-हरिवंश-
स्वतंत्रता (लिबर्टी) के बारे में न्यायमूर्ति लर्नेड हैंड की यादगार परिभाषा है, स्वतंत्रता पुरुषों-महिलाओं के दिल में बसती है, जब दिल में यह मर जाती है, तो कोई संविधान कोई कानून, कोई अदालत स्वतंत्रता की हिफाजत नहीं कर सकती. जब तक लोगों के दिलों में यह जीवित है, तब तक इसके लिए कोई संविधान नहीं चाहिए, कानून नहीं चाहिए, अदालत नहीं चाहिए. लगभग यही स्थिति लोकतंत्र के हिफाजत के लिए भी है. जब तक आम जनता के मन में विचार, सिद्धांत, साध्य, साधन, सात्विक चरित्र के बारे में आस्था पैदा नहीं होगी, तब तक इस देश की राजनीति नहीं बदलनेवाली और ध्रुव सत्य यह है कि राजनीति ही व्यवस्था बदल सकती है.
दो दिनों पहले एनसीएइआर के आंकड़े आये हैं कि भारत में एक करोड़ से अधिक आय की संख्यावाले महज 0.3-0.4 फीसदी लोग हैं. पर आज व्यवस्था के फोकस में समृद्धों का यही समाज है. गरीब, कमजोर और वंचित नहीं. किस राजनीति के सौजन्य से यह स्थिति नहीं बदल रही है, पढ़िए विश्लेषण-
पत्रकारिता से जुड़े प्राय: हर सेमिनार, गोष्ठी या बातचीत के अंत में, यह सवाल उठ जाता है कि पत्रकारिता इतनी अप्रभावी-असहाय क्यों हो गयी है? राजसत्ता अपना बुनियादी काम-फर्ज छोड़ दे, भ्रष्टाचार हर स्तर पर दिखाई दे, गवर्नेंस खत्म हो जाये, विधायिका अपनी बुनियादी भूमिका छोड़ दे, न्यायपालिका में दो-दो करोड़ मुकदमे लंबित हों और विलंब से न्याय ही नियति हो, कार्यपालिका, व्यवस्था पर बोझ बन गयी हो, तब पत्रकारिता पेज तीन के विषय क्यों मुख्य मानती है? अगर पत्रकारिता थोड़ी-बहुत कहीं प्रभावी दिखती है, तो उसका हस्तक्षेप क्यों असरदार नहीं होता?
हमारे समय की पत्रकारिता-पत्रकारों के लिए यह सबसे बड़ा सवाल है. इसका उत्तर सहज नहीं है. अतीत के पन्नों और इतिहास में इस सवाल के उत्तर मिलते हैं.
वर्ष 1974: खबर : एक
हम छात्र थे. किशोर से युवा होने के दिन. स्कूल से कालेज या विश्वविद्यालय जाने के दिन थे. तब तक 1967-68 में शुरू हुए नक्सली आंदोलन की आग पूरी तरह बुझी नहीं थी. उन्हीं दिनों गुजरात के मोरवी इंजीनियरिग कालेज के विद्यार्थियों ने महंगाई, भ्रष्टाचार के खिलाफ आवाज बुलंद की. यह आवाज, बिहार आंदोलन में बदल गया और जेपी के नायकत्व का दूसरा दौर आरंभ हुआ. उन्हीं दिनों 1974 के आसपास की यह खबर है.
बिहार के खगड़िया से एक कांग्रेसी सांसद होते थे, तुलमोहन राम. उनके खिलाफ लोकसभा में एक मामला उठा. आरोप था कि किसी निजी कंपनी के प्रभाव में आकर उन्होंने तत्कालीन रेलमंत्री ललितनारायण मिश्र की मदद से रेल बोर्ड को प्रभावित किया. रेल बोर्ड को प्रभावित कर तुलमोहन राम ने उक्त कंपनी को प्राथमिकता के आधार पर माल वैगन आवंटित कराया. इस आरोप के अनुसार इस मदद के एवज में कंपनी ने तुलमोहन राम को एक या डेढ़ लाख रुपये बतौर घूस या कमीशन दिये. यह मामला लोकसभा में गूंजा और संसद से सड़क पर पहुंच गया.
