‘आप’ का उत्तरार्ध (यानी जीत के बाद) !

-हरिवंश- ‘आप’ यानी आम आदमी पार्टी का पूर्वार्ध (दिल्ली विधानसभा चुनाव जीत से पहले का दौर) शानदार है. यह व्यवस्था, विरोध का प्रतीक है. एंटी-इस्टैब्लिशमेंट. परंपरागत राजनीति की धारा का संपूर्ण नकार. पुरानी राजनीतिक संस्कृति के लिए अचानक पैदा हुई स्तब्धकारी चुनौती. इसलिए कांग्रेस अधिक बेचैन है. क्योंकि देश की परंपरागत राजनीति का स्रोत वही […]

By Prabhat Khabar Digital Desk | December 21, 2013 4:00 AM

-हरिवंश-

‘आप’ यानी आम आदमी पार्टी का पूर्वार्ध (दिल्ली विधानसभा चुनाव जीत से पहले का दौर) शानदार है. यह व्यवस्था, विरोध का प्रतीक है. एंटी-इस्टैब्लिशमेंट. परंपरागत राजनीति की धारा का संपूर्ण नकार. पुरानी राजनीतिक संस्कृति के लिए अचानक पैदा हुई स्तब्धकारी चुनौती. इसलिए कांग्रेस अधिक बेचैन है. क्योंकि देश की परंपरागत राजनीति का स्रोत वही है. कांग्रेस ने अपने कामकाज से ऐसी संस्कृति, राजकाज की शैली और राजनीतिक माहौल बनाया, जिसके गर्भ से निकली हैं, आज की परिस्थितियां, चुनौतियां और संकट. बात-व्यवहार में, चुनाव लड़ने में, राजकाज चलाने में, कांग्रेस ने जिस संस्कृति को जन्म दिया, लगभग सारे दल उसी संस्कृति के शिकार हुए.

वही आलाकमान. वही परिवारवाद. अपवाद जरूर हैं, पर मुख्यधारा नहीं. इसलिए भारत के सभी गैर-कांग्रेसी दलों की संस्कृति अंतत: आचरण में, कामकाज में, बात-व्यवहार में, शासन में, कांग्रेसी ही रही. पर ‘आप’ की उपज, कांग्रेस की परंपरा के विपरीत है. इसलिए ‘आप’ को यह व्यवस्था (इस्टैब्लिशमेंट) सोखने की कोशिश करेगी. मिटाने की कोशिश करेगी. पर ‘आप’ को, खुद को रिडिफाइन (पुनर्परिभाषित) करना होगा कि वे चाहते क्या हैं? क्या भारत के पॉलिटिकल इस्टैब्लिशमेंट के तौर-तरीके, अपनाना चाहते हैं? या उसे बदलना चाहते हैं? अगर ‘आप’ बदलने की संस्कृति पर चलती है, तो वह इतिहास बनायेगी. अन्यथा वह इतिहास का बीता अध्याय होगी. भाजपा के पूर्व अध्यक्ष नितिन गडकरी ने ‘आप’ को ‘दक्षिणपंथी माओवादी’ की संज्ञा दी है. दरअसल, परंपरागत राजनीतिक विजन या दृष्टि से ‘आप’ को नहीं आंक सकते? राजनीति में आने के पहले, वर्ष 2012 में केजरीवाल ने एक पतली किताब लिखी, स्वराज : पावर टू द पीपुल (स्वराज : सत्ता जनता के पास). यह पठनीय पुस्तिका है. इसमें केजरीवाल ने भारतीय राजनीति और गवर्नेस के बारे में लिखा है. मूल सवाल है कि उनकी ये योजनाएं कितनी व्यावहारिक हैं?

जब दुनिया में विचार, राजनीति और समाज को बदल रहे थे (18वीं, 19वीं और 20वीं शताब्दी), तब अनेक विचारकों ने लगातार बदलाव की परिकल्पना की. रोजा लग्जमबर्ग से लेकर, बाद के अनेक विचारकों-राजनीतिक स्वप्नदर्शियों ने. साम्यवाद के दौर में लियोन ट्राटस्की महान सिद्धांतवादी माने गये, जिन्होंने सतत क्रांति की परिकल्पना की. एक कम्युनिस्ट नेता के रूप में अत्यंत निर्मम और निरंकुश भी. पर रूसी क्रांति से तीन धाराएं निकलीं. लेनिन, ट्राटस्की और स्टालिन की. लेनिन के न रहने पर स्टालिन ने सबको कुचल दिया. ट्राटस्की भी हालात का आकलन न कर सके. वह भी खत्म कर दिये गये. इस तरह व्यवस्था में जयप्रकाश जी ने भी संपूर्ण क्रांति की परिकल्पना की. लोहिया से सतत क्रांति की बात की. इससे भी पहले गांधी ने हिंद स्वराज में एक नयी व्यवस्था की परिकल्पना की, मौजूदा व्यवस्था को संपूर्ण रूप से नकार कर. पर स्पष्ट होना है कि केजरीवाल अपने विचारों से किस रास्ते जाना चाहते हैं? क्या वह लोकतंत्र में एक नया प्रयोग करेंगे. 280 जनसभाएं कर. लाखों एसएमएस मंगा कर.

रचें नयी राजनीतिक संस्कृति !

फिर सवाल उठेगा कि चुनावों में मिले परिणाम का क्या हुआ? क्या इस चुनाव से जो बहुमत आपको मिला, उसमें लोकमत नहीं दिखायी देता या आप इसे नहीं मानते? क्या एसएमएस से, फोन पर राय लेने से चुनावों के विपरीत अगर सुझाव आते हैं, तो आप क्या करेंगे? ऐसी स्थिति में सवाल उठेगा कि फिर आप चुनाव में क्यों उतरे? वह कह रहे हैं, मोहल्ला समितियां बनायेंगे, वहां फैसला होगा कि कैसा विकास चाहिए?

