उठो, जागो और तब तक रुको नहीं, जब तक मंजिल न मिले
-विवेकानंद के जीवन के प्रेरक प्रसंग –हमारी आध्यात्मिकता ही हमारा जीवनरक्त है –समाज को विवेकानंद की बतायी राह पर लौटना होगा–विवेकानंद की जय-पराजय रैडिकल रिफॉर्मर थे स्वामी विवेकानंद उठो, जागो और तब तक रुको नहीं, जब तक मंजिल न मिलेः स्वामी विवेकानंद ।। नरेंद्र कोहली वरिष्ठ साहित्यकार ।। करीब सवा सौ साल पहले भारत ही […]
-विवेकानंद के जीवन के प्रेरक प्रसंग
–हमारी आध्यात्मिकता ही हमारा जीवनरक्त है
–समाज को विवेकानंद की बतायी राह पर लौटना होगा
–विवेकानंद की जय-पराजय
रैडिकल रिफॉर्मर थे स्वामी विवेकानंद
उठो, जागो और तब तक रुको नहीं, जब तक मंजिल न मिलेः स्वामी विवेकानंद
।। नरेंद्र कोहली वरिष्ठ साहित्यकार ।।
करीब सवा सौ साल पहले भारत ही नहीं, विश्व क्षितिज पर ज्ञान के एक प्रकाशपुंज का आविर्भाव हुआ था. आज की दुनिया उस प्रकाशपुंज को विवेकानंद के नाम से जानती है. भारत को आत्मगौरव, प्रवृत्ति और चरित्र निर्माण का संदेश देनेवाले स्वामी विवेकानंद की आज 151वीं जयंती है. विवेकानंद का व्यक्तित्व और उनकी धरोहर जयंतियों की औपचारिकताओं के परे है. उनके विचार हमारी चिंतन धारा में इस तरह समाहित हैं, कि उन्हें छोड़ कर आगे की किसी राह की कल्पना ही नहीं की जा सकती. यह अकारण नहीं कि विवेकानंद के अनुयायी रोमां रोलां ने उन्हें क्राइस्ट और बुद्ध के समतुल्य बताया था. उनका अध्यात्म देश और मानव सेवा की बुनियाद पर टिका था और आज भी इसकी प्रासंगिकता कम नहीं हुई है. विवेकानंद के जीवन और दर्शन के विभिन्न आयामों को समझने की कोशिश करता विशेष आलेख.
स्वामी विवेकानंद, अथवा बालक नरेंद्रनाथ दत्त को, उनके माता-पिता ने काशी-स्थित वीरेश्वर महादेव की पूजा कर प्राप्त किया था. नरेंद्र के शैशव का एक दृश्य है कि तीन वर्ष की अवस्था में, वे खेल ही खेल में हाथ में चाकू ले कर, अपने घर के आंगन में उत्पात मचा रहे थे. ‘इसको मार दूं. उसको मार दूं.’ दो-दो नौकरानियां उनको पकड़ने का प्रयत्न कर रही थीं, और पकड़ नहीं पा रही थीं. अंतत: माता, भुवनेश्वरी देवी ने नौकरानियों को असमर्थ मान कर परे हटाया और पुत्र को बांह से पकड़ लिया. स्नानागार में ले जा कर उसके सिर पर लोटे से जल डाला और उच्चारण किया,’शिव.. शिव.’ बालक शांत हो गया. उत्पात का शमन हो गया. उस समय तक वे विचारक नहीं थे, साधक नहीं थे, संत नहीं थे, किंतु वे वीरेश्वर महादेव के भेजे हुए, आये थे. उस समय ही नहीं, आजीवन ही वे जब-तब आकाश की ओर देखते थे और उनके मुख से उच्चरित होता था,’शिव.. शिव.’ परिणामत: उनका मन शांत हो जाता था. पेरिस की सड़कों पर घूमते हुए, भीड़ और पाश्चात्य संस्कृति की भयावहता से परेशान हो जाते थे, तो जेब से शीशी निकाल कर गंगा जल की कुछ बूंदें पी लेते थे. उससे वे हिमालय की शांति और हहराती गंगा के प्रवाह का अनुभव करते थे. स्वामी विवेकानंद की मान्यता थी कि ज्ञान बाहर से नहीं आता. ज्ञान हमारे भीतर ही होता है. आजीवन उसी सुप्त ज्ञान का विकास होता है. इस प्रकार जन्म के समय नवजात शिशु के भीतर जो संस्कार होते हैं, वे ही उसके भावी व्यक्तित्व का निर्माण करते हैं.
किंतु यह तो उनके शैशव की घटना है. बालक के शांत हो जाने पर मां भुवनेश्वरी देवी ने मंदिर में जाकर महादेव शिव के सम्मुख माथा टेक दिया, ‘हे प्रभु, तुम से एक पुत्र मांगा था. तुमने मुझे अपना यह कौन सा भूत भेज दिया है.’ नरेंद्र, धर्म और ईश्वर की ओर बढ़ते ही चले गये. सोने से पहले ध्यान करते थे और उन्हें ज्योति-दर्शन होता था. वह उनके लिए इतना स्वाभाविक था कि जिस समय रामकृष्ण परमहंस ने उनसे पूछा कि क्या उन्हें ज्योति-दर्शन होता है?
तो नरेंद्र ने चकित होकर पूछा था,’क्या अन्य लोगों को नहीं होता?’ तब तक वे यही मानते आये थे कि सोने से पहले सबको ही ज्योति-दर्शन होता है. वह मनुष्य के जीवन की एक स्वाभाविक प्रक्रिया है.
वे ब्रह्म-समाज में जाते थे. भजन-कीर्तन करते थे. ब्रह्म-समाज के नियमों के ही अनुसार, मूर्ति-पूजा में उनका विश्वास नहीं था. संसार के सारे ही माता-पिता चाहते हैं कि उनकी संतानें धार्मिक और ईश्वर-भीरू हों. वे सद्गुणी हों, मंदिर जाएं, पूजा-पाठ करें और सद्गृहस्थ बनें. किंतु नरेंद्र निरंतर धर्म और ईश्वर की ओर बढ़ते जा रहे थे. सद्गृहस्थ बनने के स्थान पर संन्यासी बनने की दिशा में बढ़ रहे थे. कायस्थ परिवार में जन्म ले कर भी उन्होंने ब्रह्म-समाज के प्रभाव में मांसाहार छोड़ रखा था.
माता-पिता को लगा कि ऐसे तो पुत्र हाथ से ही निकल जायेगा. हाथ में रखने का एक ही उपाय था कि उसका विवाह कर दिया जाये. किंतु नरेंद्र विवाह के लिए तैयार नहीं थे. बहुत प्रयत्न के पश्चात भी जब माता-पिता सफल नहीं हुए, तो उन्होंने रामचंद्र दत्त नाम के, नरेंद्र के एक मामा से कहा,’तुम्हारी बात वह शायद मान जाये. उसे जरा समझा दो.’
रामचंद्र दत्त ने नरेंद्र को पकड़ लिया,’क्यों रे, विवाह क्यों नहीं करना चाहता? लड़की सांवली है, इसलिए?’ नरेंद्र ने कहा,’यह तो जानता हूं कि घर में मेरे विवाह की चर्चा है, किंतु यह नहीं जानता कि लड़की चुन ली गयी है और वह सांवली है.’ रामचंद्र दत्त ने बताया कि लड़की सांवली है और क्षतिपूर्ति के लिए लड़की के पिता दहेज में दस सहस्र रुपये देने को तैयार हैं. नरेंद्र ने कहा कि न तो उन्हें दहेज चाहिए और न ही उनके विवाह से भागने का कारण, लड़की का सांवलापन है. ‘तो फिर क्या कारण है?’ रामचंद्र दत्त ने पूछा, ‘लड़की अधिक सुंदर चाहिए? अधिक पढ़ी लिखी लड़की चाहिए? तुम अधिक पढ़ना चाहते हो? आइसीएस बनना चाहते हो? अधिक विद्वान बनना चाहते हो?’ नरेंद्र ने जब सब से इनकार किया तो रामचंद्र दत्त ने तंग आकर पूछा,’तो फिर विवाह क्यों नहीं करना चाहते?’
‘क्योंकि मैं ईश्वर को खोज रहा हूं, पत्नी को नहीं.’ नरेंद्र का उत्तर था.
नरेंद्र सचमुच ईश्वर को खोज रहे थे. यह खोज इतनी प्रबल थी कि उसके सम्मुख संसार कुछ भी नहीं था. हम सब ईश्वर को खोज रहे हैं, किंतु हम में से कोई भी उस सच्चाई से नहीं खोज रहा. ईश्वर को हम मानते तो हैं, किंतु स्वीकार नहीं करते. जहां ईश्वर की चर्चा होती, या नरेंद्र किसी साधु-संत से मिलते, तो उससे एक प्रश्न अवश्य पूछते,’आपने ईश्वर को देखा है?’ एक रात वे महर्षि देवेंद्रनाथ के पास भी पहुंचे थे. महर्षि आधी रात के समय गंगा की मध्य धारा में अपने बजरे में बैठे ध्यान कर रहे थे. नरेंद्र गंगा में तैर कर, गीले कपड़ों में महर्षि के सम्मुख जा खड़े हुए,’आपने ईश्वर को देखा है?’ महर्षि इतना ही कह सके,’युवक तुम्हारी आंखें बता रही हैं कि तुम एक महान योगी बनोगे.’
रामचंद्र दत्त ने विवाह का आग्रह छोड़ दिया. वे नरेंद्र से सहमत हो गए. बोले,’ईश्वर को खोजना है, तो फिर इधर-उधर कहां भटक रहा है. दक्षिणोश्वर जा कर ठाकुर के चरण पकड़ ले.’
नरेंद्र को विश्वास नहीं हुआ कि जो कुछ भारत और पश्चिम के महान दार्शनिक उन्हें नहीं दे सके, वह ‘काली मंदिर का वह पुजारी’ दे पायेगा.
उन्होंने अपने मन के संशय को स्पष्ट कह दिया, ‘काली मंदिर का वह पुजारी मुङो ईश्वर के विषय में बता पायेगा?’
‘हां.’ रामचंद्र दत्त ने कहा,’ठाकुर पुस्तकों को नहीं जानते, किंतु ईश्वर को जानते हैं.’
इस आश्वासन के बाद भी नरेंद्र बहुत सारे संशयों में घिरे, ठाकुर के पास आये और उनके निकट जा कर पूछा, ‘आपने ईश्वर को देखा है?’
‘हां.’ उत्तर मिला,’देखा है और तुम्हें भी दिखाऊंगा.’
नरेंद्र मानते थे कि यदि ईश्वर है, तो उसे देखा भी जा सकता है, यदि ईश्वर है, तो उससे बातें भी की जा सकती हैं, यदि ईश्वर है, तो उसके साथ वैसे ही व्यवहार भी किया जा सकता है, जैसे सामान्य लोगों के साथ किया जाता है. केवल यह मान लेना कि ईश्वर है और उसे प्राप्त करने का प्रयत्न न करना, सर्वथा अनुचित है. उनका संकल्प आरंभ से ही अत्यंत दृढ़ था. शैशव में एक बार एक कथावाचक से पूछ लिया था कि हनुमान जी कहां रहते हैं? कथावाचक ने बच्चे को बहलाने के लिए कह दिया कि वे निकट की अमराई में रहते हैं. हनुमान की प्रतीक्षा में नरेंद्र सारी रात अमराई में बैठे रहे. हनुमान नहीं आये. अगले दिन उन्होंने सार्वजनिक रूप से कहा,’बड़े लोग भी झूठ बोलते हैं.’
नरेंद्र उन लोगों में से थे, जिनकी कथनी और करनी में अंतर नहीं होता. वे जो कुछ कहते थे, उसे मानते भी थे और उसे करते भी थे. मुङो लगता है कि अध्यात्म के क्षेत्र में गांधी जी और विवेकानंद में बहुत सारी बातें समान थीं. आज भी बहुत सारे लोग पूछ सकते हैं और मेरे मन में भी यह प्रश्न था कि स्वामी विवेकानंद ने इतना कुछ सोचा, कहा और किया, किंतु देश की स्वतंत्रता के विषय में उन्होंने क्या किया? कोई आंदोलन, कोई संवाद, कोई विवाद, कोई उत्पात .. देश की स्वतंत्रता के लिए कुछ किया क्या? कुछ भी तो नहीं किया. वरन राजनीति का विरोध किया. अपने शिष्यों के लिए राजनीति का मार्ग वर्जित कर दिया. जब पूछा गया तो उनका उत्तर था कि जिस दिन तुम अपने चरित्र को उस ऊंचाई पर ले जाओगे, जहां वह था, जब ‘स्वस्थ’ हो जाओगे, स्वयं में स्थित हो जाओगे, आध्यात्मिक रूप से उतने ही सात्विक हो जाओगे, जितने कभी तुम थे, तो फिर किसी का साहस नहीं होगा कि बाहर से आकर इस देश पर शासन कर सके.