30-31 वर्षों पुरानी यह खबर स्मृति में क्यों ताजा है? हमारा गांव दो नदियों के बीच है. गंगा और घाघरा. तब देश-दुनिया से पूरी तरह कटा था. साल के चार-पांच महीने टापू के रूप में रहता था, यह गांव. बाढ़ से घिरा. दूर-दूर तक कोई शहर, अस्पताल नहीं. आने-जाने का साधन नहीं. तब फोन-अखबार टीवी चैनलों का दौर नहीं था. सूचना क्रांति ने भौगोलिक दूरी को खत्म नहीं किया था . मीलों रेत पर चल कर तब मेरे गांव में पहुंचा जा सकता था. पिछड़ापन-निरक्षरता उस गांव को भी विरासत में मिले थे. तब तुलमोहन राम द्वारा घूस लेने की बात उस सुदूर गांव में भी पहुंच गयी. जो तब सड़क, रेल और संचार से कटा टापू था.
वहां चौपालों में, गांव की बैठकों में, अलावों के पास अपढ़, गंवई बड़े-बुजुर्ग-युवा चर्चा करते कि हमारे सांसद भी घूस-कमीशन लेने लगे हैं. तब तक राजनीति के गलियारे में ‘दलाली’ शब्द सुना नहीं गया था. ‘दलाल सांसदों’ की दूर-दूर तक आहट नहीं थी. राजनीति में ‘लाबिस्टों’ (दलाली का दूसरा नाम) का उदय नहीं हुआ था. उन दिनों जब संचार क्रांति नहीं हुई थी, तब एक सांसद पर लगा आरोप अपढ़ गांव की गलियों तक बिजली की गति से पहुंच गया. देखने में भद्दे, बेतरतीब लेआउट के बावजूद तब के अखबारों-पत्रिकाओं में यह मुद्दा सुर्खियों में छा गया.आज 2004 में लौट कर 1974 के उस दौर को देखता हूं, तो कई सवाल खड़े होते हैं.
वर्ष 2005 : खबर : दो
वर्ष 2004 के अंत में एचडी शौरी ने इंडियन एक्सप्रेस में (10-11-12 नवंबर 2004) भारत की स्थिति पर अत्यंत विचारोत्तेजक-प्रभावी लेख लिखा. तीन किश्तों में. अपने एक लेख में उन्होंने उद्धृत किया, भ्रष्टाचार सूचकांक का अध्ययन करनेवाली जर्मनी की संस्था ट्रांसपेरेंसी इंटरनेशनल का. इस संस्था ने दुनिया के सर्वाधिक भ्रष्ट देशों में भारत को भी माना है. इसने अपनी रिपोर्ट में बताया है कि पिछले एक साल में भारत के निजी घरानों-कारपोरेट हाउसों ने भारत सरकार के अफसरों को ‘फेवर पाने’, ‘अपने पक्ष में नीति बदलवाने’, ‘कांट्रेक्ट’ लेने के बदले 32000 करोड़ बतौर घूस दिये हैं.
1974 के मुकाबले इस देश ने काफी तरक्की की है. शिक्षित और संपन्न लोगों की संख्या में बेशुमार इजाफा हुआ है. यह सूचना-संचार क्रांति का दौर है, अब 24 घंटे के टीवी चैनलों की बाढ़ है. बेहतर-रंगीन अखबारों की पाठक संख्या करोड़ों में पहुंच गयी है. पर सरकारी अफसरों द्वारा 32000 करोड़ बतौर घूस लेने की यह खबर, या ऐसे दूसरे तथ्य अब ‘मीडिया’ में नहीं उठते-गूंजते. न ही लोकसभा – राज्यसभा में यह मामला उठा.