कैसा बजट होगा? किस चीज पर खर्च होगा? उनकी पार्टी की राजनीतिक सोच-संस्कृति क्या होगी? सर्वोदय के दिनों में विनोबा भावे, धीरेंद्र मजूमदार और दादा धर्माधिकारी ने भी ऐसी ही परिकल्पना की थी. गांधी का ग्राम स्वराज कुछ इसी रास्ते पर था. उनके अनुयायी दार्शनिक जेसी कुमारप्पा ने तमिलनाडु में इस पर प्रयोग भी किया. पर आज के राजनीतिक ढांचे में क्या ये चीजें संभव हैं? भाजपा-कांग्रेस जब उन पर आरोप लगाते हैं कि चुनाव के बाद वे पुन: जनता के बीच सरकार बनाने के मुद्दे पर रायशुमारी क्यों कर रहे हैं? (सूचना है कि अब तक पांच लाख एसएमएस आ चुके हैं, 19.12.13 की शाम तक) क्या बार-बार बड़े सवालों पर यही पद्धति चलेगी, तो सरकार काम कैसे करेगी?

अरविंद केजरीवाल ने इस प्रयोग का जवाब तो बढ़िया दिया कि कांग्रेस हर बात के लिए 10, जनपथ जाती है, भाजपा नागपुर, तो हम जनता के बीच जाकर क्या गलत कर रहे हैं? पर यह तर्क की लड़ाई नहीं है. ‘आप’ को इस राजनीतिक रास्ते से नयी राजनीतिक संस्कृति विकसित कर इन स्थापित दलों के पाखंड को चुनौती देनी है. बिना काम किये एक भिन्नतर शासन- कामकाज और रहन-सहन में, साबित करना कठिन है. ‘आप’ व्यवहार के जीवन में भी भिन्न है, यह कैसे साबित होगा? भारत में लोकतंत्र का अपना स्वरूप रहा है, लिच्छवी और वैशाली गणराज्यों में. जहां लोग सामूहिक रूप से बैठ कर मशविरा करते थे और हल निकालते थे. एक मत से. एक जगह भगवान बुद्ध ने एक बार कहा था कि जब तक लिच्छवी के लोग सामूहिक सन्निपात (बैठक) करते हैं, वे मजबूत बने रहेंगे. पर यह एक नया राजनीतिक दर्शन है. क्या केजरीवाल इस नये दर्शन पर चलना चाहते हैं? यह और ऐसे अनेक सवाल उन्हें स्पष्ट करने होंगे. प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने कांग्रेस के आला नेताओं की बैठक में (18.12.2013 को) चुटकी लेते हुए कहा कि नेताओं को वादा करने के पहले सोचना चाहिए.

‘आप’ पर यह व्यंग्य था. चुनाव घोषणापत्र में केजरीवाल या ‘आप’ के अनेक वादे, मुफ्त पानी, बिजली बिल में कटौती, एक ही बार में अनाधिकृत कॉलोनियों का नियमितीकरण वगैरह मौजूदा व्यवस्था के व्याकरण में स्तब्धकारी हैं. सही अर्थ में कुछ हद तक अव्यावहारिक और नौसिखियों की घोषणा जैसे. पर संभव है केजरीवाल और उनके मित्रों ने इस पर काफी काम किया हो. उनके लिए अवसर है कि अब वह सत्ता में आकर काम भले पूरा न करें, पर अपने काम की झलक तो दिखायें? ‘आप’ का पूर्वार्ध व्यवस्था के लिए शानदार चुनौती है. पर ‘आप’ का उत्तरार्ध भी एक आईना बने, इसके लिए जरूरी है कि ‘आप’ जानते हुए भी कांग्रेस के जाल में फंसे? कांग्रेस, मंजी पार्टी है. वह साम, दाम, दंड, भेद की नीति की माहिर है. उसने खूबसूरती से बिना शर्त-समर्थन का जाल फेंका है.

यह ऐसा जाल है, जिसमें खतरे जानते हुए भी केजरीवाल को फंसना पड़ेगा. अगर नहीं फंसते हैं, तो वह रणछोड़ माने जायेंगे. गंभीर आरोपों की बौछार आयेगी कि ‘आप’ वादे करना जानती है, सत्ता चलाना नहीं. ‘आप’ को सत्ता का अनुभव नहीं है. इसलिए केजरीवाल को कांग्रेस के जाल में घुस कर, खुद को मुक्त करना होगा. उस कांग्रेसी जाल को काटना होगा. राजनीति में वह नयी उम्मीद जिंदा रखने के लिए, जो उन्होंने पूरे देश में पैदा की है. यह सही है कि कांग्रेस, राजनीतिक दावं-पेच की माहिर खिलाड़ी है. उसके साथ राजनीतिक शतरंज खेलने में दिग्गज उखड़ गये, पर अरविंद केजरीवाल, समझ-बूझ कर इस द्वंद्व में उतरे. फिर वह पूरी व्यवस्था के लिए चुनौती बन गये हैं. उनका यह तर्क सही है कि कांग्रेस भरोसेमंद नहीं है. राजीव गांधी के घर पर हरियाणा सरकार ने दो सिपाही बैठा दिये, इसलिए कांग्रेस ने चंद्रशेखर सरकार, गिरा दी.

जबकि उनके बाद सभी पूर्व प्रधानमंत्री और उस वक्त के जानकार बताते रहे हैं कि चंद्रशेखर सरकार रहती, तो अयोध्या का मसला हल हो गया होता, आतंकवाद पर अंकुश लगा होता. 1991 के आर्थिक संकट से तो वही सरकार निबटी. पर कांग्रेस देशहित से अधिक निजी हित देखती है, और इसी संस्कृति को अब सभी दलों ने अपना लिया है. किसी दल का कोई नेता पहले देश, समाज या अपने दल के बारे में नहीं सोचता, अपने और अपने परिवार के बारे में सोचता है. फिर अपने वोट बैंक के बारे में. केजरीवाल यह फर्क जानते हैं. वह चाहें, तो कांग्रेसी संस्कृति या चिंतन की इस जमीन से ‘आप’ की राजनीति को दूसरे मैदान में ले जा सकते हैं. क्योंकि अन्य सभी दलों ने तो कांग्रेसी संस्कृति ही अपना ली है. वही परिवारवाद, अपना दल, जाति-धर्म, वोट बैंक और अपनी कुरसी. देश, किसी के एजेंडे में है ही नहीं. इसलिए नयी राजनीति शुरू करने के लिए केजरीवाल को कुछेक महीनों के लिए सत्ता में बैठ कर इन दलों को एक्सपोज करना ही चाहिए.

