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विवेकानंद की जय-पराजय

आधुनिक भारत पर विचार करने के कई रास्ते हैं. इनमें स्वामी विवेकानंद और महात्मा गांधी द्वारा सुझाये गये रास्तों का अपना खास महत्व है. आधुनिक भारत के इतिहास को स्वामी विवेकानंद और महात्मा गांधी ने मिलकर एक नयी दृष्टि और चेतना देने का काम किया. स्वामी विवेकानंद की शिक्षा में राजनीतिक स्वर नहीं मिलता, लेकिन […]

आधुनिक भारत पर विचार करने के कई रास्ते हैं. इनमें स्वामी विवेकानंद और महात्मा गांधी द्वारा सुझाये गये रास्तों का अपना खास महत्व है. आधुनिक भारत के इतिहास को स्वामी विवेकानंद और महात्मा गांधी ने मिलकर एक नयी दृष्टि और चेतना देने का काम किया.

स्वामी विवेकानंद की शिक्षा में राजनीतिक स्वर नहीं मिलता, लेकिन उनके आध्यात्मिक और सामाजिक संदेशों का लगातार राजनीतिक इस्तेमाल होता रहा है. इसी तरह महात्मा गांधी मूल रूप से राजनीतिक शख्सीयत थे, लेकिन उनकी राजनीति में अध्यात्म का पुट मिला हुआ था.

जाहिर है, विवेकानंद की 151वीं जयंती पर इन दोनों शख्सीयतों को मिलाकर देखने की जरूरत महसूस की जा रही है. इसके साथ ही मौजूदा शिक्षा व्यवस्था के लिए विवेकानंद के संदेशों की प्रासंगिकता का सवाल भी काफी अहम है.

।।शंकर शरण विचारक।।

हम अपने महान ज्ञानियों, मनीषियों की जय-जयकार तो करते हैं, किंतु उनके आदर्शो और उद्देश्यों की उतनी ही उपेक्षा भी. ऐसा क्यों, यह अलग विषय है. लेकिन यह दोहरापन हमारे बौद्धिक जीवन की विचित्रता बन गयी है. एक ओर दुनिया के सामने दुर्बलता छिपाने और बराबरी दिखाने को हम अपनी महान ज्ञान-परंपरा और मनीषियों का नाम लेते हैं. दूसरी ओर, उनकी मूलभूत शिक्षाओं की उपेक्षा करते हुए हर तरह के विदेशी नारों, वैचारिक फैशनों का अंधानुकरण करते हैं. वह भी केवल ऊपरी अनुकरण; क्योंकि जिस परिश्रम और मौलिकता से पश्चिम के विद्वान अपना कार्य करते हैं, उसे अपनाने में हमारे आम प्रोफेसर, बुद्धिजीवी उत्सुक नहीं. विशेषत: समाज विज्ञान और साहित्यवाले बुद्धिजीवी. ले-देकर मात्र जुमलेबाजी, जानी-मानी बातों को नये नाम देना आदि सतही कसरतें करना तथा राजनीतिक-वैचारिक गुटबाजी के बल पर कुर्सियां हासिल करना- यही उनका मुख्य कार्य रहता है. यह तो स्वामी विवेकानंद की पराजय है कि स्वतंत्रता के सात दशक व्यतीत होते हुए भी भारतीय बौद्धिकता कह कर कोई चीज दुनिया के सामने नहीं आ पायी.

इसकी तुलना उद्योग, व्यापार से करके देखें तो बात स्पष्ट होगी. जहां व्यापार, उद्योग, तकनीक में भारतीय उद्यमी दुनिया में एक स्थान बनाने में सफल हुए, वहीं सामाजिक, दार्शनिक, राजनीतिक चिंतन और साहित्य में हम कहीं नहीं हैं. बल्कि कहीं के नहीं हैं. न विदेशी चिंतन अपना कर उस में कोई योगदान दिखा सके, जबकि अपना बहुमूल्य ज्ञान तो हम पहचानते तक नहीं. निर्मल वर्मा ने लिखा था, ‘भारतीय चिंतन परंपरा जितने रत्न, माणिक्य शायद ही विश्व के किसी अन्य देश के पास हों, जिन्हें हमने कंकड़-पत्थर समझ कर फेंक दिया है.’ इसे विवेकानंद के संदर्भ में हमारी स्थिति से परखा जा सकता है.