1974 और 2005 की इन दो महत्वपूर्ण खबरों-दृश्यों को साथ रख कर तौलने से अनेक रहस्य खुलते हैं.1974 तक एक सांसद द्वारा महज डेढ़ लाख बतौर घूस या कमीशन लेने का आरोप देशव्यापी सवाल बन जाता था. 2004-05 आते-आते, भारत की नौकरशाही पर फेवर के एवज में 32,000 करोड़ घूस लेने का आरोप लगता है, पर संसद में एक सवाल नहीं उठता? यह फर्क महज 30-32 वर्षों में ? इसकी मूल वजह है कि पूरी राजनीति से विचारधारा या वाद गायब हो गये हैं. जब विचार, आदर्श और सपने राजनीति से गायब हो जायेंगे, तो राजनीति बांझ हो जायेगी. भारत की राजनीति इसी विचारहीनता और बांझपन के दौर में है. इसलिए इस मौजूदा राजनीति में बड़े बदलाव-परिवर्तन की आहट नहीं है. विचारों-सिद्धांतों की राजनीति से ही समाज बदलता है, यह स्थापित तथ्य है. पत्रकारिता या किसी अन्य पेशे में वह ताकत नहीं है कि नया समाज गढ़ सके. पत्रकारिता अपनी सर्वश्रेष्ठ भूमिका में वाचडाग का ही काम कर सकती है. लेकिन समाज बदलने की ताकत सिर्फ विचारों-सिद्धांतों की राजनीति में ही होती है. विचारधारा या वाद विरोधी लोग सवाल उठा सकते हैं कि विचारधाराओं की अति से ही फासिज्म, उन्माद, धर्मांधता, तानाशाही जन्मते हैं. आरंभ में ही यह समझ लेना होगा कि ये सब विचारधाराएं या वाद नहीं हैं, मानव का अस्तित्व मिटा देनेवाली धाराएं हैं. इस विश्लेषण में विचारधारा या वाद के तहत ऐसी उन्मादी प्रवृतियों को माना ही नहीं गया है.
राजनीतिक विचारधारा एक रणनीति, कौशल और कला है सर्वाधिक पीड़ित, गरीब, जरूरतमंद से लेकर आम नागरिकों का जीवन सुधारने-बेहतर करने का माध्यम. मानव समाज को लगातार बेहतर-से-बेहतर स्थिति में पहुंचाने का अनुशासन और सीढ़ी है, राजनीतिक विचारधारा. विचारधारा के प्रति प्रतिबद्धता से सपने जगते हैं. आदर्श-प्रतिबद्धता का माहौल बनता है. आंदोलन-संघर्ष पनपते हैं. विचारधारा से पनपे सामूहिक सपने को साकार करने के लिए लाखों की भीड़ जमा होती है. यह राजनीतिक जमात-भीड़ या समूह विचारधारा के कारण ही दल में तब्दील होते हैं. इस तरह विचारधारा आधारित दलों का जन्म होता है.
तीन दशक पहले तक समाजवादी, साम्यवादी, जनसंघ, कांग्रेस, नक्सली वगैरह सबके अपने-अपने सपने, आर्थिक-सामाजिक कार्यक्रम थे. नक्सली इस संदर्भ में दल नहीं थे. वह विचारधारा थी. पर मध्यममार्गी दलों के पहले वार्षिक अधिवेशन होते थे. कार्यक्रमों पर बहस होती थी. नीतियां तय होती थीं. पार्टी की विचारधारा के अनुरूप कार्यक्रम बनते थे. पार्टी में अंदरूनी लोकतंत्र था. पार्टियों के अंदर चुनाव होते थे. पार्टी आलाकमान की निजी पसंद के खिलाफ उसी पार्टी में अपने विचार-प्रतिबद्धता के कारण नेता, पार्टी संगठन चुनावों में जीतते थे. उन कार्यक्रमों को साकार करने के लिए विधायिका से लेकर लोक के बीच बहस होती थी. संसद से सड़क तक दल अपने बुनियादी मुद्दे उठाते थे. उन मुद्दों के ईद-गिर्द समर्थन जुटाते थे. अपने राजनीतिक वसूलों-विचारों और प्रतिबद्धता के अनुरूप नेता-कार्यकर्ता जीते थे. पहचाने जाते थे. कार्यक्रमों – विचारधारा से दल – नेता की पहचान होती थी. गांधी की भाषा में कहें तो ‘साधन’ (जीवनशैली, पार्टी रणनीति, पार्टीलाइन) ‘साध्य’ (विचारधारा) के अनुरूप होता था. 60-70 के दशकों तक इन मूल्यों का भारतीय राजनीति में असर था. उन्हीं दिनों चुनाव सुधार की चर्चा शुरू हुई.