अंतत: राजनीति महज कल्पना नहीं है. यह सपना या मायालोक भी नहीं है. यह जीवन का यथार्थ है. सत्ता में बैठते ही केजरीवाल पहला काम करें कि वह और उनके साथी घोषित कर दें कि वह अपने-अपने घरों में ही रहेंगे. दिल्ली की बस और मेट्रो या अपनी-अपनी मामूली निजी गाड़ियों से ही यात्रा करेंगे. न सुरक्षा, न बड़ी गाड़ियां, न बड़े तामझाम, न सायरन, न सत्ता का अहंकार, न आगे-पीछे दलालों की फौज. फर्ज करिए, दिल्ली (देश की राजधानी) में बैठ कर अगर मुख्यमंत्री के रूप में केजरीवाल और उनके सहयोगी मंत्री, आम आदमी जैसा रहने, चलने और काम करने लगते हैं, तो देश के मानस पर इसका क्या असर पड़ेगा? इस नये व्यवहार से परंपरागत राजनीति और राजनीतिक सोच-चिंतन की चूलें हिल जायेंगी. याद रखिए, लोकलाज और जनदबाव के कारण कांग्रेस इतनी जल्दी अपना समर्थन भी वापस नहीं ले सकती. फिर सरकारी कामकाज की संस्कृति पर केजरीवाल और उनके चिंतन-मनन करनेवाले परदे के पीछे के साथी काम करें.

वह कह रहे हैं कि दिल्ली सरकार में शीला दीक्षित सरकार के पाप और दिल्ली नगर निगम में भाजपा के पापों (भ्रष्टाचार) की समयबद्ध जांच करायेंगे और बिना राग-द्वेष, भ्रष्टों को जेल भेजेंगे. तीन-चार महीने में भी कुछ भ्रष्टाचारी जेल गये, तो केजरीवाल या ‘आप’ पार्टी को देश में संगठन बनाने की जरूरत नहीं पड़ेगी. लोग उनकी प्रतीक्षा में खड़े मिलेंगे. इसके बाद वह शासक और शासित के बीच इस लोकतंत्र में भेद मिटाने में लगें. लाल बत्ती, विशिष्टता को त्याग कर. सामान्य आदमी की तरह रहन-सहन, औसत वेतन-भत्ता अपना कर. फिर यह तय करें कि मुख्यमंत्री समेत सभी मंत्री अपने-अपने विभाग या कामकाज के क्षेत्र में कंपनी के एक सीइओ या एक किसान के नफा-नुकसान की तरह काम करेंगे.

जो भी काम हाथ में है, उस काम में टर्नओवर अगर दस रुपये का है, तो उसको सौ रुपये तक ले जायेंगे. समयबद्ध लक्ष्य और उसकी प्राप्ति की कोशिश करेंगे. अगर रोजगार एक व्यक्ति को मिला है, तो हम हजारों, लाखों तक कैसे रोजगार पहुंचायेंगे? यानी हर मंत्री कर्मयोगी बन जाये. अपने अपने विभाग या क्षेत्र में. नयी कार्यसंस्कृति से बड़ा बदलाव दिखायें. जरूरी नहीं कि वह दो-चार महीनों में बड़ा बदलाव करें. महीने, दो महीने में बड़े बदलाव की दिशा में एक सार्थक कदम भी देश में एक नयी उम्मीद, एक नया माहौल पैदा करेगा. मुक्तिबोध ने लिखा था कि एक पांव रखता हूं, हजार राहें फूट पड़ती हैं. फिर इसी तरह नौकरशाही स्तर पर बड़ा बदलाव केजरीवाल की सरकार (अगर बनती है, तो) शुरू करे. वह महज यह करे कि ईमानदार अफसरों को संरक्षण दे. सुप्रीम कोर्ट के नियमानुसार तीन वर्ष से कम समय में तबादला न करे. साथ ही भ्रष्ट नौकरशाही पर कहर के रूप में काम करे.

आज सरकारी नौकरी में एक बार आ गये, तो वह पारिवारिक पूंजी बन जाती है. आप अक्षम हों, अकर्मण्य हों, बोझ हों, भ्रष्ट हों, फिर भी सरकारी नौकरी में बने रहते हैं, क्यों? क्या किसी निजी कंपनी में यह संभव है? यह सही है कि राज्य सरकार केंद्रीय सेवाओं की आचार संहिता में फेर-बदल का अधिकार नहीं रखती. पर वह नीति बना कर केंद्र सरकार को कठघरे में खड़ा कर सकती है कि भ्रष्ट, नॉन-परफार्मर और बोझ बने लोगों को हम ढोने को तैयार नहीं! ऐसे लोगों की पहचान कर, सूची बना कर दिल्ली सरकार केंद्र सरकार के गृह मंत्रालय के पास ऐसे अफसरों को लौटा दे कि ऐसे काहिलों की फौज आपको ही मुबारक! अगर दिल्ली सरकार लाखों का वेतन-सुविधा इन अफसरों को देती है, तो उसके बदले सक्षम, अच्छा काम करनेवाले अफसर हमें चाहिए! दक्ष लोग चाहिए, जो रिजल्ट दे सकें. अगर केजरीवाल की सरकार यह कदम उठा लेती है, तो सोचिए पूरे देश में इसका क्या असर होगा? इसी तरह न्याय के मामले में सरकार नया माहौल बना सकती है.

