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Atal Bihari Vajpayee: कभी न मानी हार, अटल रहे अटल, जन्मशती वर्ष पर पढ़ें खास रिपोर्ट

अटल बिहारी वाजपेयी अपने नाम की तरह ही अटल थे. वह भारत की करोड़ों जनता के हृदय पर राज करते थे. वह राजनीति के ऐसे अजातशत्रु थे, जिन्होंने पक्ष-विपक्ष की भावना से ऊपर उठकर समभाव और सामंजस्य की एक नयी मिसाल कायम की थी.

आज से भारत रत्न पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी का जन्मशती वर्ष आरंभ हो रहा है. वह भारतीय राजनीति में सेवा, सुशासन, गरीब कल्याण और पारदर्शिता के सिद्धांत को स्थापित करने वाले राष्ट्रनायक थे. अटल जी जननायक भी थे. वह भारत की करोड़ों जनता के हृदय पर राज करते थे. वह राजनीति के ऐसे अजातशत्रु थे, जिन्होंने पक्ष-विपक्ष की भावना से ऊपर उठकर समभाव और सामंजस्य की एक नयी मिसाल कायम की थी. उनका ध्येय वाक्य था, ‘छोटे मन से कोई बड़ा नहीं होता’. वह विपक्षी दलों को भी साथ लेकर चलने की कला जानते थे. अपने बड़े मन के बल पर ही विपक्ष में रहते हुए भी वह देश में सत्ता पक्ष के नेताओं से ज्यादा लोकप्रिय हुए. वह राजनीतिक शुचिता और सुशासन के प्रबल पक्षधर रहे. उनका कहना था कि सत्ता हमें सुख भोगने के लिए नहीं मिली है, यह जनकल्याण और राष्ट्र के समग्र विकास की जिम्मेदारी का अवसर है.

भारत रत्न अटल बिहारी वाजपेयी ने धर्म और ज्ञान की सत्ता को राजसत्ता के शीर्ष पर स्थापित करने का जो प्रतिमान गढ़ा, वह न केवल भारत, अपितु वैश्विक राजनीति, मानव मूल्यों और सामाजिक-सांस्कृतिक विकास के लिए एक दृष्टि, एक दर्शन है. यह सिद्ध करता है कि राजतंत्र से ऊपर हृदयतंत्र है और यही व्यक्ति की सर्वस्वीकार्यता का शाश्वत और कालजयी मार्ग है. छल और प्रपंच से सत्ता जीती जा सकती है, जन का मन नहीं जीता जा सकता. अटल जी कर्मयोगी थे और कर्मफल के प्रति आस्थावान भी. इसलिए कभी फल की चिंता नहीं की, अपितु कर्म से सुफल को सुघटित होने दिया. चाहे वह 1984 में ग्वालियर लोकसभा सीट से माधवराव सिंधिया को आगे कर कांग्रेस द्वारा छलपूर्वक उन्हें हरा देने की चुनावी घटना हो या पाकिस्तान का राजनीतिक छल, ये हार कभी उनके लिए हार और प्रतिपक्षी के लिए जीत न बन सकी, क्योंकि अटलजी के कर्मयोग की परिधि इन प्रपंचों से कई योजन बड़ी थी.

47 साल की संसदीय यात्रा में उन्होंने दो बार प्रधानमंत्री पद की गरिमा बढ़ायी. अगर चाहते तो, बहुत पूर्व में (वर्ष 1996 से पूर्व) प्रधानमंत्री की कुर्सी तक पहुंच सकते थे, किंतु उन्होंने उल्टे-सीधे रास्ते नहीं अपनाये, कभी अपने सिद्धांतों से समझौता नहीं किया. वह यह सिद्ध करने में सफल रहे कि सार्वजनिक क्षेत्र के जीवन में ईमानदारी का मूल्य सबसे श्रेष्ठ है. वह लोकतंत्र को अवसर नहीं, संकल्प मानते थे. इसलिए कहते थे, ‘लोकतंत्र में काम होना चाहिए, इतना ही काफी नहीं है. लोकतंत्र में काम सही तरीके से भी किया जाना चाहिए. इसका बहुत महात्म है. यह साध्य और साधन का सवाल है.’ जीवन में उन्होंने कभी हारना नहीं सीखा, बल्कि हार से सीख ली. यह बात केवल उनकी कविताओं में ही व्यक्त नहीं हुई, उनके वक्तव्य में भी यह बार-बार घ्वनित हुआ और व्यवहार में सिद्ध भी. उन्होंने कहा, ‘जड़ता का नाम जीवन नहीं है, पलायन पुरोगमन नहीं है. आदमी को चाहिए कि वह जूझे, परिस्थितियों से लड़े, एक स्वप्न टूटे, तो दूसरा गढ़े.’

वे मूल्य आधारित राजनीति के पक्षधर थे. उन्होंने लिखा, ‘मेरे विचार से अच्छा शासन तभी संभव है, जब सरकार मूल्य आधारित हो. दुर्भाग्य से आज की राजनीति में नैतिकता और मूल्यों की कोई पूछ नहीं है. ऐसा केवल भारत में ही नहीं, बल्कि समूचे विश्व में है.’

भारतीय राजनीति के जिस कालखंड में सत्ता के लिए संख्या (सांसदों की समर्थन संख्या) खरीदी जा रही थी, उस काल में अटल जी सत्य और निष्ठा के शिखर पर खड़े होकर त्याग (प्रधानमंत्री पद से इस्तीफा) का प्रतिमान गढ़ रहे थे. संघर्ष से सफलता तक और सत्ता से संन्यास (राजनीति से संन्यास) तक उनकी जीवन-यात्रा की प्रत्येक वक्रता भारतीय राजनीति और समाज के लिए इतिहास का ऐसा अध्याय है, जो समकालीन और भावी, दोनों पीढ़ियों के लिए प्रेरणादायी है, प्रेरणादायी रहेगी. पाकिस्तान समस्या का वह स्थायी हल चाहते थे. इसके लिए शांति की पहल भी की, पर यह पाकिस्तान का दुर्भाग्य रहा कि एक बड़ा अवसर खो दिया.

संसदीय राजनीति में 47 साल रहे अटल

  • वह एकमात्र सांसद थे, जो चार अलग-अलग राज्यों उप्र, मप्र, गुजरात, दिल्ली से लोकसभा के लिए चुने गये.

  • अटल जी वर्ष 1996 में पहली बार प्रधानमंत्री बने. हालांकि उनका यह कार्यकाल मात्र 13 दिन का रहा.

  • 19 मार्च, 1998 को दूसरी बार प्रधानमंत्री बने और 22 मई, 2004 तक इस पर अपना कार्यकाल पूरा किया.

  • राजग का नेतृत्व किया, पीएम पद पर रहते हुए पूरे पांच साल का कार्यकाल पूरा करने वाले पहले गैर कांग्रेसी प्रधानमंत्री बने.

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