जेपी के आह्वान पर भ्रष्टाचार पर अंकुश के लिए संथानम कमेटी बनी. डॉ राममनोहर लोहिया ने भाषा की गैरबराबरी का सवाल उठाया. विषमता के खिलाफ संघर्ष किया. जेल गये. महंगाई के खिलाफ दामबांधो आंदोलन चलाया. जाति उन्मूलन को मुद्दा बनाया. सप्त क्रांति (समाज-देश बदलने की रणनीति) की बात थी. 1960 के बाद लगातार उन्होंने निहत्थी जनता पर पुलिस की गोलीबारी, जातिगत गैर बराबरी, अंग्रेजी भाषा के प्रभुत्व, शासक वर्ग की विलासिता, दामों की लूट, पूंजीशाही-नेताशाहों-नौकरशाहों की सांठगांठ को मुद्दा बनाया. संसद से सड़क तक लोहिया की पार्टी ने नये सवाल उठाये.
परिणाम? 1966-67 तक अनेक राज्यों में गैरकांग्रेसी सरकारें बनीं. चौथे आम चुनाव में इस विचारगत राजनीति का चमत्कार दिेखा.
उन्हीं दिनों स्वतंत्र पार्टी का उदय हुआ. निजी क्षेत्र को प्राथमिकता देने और कांग्रेस सरकार के ‘लाइसेंस कोटा परमिट राज’ संस्कृति के खिलाफ. एक वैकल्पिक आर्थिक नीति के साथ. इस दल को विचारों के आधार पर पूंजीपति वर्ग का समर्थक माना गया. पीलू मोदी, मीनू मसानी, प्रो एन.जी.रंगा वगैरह ने अपनी वैचारिक मान्यता के आधार पर पार्टी को आगे बढ़ाया. चक्रवर्ती राजगोपालाचारी का आशीर्वाद इस दल को प्राप्त था. उसी तरह जनसंघ के प्रवर्त्तक डॉ दीनदयाल उपाध्याय ‘मानव एकात्मवाद’ से लेकर ‘सांस्कृतिक राष्ट्रवाद’ के मुद्दे पर देश में अपनी पार्टी को खड़ा करते रहे. बंगाल में माकपा के प्रमोद दासगुप्त गांव-गांव माकपा की विचारधारा के अनुरूप कार्यकर्ताओं की फौज खड़ी करते रहे. हर गांव में ‘लाइब्रेरी खोलने’ का अभियान चलाया. प्रमोद दासगुप्त के इस वैचारिक आंदोलन की बुनियाद पर ही बंगाल में मार्क्सवादी 1977 के बाद से कायम हैं.
