तकदीर बदलने का ऐतिहासिक क्षण!
संदर्भ : अमेरिकी प्रतिबंध -दर्शक- गांधी के देश के लिए आदर्श दुनिया तो वही होगी, जो परमाणु अस्त्रों से मुक्त हो. जहां आर्थिक-राजनीतिक समता हो. हवा में हिंसा की गंद न हो, मनुष्य, सचमुच मनुष्य होने के कारण, एक-दूसरे को अपनाये. जहां उत्तर-दक्षिण (नार्थ-साऊथ ब्लॉक) और विकसित-विकासशील का विभाजन हो. पर क्या आज इस दुनिया […]
संदर्भ : अमेरिकी प्रतिबंध
यह इसलिए है कि पश्चिम की दुनिया, दौलत और ताकत की भाषा समझती है. भारत की विनम्रता नहीं. प्रधानमंत्री के रूप में इंद्रकुमार गुजराल अमेरिका जाते हैं, तो वहां के राष्ट्रपति मुलाकात के लिए समय देकर एहसान करते हैं. वहां की मीडिया नोटिस नहीं लेती. इस यात्रा के कुछ ही दिनों बाद चीन के प्रधानमंत्री अमेरिका जाते हैं, तो वहां के राष्ट्रपति ऐतिहासिक और यादगार स्वागत करते हैं. फिर भी चीन के प्रधानमंत्री, क्लिंटन के सामने अमेरिका को खरी-खरी सुनाते हैं.
लोकतंत्र का स्वघोषित ठेकेदार अमेरिका, तियानमैन स्क्वायर की घटना के बाद चीन के हर नखरे को उठाता है. एक सौदागर की तरह चीन की हर शर्त स्वीकार करता है. वहीं अमेरिका बात-बात पर लोकतांत्रिक भारत पर पाबंदी, नाकेबंदी और प्रतिबंध की धमकियां देता है. पेटेंट के नाम पर धमकी, विश्व व्यापार संगठन की शर्तों को मानने के नाम पर धमकी. मानवाधिकार के नाम पर धमकी. पिछले दो दशकों से यह पश्चिमी और अमेरिकी धमकियां ऐसे मिलती रही हैं, मानो एक सौ करोड़ लोगों का यह देश मुर्दा हो.
अब पोखरन में हुए परमाणु परीक्षणों के बाद पुन: प्रतिबंधों का सिलसिला चल पड़ा है. अब तक चीन ऐसे पैंतालीस परीक्षण कर चुका है. फ्रांस तीन सौ से ऊपर. अमेरिका बारह सौ और रूस सात सौ परीक्षण कर चुके हैं. भारत ने 11 मई को तीन परीक्षण किये. फिर 13 मई को दो परीक्षण. 1974 में एक यानी अब तक कुल छह. पर अमेरिका, फ्रांस, चीन या रूस के परीक्षणों के खिलाफ कोई पाबंदी नहीं. प्रतिक्रिया नहीं. क्यों? क्योंकि ये ताकतवर देश हैं. वे नहीं चाहते कि विशिष्ट ज्ञान, टेक्नोलॉजी, आणविक जानकारी किसी और मुल्क को हो. इस सोच के गर्भ में अहंकार, सामंती सभ्यता है. दूसरों को अपने सामने हेय, गुलाम बनाये रखने के मानस है, इसका जवाब है, इन देशों के समक्ष तन कर खड़ा होना. 1974 के परमाणु विस्फोट के बाद से ही अमेरिका ने भारत पर तरह-तरह की पाबंदी लगा रखी हैं. पर इसके बाद चीन के परीक्षण जारी रहे. फ्रांस ने तीन सौ से अधिक परीक्षण किये. 1987 में पाकिस्तान परमाणु शस्त्रवाला देश (न्यूक्लीयर वीपन स्टेट) बन गया.
चीन की प्रत्यक्ष सहायता और अमेरिका की परोक्ष सहमति से. पाकिस्तान की प्रधानमंत्री रही बेनजीर भुट्टो, प्रधानमंत्री नवाज शरीफ, सेनाध्यक्ष असलम बेग और वैज्ञानिक डॉ एक्यू खां ने बार-बार पाकिस्तान में परमाणु अस्त्र होने की सार्वजनिक पुष्टि की है. यह भी खबर आयी की चीनी डिजाइन में बने पाकिस्तानी परमाणु अस्त्रों का लोपनोर में परीक्षण किया गया. इस तरह भारत लगातार परमाणु अस्त्रों से पिछले 25 वर्षों से घिरता जा रहा था.