यह भी रहस्य ही है कि जहां स्वतंत्र भारत में शासकों और बुद्धिजीवियों ने स्वामी दयानंद, श्रद्धानंद, श्रीअरविंद जैसे अनेक मनीषियों को लगभग विस्मृत कर दिया, वहीं विवेकानंद के प्रति उत्साह बना हुआ है. क्या इसका कारण यही नहीं कि उन्हें सर्वप्रथम पश्चिमी जगत ने अपार प्रेम व सम्मान दिया? स्वामी विवेकानंद के प्रति देश की रुचि बनी रहने में एक स्वाभिमान भी है. विदेशी शासन में विवेकानंद वह प्रथम भारतीय थे, जिसने प्राचीन भारतीय ज्ञान-परंपरा के प्रतिनिधि के रूप में पश्चिम को सम्मोहित कर लिया.

किंतु आज भारत की स्वतंत्रता के 67 वर्ष बाद विवेकानंद की शिक्षाओं पर सरसरी दृष्टि डाल कर भी समझा जा सकता है कि हमने उन शिक्षाओं को अपनाने में कोई पहल नहीं की. विवेकानंद ने बच्चों, युवाओं की शिक्षा में उनके चरित्र-गठन को ही सर्वोपरि उद्देश्य बताया था. फिर, पढ़ाई-लिखाई में भी उन्होंने विभिन्न विषयों की जानकारी जमा करने की तुलना में किसी विद्यार्थी में एकाग्रता की क्षमता बनाना, विकसित करना अधिक आवश्यक माना था. विवेकानंद के अनुसार, एकाग्रता ही ‘ज्ञान-प्राप्ति का एकमात्र मार्ग’ है. और इस एकाग्रता की प्राप्ति के लिए प्रत्येक विद्यार्थी को विद्यारंभ करने से बारह वर्ष तक अर्थात वयस्क होकर सांसारिक या गृहस्थ जीवन आरंभ करने तक ब्रह्मचर्य का पालन भी आवश्यक है. इसकी महत्ता स्वयं विवेकानंद के शब्दों में, ‘ब्रह्मचर्य के अभाव के कारण ही हमारे देश में प्रत्येक वस्तु नष्ट हो रही है. कड़े ब्रह्मचर्य के पालन से कोई भी विद्या अल्पकाल में ही अवगत की जा सकती है, एक ही बार सुनी या जानी हुई बात को याद रखने की अचूक स्मृति आ जाती है.’ इस प्रकार, ब्रह्मचर्य की सैद्धांतिक-व्यावहारिक महत्ता विस्तार से बता कर स्वामीजी ने निर्देश दिया था, ‘प्रत्येक बालक को पूर्ण ब्रह्मचर्य का अभ्यास करने की शिक्षा देनी चाहिए.’ तभी उसमें श्रद्धा और विश्वास की उत्पत्ति होगी. सदैव और सभी अवस्थाओं में मन, वचन और कर्म से पवित्र रहना ही ब्रह्मचर्य कहलाता है. अपवित्र कल्पना उतनी ही बुरी है, जितना अपवित्र कार्य. ब्रह्मचारी को मन, वाणी और कर्म से शुद्ध रहना चाहिए.’

अब यदि हम अपनी संपूर्ण शिक्षा, विमर्श, दस्तावेज, पाठ्यचर्या आदि को उलटें, तो स्वामीजी की कही गयी बातों में एक भी शायद ही कहीं मिलें. फिर देश की प्रमुख पत्र-पत्रिकाओं, टेलीवीजन चैनलों की संपूर्ण सामग्री पर ध्यान दें, तो विवेकानंद की शिक्षाओं के ठीक विपरीत बातें निरंतर बढ़ती मात्र में मिलेंगी. जिन पन्नों पर और जिस विज्ञापन-बजट से विवेकानंद की बड़ी-बड़ी तस्वीरें छापी जाती हैं, उन्हीं पन्नों पर और उसी बजट से यह भी मोटे-मोटे अक्षरों में छापा जाता है, ‘कंडोम के साथ चलो!’