समाजवादी राममनोहर लोहिया हों या जनसंघी दीनदयाल या मार्क्सवादी प्रमोद दासगुप्त. इनमें एक विचित्र समता थी. डॉ लोहिया मरे, तो पास में दो जोड़ी धोती भी नहीं थी. कोई निजी संपत्ति नहीं. उसी तरह दीनदयाल जी की हत्या हुई, तो पास में कुछ नहीं था. प्रमोद दासगुप्त ने सबकुछ अपनी पार्टी और उसकी विचारधारा के लिए लगा दिया. विचारधारा के स्तर पर इन तीन ध्रुवों के नेताओं पर गांधीवादी राजनीति जीवनशैली की छाप थी. गांधीवाद का वैचारिक असर निजी जीवन, रहन-सहन में था. अपने-अपने दल के कार्यकर्ताओं के निजी जीवन दर्शन पर डॉ लोहिया, दीनदयाल उपाध्याय और प्रमोद दासगुप्त जैसे नेताओं का गहरा असर था. गांव-गांव तक ऐसे नेताओं की प्रेरणा से विचारधारा के ईद-गिर्द राजनीतिक कार्यकर्ताओं की फौज खड़ी हुई. प्रतिबद्ध, ईमानदार और कर्मठ कार्यकर्ता साथ आये. ऐसे ही लोगों-विचारों की नींव पर ये दल खड़े हुए.
खुद कांग्रेस में वैचारिक मुद्दों के प्रति 1970-72 तक जागरूकता थी. वैचारिक आग्रह था. युवा तुर्क का उदय, बैंक राष्ट्रीयकरण, कोयला खदानों का राष्ट्रीयकरण, गरीबी हटाओ जैसे कार्यक्रम, वैचारिक राजनीति के ही प्रतिफल थे. तब तक कांग्रेस में अंदरूनी लोकतंत्र भी था. इंदिरा गांधी की इच्छा के खिलाफ शिमला कांग्रेस कार्य समिति के चुनाव में युवा तुर्क चंद्रशेखर सबसे अधिक मत पाकर चुने गये. यह वैचारिक द्वंद्व का परिणाम था. यह 1972 की घटना है. हालांकि इस बात को भी हम विस्मृत नहीं कर रहे हैं कि भाकपा-माकपा के कांग्रेस होते हैं. भाजपा का भी अधिवेशन होता है. माले जैसी पार्टियां भी आंतरिक लोकतंत्र की पहल लेती है. मुख्यधारा की राजनीति में इन उदाहरणों को लिया जा सकता है. तेदेपा के अधिवेशन की चर्चा भी की जा सकती है. वृहत्तर अर्थों में कहा जा सकता है कि ज्योतिबसु को सीपीएम ने आंतरिक लोकतंत्र के कारण प्रधानमंत्री नहीं बनने दिया. लेकिन ग्लोबल अर्थ व्यवस्था का विरोध-समर्थन सभी रस्मी बन कर क्यों रह गये हैं और वैचारिक मसले पार्टीं कतारों में कम क्यों रहे हैं. यह अत्यंत पीड़ादायक सवाल है.
1972 आते-आते आजादी की लड़ाई के मूल्य, सरोकार और असर कम होने लगे. विचार या उसूल कैसे समाज बदलते हैं, यह देखना हो तो भारत की आजादी की लड़ाई का स्मरण करना होगा. गांधी के उदय ने गुलाम और अनपढ़ भारत की फिजां बदल दी. गांधी एक व्यक्ति नहीं रह गये, वह एक जीवनशैली, विचारधारा और राजनीतिक संस्कृति (मूल्य आधारित) बन गये. उनकी राजनीति ने जीवन के हर क्षेत्र को प्रभावित किया. उनके आंदोलन से-उनके असर से एक से बढ़ कर एक समाजसेवी निकले. वकालत के क्षेत्र में, अध्यापन के क्षेत्र में, पत्रकारिता के क्षेत्र में गांधीवादी मूल्यों ने एक नयी ताकत, आभा और ऊर्जा दी. निष्ठावान, प्रतिबद्ध और वैचारिक लोगों को आगे बढ़ाया. ऐसे लोगों ने त्याग, ईमानदार कर्म और गांधीवादी जीवनमूल्यों से आस्था और विश्वास का एक नया माहौल बनाया. लगा कि जहां हिंसक क्रांति समाज बदलाव-व्यवस्था में विफल हो गयी है, वहां गांधीवादी सत्याग्रह और अहिंसा कामयाब होंगे. यह गांधीवादी विचारों का ही चमत्कार था.
