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21वीं सदी के सवाल !

हरिवंश विदा ! 2004 !! स्वागत ! 2005 !! ट्रेन में हूं. 30-31 दिसंबर की दोनों रातें ट्रेन में ही गुजरीं. 31 दिसंबर की आधी रात जब दुनिया जग कर वर्ष 2004 को विदा कर रही थी, वर्ष 2005 का स्वागत कर रही थी, तब यात्रा में था. ट्रेन में. यात्रा नियति बन गयी है. […]

हरिवंश

विदा ! 2004 !!

स्वागत ! 2005 !!

ट्रेन में हूं. 30-31 दिसंबर की दोनों रातें ट्रेन में ही गुजरीं. 31 दिसंबर की आधी रात जब दुनिया जग कर वर्ष 2004 को विदा कर रही थी, वर्ष 2005 का स्वागत कर रही थी, तब यात्रा में था. ट्रेन में. यात्रा नियति बन गयी है. जीवन भी तो यात्रा ही है. बहरहाल देर रात तक नींद नहीं आती. सहयात्री सोये हैं. आधी रात का पिछला पहर है. एहसास होता है, बाहर गहरा अंधेरा, ठंड… हवा के झोंके. मन में भी. मानव यात्रा के ज्ञात इतिहास के 2004 वर्ष गुजर गये. 21वीं सदी के चार शिशु वर्ष गुजर गये, अब पांचवें में हैं, हम. पर प्रकृति अब भी रहस्य है. जाते-जाते वर्ष 2004 ने दुनिया को स्तब्ध कर दिया है. सूनामी लहरों में अब तक 1,25,000 लोगों के मरने की पुष्टि हुई है. कुदरत में असीम शक्ति है. पल भर में सभ्यता-विकास की बुनियाद हिलानेवाली ताकत. हजारों परमाणु बमों की ऊर्जा से अधिक. यह समुद्र के आंशिक प्रलय की एक झलक है.

मरीना (चेन्नई) बीच (तीर) कब्रगाह जैसा दीखता है. प्रिय समुद्र बीच है, मरीना. नवंबर अंतिम सप्ताह में वहां था. दोबारा दिसंबर 18 को भी. चेन्नई पहुंचा नहीं कि मरीना खींचता था. अड्यार बीच भी, जहां जिद्दू कृष्णमूर्ति घूमते थे. पर मरीना का सौंदर्य अद्भुत है. दिन में नीला आकाश और समुद्र की नीली लहरें. कुछ बरसों पहले मरीना तीरे (बीच) शरद की जुन्हाई में सागर को देखा-सुना है. एक साथ इतनी दाहक चांदनी कि भूल नहीं पाता. शरद पूर्णिमा के दिन उफनती लहरों के सफेद झाग.

वर्णन-ब्योरा से परे दृश्य. विद्यार्थी जीवन से (1972) यह बीच देख रहा हूं. समुद्र तट चाहे कोवलम (त्रिवेंद्रम), पुरी, कन्याकुमारी, मुंबई या गुजरात में डूमस हो, बुलाते हैं. चेन्नई का मरीना खासतौर से. शायद इसलिए कि समुद्र की विशालता, फैलाव और उफनती लहरें प्रेरणा देती हैं. उदात्त बनाती हैं. अहंकार और मद तोड़ती हैं. लघुता-क्षुद्रता तोड़ कर कासमोस (ब्रšह्मांड) से जोड़ती हैं. आधी रात को चुपचाप लहरों का नाद, लय, संगीत और गर्जन सुनना प्रिय है. इस बार भी मरीना पर अंधेरी रात में लहरों का शोर सुना. कभी डरावना, कभी रहस्य में डूबा हुआ.

उसी समुद्र तट पर भयावह दृश्य की तसवीरें. ज्ञात इतिहास के 2004 वर्षों बाद भी प्रकृति रहस्य है, पर मनुष्य और व्यवस्था भी वैसे ही रहस्य हैं. याद आता है, राजेंद्र माथुर का एक लेख. मेरा प्रिय लेख. ‘बूढ़ी सदी का नया वर्ष’, 1970, पहली जनवरी को लिखा गया. क्लासिक लेख है. बीसवीं सदी का विवेचन. वह 1917 से 1920 के दौर की याद दिलाते हैं.

1917 और 1920 के बीच इस शताब्दी ने जो सहा, भोगा, निगला और जन्म दिया, वह आज तक हमारे साथ है. ….. लेनिन की वोल्शेविक क्रांति. दस दिन, जिन्होंने दुनिया को हिला दिया. दस दिन, जिन्होंने पचास वर्षों तक दुनिया को प्लेग दिया, सन्निपात दिया, पागलखाना दिया और सारी धरती की जवानी को मोक्ष का पार्थिक पर्याय दिया. तब लगता था कि एक प्रयत्न और किया, एक धक्का और दिया, तो यह पृथ्वी हर्षातिरेक की सामूहिक समाधि तक पहुंच जायेगी. लेकिन वह नहीं पहुंची.

स्वर्ग के द्वार पर दस्तक देकर बीसवीं शताब्दी लौट आयी. तब कौन जानता था कि ये पट कभी नहीं खुलते. इंसानियत की नियति है कि वह बार-बार इन पटों पर दस्तक दे, हर सदी में अपने-अपने ढंग से दस्तक दे. नियति है कि द्वार तक पहुंच कर हम छले जायें. यही प्रगति है. मंजिल सदा-सदा से छल ही रही है. केवल प्रयत्न यथार्थ है, और हमारे सपनों का केलकुलस यथार्थ है?