जब अमरीका में स्वामी अंगरेजों के विरुद्ध बहुत कुछ कह गये, तो प्रो. हेनरी जॉन राइट की पत्नी मेरी राइट ने कहा कि ‘मौसम बहुत गर्म हो गया था.’ गर्म वह स्वामी की बातों से हो गया था अथवा उमस के कारण, कहना कठिन है, किंतु गर्म हो गया था. वहां उपस्थित लोगों ने कहा कि ‘तुम्हें भय नहीं है कि जब तुम लौट कर भारत जाओगे, तो अंगरेज तुम्हें पकड़ कर फांसी पर टांग देंगे.’ स्वामी का उत्तर था, लेट देम टच अ योगी..( वे भी देखें कि एक योगी को छूने से क्या होता है. यदि उन्होंने ऐसा कुछ किया तो वह उनके ताबूत में अंतिम कील होगी..).
यह जो विश्वास है कि यदि हम अपने चरित्र को सुधार लेंगे, तो कोई विदेशी हमारे देश में शासक के रूप में घुस नहीं पायेगा, यह वही बात है, जो यहां गांधी जी के विषय में कही गयी. हम देख सकते हैं कि आज हमारा चरित्र और मूल्य अत्यंत निम्न स्तर पर हैं. देश में ऐसे लोगों की कमी नहीं है, जो अपने छोटे से लाभ के लिए अपने देश तक को बेच सकते हैं, या यह कहूं कि लोग अपने छोटे से लाभ के लिए अपने माता-पिता तक को बेच सकते हैं, तो फिर और कुछ कहना ही क्या. स्वामी विवेकानंद का यह विचार कि देश की स्वतंत्रता के लिए आंदोलन की आवश्यकता नहीं है, अपने चरित्र को सुधारने की आवश्यकता है, अत्यंत महत्वपूर्ण है. हम अपने चरित्र को सुधारें, उसको निर्मल करें. ईश्वर को प्राप्त करने का एक ही मार्ग है, और वही देश की स्वतंत्रता का मार्ग है. वह है सात्विकता का मार्ग. हम देख रहे हैं कि स्वतंत्र हो कर भी हम स्वतंत्र नहीं हो पाये, क्योंकि हम अपने चरित्र को स्वच्छ नहीं कर पाये. आज हम उनकी बात का महत्व समझ सकते हैं. राजनीति आज चरित्रहीनता का पर्याय हो चुकी है. हम अच्छी तरह जानते हैं कि वह न राजधर्म है और न ही उसमें किसी प्रकार की नैतिकता का तत्व विद्यमान है. परिणामत: हम क्रमश: पराधीनता की ओर बढ़ रहे हैं.
हमारी अर्थनीति विदेशों की दास हो चुकी है, हमारे बाजार विदेशी माल से अटे पड़े हैं, हमारी विदेशनीति महाशक्तियों के संकेतों पर चलती है. हम अपने देश की सीमाओं की रक्षा में भी असमर्थ होते दिखाई पड़ रहे हैं. इन सब का कारण हमारी चरित्रहीनता ही है. जिस निर्लज्जता से हमारे शासक इस देश को लूट रहे हैं और लूट-खसोट पर चुप्पी साधे हुए हैं, वह इसे कंगाल कर देगी. रामकृष्ण परमहंस ने अपने शिष्य को मंत्र दिया था : ‘प्रत्येक जीव को शिव मान कर उसकी सेवा कर और उसके प्रति कृतज्ञ हो कि उसने तुम्हें सेवा का अवसर दिया.’
हमारे शासक सेवा में विश्वास नहीं करते. यही कारण है कि वह देश जो महाशक्ति बन सकता था, चीन, पाकिस्तान, बांग्लादेश, श्रीलंका और नेपाल जैसे पड़ोसियों के सम्मुख भी नतमस्तक है. एक स्वाभिमानी राष्ट्र के समान अपनी उपस्थिति दर्ज कराने के स्थान पर, एक कोमल, दुर्बल और दब्बू राष्ट्र के समान हम सब के लिए एक आसान शिकार हैं.
विवेकानंद की जय-पराजय
आधुनिक भारत पर विचार करने के कई रास्ते हैं. इनमें स्वामी विवेकानंद और महात्मा गांधी द्वारा सुझाये गये रास्तों का अपना खास महत्व है. आधुनिक भारत के इतिहास को स्वामी विवेकानंद और महात्मा गांधी ने मिलकर एक नयी दृष्टि और चेतना देने का काम किया.
स्वामी विवेकानंद की शिक्षा में राजनीतिक स्वर नहीं मिलता, लेकिन उनके आध्यात्मिक और सामाजिक संदेशों का लगातार राजनीतिक इस्तेमाल होता रहा है. इसी तरह महात्मा गांधी मूल रूप से राजनीतिक शख्सीयत थे, लेकिन उनकी राजनीति में अध्यात्म का पुट मिला हुआ था. जाहिर है, विवेकानंद की 151वीं जयंती पर इन दोनों शख्सीयतों को मिलाकर देखने की जरूरत महसूस की जा रही है. इसके साथ ही मौजूदा शिक्षा व्यवस्था के लिए विवेकानंद के संदेशों की प्रासंगिकता का सवाल भी काफी अहम है.।।शंकर शरण विचारक।।
हम अपने महान ज्ञानियों, मनीषियों की जय-जयकार तो करते हैं, किंतु उनके आदर्शों और उद्देश्यों की उतनी ही उपेक्षा भी. ऐसा क्यों, यह अलग विषय है. लेकिन यह दोहरापन हमारे बौद्धिक जीवन की विचित्रता बन गयी है. एक ओर दुनिया के सामने दुर्बलता छिपाने और बराबरी दिखाने को हम अपनी महान ज्ञान-परंपरा और मनीषियों का नाम लेते हैं. दूसरी ओर, उनकी मूलभूत शिक्षाओं की उपेक्षा करते हुए हर तरह के विदेशी नारों, वैचारिक फैशनों का अंधानुकरण करते हैं. वह भी केवल ऊपरी अनुकरण; क्योंकि जिस परिश्रम और मौलिकता से पश्चिम के विद्वान अपना कार्य करते हैं, उसे अपनाने में हमारे आम प्रोफेसर, बुद्धिजीवी उत्सुक नहीं. विशेषत: समाज विज्ञान और साहित्यवाले बुद्धिजीवी. ले-देकर मात्र जुमलेबाजी, जानी-मानी बातों को नये नाम देना आदि सतही कसरतें करना तथा राजनीतिक-वैचारिक गुटबाजी के बल पर कुर्सियां हासिल करना- यही उनका मुख्य कार्य रहता है. यह तो स्वामी विवेकानंद की पराजय है कि स्वतंत्रता के सात दशक व्यतीत होते हुए भी भारतीय बौद्धिकता कह कर कोई चीज दुनिया के सामने नहीं आ पायी. इसकी तुलना उद्योग, व्यापार से करके देखें तो बात स्पष्ट होगी. जहां व्यापार, उद्योग, तकनीक में भारतीय उद्यमी दुनिया में एक स्थान बनाने में सफल हुए, वहीं सामाजिक, दार्शनिक, राजनीतिक चिंतन और साहित्य में हम कहीं नहीं हैं. बल्कि कहीं के नहीं हैं. न विदेशी चिंतन अपना कर उस में कोई योगदान दिखा सके, जबकि अपना बहुमूल्य ज्ञान तो हम पहचानते तक नहीं. निर्मल वर्मा ने लिखा था, भारतीय चिंतन परंपरा जितने रत्न, माणिक्य शायद ही विश्व के किसी अन्य देश के पास हों, जिन्हें हमने कंकड़-पत्थर समझ कर फेंक दिया है. इसे विवेकानंद के संदर्भ में हमारी स्थिति से परखा जा सकता है.यह भी रहस्य ही है कि जहां स्वतंत्र भारत में शासकों और बुद्धिजीवियों ने स्वामी दयानंद, श्रद्धानंद, श्रीअरविंद जैसे अनेक मनीषियों को लगभग विस्मृत कर दिया, वहीं विवेकानंद के प्रति उत्साह बना हुआ है. क्या इसका कारण यही नहीं कि उन्हें सर्वप्रथम पश्चिमी जगत ने अपार प्रेम व सम्मान दिया? स्वामी विवेकानंद के प्रति देश की रुचि बनी रहने में एक स्वाभिमान भी है. विदेशी शासन में विवेकानंद वह प्रथम भारतीय थे, जिसने प्राचीन भारतीय ज्ञान-परंपरा के प्रतिनिधि के रूप में पश्चिम को सम्मोहित कर लिया.
किंतु आज भारत की स्वतंत्रता के 67 वर्ष बाद विवेकानंद की शिक्षाओं पर सरसरी दृष्टि डाल कर भी समझा जा सकता है कि हमने उन शिक्षाओं को अपनाने में कोई पहल नहीं की. विवेकानंद ने बच्चों, युवाओं की शिक्षा में उनके चरित्र-गठन को ही सर्वोपरि उद्देश्य बताया था. फिर, पढ़ाई-लिखाई में भी उन्होंने विभिन्न विषयों की जानकारी जमा करने की तुलना में किसी विद्यार्थी में एकाग्रता की क्षमता बनाना, विकसित करना अधिक आवश्यक माना था. विवेकानंद के अनुसार, एकाग्रता ही ज्ञान-प्राप्ति का एकमात्र मार्ग है. और इस एकाग्रता की प्राप्ति के लिए प्रत्येक विद्यार्थी को विद्यारंभ करने से बारह वर्ष तक अर्थात वयस्क होकर सांसारिक या गृहस्थ जीवन आरंभ करने तक ब्रह्मचर्य का पालन भी आवश्यक है. इसकी महत्ता स्वयं विवेकानंद के शब्दों में, ब्रह्मचर्य के अभाव के कारण ही हमारे देश में प्रत्येक वस्तु नष्ट हो रही है. कड़े ब्रह्मचर्य के पालन से कोई भी विद्या अल्पकाल में ही अवगत की जा सकती है, एक ही बार सुनी या जानी हुई बात को याद रखने की अचूक स्मृति आ जाती है. इस प्रकार, ब्रह्मचर्य की सैद्धांतिक-व्यावहारिक महत्ता विस्तार से बता कर स्वामीजी ने निर्देश दिया था, प्रत्येक बालक को पूर्ण ब्रह्मचर्य का अभ्यास करने की शिक्षा देनी चाहिए. तभी उसमें श्रद्धा और विश्वास की उत्पत्ति होगी. सदैव और सभी अवस्थाओं में मन, वचन और कर्म से पवित्र रहना ही ब्रह्मचर्य कहलाता है. अपवित्र कल्पना उतनी ही बुरी है, जितना अपवित्र कार्य. ब्रह्मचारी को मन, वाणी और कर्म से शुद्ध रहना चाहिए. अब यदि हम अपनी संपूर्ण शिक्षा, विमर्श, दस्तावेज, पाठ्यचर्या आदि को उलटें, तो स्वामीजी की कही गयी बातों में एक भी शायद ही कहीं मिलें. फिर देश की प्रमुख पत्र-पत्रिकाओं, टेलीवीजन चैनलों की संपूर्ण सामग्री पर ध्यान दें, तो विवेकानंद की शिक्षाओं के ठीक विपरीत बातें निरंतर बढ़ती मात्र में मिलेंगी. जिन पन्नों पर और जिस विज्ञापन-बजट से विवेकानंद की बड़ी-बड़ी तस्वीरें छापी जाती हैं, उन्हीं पन्नों पर और उसी बजट से यह भी मोटे-मोटे अक्षरों में छापा जाता है, ‘कंडोम के साथ चलो!’ यह सब कोई आकस्मिक या अजूबा नहीं. इसके पीछे वह दास मानसिकता है, जो किसी भी बिंदु पर स्वयं सोच-विचार में असमर्थ है. अत: जो भी अमेरिका-यूरोप में हो रहा है या संयुक्त राष्ट्र अथवा अंतरराष्ट्रीय एजेंसियां कहती हैं, हमारे नेता, अफसर आंख मूंद कर उसी को कानून या संस्था का रूप देने लगते हैं; बिना यह विचारे कि क्या हमें उसकी कोई जरूरत भी है? या उससे हमें क्या लाभ या हानि हो सकती है? शिक्षा में इस अंधानुकरण मानसिकता से हमारा घोर सांस्कृतिक पतन हुआ है. इसी की परिणति बच्चों समेत सब को खुले व्यभिचार की स्वीकृति देने में हो रही है. आज किशोर-शिक्षा के नाम पर एक अंतरराष्ट्रीय व्यवसाय ही चल रहा है, जो यौन-रोगों को रोकने के नाम पर बच्चों में यौन-क्रियाओं का प्रच्छन्न प्रचार करता है. मानो बच्चों को यौन-संबंध तो बनाना ही है. बस, जरा ‘सुरक्षित’ बनाएं. हमारे अधिकारियों, बुद्धिजीवियों में किसी ने पूछने की जरूरत नहीं महसूस की कि इस मान्यता का आधार क्या है कि किशोर बच्चे यौन-संबंध के बिना नहीं रह सकते? यह अमेरिकी स्थिति हो सकती है, जो ब्रह्मचर्य चेतना से अपरिचित है. पर उनकी मान्यताओं के आधार पर ही दुनिया में किशोर-शिक्षा वाली गतिविधियां चल रही हैं. इस प्रकार, सिनेमा, विज्ञापन आदि उद्योग हमारे बच्चों, किशोरों में ब्रह्मचर्य की उलटी गतिविधियों की प्रेरणा जगाते हैं. तब आश्चर्य नहीं कि दिल्ली में महंगे पब्लिक स्कूलों में पढ़नेवाले धनाढ्य परिवारों के बच्चे अपनी पार्टियों में भाग लेनेवाले सहपाठियों को यह ताकीद भी लिखित रूप से देते हैं,’डोंट फॉरगेट कंडोम्स!’ यह हमारे सबसे अग्रणी पब्लिक स्कूलों की शिक्षा है. विवेकानंद की सारी बातें कूड़े में और विकृत भोगवाद को बढ़ावा. हर बच्चे तक को एक कंज्यूमर, भोगी, व्यापारी और भविष्य का वोटर मान कर ही सारी शिक्षा का आयोजन चल रहा है. मानो बच्चे की कोई आत्मा नहीं. ऐसा भी नहीं कि किसी ने विवेकानंद के विचारों को गलत साबित कर दिया और इसलिए अब ‘आधुनिक’ ज्ञान के अनुसार यह सब हो रहा हो. ऐसा कहीं कुछ नहीं हुआ. उलटे हर जांच-परख प्रमाणित करेगी कि ब्रह्मचर्य संबंधी भारतीय ज्ञान-परंपरा के सभी दावे सही हैं. उतने ही अकाट्य, जैसे गुरुत्वाकर्षण सिद्धांत. नहीं तो श्रीअरविंद, रमण महर्षि, स्वामी शिवानंद से लेकर स्वामी सत्यानंद तक विभिन्न योगियों को पूरे विश्व में असंख्य अनुयायी, श्रद्धालु नहीं मिलते. मगर बात उतनी ही नहीं. बात यह भी है कि बच्चों को ब्रह्मचर्य के विपरीत भोगवाद की शिक्षा देना बाल-स्वभाव के विपरीत एक अत्याचार भी है. महान रूसी शिक्षा-शास्त्री और लेखक लेव टॉल्सटॉय से लेकर हमारे अपने उतने ही महान शिक्षा-शास्त्री रवींद्रनाथ टैगोर तक, सभी मनीषियों ने पाया कि बच्चों में प्रकृति-प्रेम, आदर्शो के प्रति ललक, अनुशासन, संतोष और निर्विकार स्नेह सहज रूप में होता है. अर्थात प्रसन्नतापूर्वक ब्रह्मचर्य स्वीकार करना बच्चों की सहज स्वाभाविक प्रवृत्ति है, कोई जबरिया बंधन नहीं. किंतु इसके बदले उन्हें वस्तुओं, उपकरणों, सुविधाओं और कुविचारों से लाद कर तथा असमय ही उत्तेजक भावनाएं भर कर, उन्हें जल्दी से जल्दी एक कंज्यूमर, एक वोटर और एक भोगी में बदला जाता है. यदि आज हमारे समाज में चारित्रिक पतन तेजी से हो रहा है, तो उसका मुख्य कारण वह कुशिक्षा ही है जो तीन पीढ़ियों से दी जा रही है और अब अधिकाधिक लोगों को चरित्रहीन, मतिहीन बनाती जा रही है. इसीलिए अधिकतर लोग भोग के अलावा नितांत उद्देश्यहीन जीवन जीते हैं. नौकरी या व्यवसाय आदि से पैसा कमाते हैं, फिर सारे समय केवल भोग, मनोरंजन, विलासिता की सोचते हैं. उन्हें पूरी शिक्षा में कोई और मूल्य नहीं मिला, इसे समझना होगा. उसके बाद अब वयस्क जीवन में रोजगार के लिए काम करने के बाद या साथ-साथ उन्हें उत्तेजक भोजन, उत्तेजक सिनेमा, उत्तेजक विज्ञापन, उत्तेजक संगीत, चित्र, मुहावरे आदि सेवन करने को मिलता है. इस अहर्निश वैचारिक प्रहार से अधिकाधिक लोगों का विवेक शून्य होता गया है. टेलीविजन ने गांव-गांव तक उस उच्छृंखल, सुविधाभोगी और भोगसुविधा का आचरण प्रसारित कर दिया है, जिसमें हर स्त्री केवल मादा दिखती और दिखायी जाती है. औपचारिक शिक्षा के बाद भी सारा विचार-विमर्श पूरी तरह अर्थ, राजनीति और भोग केंद्रित रहता है, जो सांस्कृतिक, आध्यात्मिक बिंदुओं की कोई स्वतंत्र चिंता नहीं करता. इन सबका अनिवार्य परिणाम शिक्षितजनों का जीवन प्रयोजनहीन, आदर्शहीन और संस्कारहीन होता जाना है. अब आर्थिक रूप से सुविधाजनक स्थिति प्राप्त करने और करते जाने के सिवा और कोई मूल्य नहीं माने जाते, जिसके लिए संघर्ष किया जाये. चारित्रिक-सांस्कृतिक पतन का इस मानसिकता से सीधा संबंध है. विवेकानंद की शिक्षाओं में ही यह भी मिलता है कि आध्यात्मिक, सांस्कृतिक चेतना देना ही ‘शिक्षा का मेरुदंड’ है. दूसरे शब्दों में, यदि किसी को आध्यात्मिक चेतना, उचित-अनुचित की धर्म चेतना नहीं मिली, तो उसकी शिक्षा रीढ़-विहीन होगी. पढ़े-लिखे, उच्च-पदस्थ लोगों द्वारा व्यभिचार, भ्रष्टाचार, लोलुपता आदि में डूबने की इससे अच्छी व्याख्या क्या हो सकती है? सबल राष्ट्र की साधना के दो पथिक (राजीव वोरा गांधीवादी चिंतक)गांधीजी के बचपन का यह किस्सा तो शायद सब जानते हैं कि अपने एक बलवान दिखनेवाले मुसलिम दोस्त की संगत में, उसके कहने से गांधीजी ने चोरी से एक बार ही सही, लेकिन मांसाहार किया. आत्मकथा में यह किस्सा उन्होंने लिखा भी है. क्यों मांस खाया? मांस खाने से शरीर मजबूत बनेगा और वे भी अपने उस मुसलिम दोस्त की तरह ताकतवर बन जायेंगे. उनके किशोर दिमाग में उस दोस्त की बात और उसका उदाहरण घर कर गया था. कमजोर होने का एहसास उन्हें खाये जा रहा था और किसी भी प्रकार उससे निजात पाने में उनको लगता था उनका मर्म था. एक बार तो चोरी-छिपे कर लिया, लेकिन उनके जन्मजात वैष्णव संस्कार ने दोबारा मांसाहार करने से रोक दिया. खुद से हुए पाप की कबूलात पिता के सामने की और समझ लिया कि ताकतवर बनने का यह रास्ता गलत है, क्योंकि शरीर की ताकत ही श्रेष्ठ और सर्वोपरि है, इसे उनके मन और बुद्धि ने अस्वीकार कर दिया था.
यह किस्सा अपने स्थान पर गांधीजी की किशोरावस्था का एक प्रसंग मात्र है. लेकिन दूसरे स्तर पर यह किस्सा, यह घटना भारत की एक बेहद बड़ी या सबसे बड़ी विडंबना, उसके यक्ष प्रश्न का प्रतीक है. वह विडंबना और राष्ट्रीय शर्म का प्रश्न, जिसका जवाब स्वामी विवेकानंद की खोज और साधना का विषय बना. शक्तिहीन होने का बोध और शक्तिशाली बनने की तड़प ने स्वामी विवेकानंद को यह चाहने और कहने पर मजबूर कर दिया कि उनकी कल्पना के भारत और भारतवासी का ‘मन तो वेदांती हो, लेकिन शरीर इसलामी’. यह स्वामी विवेकानंद, परमहंस रामकृष्ण के श्रेष्ठ शिष्य का कथन है. वे वेदांती मन और इसलामी शरीर चाहते थे. उनका यह आदर्श था भारतीयों के लिए और भारत के लिए. एक संन्यास, उच्च आध्यात्मिक भूमिका के साथ और दृष्टा को बोध, ग्लानि और ताकत-शक्ति के स्त्रोत की तलाश और पहचान. क्या इसलाम से हारने के कारण ‘इसलामी शरीर’ शक्ति का प्रतीक बन गया? जिनसे हारे उन्हीं के जैसा होना क्या किसी व्यक्ति, समाज या राष्ट्र की अस्मिता और अहमियत का प्रमाण है? क्या इस कथन में खुद का और इसलाम का, दोनों का अवमूल्यन नहीं है? स्वामी विवेकानंद के प्रति पूरी श्रद्धा होने के बावजूद उनका यह कथन, उनका यह आदर्श मुङो विवादास्पद और आश्चर्य में डालनेवाला लगता है. गांधीजी के किशोर मन ने जो सोचा उसका और विवेकानंद ने जो आदर्श रखा उसका निहितार्थ समान है. इसी वजह से शुरुआत गांधीजी के उस किस्से से की है. वेदांत सिखाता है कि शक्ति शरीर में नहीं, आत्मा में है या मन की अवस्था में है. वेदांती मन किस शक्ति की साधना में लीन होता है- शरीर की या आत्मा की? जो आत्मशक्ति या मनोबल की साधना करेगा वह शरीर को शुद्ध रखेगा. सारी योग विधा शरीर शुद्धि और चित्त की शुद्धि के लिए- चित्त वृत्ति के निरोध के लिए है. स्वामी विवेकानंद इस पथ के सिद्ध पुरुष थे. तब भी, जानते-समझते हुए भी ऐसा विवादास्पद कथन, जो कि उनके ध्रुव-वाक्यों में से एक है, उन्होंने किस व्यथा और भारत की विडंबना के किस कठोर और आत्यंतिक अहसास के कारण किया होगा, यह हमें समझना जरूरी है. वह अंगरेजी शासन का काल था. कुछ हजार अंगरेजों ने करोड़ों की आबादीवाले विशाल भूखंड और उससे भी विशाल सभ्यतावाले भारत को गुलाम बना कर उसे यह अहसास दिला दिया था कि तुम दुर्बल और कायर हो. इसलाम से पराजय के बाद इस दूसरे अति-विस्तृत और गहरी पराजय ने भारतीयों की बुद्धि और सोचने की शक्ति को कुंद कर दिया. इससे मनोबल टूट गया. बल व शक्ति की तलाश स्वाभाविक थी. जय-पराजय को आमने-सामने के युद्ध की परिणति के रूप में देखा गया है. और युद्ध को शस्त्र और शरीर के बल का विषय ही माना गया है. बहुत हद तक रहा भी है. विदेशियों से पराजय को शरीर-बल और शस्त्र-बल के परिणामस्वरूप देखने का ही नतीजा है पराजय की अवस्था से मुक्ति का माध्यम, साधन और रास्ता भी राष्ट्र के शरीर बल अर्थात शस्त्र बल में ही देखा जाने लगा. इसमें स्वामी विवेकानंद अकेले नहीं हैं. राजाराम मोहन राय भी मानने लगे थे कि मुसलमान की तरह मांसाहार करने से ही शायद उनकी तरह हिंदू प्रजा ताकतवर हो सकती है. सावरकर तो इस हद तक अपने विचार में पहुंचे कि भगवान रामचंद्र का स्थान उनके मन में चक्रवर्ती साम्राज्य संस्थापक का है और हनुमान और भीम उनके लिए शरीर बल के उत्तम नायक, उत्तम प्रेरणास्त्रोत हैं. इन सारे महापुरुषों की देशभक्ति और राष्ट्रभक्ति में न केवल कोई खोट होने की सोचना भी पाप था, बल्कि वे उच्च कोटि के राष्ट्रभक्त थे और राष्ट्र की कमजोरी उन्हें पीड़ा देती थी. लेकिन सवाल यह है कि कौन-सा बल सारे बलों का स्त्रोत है और कौन-सा बल सारे बलों से श्रेष्ठ व अपराजेय है. क्या सापेक्ष, जिसकी दूसरे से तुलना हो सकती है वह बल अपराजेय हो सकता है? क्या सापेक्ष शक्ति के क्षेत्र में- भारत पश्चिमी राष्ट्रों से आगे निकल सकता है? क्या राष्ट्र का केवल भौतिक रूप शरीर ही होता है या उसकी कोई आत्मा भी होती है- उसका कोई राष्ट्रीय चिह्न् भी होता है- उसका कोई मन भी होता है? शारीरिक या भौतिक दारिद्र्य या कमजोरी मन को कभी कमजोर करके आत्मबल तोड़ सकती है, जब मन भी कमजोर और दरिद्र हो चुका हो. अन्यथा क्या यह सही नहीं कि मन सुदृढ़, मजबूत हो तो अशक्त शरीर में भी शक्ति का संचार हो जाता है और मन मरने पर शरीर की शक्ति का नाश हो जाता है. शक्ति का नियम तो मन आधारित है, शरीर आधारित नहीं. अर्जुन का मनोबल टूट जाने से उसके हाथ थम गये और धनुष हाथ से सरक गया. भगवान कृष्ण ने अर्जुन को क्या यह कहा कि तू दुर्योधन की तरह बन या कर्ण की तरह बन- या क्या यह कहा कि पौष्टिक आहार करके आ जा, शरीर को कस ले? उन्होंने अर्जुन के मन को उठाया. मन को उठाने के लिए उसे दृष्टि दी; दृष्टि देने के लिए विचार दिया. ऐसा विचार और ऐसी दृष्टि दी, जिससे मन को मारनेवाले कारणों का ही नाश हुआ. एक, मोह का नाश किया. दो, स्मृति लौटायी अर्थात आत्म-ज्ञान कराया. तीन, संदेह और संशय से मुक्ति दिलायी. ये तीन होने पर अर्जुन को दृष्टि वापस मिली, मनोबल लौट आया, शरीर ने अपना काम किया. स्वामी विवेकानंद ने भी भारत को बताया कि तुम क्या हो, तुम्हारा स्वधर्म क्या है. लेकिन पराजय से निकलने के लिए विजेता की तरह के शारीरिक बल की नहीं, बल्कि अपनी सच्ची सांस्कृतिक अस्मिता बोध दे कर, उसकी शास्वत आत्म-शक्ति को जगाने का काम गांधीजी ने किया. जिससे पराजित हुए उसके रूप को प्राप्त करके नहीं, अपने स्वरूप को प्राप्त करके ही भारत शक्तिशाली हो सकता है- यह गांधीजी ने करके दिखाया. 1947 में भारत ही था जिसकी शक्ति को, शक्ति के उस साश्वत और निरपेक्ष रूप को पूरे विश्व ने नतमस्तक होकर स्वीकारा. 1947 में भारत विश्व की महासत्ता बना, कहना हो तो कह सकते हैं- विशुद्ध वेदांतिक मन से- सत्य, अहिंसा और विवेक के रास्ते चल कर. गांधीजी यह पहचान पाये कि हिंदुस्तानी प्रजा शक्ति किसे मानती है. भारत को आध्यात्मिकता की भूमि मानना और बताना एक बात है, लेकिन उसे आध्यात्मिकता की शक्ति बनाना बिल्कुल दूसरी बात है; आध्यात्मिकता अगर जीवन के सभी क्षेत्रों में, उसके व्यवहार में ज्यादा न हो तो वह किस काम की? अन्याय और दमन से सामूहिक, राष्ट्रीय मुक्ति का साधन सत्याग्रह के रूप में गांधीजी ने दिया.विवेकानंद की कविता
चौथी जुलाई के प्रति
वह देखो, वे घने बादल छंट रहे हैं
जिन्होंने रात में धरती को
अशुभ छाया से ढक लिया था!