फर्ज करिए, दिल्ली सरकार यह परिकल्पना करे कि हम अदालतों की संख्या और बढ़ा देंगे. सिर्फ बलात्कार के मामलों में ही नहीं, सभी तरह के अपराध और आतंक से जुड़े मामलों का समयबद्ध फैसला होगा. हर अपराधी दंडित होगा. न्यायालयों में वर्ष-डेढ़ वर्ष से अधिक पेंडिग मामले नहीं रहेंगे. इस व्यवस्था में जो काबिल, योग्य और परफार्मर अफसर हैं, ईमानदार लोग हैं, उन्हें हर तरह का संरक्षण होगा. बेईमानों की फौज और दलालों की टोली, उनके तबादले नहीं करा पायेगी. दिल्ली सरकार से यह संदेश निकलने दीजिए, देखिए क्या नयी संभावना देश में जन्मती है? दरअसल, आज के शासक पराश्रित हैं. वे सुख-भोग की राजनीति करते हैं. यह प्रिविलेज्ड क्लास है. समाज का पैरासाइट (पराश्रित) वर्ग, विशिष्टता के बोध के साथ जीता है. इस मानस पर चोट करने की स्थिति में आज केजरीवाल हैं. वह फिल्म ‘नायक’ में एक दिन के लिए मुख्यमंत्री बने अनिल कपूर की तरह काम कर पूरी राजनीति को झकझोर सकते हैं.

दंभ की राजनीतिक संस्कृति, अहंकार के राजनीतिक मानस के समानांतर एक सभ्य, अनुशासित, मर्यादित, राजनीतिक संस्कृति विकसित करने का यही सबसे उपयुक्त समय है. गोपालकृष्ण गांधी (महात्मा गांधी के पोते और राजगोपालाचारी के नाती, महान विचारक, टिप्पणीकार, पूर्व राजनयिक और बंगाल के पूर्व राज्यपाल) ने हाल में हिंदुस्तान टाइम्स (14.12.2013) में एक अद्भुत लेख लिखा, वाचिंग एवरी स्टेप यू टेक (आपके एक -एक कदम पर निगाह). वह मानते हैं कि ‘आप’ ने चुनावी राजनीति में घुस कर जनदायित्व संभाला है. एकाउंटेबुल बनी है. अब वह लोगों द्वारा आलोचनात्मक मूल्यांकन का पात्र भी है. अत्यंत मर्मस्पर्शी ढंग से गोपालकृष्ण गांधी ने इस टिप्पणी में अपना एक ताजा अनुभव लिखा है.

याद करिए, महात्मा गांधी उनके बाबा तथा राजगोपालाचारी नाना थे. वर्षों पहले उन्हें बंगाल के राज्यपाल के रूप में अड्यार समुद्र तट (चेन्नई) पर अकेले सुबह की सैर करते देखा था. बहुत देर तक खड़ा देखता, सोचता रहा कि जिस व्यक्ति की जड़ें महात्मा गांधी, राजगोपालाचारी में हैं, जो गवर्नर है. खुद बड़ा लेखक , विचारक व राज्यपाल. वह कितना सरल, सामान्य व साधारण भी है. वह कहते हैं कि हाल में दिल्ली के एक जहाज से चेन्नई आया. अन्य यात्रियों के साथ अपना सामान लेने मैं भी बैगेज चैनल के पास गया. मेरी निगाह एक हट्ठे-कट्ठे राजनीतिज्ञ पर पड़ी. वह मेरे सामने तन कर गया. इस दृश्य के लिए वह सही शब्द बताते हैं, स्वेग्रिंग (अकड़ कर चलना, ऐंठ कर चलना, यानी अकड़बाज, बड़बोला या शेखीबाज). उस नेता के आगे एक हथियारबंद सुरक्षा प्रहरी था और पीछे दूसरा हथियारबंद सुरक्षा प्रहरी. उसके बगल में दो खुशामदी चापलूस भी थे. ईश्वर को ही पता होगा कि इन दोनों को कैसे पास मिल गया कि वे टर्मिनल तक पहुंच गये, उक्त राजनेता के हाथ का सामान ढोने के लिए? जैसे-जैसे यह छोटा जुलूस आगे गया, एयरपोर्ट पर तैनात पुलिस के जवानों ने उस नेता को सैल्यूट किया. अन्य यात्रियों के बीच उनके लिए जगह बनायी. अन्य दर्शक यात्री या तो परेशान थे या चिढ़े हुए. यह राजनीतिज्ञ नौजवान था. उसके अंगरक्षक और चापलूस, उससे भी अधिक नौजवान. वह नेता अपना सामान खुद ढो सकता था.

चाहता तो अपने साथ के बुजुर्ग यात्रियों की मदद कर सकता था. लेकिन नहीं, वह तो राजनेता था. एक ताकतवर राजनेता. पर ये उसका अधिकार है. उसका विशेषाधिकार कि उसे एस्कॉर्ट के साथ ले जाया जाये. उसकी पहरेदारी हो. व्यवस्था उसकी आवभगत करे. उस नेता को आसपास के माहौल में कोई रुचि, दिलचस्पी नहीं थी. जिन लोगों को ठेल कर वह आगे जा रहा था, उस जनता में भी उसकी दिलचस्पी नहीं. उसके लिए कुछ भी महत्व नहीं रखता था, सिवाय खुद के. दिखाने के लिए वह रिपब्लिकन (आम आदमी) हैं, पर असल में वह ‘राजा’ है. (बिना नाम लिये बहुत सुंदर तरीके से गोपालकृष्ण गांधी ने संकेत दे दिया कि यह राजनीतिज्ञ 2जी घोटाले के आरोपी ए राजा ही रहे होंगे. पर बिना नाम बताये भी प्रजा, जिसे एयरपोर्ट पर ठेल कर वह आगे जा रहे थे, उसके राजा वह थे. यह हमारा नया लोकतंत्र है!).

