भूमिका में थी. तीसरी बार वह चुनाव में कामयाब हुई. इसी तरह असम गण परिषद के प्रफुल्ल महंत का प्रकरण है. पर इन सबसे भिन्न ‘आप’ पार्टी का उदय, राजनीति की यथास्थिति को बदलने के सपने के साथ हुआ है. यह दल राजनीति में एकाउंटबिलीटी की बात करता है.

इसका मकसद है, राजनीति के चरित्र को ऊपर उठाना. कुछ लोग कहते हैं कि जयप्रकाश आंदोलन में ईमानदार नेताओं के संघर्ष और परिश्रम से कुछेक अपवाद छोड़ कर भ्रष्ट नेता ही निकले. इस विश्लेषण में पड़ने की जरूरत नहीं. जयप्रकाश आंदोलन भी कांग्रेस की भ्रष्ट राजनीतिक संस्कृति के खिलाफ बदलाव की एक सशक्त आवाज था. किन्हीं कारणों से वह आवाज मंजिल तक नहीं पहुंची. पर पुन: मौजूदा परिस्थितियों में उसी आवाज को, एक मजबूत स्वर में पूरे देश को सुनाने का काम ‘आप’ के माध्यम से हुआ है. ‘आप’ के प्रयास ने दिखाया है कि राजनेता बिना भ्रष्टाचार किये, ईमानदारी से चुनाव फंड एकत्र कर राजनीति कर सकते हैं. बिना बड़े घरानों के पैसे के चुनाव जीता जा सकता है. कुछ ही दिनों पहले राबर्ट वाड्रा ने जिस दल को ‘मैंगो पीपुल’ (आम आदमी का मजाकिया अंग्रेजी तरजुमा) कहा था, आज उसकी ताकत बिना कहे उनके कानों में गूंज रही होगी.

देश में जो नयी राजनीतिक आकांक्षा करवट ले रही है, जिसमें बेहतर गवर्नेस, ईमानदार राजनेताओं और अच्छी-सक्षम व्यवस्था की परिकल्पना की चाहत या भूख है, उसे बढ़ाने का काम ‘आप’ ने किया है. आज कांग्रेस एक बिखरती हुई, भ्रष्ट और अक्षम व्यवस्था की प्रतीक बन गयी है. जो दल भी अब इस रास्ते पर चलने की कोशिश करता दिखेगा, उसका हश्र यही होगा. राहुल गांधी ने हार के दिन कहा था कि वह कांग्रेस को बदल देंगे. उस तौर-तरीके से या उस तरह, जिसकी परिकल्पना लोगों को नहीं होगी. पर फिलहाल कोई संकेत तो नहीं दिख रहा.

– 13.012.13 की ही खबर है कि उत्तराखंड की कांग्रेस सरकार ने योगगुरु बाबा रामदेव के पतंजलि योग ट्रस्ट के खिलाफ ग्यारह नये मामले दर्ज किये हैं. इन मामलों को जोड़ कर पिछले एक महीने के दौरान, बाबा रामदेव के विभिन्न ट्रस्टों के खिलाफ दर्ज मामलों की संख्या 96 हो गयी है. यह बदले की राजनीति, कांग्रेस को कहां ले जायेगी? कांग्रेस को अब भी यह एहसास नहीं. बाबा रामदेव अगर गलत हैं, तो पहले भी रहे होंगे. उनका कामकाज, कारोबार या आश्रम आज नहीं बना. जब बना, तब भी उत्तराखंड में कांग्रेस का राज था. केंद्र का वरदहस्त था. उनकी प्रतीक्षा में यूपीए सरकार के बड़े-बड़े पांच-छह मंत्री एयरपोर्ट पर खड़े रहते थे. तब रामदेव के सभी काम पूज्य थे और आज वही काम पाप हो गये है.

क्योंकि वह कांग्रेस या सोनिया गांधी के खिलाफ हैं. सत्ता का इस्तेमाल निजी द्वेष, दुश्मनी के लिए हो, यह कांग्रेस की संस्कृति रही है. इसलिए देश में बदलाव की एक नयी बयार बह रही है. मैनेजमेंट के बड़े-बड़े नाम इसे मार्केटिंग संदर्भ में समझ नहीं पा रहे हैं कि कैसे एक साल में किसी एक दल को तीस फीसदी वोट मिल गये? दरअसल, यह सब इस तरह की राजनीति का परिणाम है, जहां बदबू देता भ्रष्टाचार है. गवर्नेस ध्वस्त है. इंफ्रास्ट्रक्चर का संकट है. जातिगत समीकरणों का आतंक है. गुटबाजी है. राशन कार्ड, ड्राइविंग लाइसेंस जैसी छोटी चीज पाने में जो हालत है, दवा, चिकित्सा, शिक्षा की समुचित व्यवस्था नहीं, नक्सलवाद का भय है. आतंकवाद का साया अलग.

दरअसल, ‘आप’ का उदय इस तरह की सड़ चुकी राजनीति के खिलाफ लोगों की कराह का प्रस्फुटन है. इसका भविष्य जो भी हो, पर इसके उदय ने एक आशा भरी स्थिति पैदा की है कि हालत बदले जा सकते हैं. पर ‘आप’ के लिए ‘अग्निपरीक्षा’ अब है. कांग्रेस ने चतुराई से दावं खेला है. बिना शर्त समर्थन देन का. भाजपा भी इस स्थित में नहीं है कि वह ‘आप’ की सरकार (अगर बनती है, तो) गिरा सके. संघर्ष, सिद्धांत एक पक्ष है. उससे भी महत्वपूर्ण है, सत्ता हाथ में लेकर किये गये वादों को पूरा करना. असल परीक्षा तो तब है, जब ‘आप’ पद पर रहते हुए अपने आदर्शों को जी सके और चुनावी वादों को पूरा कर सके.

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