डॉ लोहिया की प्रासंगिकता
-हरिवंश- महापुरूषों की स्मृति और मूल्यांकन से ही कोई समाज ऊर्जा ग्रहण कर निखर सकता है. इस दृष्टि से ऐसे समारोहों की प्रासंगिकता है, हालांकि मौजूदा उपभोक्तावादी दौर में इन चीजों के प्रति अनास्था है. ऐसी परिस्थिति में डॉक्टर राममनोहर लोहिया के शब्दों में कहें तो ‘निराशा के कर्त्तव्य’ ही इस राष्ट्रीय-समाज को नयी राह […]
-हरिवंश-
अपनापा है. हम गांव से आये लोगों में टाई-शूट, अंगरेजी और आभिजात्य का खौफ था. पर विदेश पलट, जर्मन और अंगरेजी पर समान दखल रखनेवाले चप्पल-धोती पहननेवाले लोहिया मुझे अपने गांव के ही बेचैन बुजुर्ग-सयाने लगते है. पर विस्तार में जाने के पहले दार्शनिक कृष्णनाथ जी से हुई चर्चा का उल्लेख करना चाहूंगा. गांधी जी ने स्वराज की लड़ाई लड़ी. स्वराज मिला, तो वह कारगर न रह पाये. फिर मार डाले गये.
जेपी दूसरी बार सत्ता परिवर्तन में कामयाब रहे. पर रोग-आयु के कारण अप्रभावी हो गये. लोहिया ने भी गैर कांग्रेसवाद की कल्पना को 1967 में मूर्त रूप में कामयाब तो देखा, पर जीवन की सांध्य बेला में निराश और हताश ऐसे ‘ट्रेजडी’ समाज और कौम के जीवन में बार-बार क्यों होती है ? क्यों बार-बार जीवन में प्रकाश आता है, किंतु हम बार-बार अंधकार का वरण करते हैं? क्यों अंधकार के छा जाने पर हम बार-बार प्रकाश का स्मरण करते हैं? शायद ऐसी स्मृति से ही अंधकार से निकलने की ताकत मिलती हो.
लोहिया जी जैसों के संदर्भ में यह बात और प्रासंगिक है, क्योंकि दूसरे महान चिंतकों की तरह उन्होंने सुव्यवस्थित ढंग से अपने विचारों को स्पष्ट करते हुए पुस्तकें नहीं लिखी. छिटपुट लेखन-भाषण, सभा-गोष्ठियों में दिये विचार, ‘जन’ ‘मेनकाइंड’ में लिखी चीजें, पार्टी अधिवेशनों में हुई बहसें, लोकसभा की बहसें ही, वे आधारभूत चीजें हैं, जिनसे लोहिया जी की वैचारिक मान्यताओं के बीच एक अटूट रिश्ता, श्रृंखला या तारतम्य की तलाश की जा सकती हैं, कोई सुव्यवस्थित-संपूर्ण विचारधारा उन्होंने नहीं दी. टुकड़े सूत्र या नारो में कहीं उनकी बातों में एक समग्र दृष्टि झलकती हैं.मोटे तौर पर विस्तार में जाने के पूर्व लोहिया जी के संबंध में व्याप्त भ्रांत धारणाओं-सार तत्वों का उल्लेख करना चाहूंगा.
विलक्षण ऊर्जा और ताकत के साथ, लोकसभा के अंदर और बाहर, हालांकि जिन साथियों के साथ’ 42 में पुलिस से ल़डते गोलियों का सामना किया था, वे भी अलग हो गये थे. मेरा आशय जेपी, अच्युत पटवर्द्धन, अशोक मेहता, अरूणा आसफ अली जैसे महान लोगों से है. संवेदनशील, चिंतक, विचारक और भारतीय संस्कृति के व्याख्याता के रूप में उनके व्यक्तित्व का सम्यक मूल्यांकन नहीं हुआ. भारत के तीर्थ, भारत की नदियां, इतिहासचक्र, हिमालय, भारत की संस्कृति, भाषा, भारतीय जनकी एकता, भारत का इतिहास लेखन और विश्व एकता के सपने पर उन्होंने मौलिक-अनूठे ढंग से विचार किये.
बहुआयामी सोच था उनका, वशिष्ठ, बाल्मीकि, रामायण, कृष्ण, राम, शिव, रामायण मेला जैसे विषयों पर मौलिक अवधारणाएं-व्याख्याएं कृष्ण पर जिस ढंग से उन्होंने विचार किया है, वैसा किसी संत, साधक या महान बुद्धिजीवी ने भी नहीं सोचा डॉ लोहिया (जिन्हें हम स्नेह से डॉ साबह पुकारते हैं) की राजनीति इन्हीं मौलिक विचारों-बिंदुओं की बुनियाद पर खड़ी थी. राजनीति के उस भवन में कई चिंदिया आज लग गयी है. झाड़-झंखाड़ भी हैं, पर वह बुनियाद स्रोत जिनसे उनकी राजनीतिक विचारधारा प्रस्फुटित हुई थी, आज और अधिक प्रासंगिक है.