तब अमेरिका क्यों मौन रहा? मूकदर्शक ही नहीं रहा, बल्कि मामूली सुपर कंप्यूटर देने से मना कर दिया. पर चीन और उत्तर कोरिया के समीकरण से पाकिस्तान में परमाणु अस्त्रों को जमा होने में शह देता रहा? वाशिंगटन की इस भूमिका ने स्पष्ट कर दिया कि भारत को अपनी सुरक्षा का बंदोबस्त खुद करना होगा अन्यथा चीन, पाकिस्तान और उत्तर कोरिया के षडयंत्रों से निबटने में बहुत विलंब होगा.
रक्षा विश्लेषक मानते हैं कि भारत में परमाणु गतिविधियों को शिथिल देख चीन और पाकिस्तान उत्साहित थे. इसलामाबाद ने पहले पंजाब में अघोषित युद्ध छेड़ा. फिर अफगानी गुरिल्लों के माध्यम से कश्मीर में धावा बोल रखा है. पाकिस्तान की आइएसआइ पूरे देश में क्या कर रही है, यह क्या छिपी हुई चीज है? चीन उत्तर-पूर्व में उग्रवाद की आग में घी डाल रहा है. बांग्लादेश, बर्मा और थाईलैंड में चीनी अड्डे बना रखे हैं.
नेपाल में चीनी ताकतें भारत विरोधी कामों में लगी हैं. ऐसी स्थिति में भारत के पास विकल्प क्या था? ताली दोनों हाथ से बजती है. अन्यथा इतिहास के पन्नों में दर्ज है कि जो टेक्नोलॉजी या विकास में पिछड़ा, वह गुलाम हुआ या पिछलग्गू. ये बड़े देश क्या भारत को फिर उसी स्थिति में देखना चाहते हैं? अब भारत इनसे बराबरी के स्तर पर बात कर सकता है.
पर यह प्रक्रिया लंबे अरसे से चल रही थी. इसलिए इसे दलगत मुद्दा न बनाया जाये. सत्तारूढ़ होने के कारण भाजपा, पहल करे और सारे दलों को राष्ट्रीय सवालों पर एक मंच पर लाये. अमेरिका की चुनौती में सृजन की संभावना है. अगर सारे दल मिल कर देश के स्वाभिमान, आत्मनिर्भरता और आत्मसम्मान बचाने के लिए पहल करें, तो देश में एक अद्भुत सृजनात्मक माहौल बन सकता है, लेकिन इसके लिए पक्ष-विपक्ष दोनों को एक-दूसरे को दुश्मन या शंका की नजर से देखना बंद करना होगा. ओछी राजनीति से मुक्ति पानी होगी. विपक्ष को भी अमर्यादित रूख छोड़ना पड़ेगा. अब कांग्रेस के नेता कह रहे हैं कि विस्फोट के पहले उन्हें विश्वास में क्यों नहीं लिया गया? क्या ऐसे मामलों में सबको विश्वास में लेना संभव है? किस देश में यह प्रक्रिया है? क्या इंदिरा गांधी ने 1974 में तत्कालीन विपक्ष को विश्वास में लिया था? उसी तरह भाजपा गठबंधन सरकार को इसका श्रेय लेने से बचना चाहिए.
अमेरिका के प्रतिबंधों या अन्य देशों द्वारा सहायता कटौती से आर्थिक संकट और गहरायेगा. मंदी, बेरोजगारी और अर्थसंकट के कारण पहले से ही तबाह था मुल्क. अब यह स्थिति विषम होगी. पर हर संकट में इतिहास बदल देने का एक अवसर छिपा होता है. इस ग्लोबल दुनिया में विदेशी कंपनियों को भारत का बाजार चाहिए. अगर भारत पर प्रतिबंध लग सकता है, तो विदेशी कंपनियों को भारत लूटने की मिली आजादी कैसे कायम रहेगी? नयी अर्थनीति, बाजार व्यवस्था और उदारीकरण के बहाने अमेरिकी लूट को क्यों छूट मिलेगी? अगर भारत परमाणु बम बना सकता है, तो जीवन जीने लायक चीजें भी उत्पादित कर सकता है.
हां, भोग, विलासिता और एय्याशी का बोझ नहीं उठा सकता. इसके लिए सबको कुरबानी देनी होगी. त्याग करना होगा. लेकिन यह ऐतिहासिक काम कौन करेगा? यह राष्ट्रीय संकल्प से ही संभव है. अकेले भाजपा गठबंधन सरकार के बूते यह नहीं होगा इसलिए विघटन, अविश्वास और दुश्मनी की राजनीति छोड़ कर ‘भारत बनाने’ की एक सकारात्मक राजनीति शुरू हो. औरतों, दलितों, पिछड़ों और अल्पसंख्यकों को समान साझीदार बना कर नया सृजन शुरू हो. यह काम क्या कोई एक दल कर पायेगा?