पत्रकारिता का स्वर्ण युग माना जाता है, आजादी की लड़ाई का दौर. पत्रकारों-अखबारों के उस दौर के योगदान-बलिदान को आज भी उद्धृत किया जाता है. इलाहाबाद से एक अखबार निकलता था ‘स्वराज्य’. ‘स्वराज्य’ के जितने भी संपादक हुए, उन्हें कालापानी की सजा (अंडमान जेल) हुई, इसलिए ‘स्वराज्य’ के संपादक का पद खाली होता, तो विज्ञापन में योग्यता की मांग होती, जो अंडमान जेल जाने के लिए तैयार हो, वही आवेदन करें. तब भी योग्य से योग्य आवेदकों की लाइन लगी रहती. अपने विचारों -आग्रह के लिए जेल जाने को तैयार. कष्ट उठाने के लिए तैयार. वह सत्ता की कुर्सी या विधायक /सांसद/ मंत्री बनने वालों की भीड़ नहीं थी. यह गांधी युग का चमत्कार था. उनके विचारों का जादू था. पत्रकारिता का नहीं. गांधी युग ने जिन मूल्यों, वसूलों की बात की, सत्याग्रह, अहिंसा का प्रतिपादन किया, समाज के कमजोर से कमजोर व्यक्ति को ‘अंतिम व्यक्ति’ माना, इन विचारों के पारस पत्थर से जुड़ कर-स्पर्श पाकर, पत्रकारिता निखरी, वकालत पेशा निखरा, अध्यापक सम्मानित हुए. अपने तप-त्याग से समाजसेवियों ने अपनी जगह बनायी. इन बदलावों के मूल में थी, गांधीवादी विचारधारा. इस विचारधारा ने एक मरते हुए पिछड़े भारतीय समाज को उत्कर्ष पर पहुंचा दिया. हजारों वर्ष की गुलामी से पीड़ित भारतीय समाज को पैरों पर खड़ा कर दिया. दुनिया को लगा, भारत से नये मूल्य निकल रहे हैं, जो मानवता को मुक्ति द्वार तक पहंचायेंगे. तब प्रो अर्नाल्ड टायनबी ने लिखा कि संकटग्रस्त पश्चिमी सभ्यता को पूरब से (आशय भारत से) नयी रोशनी मिलेगी. यह मूल्यबोध की राजनीति का असर था. गुलाम भारत की रोशनी के लिए विकसित पश्चिमी देश प्रतीक्षारत थे.
गांधी की राजनीति का आकर्षण क्या था? चितरंजन दास (सीआर दास) जैसे बड़े बैरिस्टर जो उन दिनों लाखों की प्रैक्टिस करते थे, आमद-वकालत छोड़ कर आंदोलन में कूद गये. नया समाज बनाने के लिए. भौतिक सुविधाएं छोड़ कर जेल की राह चुनी. अपने जीवन के अंतिम दिनों में वे आर्थिक परेशानियों से जूझ रहे थे. वह अकेले नहीं थे. सीआर दास जैसे अनेक लोगों ने अपना ‘निजी कैरियर’ आकांक्षाएं-महात्वाकांक्षाएं, देश के लिए होम कर दिया. समृद्धि भौतिक सुख का जीवन छोड़ कर गरीबी, कष्ट और जेल की राह चुनी. लाखों युवा निकल पड़े. यह था विचारों का आकर्षण. गांधीवादी विचारों का चमत्कार! इतिहासकार कहते हैं कि गांधी उदय के पूर्व भारतीय ‘इलीट वर्ग’ की बात करनेवाली कांग्रेस, अंग्रेजों के सामने पेटीशन (याचिका) देनेवाली संस्था थी. प्रेयर (गिड़गिड़ाने-प्रार्थना करनेवाली संस्था) करनेवाली पार्टी थी. पर गांधी के साथ ही वही कांग्रेस ‘मास मूवमेंट’ (जन आंदोलन) में तब्दील हो गयी. यह था, गांधीवादी विचारों-मूल्यों का प्रभाव. मार्क्सवादी मानते हैं कि इतिहास दोहराता है. हालांकि विसंगति के रूप में. गांधी के ‘दांडी मार्च’ की आज पुनरावृत्ति हो रही है. क्या यह दोहराव उस जादू का एहसास करा पाया. जब गांधी ने दांडी मार्च शुरू किया, तो ब्रिटिश सत्ता ने मखौल बनाया. पर जब दांडी मार्च खत्म हुआ, पूरी दुनिया स्तब्ध और चमत्कृत थी. यह पश्चिम के मैकियावेली राजनीतिक दर्शन का गांधीवादी उत्तर था.