यह सब कोई आकस्मिक या अजूबा नहीं. इसके पीछे वह दास मानसिकता है, जो किसी भी बिंदु पर स्वयं सोच-विचार में असमर्थ है. अत: जो भी अमेरिका-यूरोप में हो रहा है या संयुक्त राष्ट्र अथवा अंतरराष्ट्रीय एजेंसियां कहती हैं, हमारे नेता, अफसर आंख मूंद कर उसी को कानून या संस्था का रूप देने लगते हैं; बिना यह विचारे कि क्या हमें उसकी कोई जरूरत भी है? या उससे हमें क्या लाभ या हानि हो सकती है? शिक्षा में इस अंधानुकरण मानसिकता से हमारा घोर सांस्कृतिक पतन हुआ है. इसी की परिणति बच्चों समेत सब को खुले व्यभिचार की स्वीकृति देने में हो रही है.

आज किशोर-शिक्षा के नाम पर एक अंतरराष्ट्रीय व्यवसाय ही चल रहा है, जो यौन-रोगों को रोकने के नाम पर बच्चों में यौन-क्रियाओं का प्रच्छन्न प्रचार करता है. मानो बच्चों को यौन-संबंध तो बनाना ही है. बस, जरा ‘सुरक्षित’ बनाएं. हमारे अधिकारियों, बुद्धिजीवियों में किसी ने पूछने की जरूरत नहीं महसूस की कि इस मान्यता का आधार क्या है कि किशोर बच्चे यौन-संबंध के बिना नहीं रह सकते? यह अमेरिकी स्थिति हो सकती है, जो ब्रह्मचर्य चेतना से अपरिचित है. पर उनकी मान्यताओं के आधार पर ही दुनिया में किशोर-शिक्षा वाली गतिविधियां चल रही हैं. इस प्रकार, सिनेमा, विज्ञापन आदि उद्योग हमारे बच्चों, किशोरों में ब्रrाचर्य की उलटी गतिविधियों की प्रेरणा जगाते हैं. तब आश्चर्य नहीं कि दिल्ली में महंगे पब्लिक स्कूलों में पढ़नेवाले धनाढ्य परिवारों के बच्चे अपनी पार्टियों में भाग लेनेवाले सहपाठियों को यह ताकीद भी लिखित रूप से देते हैं,’डोंट फॉरगेट कंडोम्स!’ यह हमारे सबसे अग्रणी पब्लिक स्कूलों की शिक्षा है. विवेकानंद की सारी बातें कूड़े में और विकृत भोगवाद को बढ़ावा.

हर बच्चे तक को एक कंज्यूमर, भोगी, व्यापारी और भविष्य का वोटर मान कर ही सारी शिक्षा का आयोजन चल रहा है. मानो बच्चे की कोई आत्मा नहीं. ऐसा भी नहीं कि किसी ने विवेकानंद के विचारों को गलत साबित कर दिया और इसलिए अब ‘आधुनिक’ ज्ञान के अनुसार यह सब हो रहा हो. ऐसा कहीं कुछ नहीं हुआ. उलटे हर जांच-परख प्रमाणित करेगी कि ब्रह्मचर्य संबंधी भारतीय ज्ञान-परंपरा के सभी दावे सही हैं. उतने ही अकाट्य, जैसे गुरुत्वाकर्षण सिद्धांत. नहीं तो श्रीअरविंद, रमण महर्षि, स्वामी शिवानंद से लेकर स्वामी सत्यानंद तक विभिन्न योगियों को पूरे विश्व में असंख्य अनुयायी, श्रद्धालु नहीं मिलते.

मगर बात उतनी ही नहीं. बात यह भी है कि बच्चों को ब्रह्मचर्य के विपरीत भोगवाद की शिक्षा देना बाल-स्वभाव के विपरीत एक अत्याचार भी है. महान रूसी शिक्षा-शास्त्री और लेखक लेव टॉल्सटॉय से लेकर हमारे अपने उतने ही महान शिक्षा-शास्त्री रवींद्रनाथ टैगोर तक, सभी मनीषियों ने पाया कि बच्चों में प्रकृति-प्रेम, आदर्शो के प्रति ललक, अनुशासन, संतोष और निर्विकार स्नेह सहज रूप में होता है. अर्थात प्रसन्नतापूर्वक ब्रह्मचर्य स्वीकार करना बच्चों की सहज स्वाभाविक प्रवृत्ति है, कोई जबरिया बंधन नहीं. किंतु इसके बदले उन्हें वस्तुओं, उपकरणों, सुविधाओं और कुविचारों से लाद कर तथा असमय ही उत्तेजक भावनाएं भर कर, उन्हें जल्दी से जल्दी एक कंज्यूमर, एक वोटर और एक भोगी में बदला जाता है.