किंतु तुम्हारा चमत्कारपूर्ण स्पर्श पाते ही
विश्व जाग रहा है
पक्षियों ने सहगान गाये हैं
फूलों ने, तारों की भांति
चमकते ओसकण का मुकुट पहन कर
झुक-झूम कर
तुम्हारा सुंदर स्वागत किया है
झीलों ने प्यारभरा हृदय
तुम्हारे लिए खोला है
और अपने सहस्र-सहस्र कमलनेत्रों द्वारा
मन की गहराई से निहारा है तुम्हें
हे प्रकाश के देवता!
सभी तुम्हारे स्वागत में संलग्न हैं
आज तुम्हारा नव स्वागत है
हे सूर्य, तुम आज मुक्ति-ज्योति फैलाते हो
तुम्हीं सोचो,
संसार ने तुम्हारी कितनी प्रतीक्षा की
कितना खोजा तुम्हें
युग-युग तक
देश-देश घूम कर कितना खोजा गया
कुछ ने घर छोड़े, मित्रों का प्यार खोया
स्वयं को निर्वासित किया
निर्जन महासागरों
सुनसान जंगलों में कितना भटके
एक-एक कदम पर मौत और जिंदगी का सवाल आ गया
लेकिन, वह भी आया जब संघर्ष फले
पूजा श्रद्धा और बलिदान पूर्ण हुए
अंगीकृत हुए, तुमने अनुग्रह किया
और समस्त मानवता पर
स्वातंत्र्य प्रकाश विकीर्ण किया
ओ देवता, निर्बाध बढ़ो, अपने पथ पर
तब तक, जबकि कि यह सूर्य
आकाश के मध्य न आ जाये
जब तक तुम्हारा आलोक विश्व में प्रत्येक देश में प्रतिफलित न हो
जब तक नारी और पुरुष सभी
उन्नत मस्तक होकर यह न देखें
कि उनकी जंजीरें टूट गयीं
और नवीन सुखों के वसंत में
उन्हें नवजीवन मिला!
अमेरिकी स्वतंत्रता दिवस 4 जुलाई को 1898 में शिष्यों के साथ कश्मीर भ्रमण के दौरान लिखी गयी कविता. सभी कविताएं विवेकलहरी, रामकृष्ण मठ, नागपुर से ली गयी हैं.हमारी आध्यात्मिकता ही हमारा जीवनरक्त है
अमेरिका के शिकागो में दिया गया ऐतिहासिक भाषण हो, या मद्रास की साहित्य समिति और कलकत्ता में दिया गया व्याख्यान, स्वामी विवेकानंद ने समय-समय पर मानव समाज से जुड़े विषयों पर अपने विचारों से भारत ही नहीं, पूरे विश्व का मार्गदर्शन किया. उनके भाषणों में भविष्य के भारत की तसवीर थी, तो युवाओं के लिए शिक्षा और ज्ञान का अथाह सागर भी. पेश है उनके भाषणों के कुछ अंश..
शिकागो-भाषण
अमेरिका निवासी भगिनी तथा भ्रातृगण!
जिस सौहर्दता और स्नेह के साथ आपने हम लोगों का स्वागत किया, उसके फलस्वरूप मेरा हृदृय अकथनीय हर्ष से प्रफुल्लित हो रहा है. संसार के प्राचीन महर्षियों के नाम पर मैं आपको धन्यवाद देता हूं तथा सब धर्मो की माता स्वरूप हिंदू-धर्म एवं भिन्न-भिन्न संप्रदाय के लाखों-करोड़ों हिंदुओं की ओर से भी धन्यवाद प्रकट करता हूं.
मैं उन सज्जनों के प्रति भी धन्यवाद ज्ञापित करता हूं, जिन्होंने इस मंच पर से प्राच्य-प्रतिनिधियों के संबध में आपको यह बतलाया है कि ये दूर देशवाले पुरुष सर्वत्र सहिष्णुता का भाव प्रसारित करने के निमित्त यश और गौरव के अधिकारी हो सकते हैं. मुझको ऐसे धर्मावलंबी होने का गौरव है, जिसने संसार को ‘सहिष्णुता’ तथा ‘सब धर्मो को मान्यता प्रदान’ करने की शिक्षा दी है. हम लोग सब धर्मों के प्रति केवल सहिष्णुता में ही विश्वास नहीं करते हैं, वरन् समस्त धर्मो को सच्चा मान कर ग्रहण करते हैं. मुङो आपसे यह निवेदन करते गर्व हो रहा है कि मैं ऐसे धर्म का अनुयायी हूं, जिसकी पवित्र भाषा संस्कृत में अंगरेजी शब्द exclusion का कोई पर्यायवाची शब्द नहीं. मुझे एक ऐसे देश का व्यक्ति होने का अभिमान है, जिसने इस पृथ्वी की समस्त पीड़ित और शरणागत जातियों तथा विभिन्न धर्मो के बहिष्कृत मतावलंबियों को आश्रय दिया है. मुङो यह बतलाते गर्व होता है कि जिस वर्ष यहूदियों का पवित्र मंदिर रोमन-जाति के अत्याचार से धूल में मिला दिया गया, उसी वर्ष अभिजात यहूदी आश्रय लेने दक्षिण भारत में आये और हमारी जाति ने उन्हें छाती से लगा कर शरण दी. ऐसे धर्म में जन्म लेने का मुझे अभिमान है. जिसने पारसी जाति की रक्षा की और उसका पालन अब तक कर रहा है. भाईयों, मैं आप लोगों को एक स्नेत्र के कुछ पद सुनाता हूं, जिसे मैं बचपन से गाता रहा हूं और जिसे प्रतिदिन लाखों मनुष्य गाया करते हैं.
रुचीनां वैचित्र्यादृजुकुटिलनानापथजुषाम्।
नृणामेको गम्यस्त्वमसि पयसामर्णव इव।।
-’जैसे विभिन्न नदियां भिन्न-भिन्न स्त्रोतों से निकल कर समुद्र में मिल जाती हैं, उसी प्रकार हे प्रभु! भिन्न-भिन्न रुचि के अनुसार विभिन्न टेढ़े-मेढ़े अथवा सीधे रास्ते से जानेवाले लोग अंत में तुझमें ही आकर मिल जाते हैं.’यह सभा, जो संसार की अब तक की सर्वश्रेष्ठ सभाओं में से एक है, जगत् के लिए गीता के उस अद्भुत उपदेश की घोषणा एवं विज्ञापन है, जो हमें बतलाता है-
ये यथा मां प्रपद्यंते तांस्तथैव भजाम्यहम्।
मम वत्र्मानुर्वतते मनुष्या: पार्थ सर्वश:।।-गीता, 4.11.
-’जो कोई मेरी ओर आता है-चाहे किसी प्रकार से हो-मैं उसको प्राप्त होता हूं. लोग भिन्न-भिन्न मार्ग द्वारा प्रत्यन्न करते हुए अंत में मेरी ही ओर आते हैं.’
सांप्रदायिक, संकीर्णता और इनसे भयंकर धर्म-विषयक उन्मत्तता इस सुंदर पृथ्वी पर बहुत समय तक राज्य कर चुके हैं. इनके घोर अत्याचार से पृथ्वी भर गयी, इन्होंने अनेक बार मानव रक्त से धरणी को सींचा, सभ्यता नष्ट कर डाली और समस्त जातियों को हताश कर डाला. यदि यह सब न होता, तो मानव-समाज आज की अवस्था से कहीं अधिक उन्नत हो गया होता. पर अब उनका भी समय आ गया है, और मैं पूर्ण आशा करता हूं कि जो घंटे आज सुबह इस सभा के सम्मान के लिए बजाये गये हैं, वे समस्त कट्टरताओं, तलवार या लेखनी के बल पर किये जानेवाले समस्त अत्याचारों तथा एक ही लक्ष्य की ओर अग्रसर होनेवाले मानवों कीपारस्परिक कटुताओं के लिए मृत्यु-नाद ही सिद्ध होंगे.
धर्म-महासभा : स्वागत के उत्तर में
(11 सितंबर,1893)
हमारा उद्देश्य क्या है?
संसार ज्यों-ज्यों आगे बढ़ रहा है, त्यों-त्यों जीवन-समस्या गहरी और व्यापक हो रही है. उस पुराने जमाने में जबकि समस्त जगत् के अंखडत्वरूप वैदांति सत्य का प्रथम आविष्कार हुआ था, तभी से उन्नति के मूलमंत्रों और सारतत्वों का प्रचार होता आ रहा है. विश्वब्रह्मांड का एक परमाणु सारे संसार को अपने साथ बिना घसीटे तिल भर भी नहीं हिल सकता. जब तक सारे संसार को साथ-साथ उन्नति के पथ पर आगे नही बढ़ाया जायेगा, तब तक संसार के किसी भी भाग में किसी भी प्रकार की उन्नति संभव नहीं है, और दिन प्रतिदिन यह और भी स्पष्ट हो रहा है कि किसी प्रश्न की मीमांसा सिर्फ जातीय, राष्ट्रीय या किन्हीं संकीर्ण भूमियों पर नहीं टिक सकती. प्रत्येक विषय को तथा प्रत्येक भाव को तब तक बढ़ाना चाहिए, जब तक उसमें सारा संसार न आ जाये. प्रत्येक आकांक्षा को तब तक बढ़ाते रहना चाहिए, जब तक वह समस्त मनुष्य जाति को ही नहीं, वरन् समस्त् प्राणि-जगत् को आत्मसात् न कर ले. इससे विदित होगा कि क्यों हमारा देश गत कई सदियों से वैसा महान नहीं रह गया है, जैसा वह प्रचीनकाल में था. हम देखते हैं कि जिन कारणों से वह गिर गया है, उनमें से एक कारण है, दृष्टि की संकीर्णता तथा कार्यक्षेत्र का संकोच.
