”प्रभात खबर” में आप पढ़ेंगे अच्युत दा के अंतिम दो लेख
-हरिवंश- यह संयोग ही कहा जायेगा कि जब अगस्त आंदोलन 1942 के 50 वर्ष पूरे हो रहे हैं, तब ठीक चार दिनों पूर्व उस आंदोलन के सबसे शौर्यवान नायक और भारत मां के कद्दावर पुत्र अच्युत पटवर्धन नहीं रहे. काफी दिनों से लखनऊ विश्वविद्यालय उन्हें ‘आचार्य नरेंद्र देव स्मारक व्याख्यानमाला’ के तहत लखनऊ आमंत्रित कर […]
-हरिवंश-
यह संयोग ही कहा जायेगा कि जब अगस्त आंदोलन 1942 के 50 वर्ष पूरे हो रहे हैं, तब ठीक चार दिनों पूर्व उस आंदोलन के सबसे शौर्यवान नायक और भारत मां के कद्दावर पुत्र अच्युत पटवर्धन नहीं रहे. काफी दिनों से लखनऊ विश्वविद्यालय उन्हें ‘आचार्य नरेंद्र देव स्मारक व्याख्यानमाला’ के तहत लखनऊ आमंत्रित कर रहा था. 30 जुलाई 1992 को वह लखनऊ आये और आचर्य जी एवं समाजवादी दर्शन पर उत्कृष्ट व्याख्यान दिया. वहां से वह वाराणसी आये और कृष्णमूर्ति फाउंडेशन संस्थान में ठहरे. दार्शनिक जिद्दू कृष्णमूर्ति के वह काफी निकट थे.
समाजवादी पार्टी के संस्थापक अच्युत पटवर्धन 50 के दशक में ही राजनीति से उबने लगे. ’42 के वह उन कुछ नायकों में से थे, जिन्हें अंगरेज पुलिस गिरफ्तार नहीं कर सकी. मारपीट, हिंसा, राजनीतिक षडयंत्र देखकर 1947 में वह गांधी जी से मिले और राजनीति से अलग होने की चर्चा की. वह जिद्दू कृष्णमूर्ति के पास गये. अपनी मन: स्थिति की चर्चा की. सुबह का वक्त था. दोनों टहल रहे थे. कृष्णमूर्ति ने कहा- ‘उस पेड़ को देखो- जो पत्ता कोमल व हरा था, अब पीला हो गया. पत्ते का इससे कुछ लेना-देना नहीं है. यह जनमा है, सुखेगा और नष्ट हो जायेगा. राजनीति में रहने या छोड़ने का निर्णय करना गलत है. चीजें स्वाभाविक गति से घटित होती है. घबड़ाना बंद करो.’
इसके बाद अच्युत पटवर्धन की राह बदल गयी. सत्तापूजक समाज उन्हें भूल गया. 1976 में वह जेपी की बीमारी से तत्कालीन सत्ता प्रतिष्ठान से नाराज हुए थे, जब उन्हें 1977 में राष्ट्रपति बनाने की चर्चा हुई, तो उन्होंने तत्कालीन सत्ताधीशों को अपने नाम की चर्चा के लिए फटकारा. लेकिन वह सुंदर-सृजनात्मक समाज की कल्पना से अलगन ही हटे थे. हाल के दिनों में अयोध्या प्रसंग और देश की मौजूदा राजनीति से वह अत्यंत पीडि़त थे. 4 की शाम वाणाणसी में वह अपने अभिन्न सहयोगी, दर्शनिक-अर्थशास्त्री चिंतक कृष्णानाथ जी के घर आनेवाले थे.