यदि आज हमारे समाज में चारित्रिक पतन तेजी से हो रहा है, तो उसका मुख्य कारण वह कुशिक्षा ही है जो तीन पीढ़ियों से दी जा रही है और अब अधिकाधिक लोगों को चरित्रहीन, मतिहीन बनाती जा रही है. इसीलिए अधिकतर लोग भोग के अलावा नितांत उद्देश्यहीन जीवन जीते हैं. नौकरी या व्यवसाय आदि से पैसा कमाते हैं, फिर सारे समय केवल भोग, मनोरंजन, विलासिता की सोचते हैं. उन्हें पूरी शिक्षा में कोई और मूल्य नहीं मिला, इसे समझना होगा. उसके बाद अब वयस्क जीवन में रोजगार के लिए काम करने के बाद या साथ-साथ उन्हें उत्तेजक भोजन, उत्तेजक सिनेमा, उत्तेजक विज्ञापन, उत्तेजक संगीत, चित्र, मुहावरे आदि सेवन करने को मिलता है. इस अहर्निश वैचारिक प्रहार से अधिकाधिक लोगों का विवेक शून्य होता गया है. टेलीविजन ने गांव-गांव तक उस उच्छृंखल, सुविधाभोगी और भोगसुविधा का आचरण प्रसारित कर दिया है, जिसमें हर स्त्री केवल मादा दिखती और दिखायी जाती है.

औपचारिक शिक्षा के बाद भी सारा विचार-विमर्श पूरी तरह अर्थ, राजनीति और भोग केंद्रित रहता है, जो सांस्कृतिक, आध्यात्मिक बिंदुओं की कोई स्वतंत्र चिंता नहीं करता. इन सबका अनिवार्य परिणाम शिक्षितजनों का जीवन प्रयोजनहीन, आदर्शहीन और संस्कारहीन होता जाना है. अब आर्थिक रूप से सुविधाजनक स्थिति प्राप्त करने और करते जाने के सिवा और कोई मूल्य नहीं माने जाते, जिसके लिए संघर्ष किया जाये. चारित्रिक-सांस्कृतिक पतन का इस मानसिकता से सीधा संबंध है. विवेकानंद की शिक्षाओं में ही यह भी मिलता है कि आध्यात्मिक, सांस्कृतिक चेतना देना ही ‘शिक्षा का मेरुदंड’ है. दूसरे शब्दों में, यदि किसी को आध्यात्मिक चेतना, उचित-अनुचित की धर्म चेतना नहीं मिली, तो उसकी शिक्षा रीढ़-विहीन होगी. पढ़े-लिखे, उच्च-पदस्थ लोगों द्वारा व्यभिचार, भ्रष्टाचार, लोलुपता आदि में डूबने की इससे अच्छी व्याख्या क्या हो सकती है?

सबल राष्ट्र की साधना के दो पथिक

(राजीव वोरा गांधीवादी चिंतक)

गांधीजी के बचपन का यह किस्सा तो शायद सब जानते हैं कि अपने एक बलवान दिखनेवाले मुसलिम दोस्त की संगत में, उसके कहने से गांधीजी ने चोरी से एक बार ही सही, लेकिन मांसाहार किया. आत्मकथा में यह किस्सा उन्होंने लिखा भी है. क्यों मांस खाया? मांस खाने से शरीर मजबूत बनेगा और वे भी अपने उस मुसलिम दोस्त की तरह ताकतवर बन जायेंगे. उनके किशोर दिमाग में उस दोस्त की बात और उसका उदाहरण घर कर गया था. कमजोर होने का एहसास उन्हें खाये जा रहा था और किसी भी प्रकार उससे निजात पाने में उनको लगता था उनका मर्म था. एक बार तो चोरी-छिपे कर लिया, लेकिन उनके जन्मजात वैष्णव संस्कार ने दोबारा मांसाहार करने से रोक दिया. खुद से हुए पाप की कबूलात पिता के सामने की और समझ लिया कि ताकतवर बनने का यह रास्ता गलत है, क्योंकि शरीर की ताकत ही श्रेष्ठ और सर्वोपरि है, इसे उनके मन और बुद्धि ने अस्वीकार कर दिया था.