जगत् में दो ऐसे आश्चर्यजनक राष्ट्र हो गये हैं, जो एक ही जाति से प्रस्फुटित हुए हैं, परंतु भिन्न परिस्थितियों और घटनाओं में स्थापित रह कर प्रत्येक ने जीवन की समस्याओं को अपने ही निराले ढंग से हल कर लिया है-मेरा मतलब प्रचीन हिंदू और प्राचीन यूनानी जातियों से है. भारतीय आर्यो की उत्तरी सीमा हिमालय की उन बर्फीली चोटियों से घिरी हुई है, जिनके तहमें समभूमि पर समुद्र सी स्वच्छतया सरिताएं हिलोरें मार रही हैं और वहां वे अनंत अरण्य वर्तमान हैं, जो आर्यो के संसार के अंतिम छोर से प्रतीत हुए. इन सब मनोरम दृश्यों को देख कर आर्यो का मन सहज ही अंतर्मुखी हो उठा. आर्यो का मुख सूक्ष्म-भावग्राही था, और चारों ओर घिरी महान दृश्यावली देखने का यह स्वाभाविक फल हुआ कि आर्य अंतस्तत्व के अनुसंधान में लग गये, चित्त का विेषण भारतीय आर्यो का मुख्य ध्येय हो गया. दूसरी ओर यूनानी जाति संसार के एक दूसरे भाग में पहुंची, जो उदात्त की अपेक्षा सुंदर अधिक था. यूनानी टापुओं के भीतर के वे सुंदर दृश्य, उनके चारों ओर की वह हास्यमयी किंतु निराभरण प्रकृति देख कर यूनानी का मन स्वाभावत: बहिर्मुख हुआ और उसने ब्रह्म-संसार का विश्लेषण करना चाहा. परिणामत: हम देखते हैं कि समस्त विश्लेषणात्मक विज्ञानों का विकास भारत में हुआ और सामान्यीकरण के विज्ञानों के विकास यूनान में. हिंदुओं का मानस अपनी ही कार्य-दिशा में अग्रसर हुआ और उसने अद्भुत परिणाम प्राप्त किये. यहां तक कि वर्तमान समय में भी, हिंदुओं की वह विचारशक्ति-वह अपूर्व शक्ति जिसे भारतीय मस्तिष्क अब तक धारण करता है-बेजोड़ है. हम सभी जानते हैं कि हमारे लड़के दूसरे देश के लड़कों से प्रतियोगिता में सदा ही विजय प्राप्त करते हैं. परंतु साथ ही, शायद मुसलमानों के विजय प्राप्त करने की दो शताब्दी पहले ही जब हमारी जातीय-शक्ति क्षीण हुई, उस समय हमारी यह जातीय प्रतिभा ऐसी अतिरंजित हुई कि वह स्वयं ही अधोपतन की ओर अग्रसर हुई और वहीं अधोपतन अब भारतीय शिल्प, संगीत, विज्ञान आदि प्रत्येक विषय में दिखायी दे रहा है.
शिल्प में अब वह व्यापक परिकल्पना नहीं रह गयी है, भावों की वह उदात्तता तथा रूपाकार के सौष्ठव की वह चेष्टा अब और नहीं रह गयी है, किंतु उसकी जगह अत्यधिक अलंकरण तथा भड़कीलेपन का समावेश हो गया है. जाति की सारी मौलिकता नष्ट हो चली है. संगीत में चित्त को मस्त कर देनेवाले वे गंभीर भाव, जो प्राचीन संस्कृत में पाये जाते हैं, अब नहीं रहे-पहले की तरह उनमें से प्रत्येक स्वर अब अपने पैरों पर खड़ा हो सकता, वह अपूर्व एकतानता नहीं छोड़ सकता. प्रत्येक स्वर अपनी विशिष्टता खौ बैठा है. हमारे समग्र आधुनिक संगीत में नाना प्रकार के स्वर-रागों की खिचड़ी हो गयी है, उसकी बहुत ही बुरी दशा हो गयी है. संगीत की अवनति का यही चिह्न् है. इसी प्रकार यदि तुम अपनी भावात्मक परिकल्पनाओं का विश्लेषण करके देखो, तो तुमको वही अतिरंजना और अलंकरण की ही चेष्टा और मौलिकता का नाश मिलेगा, और यहां तक कि तुम्हारे विशेष क्षेत्र धर्म में भी, वही भयानक अवनति हुई है. उस जाति से तुम क्या आशा कर सकते हो, जो सैकड़ों वर्ष तक यह जटिल प्रश्न हल करती रह गयी कि पानी भरा लोटा दाहिने हाथ से पीना चाहिए या बायें हाथ से. इससे और अधिक अवनति क्या हो सकती है कि देश के बड़े-बड़े मेधावी मनुष्य भोजन के प्रश्न को लेकर तर्क करते हुए सैंकड़ों वर्ष बिता दें, इस बात पर वाद-विवाद करते हुए कि तुम हमें छूने लायक हो या हम तुम्हें, और इस छूत-अछूत के कारण कौन सा प्रायश्चित करना पड़ेगा? वेदांत के वे तत्व, ईश्वर और आत्मा संबंधी सबसे उदात्त महान सिद्धांत, जिनका सारे संसार में प्रचार हुआ था, प्राय: नष्ट हो गये, निबिड़ अरण्य निवासी कुछ संन्यासियों द्वारा रक्षित होकर वे छिपे रहे और शेष सब लोग केवल छूत-अछूत, खाद्य-अखाद्य और वेशभूषा जैसे गुरुत्तर प्रश्नों को हल करने में व्यस्त रहे! हमें मुसलमानों से कई अच्छे विषय मिले, इसमें कुछ संदेह नहीं, किंतु वे हमारी जाति में शक्ति का संचार नहीं कर सके.
इसके पश्चात शुभ के लिए हो, चाहे अशुभ के लिए, भारत में अंगरेजों की विजय हुई. किसी जाति का विजित होना नि:संदेह बुरी चीज है, विदेशियों का शासन कभी भी कल्याणकारी नहीं होता. किंतु फिर भी, अशुभ के माध्यम से कभी-कभी शुभ का आगमन होता है. अतएव, अंगरेजों की विजय का शुभ फल ये है: इंग्लैंड तथा समग्र यूरोप को सभ्यता के लिए यूनान के प्रति ऋणी होना चाहिए, क्योंकि यूरोप के सभी भावों में मानो यूनान का ही प्रतिनिधित्व सुनायी दे रहा है. यहां तक कि उसके प्रत्येक मकान में, मकान के प्रत्येक फर्नीचर में यूनान की ही छाप दिखायी पड़ती है. यूरोप के विज्ञान, शिल्प आदि सभी यूनान ही के प्रतिबिंब हैं. आज वहीं प्राचीन यूनान तथा प्राचीन हिंदू भारत-भूमि पर मिल रहे हैं. इस प्रकार धीर और नि:स्तब्ध भाव से एक परिवर्तन आ रहा है और आज हमारे चारों ओर जो उदार, जीवनप्रद पुनरुत्थान का आंदोलन दिखायी दे रहा है, वह सब इन दो विभिन्न भागों के सम्मिलन का ही फल है. अब मानव जीवन संबंधी अधिक व्यापक और उदार धारणाएं हमारे सम्मुख हैं. यद्यपि हम पहले कुछ भ्रम में पड़ गये थे और भावों को संकीर्ण करना चाहते थे, पर अब हम देखते हैं कि आजकल ये जो महान भाव और जीवन की ऊंची धारणाएं काम कर रही हैं, हमारे प्राचीन ग्रंथों में लिखे हुए तत्वों की स्वाभाविक परिणति ही है. ये उन बातों का यथार्थ न्यायसंगत कार्यान्वयन मात्र है, जिनका हमारे पूर्वजों ने पहले ही प्रचार किया था. विशाल बनना, उदार बनना, क्रमश: सार्वभौम भाव में उपनीत होना- यही हमारा लक्ष्य है. परंतु हम ध्यान न देकर अपने शास्त्रोपदेशों के विरुद्ध दिनोंदिन अपने को संकीर्ण से संकीर्णतर करते जा रहे हैं.
हमारी उन्नति के मार्ग में कुछ विघ्न हैं और उनमें प्रधान हैं, हमारी यह धारणा कि संसार में हम सर्वोच्च जाति के हैं. मैं हृदय से भारत को प्यार करता हूं. स्वदेश के हितार्थ मैं सदा कमर कसे तैयार रहता हूं, पूर्वजों पर मेरी आंतरिक श्रद्धा और भक्ति है, फिर भी मैं अपना यह विचार नहीं त्याग सकता कि संसार से हमें भी बहुत कुछ शिक्षा प्राप्त करनी है, शिक्षा-ग्रहणार्थ हमें सब के पैरों तले बैठना चाहिए, क्योंकि ध्यान इस बात पर देना आवश्यक है कि सभी हमें महान शिक्षा दे सकते हैं. हमारे महान श्रेष्ठ स्मृतिकार मनु महराज की उक्ति है, ‘नीच जातियों से भी श्रद्धा के साथ हितकारी विद्या ग्रहण करनी चाहिए और निम्नतम अन्त्यज ही क्यों न हो, सेवा द्वारा उससे भी श्रेष्ठ धर्म की शिक्षा प्राप्त करनी चाहिए.
अतएव, यदि हम मनु की सच्ची संतान हैं, तो हमें उनके आदेशों को अवश्य ही पालन करना चाहिए और जो कोई हमें शिक्षा देने के योग्य है, उसी से ऐहिक या पारमार्थिक विषयों में शिक्षा ग्रहण करने के लिए हमें सदा तैयार रहना चाहिए. किंतु साथ ही यह भी नहीं भूलना चाहिए कि संसार को हम भी कोई विशेष शिक्षा दे सकते हैं. भारत का बाहर के देशों से संबंध जोड़े बिना हमारा काम नहीं चल सकता. किसी समय हम लोगों ने जो इसके विपरीत सोचा था, वह हमारी मूर्खता मात्र थी और उसी की सजा का फल है कि हजारों वर्षो से हम दासता के बंधनों में बंध गये हैं. हम लोग दूसरी जातियों से अपनी तुलना करने के लिए विदेश नहीं गये और हमने संसार की गति पर ध्यान रख कर चलना सीखा. यही भारतीय मन की अवनति का प्रधान कारण है. हमें पर्याप्त सजा मिल चुकी है, अब हमें ऐसा नहीं करना चाहिए. भारत से बाहर जाना भारतीयों के लिए अनुचित है-इस प्रकार की वाहियात बातें बच्चों की ही हैं. उन्हें दिमाग से बिल्कुल निकाल फेंकनी चाहिए. जितना ही तुम भारत से बाहर अन्यान्य देशों में घूमोगे, उतना ही तुम्हारा और तुम्हारे देश का कल्याण होगा. यदि तुम पहले ही से-कई्र सदियों से पहले ही से-ऐसा करते, तो आज उन राष्ट्रों से पदाक्रांत न होते, जिन्होंने तुम्हें दबाने की कोशिश की. जीवन का पहला और स्पष्ट लक्षण है विस्तार. अगर तुम जीवित रहना चाहते हो, तो तुम्हे विस्तार करना ही होगा. जिस क्षण से तुम्हारे जीवन का विस्तार बंद हो जायेगा, उसी क्षण से जान लेना कि मृत्यु ने तुम्हे घेर लिया है, विपत्तियां तुम्हारे सामने हैं.
(ट्रिप्लिकेन व्याख्यान)
नवयुवकों का आह्वान
प्रत्येक जाति के लिए उद्देश्य साधन की अलग-अलग प्रणालियां हैं. कोई राजनीति, कोई समाज सुधार और कोई किसी दूसरे विषय को अपना प्रधान आधार बना कर कार्य करती है. हमारे लिए धर्म की पृष्ठभूमि लेकर कार्य करने के सिवा दूसरा उपाय नहीं है. अंगरेज राजनीति के माध्यम से भी धर्म समझ सकते हैं. अमेरिकी शायद समाज सुधार के माध्यम से धर्म समझ सकते हैं. परंतु हिंदू राजनीति, समाज विज्ञान और दूसरा जो कुछ है, सबको धर्म के माध्यम से ही समझ सकते हैं. हमारे राष्ट्रीय जीवन संगीत का मानो यही प्रधान स्वर है. दूसरे तो उसी के कुछ परिवर्तित किये हुए गौण स्वर हैं. और इसी प्रधान स्वर के नष्ट होने की शंका हो रही थी. ऐसा लगता है मानो हम लोग अपने राष्ट्रीय जीवन के इस मूल भाव को हटा कर उसकी जगह एक दूसरा भाव स्थापित करने जा रहे थे. हम लोग जिस मेरूदंड के बल पर खड़े हुए हैं, मानो उसकी जगह दूसरा कुछ स्थापित करने जा रहे थे. अपने राष्ट्रीय जीवन के धर्मरूपी मेरूदंड की जगह राजनीति का मेरूदंड स्थापित करने जा रहे थे. यदि इसमें हमें सफलता मिलती, तो इसका पूर्ण फल विनाश होता. परंतु ऐसा होनेवाला नहीं था. यही कारण है कि इस महाशक्ति का आविर्भाव हुआ. मुझे इस बात की चिंता नहीं है कि तुम इस महापुरुष को किस अर्थ में ग्रहण करते हो और उसके प्रति कितना आदर रखते हो, किंतु मैं तुम्हें यह चुनौती के रूप में अवश्य बता देना चाहता हूं, कि अनेक शताब्दियों से भारत में विद्यमान अद्भुत शक्ति का यह प्रकट रूप है.
