दस साल में खत्म हो जायेगी कांग्रेस

रामचंद्र गुहा, मशहूर इतिहासकार मौजूदा राजनीतिक हालात में लगता है कि कांग्रेस पार्टी का भविष्य अच्छा नहीं है. पांच-दस सालों में या तो कांग्रेस पार्टी खत्म हो जायेगी या पार्टी बिना गांधी परिवार के चलेगी. पार्टी में नया नेतृत्व उभरेगा. एक समय था, जब गांधी परिवार की जरूरत कांग्रेस को थी. अब गांधी परिवार को […]

By Prabhat Khabar Digital Desk | March 15, 2014 7:48 AM

रामचंद्र गुहा, मशहूर इतिहासकार

मौजूदा राजनीतिक हालात में लगता है कि कांग्रेस पार्टी का भविष्य अच्छा नहीं है. पांच-दस सालों में या तो कांग्रेस पार्टी खत्म हो जायेगी या पार्टी बिना गांधी परिवार के चलेगी. पार्टी में नया नेतृत्व उभरेगा. एक समय था, जब गांधी परिवार की जरूरत कांग्रेस को थी. अब गांधी परिवार को कांग्रेस की जरूरत है. गांधी परिवार अपने आखिरी दौर में है. मुङो लगता है कि इस परिवार ने भारतीय राजनीति में अपनी भूमिका अदा कर ली है.

एक आम नागरिक की हैसियत से बात करें, तो आम नागरिक को हर सरकार से उम्मीद होती है कि वह देश का विकास करेगी और उनके जीवन स्तर में सुधार लायेगी. लेकिन, एक इतिहासकार के तौर पर मैं कहूंगा कि यह 16वां लोकसभा चुनाव है. इससे पहले के 15 लोकसभा चुनाव भी बेहद खास थे. इसलिए ऐसा नहीं है कि मैं इसे कुछ खास या ज्यादा महत्वपूर्ण मानूं.

पिछली बार भी हमने नहीं सोचा था कि कांग्रेस 206 सीटों के साथ आयेगी. उससे पहले यह किसको पता था कि पोखरण के बाद अटल बिहारी वाजपेयी की सरकार आयेगी. इसलिए हर चुनाव अपने आप में महत्वपूर्ण है. लोग खुल कर आजादी के साथ अपना वोट दें, यह महत्वपूर्ण है. ऐसा लगता है कि नरेंद्र मोदी ने भाजपा को लाभ पहुंचाया है. पार्टी को आगे लाने में नेतृत्व की भूमिका होती है. मोदी ने पार्टी के अंदर जोश भरा है, लेकिन यहां अमेरिका के तर्ज पर अध्यक्षीय प्रणाली पर चुनाव नहीं होते. इसलिए हर सीट से उम्मीदवारी किसकी है, मायने रखता है. मोदी की थोड़ी-बहुत तो लहर है. पार्टी और कार्यकर्ताओं में जोश आया है. इसका असर पड़ेगा. लेकिन, मोदी अपने दम पर चुनाव नहीं जीत सकते हैं. इतिहास में एक ही नेता थीं, जिन्होंने अपने दम पर एक बार चुनाव जिताया और एक बार चुनाव हराया भी. वह थीं इंदिरा गांधी. उन्होंने 1971 में चुनाव जिताया और अपनी ही वजहों से 1977 में हराया भी. मोदी उस स्तर पर अभी तक नहीं पहुंचे हैं.

निगाहें ‘आप’ पर
आम आदमी पार्टी (आप) को मैं दिलचस्पी के साथ देख रहा हूं. इसमें नौजवानों की अच्छी भागीदारी है. उनमें नयी दिशा है, आदर्शवाद भी है. परंपरागत पुरानी पार्टियों कांग्रेस और भाजपा से यह पूंजीपतियों से सांठ-गांठ के मामले में अलग है. इनको चंदा देनेवाले आम लोग हैं, लेकिन ये थोड़ी जल्दबाजी में हैं. अगर वे सोचें कि 10-15 सालों में देश के इतिहास को बदलेंगे, तो यह बेहतर रहेगा. मेरी निजी राय है कि इस बार लोकसभा चुनाव में ‘आप’ 50-60 से ज्यादा सीटों पर चुनाव नहीं लड़े, तो बेहतर रहेगा.

वाम की खाली जगह
वाम दल बंगाल और केरल में सत्ता से बाहर हो गये हैं. सिर्फ त्रिपुरा में बचे हैं. इसलिए एक बहुत बड़ा स्पेस खाली है और उस स्पेस को ‘आप’ भर सकती है. वाम दल उस शक्ति के साथ नहीं लौट सकते. कांग्रेस में बहुत संकट है. इसलिए ‘आप’ इन दोनों की जगह ले सकती है. बशर्ते दूरगामी सोच के साथ काम करे. ‘आप’ की राजनीति की शुरु आत जिस अन्ना आंदोलन से हुई, उसमें दक्षिणपंथी रुझान दिख रहा था. लेकिन, उनकी राजनीतिक विचारधारा अभी साफ नहीं हो पायी है. इससे कई पूंजीपति भी जुड़ रहे हैं. वे कभी नहीं चाहेंगे कि पार्टी पूरी तरह से वामपंथी विचारधारा की गिरफ्त में चली जाये. थोड़ा बाजार की ताकतों को भी साथ लेकर चलना चाहेंगे. इसलिए उनकी विचारधारा पर बात करना अभी जल्दबाजी होगी.

(राजेश जोशी से बातचीत पर आधारित)

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