यह किस्सा अपने स्थान पर गांधीजी की किशोरावस्था का एक प्रसंग मात्र है. लेकिन दूसरे स्तर पर यह किस्सा, यह घटना भारत की एक बेहद बड़ी या सबसे बड़ी विडंबना, उसके यक्ष प्रश्न का प्रतीक है. वह विडंबना और राष्ट्रीय शर्म का प्रश्न, जिसका जवाब स्वामी विवेकानंद की खोज और साधना का विषय बना. शक्तिहीन होने का बोध और शक्तिशाली बनने की तड़प ने स्वामी विवेकानंद को यह चाहने और कहने पर मजबूर कर दिया कि उनकी कल्पना के भारत और भारतवासी का ‘मन तो वेदांती हो, लेकिन शरीर इसलामी’. यह स्वामी विवेकानंद, परमहंस रामकृष्ण के श्रेष्ठ शिष्य का कथन है. वे वेदांती मन और इसलामी शरीर चाहते थे. उनका यह आदर्श था भारतीयों के लिए और भारत के लिए. एक संन्यास, उच्च आध्यात्मिक भूमिका के साथ और दृष्टा को बोध, ग्लानि और ताकत-शक्ति के स्त्रोत की तलाश और पहचान. क्या इसलाम से हारने के कारण ‘इसलामी शरीर’ शक्ति का प्रतीक बन गया? जिनसे हारे उन्हीं के जैसा होना क्या किसी व्यक्ति, समाज या राष्ट्र की अस्मिता और अहमियत का प्रमाण है? क्या इस कथन में खुद का और इसलाम का, दोनों का अवमूल्यन नहीं है? स्वामी विवेकानंद के प्रति पूरी श्रद्धा होने के बावजूद उनका यह कथन, उनका यह आदर्श मुङो विवादास्पद और आश्चर्य में डालनेवाला लगता है. गांधीजी के किशोर मन ने जो सोचा उसका और विवेकानंद ने जो आदर्श रखा उसका निहितार्थ समान है. इसी वजह से शुरुआत गांधीजी के उस किस्से से की है.

वेदांत सिखाता है कि शक्ति शरीर में नहीं, आत्मा में है या मन की अवस्था में है. वेदांती मन किस शक्ति की साधना में लीन होता है- शरीर की या आत्मा की? जो आत्मशक्ति या मनोबल की साधना करेगा वह शरीर को शुद्ध रखेगा. सारी योग विधा शरीर शुद्धि और चित्त की शुद्धि के लिए- चित्त वृत्ति के निरोध के लिए है. स्वामी विवेकानंद इस पथ के सिद्ध पुरुष थे. तब भी, जानते-समझते हुए भी ऐसा विवादास्पद कथन, जो कि उनके ध्रुव-वाक्यों में से एक है, उन्होंने किस व्यथा और भारत की विडंबना के किस कठोर और आत्यंतिक अहसास के कारण किया होगा, यह हमें समझना जरूरी है.

वह अंगरेजी शासन का काल था. कुछ हजार अंगरेजों ने करोड़ों की आबादीवाले विशाल भूखंड और उससे भी विशाल सभ्यतावाले भारत को गुलाम बना कर उसे यह अहसास दिला दिया था कि तुम दुर्बल और कायर हो. इसलाम से पराजय के बाद इस दूसरे अति-विस्तृत और गहरी पराजय ने भारतीयों की बुद्धि और सोचने की शक्ति को कुंद कर दिया. इससे मनोबल टूट गया. बल व शक्ति की तलाश स्वाभाविक थी.