हां उनके राजनीति आचार-विचार में अंतर्विरोध-द्वंद्व हैं. आज गैर कांग्रेसवाद का सपना कहां है ? या इससे देश को क्या मिला ? कुछ राजनीतिक विश्लेषक आरोप लगाते हैं कि आज भाजपा इस गैर कांग्रेसवाद की सीढ़ी पर चढ़ कर ही शीर्ष पर पहुंची है. वह पूर्णतया असत्य भी नहीं हैं. हालांकि जनतंत्र में डॉ लोहिया रोटी (सत्ता) पलटने की अनिवार्यता पर बार-बार जोर देते थे. वह निराश रहने और काम करने (निराशा के कर्तव्य) के पैरोकार थे.
संगठन नहीं चला पाने, की उनमें जबररदस्त कमी रही. लोहियावादियों के बारे में वह जुमला ही चल पड़ा कि वे दल तोड़क होते हैं. खंड-खंड में बंटने को अभिशप्त, आप आज देख लें. खुद को लोहियावादी माननेवाले कांग्रेस, भाजपा, जनता दल, सजपा, तेलुगु देशम से आइपीएफ तक फैले हैं, अर्थशास्त्रियों के संदर्भ में पुरानी प्रचलित कहावत है, पांच अर्थशास्त्री होंगे, तो छह विचार होंगे. यही हालत उनके अनुयायियों की रही. समाजवादियों का अतीत चाहे जितना भी समृद्ध रहा हो, पर आज उनकी विरासत पर सवाल तो उठते ही हैं. 1942 के प्रखर क्रांतिकारी आज क्या विरासत छोड़ गये हैं? 1942 के 50 वर्ष पूरे हो चुके हैं. इस अवसर पर आत्ममंथन होना चाहिए. अग्रज और चिंतक गणेश मंत्री के अनुसार मसीहा माननेवालों की तरह लोहिया समर्थक भी वक्ती राजनीति के हथियार के रूप में उनका इस्तेमाल कर रहे हैं. करते रहे हैं. हाल में हैदराबाद में नयी सोशलिस्ट पार्टी बनाने की भी चर्चा हुई. जब-जब राजनीति में लोहियावादी हाशिये पर धकेल दिये जाते हैं, उन्हें लोहिया की याद आती है. राजनीति में मर्यादा-विहीनता, दल-बदल, सिद्धांतहीन गंठबंधनों और विधायिका में असंयत आचारण के लिए लोहिया के कटु आलोचक उन्हें दोषी बताते हैं. पर ऐसी खंडित और आंशिक आलोचनएं उनके संपूर्ण व्यक्तित्व और समग्र सृजन को स्पष्ट करतीं.
‘महारानी के खिलाफ मेहतरानी’ को खड़ा करने के सामाजिक समता के संकल्प से बद्ध वे खुद को नास्तिक मानते थे. परंतु मनुष्य में विश्वास और उसके कल्याण में घोर आस्था रखनेवाले वह असात्विक थे. समता और समृद्धि पर आधारित नहीं सभ्यता का सपना देखनेवाले. भारतीय इतिहास के यक्ष प्रश्न उन्हें मथते रहे. वह जानना चाहते थे कि जब बुद्ध-आम्रपाली की भेंट हुई होगी, तो क्या हुआ होगा ? आम्रपाली ने क्यों बुद्ध पर सर्वस्व न्योछावार किया और बुद्ध ने आम्रपाली को कैसे स्वीकार किया ? कन्याकुमारी की शिला पर ध्यानमग्न विवेकानंद किस दिशा की ओर मुंह किये बैठे होंगे?
भारत के तीर्थस्थल, सारनाथ, अजंता, एलोरा, कोणार्क, खजुराहो, महाबलीपुरम, रामेश्वरम, उर्वशीयम जैसी जगहों उन्हें बार-बार खींचती थीं. चित्रकूट के किस रास्ते राम दक्षिण की ओर निकले होंगे. उनकी अभिलाषा रही कि ‘एक बार चित्तौ़ड से द्वारिका पैदल जाऊं जिस रास्ते मीरा गयी थी. चित्तौड़ में जौहर-इतिहास को महिमामंडित करने के सवाल के बेचैन इंसान. श्रद्धेय डॉ धर्मवीर भारती से एक अवसर पर पूछा कि ‘पता नहीं राम ने कभी सागर पर सूर्यास्त देखा या नहीं ? वाल्मीकि रामायण देखकर मुझे लिखना नहीं ‘सागर पर सूर्यास्त का वर्णन नहीं है क्या ? सुंदरता में कुछ करूणा का पुट होता है, तभी वह उदात्त होती हैं. सूर्योदय में चुहल हैं, वेग है, सूर्यास्त में करूणा है, सौभ्यता है, जैसे रस से पक गया हो’ राजगृह में जरासंघ का अतीत ढूंढनेवाला, पासपोर्ट के बिना ध्रुव से ध्रुव तक के बड़े देश में यात्रा करने की आकांक्षा से प्रेरित विश्व सभ्यता का सपना देखनेवाले डॉ साहब ने अदभुत कार्यक्रम दिये.