कुछ ही घंटों बाद गोपालकृष्ण गांधी को उसी दिन चेन्नई के एक कॉलेज में जाना पड़ा. कला, नृत्य और संगीत के लिए इस कॉलेज की स्थापना रुकमनी देवी आरुणडेल ने की थी. वहां गोपालकृष्ण गांधी को जापान के महाराजा और महारानी का स्वागत करना था (याद रखिए, वे हाल ही में भारत आये थे). गोपालकृष्ण गांधी कहते हैं, जैसे ही महाराजा और महारानी अपनी गाड़ी से उतरे, उन्होंने वहां के लोगों को बहुत मुस्करा कर, झुक कर नमस्कार किया. गर्मजोशी से हाथ मिलाया. आसपास खड़े लोगों से मिलते हुए आगे बढ़े. उनके कामकाज के बारे में पूछते रहे. वहां के छात्र, जो वीणावादन कर रहे थे, उन्हें देख महारानी अभिभूत हो गयीं. बच्चों से वह पूछने लगीं कि आपको इसे सीखने में कितना समय लगा? यह वीणा बनी कैसे? इस संदर्भ में भी जानकारी ली कि यह सितार से कैसे भिन्न है? कला क्षेत्र के लड़कों ने मोहक नृत्य, संगीत पेश किया. फिर उन्होंने कहा कि कलाकारों को हमारा आभार और उनके काम के प्रति बहुत प्रशंसा. महारानी ने चलते हुए दृष्टिहीन बांसुरी-वादक शशिधर को देखा. उसका हाथ अपने हाथ में लेकर बोलीं, ‘‘आपके संगीत के लिए आपको बहुत-बहुत धन्यवाद. हम जापान मुल्क से हैं.’

संगीत कॉलेज छोड़ते हुए, दरवाजे पर उन्होंने कोलम (दक्षिण भारत के घरों में प्रवेश द्वार पर यह रंगोली जैसी कलाकृति बनायी जाती है) देखी. एक महिला, जो यहां की स्टाफ नहीं हैं, उन्होंने इसे बनाया था. पर उनके हाथों में जादू है. महाराजा और महारानी वहां थथम (ठहर) गये. कहा, सुंदर कलाकृति पर हम पैर रखना नहीं चाहते. इसको पार करना नहीं चाहते. महारानी ने कहा, कितना सुंदर है! महारानी यह कलाकृति बनानेवाली से मिलीं. रंग को छुआ. महारानी ने उस महिला कलाकार का हाथ, अपने हाथ में लेकर अत्यंत शालीनता और मर्यादा से कहा कि बहुत-बहुत धन्यवाद. ऐसा बरताव करनेवाले जापान के महाराजा-महारानी थे, पर असल में वे प्रजा थे. अपने व्यवहार, शालीनता और बातचीत में.

फिर गोपालकृष्ण गांधी कहते हैं कि कुछ खास वर्ग के नौकरशाह पहले सोचते थे कि वे स्वर्ग में जन्मे हैं. भारतीय रजवाड़े और उनकी पीढ़ियां समझती थीं कि उनमें ईश्वर का अंश है. बड़े धनपति थे, वह महसूस करते थे कि वे प्रकृति के चुनिंदा इंसान हैं. अब लोकतंत्र में चुने गये राजनीतिज्ञ (अपवाद छोड़ कर) यही बोध पाले हुए हैं. आज के भारत में शासक -नेता आत्ममोह, आत्मकेंद्रित, आत्म-महत्व और खुद को महान साबित करने के मानस से ग्रस्त हैं. इस मानस के कारण और अपने भ्रष्ट तौर-तरीकों की वजह से आज लोग इन नेताओं से नफरत करते हैं.

आज इन राजनेताओं के खिलाफ लोगों के मन में विद्रोह है. दिल्ली में आम लोगों ने एक पाठ पढ़ाया है. किसी इस या उस राजनीतिक दल को नहीं, भारत की सबसे पुरानी पार्टी को, जो हाशिये पर है. उसको ऐसा पाठ लोगों ने पढ़ाया कि उसे याद रखना चाहिए. लोगों ने ‘आप’ के माध्यम से संदेश दिया है कि मौजूदा सरकारें कैसे लोगों की परवाह नहीं करतीं. वे कठोर, बेदर्द और निर्दयी हो गयी हैं. वे सिर्फ सत्ता के खेल में डूबी हैं. ये राजनेता, जो सिर्फ अपने लिए जीते हैं, उनके लिए संदेश यह है कि अब बहुत दिनों तक भारतीय वोटरों को नहीं ठगा जा सकेगा. जब शांत आदमी का गुस्सा फूटता है, तो आफत आती है. गोपालकृष्ण गांधी के अनुसार दीवान-ए-आम यानी ‘आप’ द्वारा दीवान-ए-खास यानी सत्ता वर्ग को नोटिस मिल गया है.

दरअसल, यह मौका है ‘आप’ के लिए कि वह सत्ता में आकर इस अहंकारी-आत्मकेंद्रित-बड़बोली राजनीति के खिलाफ एक शालीन राजनीति करे. नेताओं का अहंकार आज सार्वजनिक जीवन में कहा पहुंच गया है? यह देख कर नफरत होती है. एक नेता जेल से निकले. पूरा देश उनके अहंकार और दंभ को देख रहा है. वह पूरे देश को शिक्षा दे रहे हैं कि जो जेल नहीं गया, उसका जीवन व्यर्थ. यानी लोग अपराध करें, जेल जायें. पुलिस के बड़े अफसर ऐसे लोगों का पैर धोते हैं. सार्वजनिक रूप से चप्पल पहनाते हैं. एक उत्तर प्रदेश की पूर्व मुख्यमंत्री हैं.

उनको भी एक बड़े पुलिस अधिकारी चप्पल पहनाते देखे गये थे. इन सबकी राजनीतिक पूंजी है, दलित-पिछड़ा वोट बैंक. पर ये सब विचार से, मानस से, रहन-सहन से घोर सामंती हैं. इस सड़ चुकी राजनीति के विकल्प में एक शालीन राजनीति की जन्मदाता ‘आप’ सरकार में बैठ कर, कुछ महीनों के लिए भी एक नयी लकीर खींचे, तो भारतीय इतिहास में उसने अपनी भूमिका पूरी कर ली. सरकार के खजाने से आज के राजनेता चाहे वे पद पर हों न हों, पांच सितारा जीवन जीते हैं. बिना श्रम-परिश्रम किये. उनके बदले एक शालीन राजनीति का उदय आज वक्त की मांग है. चूंकि अरविंद केजरीवाल और उनके साथ के लोग युवा हैं, उनकी लोकप्रियता है.

