क्यों नोटबंदी पर गोलबंद नहीं हो पा रहे विपक्षी दल?
आरके नीरद नोटबंदी पर बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार और ओडिशा के मुख्यमंत्री नवीन पटनायक जैसे कुछ बड़े विपक्षी नेताओं को छोड़ कर अमूमन सभी विपक्षी नेता केंद्र सरकार के विरोध में हैं. यह विरोध अब भी जारी है. इसमें इन दलों ने अपनी पूरी ताकत झोंक दी है. सरकार की सहयोगी पार्टियां, अकाली दल […]
आरके नीरद
नोटबंदी पर बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार और ओडिशा के मुख्यमंत्री नवीन पटनायक जैसे कुछ बड़े विपक्षी नेताओं को छोड़ कर अमूमन सभी विपक्षी नेता केंद्र सरकार के विरोध में हैं. यह विरोध अब भी जारी है. इसमें इन दलों ने अपनी पूरी ताकत झोंक दी है. सरकार की सहयोगी पार्टियां, अकाली दल और शिवसेना भी इस के विरोध में शामिल हैं. वर्तमान राष्ट्रीय राजनीति में इन सभी के एजेंडे में नोटबंदी का विरोध पहले नंबर पर है.
नोटबंदी के मुद्दे पर संसद ठीक से नहीं चल सकी. एक माह के शीतकालीन सत्र में लोकसभा व राज्यसभा में बहुम कम काम हुआ. संसद के बाहर भी यह सत्ता और विपक्ष का सबसे बड़ा मुदा है आैर अगले साल देश के पांच राज्यों, उत्तर प्रदेश, उत्तराखंड, गोवा, मणिपुर और पंजाब में होने वाले विधानसभा चुनाव जिन मुद्दों पर लड़े जाने हैं, उनमें नोटबंदी सबसे बड़ा मुद्दा होगा.
कांग्रेस, तृणमूल कांग्रेस, सपा, बसपा, आप, राजद, जेएसडी और वामदल सहित करीब 16 बड़ी विपक्षी पार्टियां नोटबंदी पर सरकार को हर फ्रंट पर घेरने में लगी हैं. सभी मुखर हैं. क्षेत्रीय पार्टिंयां अपने राज्य की सीमा से बाहर निकल कर हुंकार भर रही हैं. कुछ पार्टियों के लिए तो नोटबंदी उनके राजनीतिक अस्तित्व का सवाल है.
मगर, समान मुद्दा होने के बाद भी विपक्षी पार्टियां एक मंच पर नहीं आ पायीं. उनके बीच इस मुद्दे पर कोई कॉमन मिनिमम प्रोग्राम नहीं बन पाया. ममता बनर्जी को अपने ही राज्य, पश्चिम बंगाल में वहां के वामदलों का साथ नहीं मिला. पिछले माह संसद परिसर में राष्ट्रपति भवन मार्च में अकाली दल और शिवसेना जैसी सरकार की सहयोगी पार्टिंयों का तो साथ मिला, मगर ज्यादातर विपक्षी दलों ने दूरी बनाये रखी.