सत्याग्रह, सिविल नाफरमानी, घेरा डालो, दाम बांधो, सप्तक्रांति, नर-नारी समता, रंगभेद, चमड़ी सौंदर्य, जाति प्रथा के खिलाफ, मानसिक गुलामी, सांस्कृतिक गुलामी, दामों की लूट, शासक वर्ग की विलासिता, खर्च पर सीमा, 10 हजार बनाम 3 आने, संगठन सरकार के बीच का रिश्ता, जैसे असंख्य सवाल-मुद्दे कार्यक्रम उन्होंने उठाये और लड़े-पहली बार केंद्र सरकार के खिलाफ अविश्वास प्रस्ताव पेश किया. धारा के खिलाफ चलने की राजनीति की परंपरा डाली और अपने निकट के लोगों को सही मुद्दे उठा कर चुनाव हारने के लिए खड़ा किया. उन्हें शानदार हार पर बधाई दी.
चटगांव विद्रोह के अपने साथी दिनेश दासगुप्त को हिंदी के सवाल पर कलकत्ता में लोकसभा चुनाव में खड़ा किया. पत्थर खाये, पर मुद्दे उठाना नहीं छोड़ा. उन्होंने ऐसी राजनीतिक पार्टी की कल्पना की… ‘मैं चाहता हूं कि हमारी पार्टी ऐसी हो जाए कि पिटती रहे, पर डटी रहे. आखिर वह कौन सी ताकत थी, जो तीन सौ वर्ष तक ईसाई मजहब को, बार-बार पिटने के बाद भी चलाती रही समाजवादी आंदोलन के पिछले 25 वर्ष के इतिहास को आप देखेंगे, तो पायेंगे कि सबसे बड़ी चीज जिसकी इसमें कमी है, वह है कि पिटना नहीं जानते. जब भी पिटते हैं. धीरज छोड़ देते है, मन टूट जाता है और हर सिद्धांत और कार्यक्रम को बदलने के तैयार हो जाते हैं ? ‘इस कसौटी पर उनके उत्तराधिकारियों को आप कस सकते हैं. और इसके लिए उन्होंने ‘निराशा के कर्तव्य’ निरूपित किये कहा. पिछले 1500 बरस में हिंदुस्तान की की जनता ने एक बार भी किसी अंदरूनी जालिम के खिलाफ विद्रोह नहीं किया. बगावत करते हैं. कानून तोड़ते है. इमारतों वगैरह को तोड़ते हैं, या उन पर कब्जा करते हैं, जालिम को गिरफ्तार करते हैं, फांसी पर लटका देते है.’ मरने से एक माह पूर्व बिहार (गिरिडीह) में अपने अंतिम भाषण में कहा मुझे इतना धीरज है कि अपने सपनों को अपनी आंखों से सच होते न देख पाऊं और फिर भी मलाल नहीं करूं’ पर आश्वस्त कि लोग मेरी बात सुनेंगे जरूर, पर मेरे मरने के बाद मरने के पूर्व वह अपनी पार्टी के लोगों की पदलोलुपता से परेशान थे. लोकसभा के उनके सभी साथी जब बिहार में मंत्र बने, तो उन्होंने प्रेस में बयान देकर इसे सिद्धांतहीनता बताया.
साम्यवाद जब दुनिया में विचार के रूप में आया, तब वह मोहक सपना था. गरीबी दूर करने की बात कार्ल मार्क्स ने की. इसके पहले गरीबी के संदर्भ में वैज्ञानिक-सामाजिक अध्ययन नहीं हुआ था. मार्क्स ने पहले किसी पीर-पैंगबर-धर्म प्रवर्तक ने यह प्रतिपादित नहीं किया था कि गरीबी-अमीरी का निराकरण हो सकता है. ‘ अमीरी-गरीबी भगवान की बनायी हुई हैं’ पर क्या हुआ, साम्यवाद अपने अंदर के भारी अंतरविरोधों से ही टूट कर बिखर गया. रूस और पूर्वी यूरोप के देशों में साम्यवाद के खत्म होने के बाद लोहियावादी मुदित भाव से बताते थे कि डॉक्टर लोहिया ने इस स्थिति की कल्पना बहुत पहले की थी. अपने लेखों में अभिव्यक्त भी किया था. बगैर गहराई में गये, यह तो स्पष्ट ही है कि साम्यवाद के सपने में आज वह ताकत-ऊर्जा नहीं है. कठिन दौर से गुजर रहे साम्यवादी भी बेचैनी से विकल्प ढूंढ रहे है.