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शाह बानो ने बनाया था तीन तलाक के खिलाफ आधार

नयी दिल्लीः मध्यप्रदेश की शाह बानो पहली महिला थीं, जो मुसलिम महिलाओं के साथ ‘तीन तलाक’ के नाम पर होनेवाले अन्याय की आवाज बनीं. हालांकि, उनके जरिये सुप्रीम कोर्ट से मुसलिम महिलाओं को मिली राहत पर तत्कालीन कांग्रेस सरकार ने ग्रहण लगा दिया था. इसके बाद दबी जुबान में ही सही, तीन तलाक के दुरुपयोग […]

नयी दिल्लीः मध्यप्रदेश की शाह बानो पहली महिला थीं, जो मुसलिम महिलाओं के साथ ‘तीन तलाक’ के नाम पर होनेवाले अन्याय की आवाज बनीं. हालांकि, उनके जरिये सुप्रीम कोर्ट से मुसलिम महिलाओं को मिली राहत पर तत्कालीन कांग्रेस सरकार ने ग्रहण लगा दिया था.

इसके बाद दबी जुबान में ही सही, तीन तलाक के दुरुपयोग पर आवाजें उठतीं रहीं. उत्तर प्रदेश चुनाव से पहले इस मुद्दे ने जोर पकड़ा और केंद्र सरकार और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने साफ कर दिया कि सरकार मुसलिम महिलाअों के साथ है. उन्हें तीन तलाक के अत्याचार से बचाने के लिए वह सुप्रीम कोर्ट में अपना पक्ष मजबूती से रखेगी.

तीन तलाक पर सुप्रीम कोर्ट ने की बड़ी टिप्पणी, कहा – शादी खत्म करने का ‘सबसे खराब और अवांछनीय रूप’

बहरहाल, लंबी जद्दोजहद के बीच सुप्रीम कोर्ट में सुनवाई शुरू हुई, तो यह किस दिशा में जायेगी, इसके बारे में किसी को पता नहीं था. लेकिन, सुप्रीम कोर्ट ने माना है कि तीन बार तलाक मुसलिमों में शादी खत्म करने का ‘सबसे खराब और अवांछनीय रूप’ है. कोर्ट ने यह भी कहा है कि इसलाम में विभिन्न विचारधाराओं में तीन बार तलाक को ‘वैध’ बताया गया है.

उल्लेखनीय है कि शाह बानो मध्यप्रदेश के इंदौर की मुसलिम महिला थीं. उनके पति ने जब उन्हें तलाक दिया, तब उनकी उम्र 62 वर्ष से ज्यादा थी. इस उम्र में अपने पांच बच्चों के साथ पति से अलग हुई शाह बानो के पास कमाई का कोई जरिया नहीं था.

तीन तलाक: यदि मामला धार्मिक हुआ, तो दखल नहीं देगा सुप्रीम कोर्ट

पति ने इस उम्र में तलाक देने के बाद मुसलिम कानून के अनुसार, कोई गुजारा भत्ता देने से मना कर दिया. शाह बानो के पास कोर्ट जाने के अलावा कोई रास्ता नहीं था. लिहाजा, उन्होंने दंड प्रक्रिया संहिता (सीआरपीसी) की धारा 125 के अंतर्गत अपने पति से भरण-पोषण भत्ता की मांग की. कोर्ट ने शाह बानो के पक्ष में फैसला दिया, लेकिन उनके पति ने इस फैसले के खिलाफ अपील की और अंतत: यह मामला सुप्रीम कोर्ट पहुंच गया.

शाह बानो के पति का तर्क था कि मुसलिम पर्सनल लॉ के तहत तलाकशुदा महिलाओं को ताउम्र भरण-पोषण भत्ता देने का कोई प्रावधान ही नहीं है. दूसरी तरफ, शाह बानो का तर्क था कि दंड प्रक्रिया संहिता देश के प्रत्येक नागरिक (चाहे वह किसी भी धर्म का हो) पर सामान रूप से लागू होती है. लिहाजा, उन्हें भी इसका लाभ मिलना चाहिए. कोर्ट ने शाह बानो के तर्क को स्वीकार करते हुए 23 अप्रैल, 1985 को उनके पक्ष में फैसला दे दिया.

बेवजह तीन तलाक दिया तो सामाजिक बहिष्कार

इस फैसले को मुसलिम महिलाओं के अधिकार सुनिश्चित करने के क्षेत्र में मील का पत्थर माना गया. शाह बानो का नाम भारत के न्यायिक इतिहास में हमेशा के लिए दर्ज हो गया, लेकिन, इसके तुरंत बाद ही इस फैसले पर राजनीति शुरू हो गयी. मुसलिम संगठनों ने इस फैसले का विरोध शुरू कर दिया. उनका कहना था कि कोर्ट उनके पारिवारिक और धार्मिक मामलों में हस्तक्षेप करके उनके अधिकारों का हनन कर रहा है. जगह-जगह विरोध-प्रदर्शन होने लगे.

‘तीन तलाक’ ना बने मुस्लिम महिलाओं के साथ अन्याय की वजह : प्रधानमंत्री

आखिरकार राजीव गांधी सरकार ने मुसलिम धर्मगुरुओं के दबाव में मुसलिम महिला (तलाक पर अधिकार संरक्षण) अधिनियम, 1986 पारित कर दिया. इस अधिनियम के जरिये सुप्रीम कोर्ट के फैसले को पलट दिया गया. इसके प्रावधानों के अनुसार, हर वह आवेदन, जो किसी तालाकशुदा महिला के द्वारा अपराध दंड संहिता 1973 की धारा 125 के अंतर्गत किसी न्यायालय में इस कानून के लागू होते समय विचाराधीन है, अब इस कानून के अंतर्गत निबटाया जायेगा. इस संशोधित कानून में गुजारा भत्ता के दायित्व को सीमित कर दिया गया.

क्या हैं मुसलिम महिला (तलाक पर अधिकार संरक्षण) अधिनियम, 1986 के प्रावधान
जब एक मुसलमान तालाकशुदा महिला इद्दत के समय के बाद अपना गुजारा चलाने की स्थिति में नहीं होती, तो कोर्ट उन संबंधियों को उसे गुजारा भत्ता देने का आदेश दे सकता है, जो मुसलमान कानून के अनुसार उसकी संपत्ति के उत्तराधिकारी हैं. अगर ऐसे संबंधी नहीं हैं अथवा वे गुजारा भत्ता देने में सक्षम नहीं हैं, तो न्यायालय प्रदेश वक्फ बोर्ड को गुजारा देने का आदेश देगा. इस प्रकार से पति के गुजारा देने का उत्तरदायित्व इद्दत के समय के लिए सीमित कर दिया गया.

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