(कलकत्ता व्याख्यान)
आगामी भारत
भारत की संतानों, तुमसे आज मैं यहां कुछ व्यावहारिक बातें कहूंगा. तुम्हें तुम्हारे पूर्व गौरव की याद दिलाने का उद्देश्य केवल इतना ही है: कितनी ही बार मुझसे कहा गया कि अतीत की ओर नजर डालने से सिर्फ मन की अवनति ही होती है और इससे कोई फल नहीं होता, अत: हमें भविष्य की ओर दृष्टि रखनी चाहिए. यह सच है. परंतु अतीत से ही भविष्य का निर्माण होता है. अत: जहां तक हो सके, अतीत की ओर देखो, पीछे जो चिरंतन निर्झर बह रहा है, आकंठ उसका जल पियो और उसके बाद सामने देखो और भारत को उज्वलतर महत्तर और पहले से और भी ऊंचा उठाओ. हमारे पूर्वज महान थे. पहले यह बात हमें याद करनी होगी. हमें समझना होगा कि हम किन उपादानों से बने हैं, कौन सा खून हमारी नसों में बह रहा है. उस खून पर हमें विश्वास करना होगा और अतीत के उसके कृतित्व पर भी. इस विश्वास और अतीत गौरव के ज्ञान से हम अवश्य एक ऐसे भारत की नींव डालेंगे, जो पहले से श्रेष्ठ होगा. अवश्य ही यहां, बीच-बीच में दुर्दशा और अवनति के युग भी रहे हैं, पर उनको मैं अधिक महत्व नहीं देता. ऐसे युगों का होना आवश्यक था. किसी विशाल वृक्ष से एक सुंदर पका हुआ फल पैदा हुआ, फल जमीन पर गिरा, मुरझाया और सड़ा, इस विनाश से जो अंकुर उगा, संभव है वह पहले के वृक्ष से बड़ा हो जाये. अवनति के जिस युग के भीतर से भविष्य का भारत आ रहा है, वह अंकुरित हो चुका है. उसके नये पल्लव निकल चुके हैं और उस शक्तिधर विशालकाय ऊर्ध्वमूल वृक्ष का निकलना शुरू हो चुका है. और उसी के संबंध में मैं तुमसे कहने जा रहा हूं.
किसी भी दूसरे देश की अपेक्षा भारत की समस्याएं अधिक जटिल और गुरुत्तर हैं. जाति, धर्म, भाषा, शासन-प्रणाली-ये ही एक साथ मिल कर एक राष्ट्र की सृष्टि करते हैं. यदि एक-एक जाति को लेकर हमारे राष्ट्र से तुलना की जाये, तो हम देखेंगे कि जिन उपादानों से संसार के दूसरे राष्ट्र संगठित हुए हैं, वे संख्या में यहां के उपादानों से कम हैं. यहां आर्य हैं, द्रविड़ हैं, तातार हैं, तुर्क हैं, मुगल हैं, यूरोपीय हैं-मानो संसार की सभी जातियां इस भूमि में अपना खून मिला रही हैं. भाषा का एक विचित्र ढंग का जमावड़ा है. आचार-व्यवहारों के संबंध में दो भारतीय जातियों में जितना अंतर है, उतना पूर्वी और यूरोपीय जातियों में नहीं. हमारी एकमात्र सम्मिलन-भूमि है- हमारी पवित्र परंपरा, हमारा धर्म. एकमात्र सामान्य आधार वही है, और उसी पर हमें संगठन करना होगा. यूरोप में राजनीति विचार ही राष्ट्रीय एकता का कारण है. किंतु एशिया में राष्ट्रीय ऐक्य का आधार धर्म ही है. अत: भारत के भविष्य संगठन की पहली शर्त के तौर पर उसी धार्मिक एकता की आवश्यकता है. देश भर में एक ही धर्म सबको स्वीकार करना होगा. एक ही धर्म से मेरा क्या मतलब है ? यह उस तरह का एक ही धर्म नहीं, जिसका ईसाइयों, मुसलमानों या बौद्धों में प्रचार है. हम जानते हैं, हमारे विभिन्न संप्रदायों के सिद्धांत तथा दावे चाहे कितने ही विभिन्न क्यों न हों, हमारे धर्म में कुछ सिद्धांत ऐसे हैं, जो सभी संप्रदायों द्वारा मान्य हैं. उनको ही स्वीकार करने पर हमारे धर्म में अद्भुत विविधता के लिए गुंजाइश हो जाती है. और साथ ही विचार और अपनी रुचि के अनुसार जीवन-निर्वाह के लिए संपूर्ण स्वाधीनता प्राप्त हो जाती है. हम लोग, कम से कम वे, जिन्होंने इस पर विचार किया है, यह बात जानते हैं और अपने धर्म के ये जीवनप्रद सामान्यतत्व हम सब के सामने लाएं और देश के सभी स्त्री-पुरुष, बाल-वृद्ध, उन्हें जानें समङों तथा जीवन में उतारें-यही हमारे लिए आवश्यक है. सर्वप्रथम यही हमारा कार्य है.
अत: हम देखते हैं कि एशिया में और विशेषत: भारत में जाति, भाषा, समाज संबंधी सभी बाधाएं धर्म की इस एकीकरण शक्ति के सामने उड़ जाती हैं. हम जानते हैं कि भारतीय मन के लिए धार्मिक आदर्श से बड़ा और कुछ भी नहीं है. धर्म ही भारतीय जीवन का मूलमंत्र है और हम केवल सबसे कम बाधावाले मार्ग का अनुसरण करके ही कार्य में अग्रसर हो सकते हैं. यह केवल सत्य ही नहीं कि धार्मिक आदर्श यहां सबसे बड़ा आदर्श है, किंतु भारत के लिए कार्य करने का एकमात्र संभाव्य उपाय यही है. पहले उस पथ को सुदृढ़ किये बिना, दूसरे मार्ग से कार्य करने पर उसका फल घातक होगा. इसीलिए भविष्य के भारत-निर्माण का पहला कार्य, वह पहला सोपान, जिसे युगों के उस महाचाल पर खोद कर बनाना होगा, भारत की यह धार्मिक एकता ही है. यह शिक्षा हम सबको मिलनी चाहिए कि हम हिंदू-द्वैतवादी, विशिष्टाद्वैतवादी या अद्वैतवादी, अथवा दूसरे संप्रदाय के लोग, जैसे शैव, वैष्णव, पाशुपति आदि भिन्न-भिन्न मतों के होते हुए भी आपस में कुछ समान भाव भी रखते हैं, और अब वह समय आ गया है कि अपने हित के लिए, अपनी जाति के हित के लिए, हम इन तुच्छ भेदों और विवादों को त्याग दें. सचमुच ये झगड़े बिल्कुल वाहियात हैं. हमारे शास्त्र इनकी निंदा करते हैं. हमारे पूर्वजों ने इनके बहिष्कार का उपदेश दिया है. लड़ाई-झगड़े छोड़ने के साथ ही अन्य विषयों की उन्नति अवश्य होगी, यदि जीवन का रक्त सशक्त एवं शुद्ध है, तो शरीर में विषैले किटाणु नहीं रह सकते. हमारी आध्यात्मिकता ही हमारा जीवनरक्त है. यदि यह साफ बहता रहे, यदि यह शुद्ध है तो सब कुछ ठीक है. राजनीति, सामाजिक, चाहे जिस किसी तरह की ऐहिक त्रुटियां हों, चाहे देश की निर्धनता ही क्यों न हो, यदि खून शुद्ध है, तो सब सुधर जायेंगे.
(भारत में दिया गया अंतिम भाषण)
समाज को विवेकानंद की बतायी राह पर लौटना होगा
।। स्वामी शांतात्मानंद।।
(सचिव, रामकृष्ण मिशन आश्रम, नयी दिल्ली)
1897 में विवेकानंद द्वारा स्थापित रामकृष्ण मिशन आज भी न सिर्फ जीवित है, बल्कि दुनिया के लाखों लोगो के लिए उम्मीद का केंद्र बना हुआ है. यह संगठन शिक्षा, स्वास्थ्य आदि सामाजिक क्षेत्रों में अपने अथक सेवा कार्यो के लिए दुनियाभर में अपना खास और सम्मानित स्थान रखता है. देश की राजधानी दिल्ली में स्थित रामकृष्ण मिशन आश्रम में भी इस सेवा भावना के साकार रूप को देखा जा सकता है. दिल्ली आश्रम के सचिव स्वामी शांतात्मानंद पिछले चालीस साल से बतौर संन्यासी मठ में हैं और लगातार स्वामी विवेकानंद के विचारों को आगे बढ़ाने के लिए प्रयासरत हैं. वर्तमान में रामकृष्ण मिशन की स्थापना के उद्देश्य और स्वामी विवेकानंद के विचारों का किस तरह निर्वाह हो रहा है, जैसे सवालों पर स्वामी शांतात्मानंद से प्रीति सिंह परिहार की बातचीत के मुख्य अंश..
-स्वामी विवेकानंद ने कहा था ‘दरिद्र देवो भव:’. वे आम जन की सेवा को ही धर्म मानते थे. आज उनके इस विचार का किस तरह से निर्वाह होते देखते हैं?
समाज में लोग जैसे-जैसे स्वामी विवेकानंद जी के विचारों से प्रभावित हुए हैं, वैसे-वैसे परिवर्तन आया है. हिंदू धर्म शास्त्र में शुरू से सेवा का संदेश था लेकिन पहले लोग सेवाकार्य को दूसरी तरह से देखते थे. जो लोग साधक बनते थे, आध्यात्मिक दिशा में चलना चाहते थे, उनकी धारणा थी कि कर्म से दूर रहना चाहिए. इसलिए वे कर्म छोड़ कर, वानप्रस्थ होकर संन्यासी की तरह रहते थे. लेकिन, स्वामी विवेकानंद ने कहा कि धरती पर मानव सेवा के अनेक प्रयोजन हैं. क्यों न, हम ऐसा कुछ करें कि हर काम मनुष्य को भगवान की तरफ ले जाये. इसका आधार बनी वह शिक्षा, जो उन्हें श्रीरामकृष्ण परमहंस से मिली. वे जब श्रीरामकृष्ण देव के घर दक्षिणोश्वर गये, तो सिर्फ नरेंद्रनाथ थे. श्रीरामकृष्ण ने उन्हें वैष्णव धर्म के बारे में बाताया. वैष्णव धर्म में तीन प्रधान चीजें हैं. भगवान के नाम में रुचि, जीव पर दया और वैष्णव सेवा. श्रीरामकृष्ण, भगवान के नाम में रुचि और जीव पर दया बोल कर समाधिष्ट हो गये. नरेंद्र ने सोचा यह कैसे संभव है, जीव इतना छोटा है, इतना सूक्ष्म है, कीट के समान है, उस पर कैसे कोई दया दिखायेगा? यह दया नहीं है, सेवा है, शिव ज्ञान से जीव सेवा. हर जीव में भगवान के दर्शन करके उसकी सेवा करना. नरेंद्र ने कहा कि मैंने आज नयी शिक्षा प्राप्त की. भगवान मुङो समय दें, तो मैं सारे जगत के सामने यह प्रकट कर दूंगा. इसलिए उन्होंने पूरे भारत में घूम कर देखा कि देश की क्या स्थिति है? देश का उद्धार कैसे होगा? वह जब अमेरिका से धर्म सम्मेलन में भाग लेकर वापस आये, तो उसी समय उन्होंने ‘अपनी मुक्ति के लिए, जगत के कल्याण के लिए’ रामकृष्ण मिशन की स्थापना की.
रामकृष्ण से उन्होंने जो शिक्षा प्राप्त की थी, उसमें मिशन को ढाला. यह बताया कि इस सृष्टि के माध्यम से हम जो भी काम करें, स्कूल या अस्पताल चलाएं, राहत कार्य करें, रैन बसेरे बनायें, सबके साथ आध्यात्मिक भाव रखें. ‘मैं ऊंचा हूं,’ ‘किसी के लिए कर रहा हूं’, जैसी सोच अहंकार है. ‘मेरे सामने जो है, वह भगवान का स्वरूप है, भगवान का प्रकाश है’, ऐसी सोच की साथ की गयी सेवा ही सच्ची साधना होगी. इस वजह से, देश के सारे अखाड़ों और संन्यासियों की, जो कर्म को बंधन समझते थे, धीरे-धीरे सोच बदली है और वे भी सेवा कार्यो में संलग्न हो गये हैं. इस सोच के साथ कि ऐसा करने से पवित्रता आयेगी. आज भारत में जितना सेवा कार्य होता है, ज्यादा से ज्यादा ऐसी संस्थाएं ही कर रही हैं. मेरे ख्याल से यह सब स्वामी जी के प्रभाव से हुआ है.
-मिशन की स्थापना जिस उद्देश्य के साथ हुई थी, उन उद्देश्यों को पूरा करने के सामने किस तरह की चुनौतियां हैं?