पटना में जदयू का और लखनऊ में सपा के समर्थन की उनकी उम्मीद भी कोरा साबित हुई. दिल्ली में भी अरविंद केजरीवाल को छोड़ कर कोई बड़ा नेता उनके साथ खड़ा नहीं हुआ. बसपा और सपा नोटबंदी को लेकर केंद्र सरकार, भारतीय जनता पार्टी और प्रधानमंत्री पर पूरी तरह आक्रामक हैं. कालेधन को लेकर बसपा के खिलाफ सरकार की कार्रवाई भी शुरू हो चुकी है. सपा इस मुद्दे को चुनाव में पूरी तरह भुनाने में लगी है, मगर दोनों एक-दूसरे के साथ नहीं चल पा रहे. सरकार को नोटबंदी के मुद्दे पर घेरने के लिए कांग्रेस द्वारा बुलायी गयी विपक्ष दलों की बैठक और संयुक्त प्रेस कॉन्फ्रेंस कारगर नहीं हो सकी. उम्मीद थी कि इसी बहाने सभी विपक्षी दल एकजुट होंगे. यह बैठक इसलिए भी महत्वपूर्ण थी कि नोटबंदी के बाद हालत को पटरी पर लाने के लिए प्रधानमंत्री द्वारा मांगे गया 50 दिन का समय अब खत्म होने वाला है और कांग्रेस चाहती है कि विपक्ष उसके पहले साझा रणनीति तय करे, लेकिन मीटिंग के पहले ही उनके बीच की फूट उजागर हो गयी. वाम दल और जेडीयू ने किराना कर लिया. बैठक में कांग्रेस, टीएमसी, आरजेडी, जेडी(एस), जेएमएम, आइयूएमएल और एआइयूडीएफ समेत आठ विपक्षी पार्टियां ही शामिल हुईं.
सवाल है, आखिर विपक्ष गोलबंद क्यों नहीं हो पा रहा? दरअसल, नोटबंदी पर सरकार को तो सभी विपक्षी पार्टिंयां निशाने पर रखना और इसी बहाने बड़ा राजनीतिक बदलाव चाहती हैं, लेकिन अपनी राजनीतिक महत्वाकांक्षाओं और रणनीतियों के कारण एक-दूसरे के साथ खड़ा होने से बच रही हैं. पश्चिम बंगाल में वाम और टीएमसे एक-दूसरे के धुर विरोधी हैं. वाम कभी नहीं चाहता कि कोई ऐसा राजनीतिक अभियान मजबूत हो, जिससे ममता बनर्जी को माइलेज मिले.
ममता इस मुद्दे पर राष्ट्रीय लड़ाई की अगुवाई चाहती हैं. वह ‘देश को बचाने के लिए मोदी को हटाने’ और ‘हम रहेंगे या मोदी’ जैसे नारे दे चुकी हैं. ये नारे राष्ट्रीय राजनीति के लिहाज से दिये गये हैं. पश्चिम बंगाल में वामदल और पश्चिम बंगाल से बाहर दूसरे क्षेत्रीय दल उनकी इस मंशा का कभी समर्थन नहीं कर सकते. वाम दलों को ममता से इस हद तक परहेज है कि उनको बुलावा मिलने के कारण उन्होंने कांग्रेस द्वारा बुलायी गयी बैठक से भी किनारा कर लिया. सीताराम येचुरी ने कहा, पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री को बुलाया गया है, तो अन्य विपक्षी राज्यों के मुख्यमंत्री क्यों नहीं?
सपा, बसपा और कांग्रेस के सामने उत्तर प्रदेश विधानसभा का चुनाव है. लिहाजा वे एक मंच पर नहीं आना चाहते और चुनाव के पहले कोई साझा अभियान चलाना नहीं चाहते. ऐसे किसी अभियान से वे अलग रहना चाहेंगे, जिससे वोटरों में प्रतिकूल संदेश जा सकता है या भ्रम पैदा हो.
जदयू के नीतीश कुमार पहले ही दिन से नोटबंदी का समर्थन कर रहे हैं. वहीं, टीएमसी, कांग्रेस और राजद जैसी पार्टियां नोटबंदी को वापस लेने की मांग कर रही है. लिहाजा, जदयू इनके साथ नहीं जा सकता. जेडीयू का स्टैंड साफ है, ‘ममता चाहतीं हैं कि नोटबंदी का फैसला वापस हो, लेकिन हम ऐसा नहीं चाहते’.
बहरहाल, नोटबंदी पर विपक्षी पार्टियां सरकार के खिलाफ हमलावर तो हैं, लेकिन राजनीति नफा-नुकसान का गणित उन्हें एक मंच में आने से रोक रहाहै.