आजादी के बहुत बाद तक गांधीवादी विचारों का असर रहा. विचारहीन दौर (1980 के आसपास शुरू) के नेताओं की जमात जब प्रभावी होने लगी, तब बचे-खुचे पुराने नेता अपने-अपने दलों में अलग-थलग पड़ गये या राजनीति से ही हट गये. यह वह समय था, जब इंदिरा गांधी ने कहा कि भ्रष्टाचार अंतरराष्ट्रीय प्रवृति है. कांग्रेस के अंदर आलाकमान की निरंकुशता इंदिराजी के समय ही ब़ढ़ी. कांग्रेस का अंदरूनी लोकतंत्र खत्म हुआ. विधायिका, न्यायपालिका, कार्यपालिका व अन्य संस्थाओं को इंदिरा युग ने भारी नुकसान पहंचाया. चापलूस, दलाल और मौकापरस्तों की भीड़ को उन्होंने हर जगह शिखर तक पहुंचाया, जिनके लिए आदर्श, सिद्धांत और मूल्य महज सत्ता पाना था. ऐसे लोगों की भीड़ ने सत्ता पाकर गांधी युग के मूल्यों को राजनीति से खत्म कर दिया. सत्ता, सुविधा व पैसे के लिए विचारहीन राजनीति और रातोंरात दल बदलना फैशन हो गया.
विचारों की राजनीति (1980 तक) और विचारहीनता के दौर की राजनीति (1980 के बाद) के दलों-नेताओं के आचरण, जीवनशैली और प्रतिबद्धता के बीच फर्क आसान है.
1995 में प्रधानमंत्री पर आरोप लगा कि लोकसभा में चार सांसदों को रिश्वत दे कर उन्होंने अपनी सरकार बचायी. अदालत में अपने तकनीकी बचाव में उस प्रधानमंत्री ने देश के जाने-माने बड़े वकीलों को उतारा.
आजादी की लड़ाई के दौरान चर्चिल ने महात्मा गांधी को ‘नंगा फकीर’ कहा था. 1922 में गांधी जी देशद्रोह के आरोप में पकड़े गये. जमानत पर उन्हें रिहा करने की पेशकश हुई. बैरिस्टर गांधी ने इनकार कर दिया. मुकदमे की सुनवाई में बचाव के लिए कोई वकील नहीं रखा. कहा, मैं कानूनी पेंचीदगियों में अपना बचाव नहीं करना चाहता, मेरे खिलाफ देश द्रोह के जो भी आरोप सरकारी वकील ने लगाये हैं, सही हैं. मैं अपने सिद्धांत पर कायम हूं.