अगर वे नयी राजनीतिक संस्कृति (सायरन लेकर गाड़ी चलानेवाली नहीं) के प्रतीक बनते हैं, तो एक बड़ा संदेश देश के युवाओं में फैलेगा. फिर यह देश के जीवन में असर डालेगा. देश में अभी ऐसे कुछ राजनेता हैं, जो प्रेरक हैं. मसलन, त्रिपुरा के मुख्यमंत्री माणिक सरकार. वह भारत के सबसे गरीब मुख्यमंत्री हैं. उन्हें इस बात का फख्र है (देखें – हिंदुस्तान टाइम्स 18.12.13). वह कहते हैं, जब मैं अपनी आर्थिक स्थिति की ऐसी खबरें पढ़ता हूं, तो मुझे आनंद आता है. अगर लोग सचमुच इसके बारे में बात करते हैं, तो अच्छा लगता है. माणिक सरकार की निजी संपत्ति (चल-अचल मिला कर) की कीमत महज ढाई लाख रुपये है. देश के कुछ मुख्यमंत्रियों या पूर्व मुख्यमंत्रियों की अकूत संपत्ति के सामने माणिक सरकार के पास कुछ भी नहीं है. वह चार बार त्रिपुरा के मुख्यमंत्री रहे. पिछले विधानसभा चुनावों में उनके पास नकद 1080 रुपये थे. उनके बैंक खाते में 9720 रुपये थे. वह इतने साफ-सुथरे और जीवन में गांधीवादी हैं कि भ्रष्टाचार के इस माहौल में वह विलक्षण लगते हैं. वह अपनी इस सादगी और ईमानदारी का श्रेय अपनी पार्टी माकपा को देते हैं. अगर नयी पीढ़ी में सादगी और ईमानदारी ‘आप’ अपनाती है, तो देश की राजनीति ‘आप’ बदल सकती है.

लंदन स्कूल ऑफ इकनॉमिक्स में प्रोफेसर और जाने-माने लेखक सुमंत बोस की भविष्यवाणी है (देखें- इकनॉमिक टाइम्स 19.12.13) कि नेहरू परिवार गिराव पर है. मोदी की कोई हवा नहीं बनी है. ऐसे माहौल में अगर ‘आप’ एक नयी राजनीतिक संस्कृति को जन्म देती है, तो वह देश के भविष्य के लिए एक अद्भुत चीज होगी.

सत्ता में बैठ कर ‘आप’ उन मुद्दों पर देश में नये सिरे से बहस शुरू कर सकती है, जो देश के असल मुद्दे हैं, जिन पर आज कोई बात करने को तैयार नहीं है. पर ये मुद्दे ऐसे हैं, जो भारत का भविष्य तय करनेवाले हैं. मसलन, भारत की जनसंख्या की समस्या. 25 वर्ष पहले का दृश्य याद करें. 1988 में भारत की आबादी 80 करोड़ थी. इसमें 64.6 फीसदी लोग 30 वर्ष से नीचे के थे. जबकि चीन की आबादी 109 करोड़ थी और आस्ट्रेलिया की आबादी 1.65 करोड़ थी. तब प्रति वर्ग मील भारत की आबादी 655.8 (व्यक्ति) थी. बेरोजगारी थी, छह फीसदी.

तब खेतिहर जमीन थी, 56.8 फीसदी. तब रुपये का भाव था, एक डॉलर बराबर 17 रुपये. आज भारत की आबादी 124 करोड़ है. चीन की 135 करोड़ की आबादी को हम जल्दी ही पार कर लेंगे. हम हर साल एक नया आस्ट्रेलिया पैदा कर रहे हैं. यानी दो करोड़ लोग. आस्ट्रेलिया की आबादी आज 2.18 करोड़ है. विशेषज्ञ यह मानते हैं कि भारत की आबादी में ठहराव नहीं आनेवाला है. यह कुछ ही वर्षों में 175 करोड़ के आसपास पहुंचनेवाली है. साफ है कि ये नेता कितनी भी सुंदर तस्वीर और ठगनेवाले सपने दिखायें, लेकिन भारत दुनिया की महाशक्ति नहीं बन रहा. वह आत्मघात के रास्ते पर है. हर शहर में होनेवाले जाम का दृश्य आपकी आंखों के सामने है?

बस में, रेल में, हवाई जहाज में, अस्पताल में, स्कूल-कॉलेजों में, हर जगह ठेलमठेली. खेती की जमीन घट रही है, क्योंकि आबादी बढ़ रही है. हरियाणा, खेती की धरती था. आज चले जाइए सोनीपत, गुड़गांव, फरीदाबाद.. न जाने कितने शहर बस गये हैं. पंजाब की धरती का मशहूर खाना है, मक्के की रोटी, सरसों का साग. पता करिए, वहां की धरती पर अब यह कितना उपजता है? पीने के पानी का संकट. इन्फ्रास्ट्रक्चर का संकट. दरअसल, भारत दलदल में है. आज भारत की 124 करोड़ की आबादी में से 58 फीसदी लोग 30 वर्ष से नीचे के हैं और उनमें कम से कम 10 फीसदी आनेवाले समय में बेरोजगार ही दिखायी दे रहे हैं. आज भारत की कुल धरती का 44.7 फीसदी अल्पकालिक खेती के लिए इस्तेमाल होता है और 3.9 फीसदी धरती स्थायी फसल के लिए. खेतिहर जमीन घट रही है. पहले 56.8 फीसदी (1988), आज 44.7+3.9 यानी 48.6 फीसदी (2013) धरती पर ही खेती है. एक डॉलर आज 62-68 रुपये के बीच तैर रहा है. आयात महंगा है. उद्योग-धंधे चौपट हो रहे हैं. खेती घाटे का सौदा हो गयी है. विदेशी मुद्रा में उतार-चढ़ाव से अर्थव्यवस्था का भविष्य संकट में दिखता है. देश पर लदा समयबद्ध कर्ज भी चुकाना है. राजकोषीय घाटा बढ़ रहा है. देश की मुद्रा (रुपये) की स्थिति कमजोर है.

