यूपी चुनाव परिणाम: जनादेश अखिलेश सरकार पर जनमत संग्रह

!!रामदत्त त्रिपाठी वरिष्ठ पत्रकार!! अगर उत्तर प्रदेश में सपा-कांग्रेस गंठबंधन नहीं भी हुआ होता, तो भी लगभग यही स्थिति होती. कांग्रेस और उसके 28 विधायकों को भी यह डर था कि अगर गंठबंधन नहीं होगा, तो हम चुनाव नहीं जीत पायेंगे. विधायकों की मांग अनुरूप ही कांग्रेस नेतृत्व गंठबंधन के लिए राजी हुआ था. खाट […]

By Prabhat Khabar Digital Desk | March 12, 2017 9:57 AM

!!रामदत्त त्रिपाठी वरिष्ठ पत्रकार!!

अगर उत्तर प्रदेश में सपा-कांग्रेस गंठबंधन नहीं भी हुआ होता, तो भी लगभग यही स्थिति होती. कांग्रेस और उसके 28 विधायकों को भी यह डर था कि अगर गंठबंधन नहीं होगा, तो हम चुनाव नहीं जीत पायेंगे. विधायकों की मांग अनुरूप ही कांग्रेस नेतृत्व गंठबंधन के लिए राजी हुआ था. खाट सभाओं के दौरान कांग्रेस को यह एहसास हो चुका था कि हमें पर्याप्त जनसमर्थन नहीं मिल रहा है. दूसरी ओर, अखिलेश यादव को भी हारने का डर था, इसलिए उन्होंने कांग्रेस का सहारा लिया. यह जनादेश अखिलेश सरकार के पांच साल के कार्यकाल पर जनमत संग्रह ही है. उनके विकास के एजेंडे को जनता ने स्वीकार नहीं किया है. वे कानून-व्यवस्था और बेहतर शासन देने से चूक गये, जिसका मुद्दा बना कर भाजपा ने जीत दर्ज की. उन्होंने शिक्षा, स्वास्थ्य और रोजगार पर ध्यान नहीं दिया, जबकि भाजपा ने रणनीति के तहत शहरों के साथ-साथ गांव-देहात तक अपनी पहुंच बनायी.

भाजपा ने गांव-गरीब, किसान और विकास को मुद्दा बना कर मतदाताओं को आकर्षित किया. नोटबंदी से हुई तकलीफों और कष्ट को दूर करने का भाजपा ने लोगों को भरोसा दिया. अखिलेश शहरी और मध्यम वर्ग को आकर्षित करने के चक्कर में गरीबों और किसानों की बात भूल गये. बिहार में हुए गंठबंधन का जहां तक मामला है, वहां नितीश की छवि और शासन-प्रशासन का रिकॉर्ड अच्छा था. बिहार में उन्होंने अपराध को काफी हद तक नियंत्रित कर दिया था. सामाजिक न्याय की शक्ति को भांप कर नितीश और लालू एक रणनीति के तहत साथ आये. जबकि अखिलेश को यह गलतफहमी थी कि केवल मेरे नाम या मेरे चेहरे पर चुनाव जीता जा सकता है. उन्होंने अपनी अलग-अलग पृष्ठभूमि और समाज से आनेवाले अपनी पार्टी के बड़े नेताओं को दरकिनार कर दिया. बेनी प्रसाद वर्मा, रेवती रमन सिंह, माता प्रसाद पांडेय जैसे नेताओं की उन्होंने उपेक्षा की. यदि अखिलेश यादव ने खुद को लोगों से जोड़ा होता और लोगों के बीच गये होते तो, शायद ऐसे हालात नहीं होते.

अखिलेश यादव ने खुद ही अपनी पार्टी को तोड़ा. मुलायम सिंह यादव और शिवपाल यादव, जिन्होंने पार्टी की स्थापना की थी, उनको अपमानित किया. दूसरी ओर, भाजपा स्थिति मजबूत होने के बाद भी अनुप्रिया पटेल, ओम प्रकाश राजभर की पार्टी से समझौता किया. दूसरे दलों के लोगों को, जैसे लखनऊ में ही रीता जोशी, बृजेश पाठक और नीरज वोरा आदि को लेकर आये. अखिलेश लोगों को जोड़ने और सुशासन के मोर्चे पर असफल रहे, जिसका फायदा नरेंद्र मोदी और भाजपा ने उठाया. नरेंद्र मोदी के प्रति लोगों का आकर्षण हुआ, तो वह काम की वजह से ही हुआ. जबकि राहुल और अखिलेश दोनों ही यह दिखाते रहे कि हम राजा हैं और हम आपको देंगे. यह समझने में भूल कर गये कि जनता आपको प्रतिनिधि के रूप में स्वीकार करती है. इससे स्पष्ट है कि राजनीति अब राजा-रानी के खेल से नहीं चलेगी.

कांशीराम लोगों को जोड़ते थे और सबको नेतृत्व में हिस्सेदारी देते थे. मायावती ने स्वामी प्रसाद मौर्य और आरके चौधरी को जाने दिया, इससे होनेवाले नुकसान का उन्हें कोई अनुमान नहीं था. दूसरी बात अति पिछड़े समाज और दलितों में भी छोटी-छोटी जातियों को वह जोड़ने में असफल रहीं. उन्होंने सारी शक्ति अपने पास केंद्रित कर ली, यहां तक कि दलित बुद्धजीवियों से भी कट गयीं. पूरे पांच साल उन्होंने ऐसा कुछ नहीं किया, जिससे उन्हें इस चुनाव में कोई फायदा मिल पाता.

मायावती ने जो पिछली सरकार जो चलायी थी, लोग उससे उत्साहित नहीं थे. रोजगार और विकास के मामले पीछे रह गये और भ्रष्टाचार के मामले तो मायावती पर सबसे अधिक थे. वहीं अमित शाह लखनऊ, बनारस और गोरखपुर आदि स्थानों पर जाकर कार्यकर्ताओं से रात-रात भर मिलते रहते थे, जबकि मायावती सभा करके वापस आ जाती थीं. अगर आप कार्यकर्ताओं से मिलेंगे नहीं, जमीन की सच्चाई से रू-ब-रू नहीं होंगे, लोगों की अपेक्षाओं को समझेंगे नहीं, तो आपकी जमीन खिसकेगी ही. भाजपा के साथ अच्छी बात है कि जमीन पर कार्यकर्ताओं और आरएसएस का मजबूत संगठन है. यही कार्यकर्ता ही नरेंद्र मोदी का संदेश लेकर घर-घर गये और जीत उसी का परिणाम है.

भाजपा के सामने बेहतर और भ्रष्टाचार मुक्त प्रशासन देने की चुनौती होगी. साथ ही, भगवा ब्रिगेड को काबू रख पाने की चुनौती होगी. तमाम बड़बोले लोगों काबू रखना होगा.

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