सुप्रीम कोर्ट के फैसले के खिलाफ संसद एकमत थी राजनेता अपने बारे में कोई तथ्य बताने को तैयार नहीं थे?

-हरिवंश- चुनाव लड़नेवाले प्रत्याशी अपने बारे में कुछ भी बताना नहीं चाहते थे. लोकतंत्र में लोक की रहनुमाई करनेवाले, लोक से ही अपना निजी जीवन छुपाना चाहते हैं. भारतीय राजनीति में गांधी युग से विरासत में मिले मूल्यों के तहत सार्वजनिक जीवन जीनेवाले, अपनी संपत्ति, भूमिका, जीवन, रहन-सहन और संबंध, सार्वजनिक-पारदर्शी रखते थे, ताकि यह […]

By Prabhat Khabar Digital Desk | June 2, 2016 1:37 PM

-हरिवंश-

चुनाव लड़नेवाले प्रत्याशी अपने बारे में कुछ भी बताना नहीं चाहते थे. लोकतंत्र में लोक की रहनुमाई करनेवाले, लोक से ही अपना निजी जीवन छुपाना चाहते हैं. भारतीय राजनीति में गांधी युग से विरासत में मिले मूल्यों के तहत सार्वजनिक जीवन जीनेवाले, अपनी संपत्ति, भूमिका, जीवन, रहन-सहन और संबंध, सार्वजनिक-पारदर्शी रखते थे, ताकि यह जाना जा सके कि वे अपने पदों-सार्वजनिक जीवन का कितना निजी लाभ उठाते हैं. भारतीय राजनीति में यह अलिखित परंपरा थी, ब्रिटेन के संविधान की तरह. ‘75 के बाद तेजी से बदलती भारतीय राजनीति में सार्वजनिक पद, निजी संपत्ति, महत्वाकांक्षा की सीढ़ी बन गये. कमोबेश सारे दलों के लोगों का आचरण एक जैसा होता गया. हर जगह, अपवाद हैं, पर मुख्यधारा राजनीति’ को समृद्धि-सत्ता का स्रोत-सीढ़ी मानने लगी है.
इसे बदलने के लिए पीयूसीएल और इंडियन इंस्टीट्यूट ऑफ मैनेजमेंट के कुछ प्रोफेसर (अहमदाबाद) कोर्ट में गये. नागरिक सजगता अभियान में लगे समूहों और सिविल सोसाइटी के लिए काम करनेवाले कुछ एनजीओ समूहों ने भी इन्हें अपना समर्थन दिया. इन लोगों ने राष्ट्रपति, चुनाव आयोग, राजनीतिज्ञों और प्रेस से मिल कर अभियान चलाया. सारे राजनीतिक दल इस जन अभियान के खिलाफ एकजुट हो गये. अपने-अपने प्लेटफार्म, विचार, झंडा उतार कर एक साथ हो गये.

ये राजनीतिक दल, अपनी सूचनाएं सार्वजनिक न होने देने के लिए एक मंच पर डट गये. जनता के खिलाफ, जनता के प्रतिनिधि. इन दलों ने अदालतों में इस जन अभियान का विरोध किया. जून 2002 में सुप्रीम कोर्ट ने फैसला सुनाया कि जन प्रतिनिधि बनने की इच्छा रखनेवालों को महत्वपूर्ण सूचनाएं (जिनका उनके चरित्र से, सार्वजनिक जीवन से, राज-समाज से ताल्लुक है) सार्वजनिक करनी होंगी. अगर मूल स्वरूप में सवाच्च न्ययालय का यह फैसला होता, तो आज हालात अलग होते.

पर अदालती लड़ाई हारने के बाद ये राजनीतिक दल, संसद में सक्रिय हुए. सुप्रीम कोर्ट के फैसले का दूरगामी प्रभाव राजनेताओं ने आंका. उन्हें लगा कि अपने बारे में सूचनाएं सार्वजनिक बनाने से वे संकट में पड़ेंगे. झूठ, छल और षड्यंत्र की दुनिया के लोग कितने झूठ छिपा पायेंगे? सच उजागर होते ही वे बेनकाब होंगे. इसलिए सुशासन, पारदर्शिता और भय-भ्रष्टाचार मुक्त समाज-देश बनानेवाली भाजपाई बहुमतवाली सरकार, सुप्रीम कोर्ट के इस फैसले के खिलाफ अध्यादेश लायी. इसके बाद एक अधिनियम पेश हुआ.

इसके द्वारा संसद ने सुप्रीम कोर्ट के पूल फैसले को पंगु-अप्रभावी बनाने की पूरी कोशिश की. अनेक महत्वपूर्ण चीजें हटा दी गयीं. सार्वजनिक रूप से वाम, मध्य और दक्षिण विचार संसद में एकमत हो गया. किस सवाल पर? सांसद बननेवालों की संपत्ति, अपराध वगैरह को जनता न जाने? देश की सबसे पवित्र पंचायत संसद, अपने मूल उद्गम स्रोत, जनता के खिलाफ खड़ी थी. जैसे गंगोत्री (गंगा का उद्गम) के खिलाफ मैदानी गंगा खड़ी हो जाये. गंगोत्री से कट कर गंगा जीवित रह सकती है? वैसे ही लोक से लगातार विमुख होती संसद अपनी आस्था कायम रख सकती है?

बहरहाल संसद ने बहुत कांट-छांट कर सुप्रीम कोर्ट के फैसले के तहत कानून बनाया. फिर भी इस कानून में राजनीतिक दलों की सफाई के लिए बड़ी गुंजाइश है. जो बदलाव की पक्षधर ताकते हैं, वे इस कानून का कैसे इस्तेमाल करें? सबसे पहले जनप्रतिनिधियों द्वारा शपथ देकर जारी घोषणा पत्र कानून, इसके प्रावधान और इसके दूरगामी प्रभाव का लोक प्रचार हो मुंहामुंही चौक-चौपालों में ट्रनों में बसों में सभाओं में. प्रत्याशियों की सभाओं में सवाल पूछ कर.

एक प्रत्याशी का अतीत, आय का साधन वगैरह छुपी बातें नहीं हैं. घोषणा पत्र में उन्होंने जो कुछ लिखा है, उसके स्रोत पर आपको आशंका हो, तो उस प्रत्याशी से सार्वजनिक सभाओं में पूछें. अगर आपको लगता है कि सूचना झूठी है, तो सबूत के साथ प्रभात खबर में आपका स्वागत है.

युवक, महिलाएं, रिटायर्ड अनुभवी लोग, एनजीओ समूह इस अभियान में उतरें, तो सार्वजनिक सफाई की लहर पैदा होगी. प्रभात खबर इसी उद्देश्य से संभावित जनप्रतिनिधियों के डिस्क्लोजर फार्म के ब्योरे छाप रहा है.

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