जहां देश की यह हालत हो, वहां राजनीतिक विमर्श के एजेंडे पर कौन-से सवाल हैं? राजनेताओं के अहंकार, गद्दी पाने की उनकी लिप्सा और सरकारी खजाने से उनकी विलासिता और शान-ओ-शौकत. इस कांग्रेसी संस्कृति के खिलाफ ‘आप’ एक नयी संस्कृति का स्रोत बन सकती है. आज के भारत में, हर क्षेत्र में मांग और आपूर्ति में भारी फर्क पैदा हो गया है. अधिक नौकरी चाहिए, तो नौकरियां कम हो रही हैं. खेती योग्य जमीन अधिक चाहिए, तो वह घट रही है. औद्योगिक उत्पादन के लिए जमीन मिलनी और मुश्किल है. भ्रष्टाचार बेतहाशा बढ़ रहा है.

चाहे जितने कानून बना लें, लेकिन जब तक मौलिक सुधार नहीं होंगे, भारत का पतन रुकनेवाला नहीं है. विदेशी मुद्रा भंडार भारी दबाव में है. बाहर से आयात होनेवाले तेल के खर्च के कारण. आप के यहां कल-कारखाने या उत्पादन क्षेत्र मंद हो रहे हैं. बाहर से चीजों के आयात का खर्च लगातार बढ़ रहा है. चीन की सस्ती चीजें भारतीय बाजार में छा गयी हैं और हाइटेक उपभोक्तावादी महंगी चीजों के बाजार में पश्चिम का साम्राज्य है. इससे भारत का नौकरी का बाजार सिमट और घट रहा है. यह इस कारण हो रहा है कि हर साल नये दो करोड़ लोग (आबादी वृद्धि) जुड़ रहे हैं.

इन्हें रोजगार चाहिए. इन सब संकट खड़ी करती समस्याओं में एक बड़ी समस्या है, बाहर से हथियारों का आयात. सेना के 70 फीसदी हथियार बाहर से मंगाये जा रहे हैं. शेष 30 फीसदी की आपूर्ति सेना को भारत के अंदर से होती है. इसमें अकूत भ्रष्टाचार है. भारत के आर्थिक दर्शन में परंपरागत सोच या फार्मूला था, पहले बचत, बाद में निवेश. पर अब पश्चिमी अवधारणा के रास्ते पर भारत चल पड़ा है. बिना आय के निवेश और जब निवेश से आमद होने लगे, तो फिर बचत. इससे सरकारों की आय और खर्च में भारी गैप या फर्क पैदा हो गया है.

देश भारी कर्ज के तले दबा है. इधर ताकतवर भारतीय क्या कर रहे हैं? यहां का रूलिंग क्लास 15 लाख करोड़ धन, ब्लैक मनी के रूप में बाहर यानी विदेश ले गया है. पिछले कुछेक वर्षों में. हाल ही में यह रिपोर्ट आयी है. आज भारत के साथ अंतरराष्ट्रीय फोरम पर साथ खड़ा होनेवाला कोई देश नहीं है. आज पश्चिम के देश, भारत में खतरा देखते हैं. क्योंकि भारत विकास नहीं कर रहा. भारत के लोग पर्यटन के नाम पर विदेश जाते हैं और पश्चिमी या विकसित देशों में बसने की कोशिश करते हैं. पश्चिम, इसमें खतरा देख रहा है. पश्चिमी देशो में बड़े पैमाने पर आबादी घट रही है.

उन्हें भय सताता है कि भारतीय आकर उनके देश की पापुलेशन प्रोफाइल (डेमोग्राफी) न बदल दें. मसलन, आज ब्रिटेन में सबसे अधिक गैर-श्वेत लोगों (खासतौर से भारत के पड़ोसी देशों से) की तादाद बढ़ रही है, जिसको लेकर वह देश चिंतिंत है. आज भारतीय अन्य देशों में अवांछित हैं. अनचाहे हैं. अंतरराष्ट्रीय नौकरी बाजार में या पश्चिम की उच्च शिक्षा में भी उनकी पूछ नहीं. भारत के आर्थिक हालात खराब होने के रास्ते पर हैं. बेरोजगारी बढ़ रही है. इससे पश्चिम के देश, हर भारतीय को अपने देश के रोजगार के बाजार में प्रवेश का खतरा मानते हैं. अब पश्चिम अपने ही लोगों को नौकरी देने के सिद्धांत पर चल रहा है. फ्रांस में भी यही खतरा है, इसलिए फ्रांस और जर्मनी, दोनों देशों में भारतीयों का नौकरी बाजार में स्वागत नहीं है. भारत में बढ़ती आबादी के कारण नौकरी के अवसर सिमट रहे हैं. इसलिए देश के अंदर अलग तनाव है. आज अमेरिका जैसे देश (जहां बड़े पैमाने पर भारतीय हैं) ने भारतीय राजनयिक के साथ क्यों बदसलूकी की? क्या यह कोई पहली घटना है? इसके पहले भी रक्षा मंत्री जार्ज फर्नाडीस के साथ या पूर्व राष्ट्रपति डॉ कलाम के साथ या अभिनेता शाहरुख खान के साथ अभद्रता हुई. अमेरिका में भारत की राजदूत रही मीरा शंकर की तलाशी हुई.