अपने उसूलों-सिद्धांतों के प्रति यह प्रतिबद्धता आजादी की लड़ाई में गांधी ने विकसित की. इसी परिवेश का असर था कि रेलमंत्री लालबहादुर शास्त्री ने रेलदुर्घटना का नैतिक दायित्व लेते हुए इस्तीफा दे दिया था. प्रधानमंत्री पद महज एक संवैधानिक गद्दी नहीं है, उसकी एक नैतिक आभा-ऊंचाई है. पूरा देश जानता है कि सांसदों को रिश्वत दे कर नरसिंहराव की सरकार बची, पर तत्कालीन प्रधानमंत्री नहीं मानते थे. सांसदों को रिश्वत देकर उनकी गद्दी बच गयी, पर प्रधानमंत्री पद की आभा-चमक-नैतिक ताकत खो गयी. यह विचारविहीन सिद्धांत विहीन राजनीति का असर था. 1980 में मोरारजी की जनता पार्टी की सरकार गिरी, तो दोबारा उन्होंने जोड़-तोड़ से सरकार बनाने से मना कर दिया. यह फर्क उल्लेखनीय है. एशियन एज में (25 मार्च 2005) भारतीय राजस्व सेवा के अधिकारी विश्वबंधु गुप्ता ने देश के वित्त मंत्री को सार्वजनिक जानकारी देते हए एक अत्यंत महत्वपूर्ण लेख लिखा है, सम क्वेश्चंस फॉर मिस्टर चिदंबरम. इस लेख में अनेक विस्फोटक सूचनाएं हैं. मसलन एक ताकतवर निजी घराने के पास 2000 फरजी कंपनियां हैं. श्री गुप्ता के अनुसार यह जानकारी आयकर विभाग और भारत सरकार को है, पर कोई कार्रवाई नहीं हो रही. तेलगी प्रकरण (जिसमें अनेक बड़े नेता-अफसर शामिल हैं) में 35,000 करोड़ रुपये के घोटाले की पुष्टि हो चुकी है. पर जांच आगे नहीं बढ़ रही. रिलायंस शेयर प्रकरण में एक सांसद और एक पूर्व मंत्री (एक कांग्रेस-एक भाजपा) ने कैसे सैकड़ों करोड़ के शेयर लिये, यह तथ्य सार्वजनिक हो गया है. श्री गुप्ता के अनुसार भारत में मोटे तौर पर सालाना 10 लाख करोड़ का काला धन सरकुलेट हो रहा है. भारत सरकार के वित्त मंत्रालय के अंतर्गत कार्यरत एक अफसर ने इन विस्फोटक सूचनाओं पर अखबार में लेख लिखा है, सार्वजनिक रूप से उठाया है. सरकार उस पर कार्रवाई कर सकती है, पर इन मामलों पर जाँच नहीं करा सकती. केंद्र सरकार की जानकारी में पेट्रोल मिलावट में सालाना 40,000 करोड़ रुपये का घोटाला हो रहा है. भारत सरकार के एक उच्चाधिकारी (जो स्वैच्छिक अवकाश) एलएन शास्त्री ने जब यह प्रकरण उठाया, तो वह बदल दिये गये. विचारहीन राजनीति के ये मामूली उदाहरण हैं. सार्वजनिक लूट-भ्रष्टाचार के ऐसे असंख्य प्रकरण गली-गली में हैं.
पर अब शायद ही लोगों को याद हो. रफी अहमद किदवई नामक एक नेता थे. कानून की डिग्री थी उनके पास, पर कभी वकालत नहीं की. उत्तर प्रदेश के बाराबंकी के रहनेवाले. वहां मिट्टी का पुश्तैनी घर था. खपरैल. आजीवन केंद्रीय मंत्री रहे. पर मरने के बाद उनकी पत्नी और बच्चे गांव, बाराबंकी लौट आये. उसी टूटे-फूटे खपड़ैल घर में, आजीवन केंद्रीय मंत्री और कांग्रेस के कद्दावर नेता रहने के बावजूद उनके पास कोई संपत्ति नहीं थी, दिल्ली में घर नहीं था. स्वतंत्रता सेनानी किदवई साहब अकेले, गांधीवादी राजनीति के पुष्प नहीं थे. राजनीति में सिद्धांतों-विचारों पर चलनेवाले ऐसे लोगों की तब लंबी कतार थी.