आगे इस अद्भुत लेख में राजेंद्र माथुर जी भारत के बारे में बात करते हैं.‘गांधी का सत्याग्रह ! कब्र में लटके हए देश पर फूंका गया एक मंत्र, जो उसे संज्ञा देता है, हरकत देता है, काले बाल और गर्म रक्त देता है, और अन्यायी की आंख में आंखे डाल कर देखने की ताकत देता है. एक मंत्र, जो खंभे को चीर कर नृसिंह जगाता है. यूनान, मिस्र और रोम जब नष्ट हो गये, तब भारत एक खंभे के रूप में जीवित था. जब भारत स्वयं नष्ट हो गया, तब भी यादगार के रूप में भारत का खंभा बचा, मानों समय का चंदोवा उसी के बूते पर टिका.

उस सड़े-गले दीमक लगे खंभे से गांधी ने नृसिंह निकाला, और कुछ वर्षों तक लगा कि दुनिया का यह आठवां आ›र्य समूची मानव जाति के लिए कोई संदेश लाया है. लगा कि स्वर्ग के जिस द्वार तक तेज से तेज खरगोश नहीं पहुंच सके, वहां एक कछुआ, एक केंचुआ पहुंचनेवाला है, और भारत की हस्तरेखाओं में शायद लिखा है कि बीसवीं सदी के पट हमारे ही कर कमलों से खुलेंगे. वे नहीं खुले. लेनिन का स्वप्न कोसिगिन तक आते-आते एक स्थावर संपत्ति बन गया. गांधी का स्वप्न भी आज एक स्थावर संपत्ति है….

लंबे, विचारपरक लेख के ये दो अंश, मनुष्य की 2004 वर्षों की यात्रा के रूमानी सपनों, प्रयासों, क्रांतियों और विफलताओं का प्रखर विवेचन हैं. अब ‘ग्लोबल विलेज’ बनती दुनिया में ‘विचारों की मौत’ (1980 के दशक में फुकियामा ने ‘द डेथ ऑफ आइडियालॉजी’ की बात की. इतिहास के अंत की चर्चा की, तो शोर हुआ) ने सबसे गंभीर सवाल खड़ा कर दिया है. विचारों की शून्यता को उपभोक्तावादी दर्शन ने भर दिया है. पिछले दिनों दिल्ली में दार्शनिक कृष्णनाथ ने कहा, यह ‘ नाइलिज़्म और नार्सिसिज्म’(शून्यवाद और आत्ममोह-आत्मरति) का दौर है. निजी स्वार्थ सब कुछ. जब डेथ ऑफ डिसस्टेंस (इकानामिस्ट की एक मशहूर पत्रकार द्वारा दशकों पहले लिखी पुस्तक) यानी दूरी सिमटने से मनुष्य की प्रगति का उल्लेख हो रहा था, तब किसी ने सोचा नहीं था कि इस सूचना क्रांति, उदारवाद और ग्लोबल दुनिया के सामने सबसे बड़ा संकट होगा, मूल्यहीनता का, संस्कारशून्यता का और विचारहीनता का.

21वीं सदी के शिशु वर्ष 2004 ने आनेवाले वर्षों के लिए ‘दिल्ली डीपीएस’ की एक घटना के माध्यम से बड़ा सवाल खड़ा कर दिया है. वर्ष 2005 और आनेवाले वर्षों में इनके जवाब ढूंढने होंगे. विचार शून्यता में पलती नयी पीढ़ी, तकनीकी क्रांति की चौहद्दी तक सिमटे जीवन और भौतिक उपभोग तक सीमित जीवन दृष्टि से, मनुष्य जाति-समाज के लिए नये गंभीर सवाल खड़े हो गये हैं. दिल्ली डीपीएस घटना के बाद बड़े विचारक अब परिवार के महत्व, मूल्य-संस्कारों की जरूरत, नैतिक बनने की अनिवार्यता पर नये सिरे से बहस कर रहे हैं. इथिकल आर्गनाइजेशन (मूल्य आधारित संस्थान) की बात हो रही है. नये युग, नयी कंप्यूटर क्रांति के उद्योगपति अजीम प्रेमजी और नारायणमूर्ति द्वारा ‘वैल्यू-इथिक्स’(मूल्य-सिद्धांत) पर उद्योग-समाज चलाने के आवाहन ‘कोट’(उद्धृत) किये जा रहे हैं. आनेवाले वर्षों में भारत को पुन: नैतिक होने, ईमानदार होने, मूल्य-संस्कार से नया इंसान बनाने की ओर लौटने की चर्चा हो रही है.

उसी तरह जैसे दो वर्षों पहले एनरॉन की घटना ने अमेरिका को मूल्य-संस्कार के बारे में सोचने के लिए विवश किया. एनरॉन जैसी बहराष्ट्रीय कंपनी अपने यहां विश्वप्रसिद्ध मैनेजमेंट स्कूलों से पढ़े-लिखे प्रबंधकों की बेईमानी, झूठ से डूब गयी. तब विश्वप्रसिद्ध मैनेजमेंट संस्थाएं यह तलाशने में जुट गयीं कि इतने प्रतिभावान लोग अनैतिक-बेईमान क्यों हो जाते हैं? फिर उन विश्वप्रसिद्ध मैनेजमेंट संस्थाओं में ‘इथिक्स और वैल्यूज’ पढ़ाया जाने लगा. गांधी विशेष अध्ययन के विषय बन गये, इन विश्वप्रसिद्ध संस्थाओं में.

क्या दिल्ली डीपीएस की घटना से बेचैन भारत का शासक समाज संस्कारवान, नैतिक और ईमानदार होने पर 2005 में गौर करेगा. 21वीं सदी के शिशु वर्ष में नैतिक संकट और मूल्यहीनता के उभरे लक्षण कहीं मानव समाज के लिए अभिशाप न बन जायें?

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