यह सब हुआ, तब भी इसी यूपीए का, कांग्रेस का शासन था. तब क्यों हम चुप रहे? अब चूंकि लोकसभा चुनाव हैं, इसलिए यह मुद्दा बना है. हद तो तब हो गयी, जब मायावती ने फरमाया कि वह राजनयिक दलित महिला थी, इसलिए ऐसा हुआ? वह इतना भी नहीं सोच पातीं कि हमारे पूरे देश को अमीर देश पिछड़ा व दलित ही मानते हैं. दरअसल, गांवों की कहावत है, ‘‘कमजोर की भौजाई, सब की लुगाई.’’ वह हमेशा ताने सहने को बाध्य है. यही हाल भारत का है. भारत कमजोर है. आज चीन से ऐसा सलूक हो सकता है? भारत का असल संकट कहीं और है. उस पर कोई राजनीतिक दल या क्षेत्रीय दल बात नहीं कर रहा. सारे दल सिर्फ वोट बैंक बना कर अपने और अपने परिवार के लिए सत्ता पाने की होड़ में हैं. अगर ‘आप’ की दिल्ली में सरकार बने और वह राष्ट्रीय मुद्दों को भी नये संदर्भ में उठाये, देश के सामने रखे, देश के अपमान की मूल वजह बताये, तो भारत में एक नया मानस बनेगा. सत्ता छह महीने के लिए हो या एक वर्ष के लिए. सत्ता में बैठ कर आप पुरानी संस्कृति (जो कांग्रेस की देन है) को बदल सकते हैं. कम से कम उस पर चोट कर सकते हैं. पुरानी कहावत है, करनेवाले की उम्र नहीं देखी जाती, उसके काम के असर देखे जाते हैं. सता की संस्कृति बदले बिना या चरित्र पुनर्निर्माण के बिना इस देश का पुनर्निर्माण संभव नहीं. अब ‘आप’ को तय करना है कि वह देश के पुनर्निर्माण की संस्कृति का वाहक बनना चाहती है या सदा विपक्ष में रह कर राजनीति करने की संस्कृति विकसित करना चाहती है ?

आज कांग्रेसी संस्कृति देश को तबाह करने पर तूली है. वह पिछले दस वर्षों से केंद्र में सत्ता में है. दस वर्षों में देश में अनेक दंगे हुए, लेकिन इस सरकार को याद नहीं आया कि दंगा विरोधी कोई कानून भी उसके एजेंडे पर है? केंद्र सरकार के उड्डयन मंत्री अजीत सिंह का बयान है कि एयर इंडिया भारी मुसीबत में है. गहन अर्थसंकट है. पर हम कुछ कर नहीं सकते. नयी सरकार आकर यह देखेगी. गौर करिए, अर्थसंकट गहरा रहा है, लेकिन इस पर सरकार का रुख है कि नयी सरकार आ कर देखेगी. लेकिन सत्ता में रह कर नहीं. सत्ता से जाते-जाते सांप्रदायिकता विरोधी बिल पर कांग्रेस, देश में अपने पक्ष में माहौल बनाना चाहती है. इसी तरह जातियों को आरक्षण देकर नया वोट बैंक खड़ा करना चाहती है. धीरे-धीरे यह हाल होगा कि हर जाति-धर्म को आपको सौ फीसदी आरक्षण देना होगा. क्या किसी ने सोचा है कि इस रास्ते देश कहां पहुंचेगा? कुरसी के बाद कुछ दिखायी ही नहीं दे रहा. इस राजनीति के विकल्प में देश रचना के लिए नयी राजनीति चाहिए, जिसमें सभी की बराबर सहभागिता हो. ‘आप’ एक नयी उम्मीद के साथ इसी रास्ते चल कर एक नया भारत बनाने का रास्ता प्रशस्त कर सकती है.

भारत की राजनयिक देवयानी के साथ अमेरिका में हुई बदसलूकी पर देश आंदोलित है. संसद व सरकार भी. ठीक इसी समय चीन ने भारत के साथ और क्रूर अपमान किया है. पर वह प्रसंग, न संसद में उठा, न देश में कहीं चर्चा में है, न केंद्र सरकार पर इसका असर है (देखें- हिंदुस्तान टाइम्स, 17 व 18 दिसंबर 2013). तीन भारतीयों, लद्दाखवासियों को चीनी पकड़ ले गये. फिर उन्हें हेलीकाप्टर से उठा कर बहुत दूर चीन के अंदर ले गये. उनसे पूछताछ की. उनके कपड़े छीन लिये. इसके पहले 37 भारतीय घोड़े चीन में घुस गये थे, उन्हें ले गये. ये तीनों लोग अपने इन घोड़ों की तलाश में थे कि सीमा क्षेत्र से अचानक चीनी सैनिक इन्हें उठा ले गये. किसी के पाकेट में 900 रुपये थे, तो किसी के पाकेट में 300 रुपये, वह भी चीनियों ने छीन लिये.

जम्मू-कश्मीर के इसी इलाके में घुस कर 2011 में चीन के लोगों ने भारतीय सेना द्वारा तैयार ग्यारह भवनों को या अस्थायी निवासों को ढहा दिया था. चूंकि जिन्हें चीन जबरन उठा ले गया, वे भारतीय गरीब हैं, मवेशी चरानेवाले लोग हैं, इसलिए उनका सवाल नहीं उठा. आम गरीब भारतीयों के कपड़े उतार लिये जाते हैं, चीनी सैनिकों द्वारा पैसे छीने जाते हैं, फिर भी उनकी बात, उनके सवाल संसद में नहीं उठते? अमेरिका से भारतीय राजनयिक के साथ दुर्व्यवहार का मसला जरूर उठना चाहिए. पर चीन ने जो बदसलूकी की है, जिन आम भारतीयों के कपड़े उतार लिये हैं और पैसे छीन लिये, उनके 37 घोड़े-घोड़ियों को रख लिया, उनकी चर्चा या चिंता भी देश में नहीं? यह है, इस देश के शासकवर्ग का चाल और चरित्र!आप’ जैसी पार्टी ऐसे सवालों को उठा कर देश में असल मुद्दे उठा सकती है और देश का मन छू सकती है.

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