नयी दिल्ली : उच्चतम न्यायालय ने इस बारे में अध्ययन करने की सहमति जता दी है कि क्या अदालतों को उम्रकैद की सजा में ‘रिगरस’ (सश्रम) शब्द जोड़कर दोषियों के लिए आजीवन कारावास को और अधिक कठिन बनाने का अधिकार है क्योंकि कानून में इसका प्रावधान नहीं है. न्यायमूर्ति ए के सीकरी और न्यायमूर्ति आर के अग्रवाल की पीठ ने इस दलील पर विचार किया कि ना तो हत्या के अपराध से जुड़े दंडनीय प्रावधान में और ना ही दंड प्रक्रिया संहिता (सीआरपीसी) में ऐसा कोई प्रावधान है कि अदालतें उम्रकैद की सजा सुनाते समय ‘रिगरस’ (सश्रम) शब्द जोड़ सकती हैं.
शीर्ष अदालत ने इस मामले के सभी पक्षों को नोटिस जारी किया और मामले को एक दूसरी पीठ के समक्ष सुने जा रहे दूसरे वाद के साथ जोड़ दिया. हत्या के एक मामले में सश्रम उम्रकैद की सजा पाये दोषी अब्दुल मलिक और अन्य की ओर से वरिष्ठ अधिवक्ता परमानंद कटारा ने दलील दी कि निचली अदालतों द्वारा सुनाया गया फैसला ‘असंवैधानिक और न्यायिक अधिकार से परे’ है क्योंकि कानूनों के तहत उन्हें उम्रकैद के साथ ‘सश्रम’ शब्द जोड़ने का अधिकार नहीं है.
शीर्ष अदालत मलिक और चार अन्य की अपील पर सुनवाई कर रही थी जो उत्तर प्रदेश की एक जेल में सश्रम आजीवन कारावास की सजा काट रहे हैं. अपील में हत्या के एक मामले में उच्च न्यायालय के फैसले को चुनौती दी गयी. उच्च न्यायालय ने 14 जुलाई, 1999 को उत्तर प्रदेश के सीतापुर जिले में दुन्ना नामक शख्स की गोली मारकर हत्या करने के मामले में मलिक और अन्य को दोषी ठहराने तथा उम्रकैद की सजा सुनाने के निचली अदालत के फैसले को कायम रखा था.
इसी तरह के एक मामले में शीर्ष अदालत ने राम कुमार सिवरे की याचिका पर नोटिस जारी किया था जो छत्तीसगढ़ की एक जेल में कठोर उम्रकैद की सजा काट रहा है. उसने हत्या के एक मामले में उच्च न्यायालय के फैसले को चुनौती दी.