जय-पराजय को आमने-सामने के युद्ध की परिणति के रूप में देखा गया है. और युद्ध को शस्त्र और शरीर के बल का विषय ही माना गया है. बहुत हद तक रहा भी है. विदेशियों से पराजय को शरीर-बल और शस्त्र-बल के परिणामस्वरूप देखने का ही नतीजा है पराजय की अवस्था से मुक्ति का माध्यम, साधन और रास्ता भी राष्ट्र के शरीर बल अर्थात शस्त्र बल में ही देखा जाने लगा. इसमें स्वामी विवेकानंद अकेले नहीं हैं. राजाराम मोहन राय भी मानने लगे थे कि मुसलमान की तरह मांसाहार करने से ही शायद उनकी तरह हिंदू प्रजा ताकतवर हो सकती है. सावरकर तो इस हद तक अपने विचार में पहुंचे कि भगवान रामचंद्र का स्थान उनके मन में चक्रवर्ती साम्राज्य संस्थापक का है और हनुमान और भीम उनके लिए शरीर बल के उत्तम नायक, उत्तम प्रेरणास्नेत हैं. इन सारे महापुरुषों की देशभक्ति और राष्ट्रभक्ति में न केवल कोई खोट होने की सोचना भी पाप था, बल्कि वे उच्च कोटि के राष्ट्रभक्त थे और राष्ट्र की कमजोरी उन्हें पीड़ा देती थी. लेकिन सवाल यह है कि कौन-सा बल सारे बलों का स्नेत है और कौन-सा बल सारे बलों से श्रेष्ठ व अपराजेय है. क्या सापेक्ष, जिसकी दूसरे से तुलना हो सकती है वह बल अपराजेय हो सकता है? क्या सापेक्ष शक्ति के क्षेत्र में- भारत पश्चिमी राष्ट्रों से आगे निकल सकता है? क्या राष्ट्र का केवल भौतिक रूप शरीर ही होता है या उसकी कोई आत्मा भी होती है- उसका कोई राष्ट्रीय चिह्न् भी होता है- उसका कोई मन भी होता है?

शारीरिक या भौतिक दारिद्र्य या कमजोरी मन को कभी कमजोर करके आत्मबल तोड़ सकती है, जब मन भी कमजोर और दरिद्र हो चुका हो. अन्यथा क्या यह सही नहीं कि मन सुदृढ़, मजबूत हो तो अशक्त शरीर में भी शक्ति का संचार हो जाता है और मन मरने पर शरीर की शक्ति का नाश हो जाता है. शक्ति का नियम तो मन आधारित है, शरीर आधारित नहीं. अर्जुन का मनोबल टूट जाने से उसके हाथ थम गये और धनुष हाथ से सरक गया. भगवान कृष्ण ने अर्जुन को क्या यह कहा कि तू दुर्योधन की तरह बन या कर्ण की तरह बन- या क्या यह कहा कि पौष्टिक आहार करके आ जा, शरीर को कस ले? उन्होंने अजरुन के मन को उठाया. मन को उठाने के लिए उसे दृष्टि दी; दृष्टि देने के लिए विचार दिया. ऐसा विचार और ऐसी दृष्टि दी, जिससे मन को मारनेवाले कारणों का ही नाश हुआ. एक, मोह का नाश किया. दो, स्मृति लौटायी अर्थात आत्म-ज्ञान कराया. तीन, संदेह और संशय से मुक्ति दिलायी. ये तीन होने पर अजरुन को दृष्टि वापस मिली, मनोबल लौट आया, शरीर ने अपना काम किया.

स्वामी विवेकानंद ने भी भारत को बताया कि तुम क्या हो, तुम्हारा स्वधर्म क्या है. लेकिन पराजय से निकलने के लिए विजेता की तरह के शारीरिक बल की नहीं, बल्कि अपनी सच्ची सांस्कृतिक अस्मिता बोध दे कर, उसकी शास्वत आत्म-शक्ति को जगाने का काम गांधीजी ने किया. जिससे पराजित हुए उसके रूप को प्राप्त करके नहीं, अपने स्वरूप को प्राप्त करके ही भारत शक्तिशाली हो सकता है- यह गांधीजी ने करके दिखाया. 1947 में भारत ही था जिसकी शक्ति को, शक्ति के उस साश्वत और निरपेक्ष रूप को पूरे विश्व ने नतमस्तक होकर स्वीकारा. 1947 में भारत विश्व की महासत्ता बना, कहना हो तो कह सकते हैं- विशुद्ध वेदांतिक मन से- सत्य, अहिंसा और विवेक के रास्ते चल कर. गांधीजी यह पहचान पाये कि हिंदुस्तानी प्रजा शक्ति किसे मानती है. भारत को आध्यात्मिकता की भूमि मानना और बताना एक बात है, लेकिन उसे आध्यात्मिकता की शक्ति बनाना बिल्कुल दूसरी बात है; आध्यात्मिकता अगर जीवन के सभी क्षेत्रों में, उसके व्यवहार में ज्यादा न हो तो वह किस काम की? अन्याय और दमन से सामूहिक, राष्ट्रीय मुक्ति का साधन सत्याग्रह के रूप में गांधीजी ने दिया.

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