एक वक्त ऐसा था, जब स्वामी जी की बातें बड़े पैमाने पर लोग न सिर्फ सुनते थे, अपने जीवन में उनका अनुसरण भी करते थे. लेकिन, आज हम देश का दूसरा चेहरा देख रहे हैं. उनके सपनों का भारत साकार नहीं हुआ, उनके संदेश को लोग भूल गये. जैसे आजादी प्राप्त करके, आजादी के महत्व को भूल गये. आजादी दिलानेवालों को भूल गये. भोगवाद हावी हो गया, इसलिए आज देश की यह हालत हो गयी है. लेकिन स्वामी जी के 150वीं जयंती वर्ष में देश भर में जिस तरह से कार्यक्रम हुए, मैंने देखा कि फिर से एक तरह का पुनर्जागरण हो रहा है. हजारों-हजार युवक इन कार्यक्रमों में शामिल हुए. मिशन के उद्देश्यों से जुड़े. इसलिए मुङो लगता है कि युवा पीढ़ी में दोबारा एक नयी चेतना आ रही है. युवाओं में जन सेवा, देश सेवा की भावना जागृत हो रही है. मिशन की कोशिश है कि अधिक से अधिक युवा स्वामी विवेकानंद के उद्देश्यों में सहभागी बनें. मुझे विश्वास है कि स्वामी जी का भारत को गौरवपूर्ण राष्ट्र बनाने का सपना जरूर पूरा होगा. इस दिशा में मिशन आगे बढ़ रहा है. लगातार यूथ प्रोग्राम कर रहा है. यूथ फोरम बनाये गये हैं, जिनमें नियमित रूप से युवाओं से चरचा की जाती है कि कैसे इस मानव सेवा की दिशा में आगे बढ़ा जाये. युवाओं के संशयों का समाधान किया जाता है.
-आज समाज में किस तरह के बदलाव की विशेष तौर पर जरूरत लगती है आपको?
भारत को युवाओं का देश कहा जा रहा है. इसलिए इस समय ज्यादा से ज्यादा युवाओं के बारे में ही सोचने की जरूरत है. युवाओं में वैचारिक दृष्टि से एक बड़े परिवर्तन की आवश्यकता है और रामकृष्ण मिशन मानस परिवर्तन की दिशा में काम कर रहा है. सब जानते हैं कि एक रात में कुछ नहीं बदलता, इसलिए बदलाव आने में समय लगेगा, लेकिन इसकी शुरुआत देश में हो चुकी है. पांच-छह साल बाद इसका आकलन कर सकते हैं कि असल में इसमें कितनी सफलता मिली या नहीं मिली, तो क्या वजहें थीं? लेकिन लगातार प्रयास से बदलाव जरूर आयेगा.
-आपको नहीं लगता कि आज नैतिक शिक्षा पर विशेष जोर देने की आवश्यकता है?
स्वामी विवेकानंद कहते थे कि तमस में डूब कर आदमी सोया रहता है. पहले उसे जगाना होगा. रजस में आते समय भी दिक्कतें आयेंगी, लेकिन जब वह सतोगुण की तरफ आयेगा, तो स्थितियां सुधरेंगी. आज समाज की हालत ऐसी इसलिए है, क्योंकि लोगों के पास अचानक से बहुतायत में धन आया है. तथाकथित विकास का प्रभाव है. इसलिए समाज में विसंगतियां बढ़ी हैं. लेकिन लोग धीरे-धीरे स्वामी विवेकानंद की बतायी राह की और लौट रहे हैं और लौटेंगे. इसके लिए सबको मिल कर काम करना होगा .
-वर्तमान परिदृश्य में स्वामी विवेकानंद की शिक्षा किस तरह प्रासंगिक है?
अगर देश की पूरी शिक्षा पद्धति वैसी कर दें, जैसा स्वामी विवेकानंद कहते थे, तो भारत आज जिन समस्याओं से जूझ रहा है, वो पंद्रह-बीस साल के अंदर पूरी तरह समाप्त हो जायेंगी. स्वामी जी ने कहा, शिक्षा में सशक्तीकरण भी शामिल होना. शिक्षा ऐसी हो, जो विद्यार्थियों को सशक्त बनाये. लेकिन शिक्षा प्राप्त करके अवसाद में जाना, आत्महत्या करना, नौकरी न मिलना, जैसी चीजें बताती हैं कि यह पद्धति ठीक नहीं है. स्वामी जी ने कहा है, आपके अंदर जो शक्ति विद्यमान है, उसे बाहर निकालना ही शिक्षा है. अंदर की पूर्णता का प्रकाश शिक्षा है. लेकिन लॉर्ड मैकाले जो छोड़ शिक्षा पद्धति छोड़ कर कर गये, देश में वही चली आ रही है. इसे बदलना होगा. शिक्षा पद्धति ऐसी हो, जो आपके स्वरूप और देश के बारे में बताये. कैसे जीवन-यापन करना चाहिए, यह बताये. वैसे अब एक तरह का जन जागरण सब जगह आ रहा है. राजनीति में इस बदलाव को देखा जा सकता है. हालांकि रामकृष्ण मिशन कभी राजनीति में भाग नहीं लेता. कभी किसी दल के समर्थन में नहीं खड़ा होता है, सब यह बात जानते हैं. लेकिन आम आदमी पार्टी की दिल्ली चुनाव में जीत संकेत है नव जागरण का. पहले दो दिन में चीजों को इधर-उधर करके बदल दिया जाता था. अब किसी का साहस नहीं है कि ऐसा कर ले. सबको पकड़े जाने का डर है. बड़े पैमाने पर पढ़े-लिखे युवा देश में व्यवस्था परिवर्तन के लिए आगे आये हैं. मैं नहीं जानता कि इस पार्टी का भविष्य क्या होगा, आगे क्या योजना है, क्या कर पायेंगे, मैं इस सबमें नहीं जाऊंगा. मैं इस बारे में कुछ नहीं जानता, लेकिन एक तरह का जागरण तो दिख ही रहा है.
-रामकृष्ण मिशन वर्तमान में किस तरह से काम कर रहा है?
तकरीबन एक करोड़ अस्सी लाख छात्र विभिन्न जगहों पर मिशन के माध्यम से शिक्षा ग्रहण कर रहे हैं. रोज मिशन के अस्पतालों और डिस्पेंसरियों में बड़े पैमाने पर लोगों को मुफ्त चिकित्सा सेवा मुहैया करायी जाती है. स्कूल, कॉलेज, नॉन फॉर्मल एजुकेशन, ट्रेनिंग फॉर यंगस्टर्स ऐसे बहुत से काम मिशन कर रहा है.
-आर्थिक चुनौतियां भी होंगी?
सरकार की सहायता और डोनेशन से कम से कम खर्च पर मिशन अपने सेवा कार्य को आगे बढ़ा रहा है. बहुत से लोग नि:शुल्क सेवा देते हैं. दिल्ली में ही करीब सत्तर डॉक्टर रजिस्टर्ड हैं रामकृष्ण मिशन की डिस्पेंसरी में, जो यहां आकर नि:शुल्क मरीजों को देखते हैं. कुछ मात्र आने-जाने का किराया लेकर यहां सेवा देते हैं. कोलकाता में इस तरह से दो सौ- तीन सौ डॉक्टर जुड़े हैं.
-कुछ कट्टरवादी हिंदू संगठन स्वामी विवेकानंद को अपने साथ जोड़कर देखते हैं. इस पर क्या कहेंगे?
स्वामी विवेकानंद ने पहली धर्म महासभा से लेकर अपने पूरी जीवनकाल तक समन्वय और समानता की बात की, फिर वह कट्टरवादी कैसे हो सकते हैं? लेकिन, वह चाहते थे कि हिंदुओं के अंदर पुनर्जागरण हो. हिंदुत्व में क्या है, वे यह जानें. दरअसल, हिंदुत्व की समस्या हिंदुत्व के अंदर से ही है. आप उत्तर प्रदेश जाएं, दक्षिण में देखें, अब भी लोगों के व्यवहार में छुआ-छूत की भावना हावी है .
इस वजह से ही धर्मातरण होता है. हिंदुत्व अगर स्वयं में मजबूत हो जायेगा, तो कोई और उसे नुकसान नहीं पहुंचा सकता. इसलिए स्वामी जी ने कहा था कि अपना धर्म क्या है, इसे आप अच्छे से समझो. अगर आप अपने धर्म के बारे में कुछ नहीं समझते हैं और झंडा उठा कर दूसरे से झगड़ते हैं, तो इसका कोई फायदा नहीं. आप पूछिए, हिंदुत्व को माननेवाले कितने लोग सभी जातियों के लोगों के साथ बैठ कर भोजन करने के लिए तैयार हैं? छुआ-छूत की भावना त्यागने के लिए कितने तैयार हैं? अगर वे इसके लिए तैयार हैं, तो समस्या अपने आप ही हल हो जायेगी.
-मौजूदा समय में बच्चों के चरित्र निर्माण के लिए क्या किये जाने की खास आवश्यकता है?
चरित्र निर्माण के लिए रामकृष्ण मिशन ने बहुत से कार्यक्रम किये हैं. वैल्यू एजुकेशन प्रोग्राम्स अभी भी चल रहे हैं. इसके लिए 7वीं, 8वीं और 9वीं कक्षा के छात्रों को चुना गया है. इससे छोटी कक्षा के छात्र इस शिक्षा को ग्रहण करने के लिहाज से बहुत छोटे हैं और दसवीं से छात्रों की व्यस्तता बढ़ जाती है. इन कक्षाओं के छात्रों की उम्र बेस्ट है नैतिक शिक्षा के लिए. इसमें धार्मिक उपदेश नहीं दिये जा रहे हैं. ये करो, ये न करो नहीं बताया जा रहा है. यह प्रयास किया जा रहा है कि छात्र स्वयं अपने भीतर की शक्ति को पहचानें. स्वयं उसका आविष्कार करें. इसमें स्वामी जी का मूल विचार,’आपके अंदर जो पूर्णत: है, उसका विकास ही शिक्षा है’ को आगे बढ़ाया जा रहा है. आप के अंदर सब कुछ है, बच्चों में यह विश्वास जगाने का काम किया जा रहा है. अभी दिल्ली में सीबीएसी ने इसे अपने यहां शुरू कर दिया है. अब मिशन पूरे भारत में यह कार्यक्रम कराने के लिए प्रयासरत है. इसी क्रम में भोपाल में 15 जनवरी को स्कूल के प्रिंसपिलों को वैल्यू ऐजुकेशन कार्यक्रम के बारे में बताने के लिए एक वर्कशॉप का आयोजन किया जा रहा है. दिल्ली में दिसंबर में यह वर्कशॉप हुई थी, जिसमें पांच सौ प्रिसिंपल शामिल हुए थे. इस प्रोग्राम के बाद ढाई सौ स्कूलों ने तुरंत सुनिश्चित किया कि इस प्रशिक्षण को अगले साल अपने-अपने स्कूल में शुरू करेंगे.
-स्वामी विवेकानंद जी की विचार-सेवा परंपरा का निर्वाह किस तरह से हो रहा है?
रामकृष्ण मठ और रामकृष्ण मिशन की स्थापना 1897 में हुई थी. 116 साल हो गये, अभी भी यह अटूट है और अपने उद्देश्य में आगे बढ़ रहा है. मठ के संन्यासी स्वामी जी की परंपरा का पूरी निष्ठा से निर्वाह कर रहे हैं और उनके बताये मार्ग पर चल रहे हैं.
भारत का विवेक
करीब सवा सौ साल पहले भारत ही नहीं, विश्व क्षितिज पर ज्ञान के एक प्रकाशपुंज का आविर्भाव हुआ था. आज की दुनिया उस प्रकाशपुंज को विवेकानंद के नाम से जानती है. भारत को आत्मगौरव, प्रवृत्ति और चरित्र निर्माण का संदेश देनेवाले स्वामी विवेकानंद की आज 151वीं जयंती है. विवेकानंद का व्यक्तित्व और उनकी धरोहर जयंतियों की औपचारिकताओं के परे है. उनके विचार हमारी चिंतन धारा में इस तरह समाहित हैं, कि उन्हें छोड़ कर आगे की किसी राह की कल्पना ही नहीं की जा सकती. यह अकारण नहीं कि विवेकानंद के अनुयायी रोमां रोलां ने उन्हें क्राइस्ट और बुद्ध के समतुल्य बताया था. उनका अध्यात्म देश और मानव सेवा की बुनियाद पर टिका था और आज भी इसकी प्रासंगिकता कम नहीं हुई है. विवेकानंद के जीवन और दर्शन के विभिन्न आयामों को समझने की कोशिश करता विशेष.
स्वामी विवेकानंद, अथवा बालक नरेंद्रनाथ दत्त को, उनके माता-पिता ने काशी-स्थित वीरेश्वर महादेव की पूजा कर प्राप्त किया था. नरेंद्र के शैशव का एक दृश्य है कि तीन वर्ष की अवस्था में, वे खेल ही खेल में हाथ में चाकू ले कर, अपने घर के आंगन में उत्पात मचा रहे थे. इसको मार दूं. उसको मार दूं. दो-दो नौकरानियां उनको पकड़ने का प्रयत्न कर रही थीं, और पकड़ नहीं पा रही थीं.
अंतत: माता, भुवनेश्वरी देवी ने नौकरानियों को असमर्थ मान कर परे हटाया और पुत्र को बांह से पकड़ लिया. स्नानागार में ले जा कर उसके सिर पर लोटे से जल डाला और उच्चारण किया, शिव… शिव. बालक शांत हो गया. उत्पात का शमन हो गया. उस समय तक वे विचारक नहीं थे, साधक नहीं थे, संत नहीं थे, किंतु वे वीरेश्वर महादेव के भेजे हुए, आये थे. उस समय ही नहीं, आजीवन ही वे जब-तब आकाश की ओर देखते थे और उनके मुख से उच्चरित होता था, शिव… शिव. परिणामत: उनका मन शांत हो जाता था. पेरिस की सड़कों पर घूमते हुए, भीड़ और पाश्चात्य संस्कृति की भयावहता से परेशान हो जाते थे, तो जेब से शीशी निकाल कर गंगा जल की कुछ बूंदें पी लेते थे. उससे वे हिमालय की शांति और हहराती गंगा के प्रवाह का अनुभव करते थे. स्वामी विवेकानंद की मान्यता थी कि ज्ञान बाहर से नहीं आता. ज्ञान हमारे भीतर ही होता है. आजीवन उसी सुप्त ज्ञान का विकास होता है. इस प्रकार जन्म के समय नवजात शिशु के भीतर जो संस्कार होते हैं, वे ही उसके भावी व्यक्तित्व का निर्माण करते हैं.
किंतु यह तो उनके शैशव की घटना है. बालक के शांत हो जाने पर मां भुवनेश्वरी देवी ने मंदिर में जाकर महादेव शिव के सम्मुख माथा टेक दिया, हे प्रभु, तुम से एक पुत्र मांगा था. तुमने मुझे अपना यह कौन सा भूत भेज दिया है. नरेंद्र, धर्म और ईश्वर की ओर बढ़ते ही चले गये. सोने से पहले ध्यान करते थे और उन्हें ज्योति-दर्शन होता था. वह उनके लिए इतना स्वाभाविक था कि जिस समय रामकृष्ण परमहंस ने उनसे पूछा कि क्या उन्हें ज्योति-दर्शन होता है?
तो नरेंद्र ने चकित होकर पूछा था, क्या अन्य लोगों को नहीं होता? तब तक वे यही मानते आये थे कि सोने से पहले सबको ही ज्योति-दर्शन होता है. वह मनुष्य के जीवन की एक स्वाभाविक प्रक्रिया है.
वे ब्रह्म-समाज में जाते थे. भजन-कीर्तन करते थे. ब्रह्म-समाज के नियमों के ही अनुसार, मूर्ति-पूजा में उनका विश्वास नहीं था. संसार के सारे ही माता-पिता चाहते हैं कि उनकी संतानें धार्मिक और ईश्वर-भीरू हों. वे सद्गुणी हों, मंदिर जाएं, पूजा-पाठ करें और सद्गृहस्थ बनें. किंतु नरेंद्र निरंतर धर्म और ईश्वर की ओर बढ़ते जा रहे थे. सद्गृहस्थ बनने के स्थान पर संन्यासी बनने की दिशा में बढ़ रहे थे. कायस्थ परिवार में जन्म ले कर भी उन्होंने ब्रह्म-समाज के प्रभाव में मांसाहार छोड़ रखा था.
माता-पिता को लगा कि ऐसे तो पुत्र हाथ से ही निकल जायेगा. हाथ में रखने का एक ही उपाय था कि उसका विवाह कर दिया जाये. किंतु नरेंद्र विवाह के लिए तैयार नहीं थे. बहुत प्रयत्न के पश्चात भी जब माता-पिता सफल नहीं हुए, तो उन्होंने रामचंद्र दत्त नाम के, नरेंद्र्र के एक मामा से कहा, तुम्हारी बात वह शायद मान जाये. उसे जरा समझा दो.
रामचंद्र दत्त ने नरेंद्र्र को पकड़ लिया, क्यों रे, विवाह क्यों नहीं करना चाहता? लड़की सांवली है, इसलिए? नरेंद्र ने कहा, यह तो जानता हूं कि घर में मेरे विवाह की चर्चा है, किंतु यह नहीं जानता कि लड़की चुन ली गयी है और वह सांवली है. रामचंद्र दत्त ने बताया कि लड़की सांवली है और क्षतिपूर्ति के लिए लड़की के पिता दहेज में दस सहस्र रुपये देने को तैयार हैं. नरेंद्र ने कहा कि न तो उन्हें दहेज चाहिए और न ही उनके विवाह से भागने का कारण, लड़की का सांवलापन है. तो फिर क्या कारण है? रामचंद्र दत्त ने पूछा, लड़की अधिक सुंदर चाहिए? अधिक पढ़ी लिखी लड़की चाहिए? तुम अधिक पढ़ना चाहते हो? आइसीएस बनना चाहते हो? अधिक विद्वान बनना चाहते हो? नरेंद्र ने जब सब से इनकार किया तो रामचंद्र दत्त ने तंग आकर पूछा,ह्यतो फिर विवाह क्यों नहीं करना चाहते?
क्योंकि मैं ईश्वर को खोज रहा हूं, पत्नी को नहीं. नरेंद्र का उत्तर था.
नरेंद्र सचमुच ईश्वर को खोज रहे थे. यह खोज इतनी प्रबल थी कि उसके सम्मुख संसार कुछ भी नहीं था. हम सब ईश्वर को खोज रहे हैं, किंतु हम में से कोई भी उस सच्चाई से नहीं खोज रहा. ईश्वर को हम मानते तो हैं, किंतु स्वीकार नहीं करते. जहां ईश्वर की चर्चा होती, या नरेंद्र किसी साधु-संत से मिलते, तो उससे एक प्रश्न अवश्य पूछते, आपने ईश्वर को देखा है? एक रात वे महर्षि देवेंद्रनाथ के पास भी पहुंचे थे. महर्षि आधी रात के समय गंगा की मध्य धारा में अपने बजरे में बैठे ध्यान कर रहे थे. नरेंद्र गंगा में तैर कर, गीले कपड़ों में महर्षि के सम्मुख जा खड़े हुए, आपने ईश्वर को देखा है? महर्षि इतना ही कह सके, युवक तुम्हारी आंखें बता रही हैं कि तुम एक महान योगी बनोगे.
रामचंद्र दत्त ने विवाह का आग्रह छोड़ दिया. वे नरेंद्र से सहमत हो गए. बोले, ईश्वर को खोजना है, तो फिर इधर-उधर कहां भटक रहा है. दक्षिणेश्वर जा कर ठाकुर के चरण पकड़ ले.
नरेंद्र को विश्वास नहीं हुआ कि जो कुछ भारत और पश्चिम के महान दार्शनिक उन्हें नहीं दे सके, वह काली मंदिर का वह पुजारी दे पायेगा.
उन्होंने अपने मन के संशय को स्पष्ट कह दिया, काली मंदिर का वह पुजारी मुझे ईश्वर के विषय में बता पायेगा?
हां. रामचंद्र दत्त ने कहा, ठाकुर पुस्तकों को नहीं जानते, किंतु ईश्वर को जानते हैं.
इस आश्वासन के बाद भी नरेंद्र बहुत सारे संशयों में घिरे, ठाकुर के पास आये और उनके निकट जा कर पूछा, आपने ईश्वर को देखा है?
हां. उत्तर मिला, देखा है और तुम्हें भी दिखाऊंगा.
नरेंद्र मानते थे कि यदि ईश्वर है, तो उसे देखा भी जा सकता है, यदि ईश्वर है, तो उससे बातें भी की जा सकती हैं, यदि ईश्वर है, तो उसके साथ वैसे ही व्यवहार भी किया जा सकता है, जैसे सामान्य लोगों के साथ किया जाता है. केवल यह मान लेना कि ईश्वर है और उसे प्राप्त करने का प्रयत्न न करना, सर्वथा अनुचित है. उनका संकल्प आरंभ से ही अत्यंत दृढ़ था. शैशव में एक बार एक कथावाचक से पूछ लिया था कि हनुमान जी कहां रहते हैं? कथावाचक ने बच्चे को बहलाने के लिए कह दिया कि वे निकट की अमराई में रहते हैं. हनुमान की प्रतीक्षा में नरेंद्र सारी रात अमराई में बैठे रहे. हनुमान नहीं आये. अगले दिन उन्होंने सार्वजनिक रूप से कहा, बड़े लोग भी झूठ बोलते हैं.
नरेंद्र उन लोगों में से थे, जिनकी कथनी और करनी में अंतर नहीं होता. वे जो कुछ कहते थे, उसे मानते भी थे और उसे करते भी थे. मुझे लगता है कि अध्यात्म के क्षेत्र में गांधी जी और विवेकानंद में बहुत सारी बातें समान थीं. आज भी बहुत सारे लोग पूछ सकते हैं और मेरे मन में भी यह प्रश्न था कि स्वामी विवेकानंद ने इतना कुछ सोचा, कहा और किया, किंतु देश की स्वतंत्रता के विषय में उन्होंने क्या किया? कोई आंदोलन, कोई संवाद, कोई विवाद, कोई उत्पात … देश की स्वतंत्रता के लिए कुछ किया क्या? कुछ भी तो नहीं किया. वरन राजनीति का विरोध किया. अपने शिष्यों के लिए राजनीति का मार्ग वर्जित कर दिया. जब पूछा गया तो उनका उत्तर था कि जिस दिन तुम अपने चरित्र को उस ऊंचाई पर ले जाओगे, जहां वह था, जब स्वस्थ हो जाओगे, स्वयं में स्थित हो जाओगे, आध्यात्मिक रूप से उतने ही सात्विक हो जाओगे, जितने कभी तुम थे, तो फिर किसी का साहस नहीं होगा कि बाहर से आकर इस देश पर शासन कर सके.
जब अमरीका में स्वामी अंगरेजों के विरुद्ध बहुत कुछ कह गये, तो प्रो. हेनरी जॉन राइट की पत्नी मेरी राइट ने कहा कि मौसम बहुत गर्म हो गया था. गर्म वह स्वामी की बातों से हो गया था अथवा उमस के कारण, कहना कठिन है, किंतु गर्म हो गया था. वहां उपस्थित लोगों ने कहा कि तुम्हें भय नहीं है कि जब तुम लौट कर भारत जाओगे, तो अंगरेज तुम्हें पकड़ कर फांसी पर टांग देंगे. स्वामी का उत्तर था, लेट देम टच अ योगी…( वे भी देखें कि एक योगी को छूने से क्या होता है. यदि उन्होंने ऐसा कुछ किया तो वह उनके ताबूत में अंतिम कील होगी…).
यह जो विश्वास है कि यदि हम अपने चरित्र को सुधार लेंगे, तो कोई विदेशी हमारे देश में शासक के रूप में घुस नहीं पायेगा, यह वही बात है, जो यहां गांधी जी के विषय में कही गयी. हम देख सकते हैं कि आज हमारा चरित्र और मूल्य अत्यंत निम्न स्तर पर हैं. देश में ऐसे लोगों की कमी नहीं है, जो अपने छोटे से लाभ के लिए अपने देश तक को बेच सकते हैं, या यह कहूं कि लोग अपने छोटे से लाभ के लिए अपने माता-पिता तक को बेच सकते हैं, तो फिर और कुछ कहना ही क्या. स्वामी विवेकानंद का यह विचार कि देश की स्वतंत्रता के लिए आंदोलन की आवश्यकता नहीं है, अपने चरित्र को सुधारने की आवश्यकता है, अत्यंत महत्वपूर्ण है. हम अपने चरित्र को सुधारें, उसको निर्मल करें. ईश्वर को प्राप्त करने का एक ही मार्ग है, और वही देश की स्वतंत्रता का मार्ग है. वह है सात्विकता का मार्ग. हम देख रहे हैं कि स्वतंत्र हो कर भी हम स्वतंत्र नहीं हो पाये, क्योंकि हम अपने चरित्र को स्वच्छ नहीं कर पाये. आज हम उनकी बात का महत्व समझ सकते हैं. राजनीति आज चरित्रहीनता का पर्याय हो चुकी है. हम अच्छी तरह जानते हैं कि वह न राजधर्म है और न ही उसमें किसी प्रकार की नैतिकता का तत्व विद्यमान है. परिणामत: हम क्रमश: पराधीनता की ओर बढ़ रहे हैं.
हमारी अर्थनीति विदेशों की दास हो चुकी है, हमारे बाजार विदेशी माल से अटे पड़े हैं, हमारी विदेशनीति महाशक्तियों के संकेतों पर चलती है. हम अपने देश की सीमाओं की रक्षा में भी असमर्थ होते दिखाई पड़ रहे हैं. इन सब का कारण हमारी चरित्रहीनता ही है. जिस निर्लज्जता से हमारे शासक इस देश को लूट रहे हैं और लूट-खसोट पर चुप्पी साधे हुए हैं, वह इसे कंगाल कर देगी. रामकृष्ण परमहंस ने अपने शिष्य को मंत्र दिया था : ह्यप्रत्येक जीव को शिव मान कर उसकी सेवा कर और उसके प्रति कृतज्ञ हो कि उसने तुम्हें सेवा का अवसर दिया.
हमारे शासक सेवा में विश्वास नहीं करते. यही कारण है कि वह देश जो महाशक्ति बन सकता था, चीन, पाकिस्तान, बांग्लादेश, श्रीलंका और नेपाल जैसे पड़ोसियों के सम्मुख भी नतमस्तक है. एक स्वाभिमानी राष्ट्र के समान अपनी उपस्थिति दर्ज कराने के स्थान पर, एक कोमल, दुर्बल और दब्बू राष्ट्र के समान हम सब के लिए एक आसान शिकार हैं.