वर्ष 1788 तक ब्रिटेन द्वारा आयातित नील यानी ब्लू डाइ में भारतीय नील का हिस्सा लगभग 30 प्रतिशत था. नील की तब यूरोप में खूब मांग होती थी. इसके बाद अंग्रेजों ने भारतीय किसानों पर नील की खेती जबर्दस्ती थोप दी, जिससे 1810 तक ब्रिटेन में 95 प्रतिशत नील भारत से पहुंचने लगे. किसानों को एक बीघा यानी 20 कट्ठा जमीन के कम-से-कम तीन कट्ठे में नील की खेती करनी होती थी. इसे तीनकठिया प्रथा के नाम से भी जाना जाता है. इसके लिए भारतीय राजा, नवाब और जमींदार भी अंग्रेजों की तरफ खड़े हो गये थे.
अंग्रेज पहले ही 1857 के सिपाही विद्रोह के चलते सतर्क थे और वे दोबारा किसी आंदोलन को पनपने नहीं देना चाहते थे, इसलिए अंग्रेजों ने एक आयोग बना कर नील की खेती से जुड़ी कुछ घोषणाएं करवायीं. इसके अनुसार, किसी भी किसान को जबर्दस्ती नील की खेती नहीं करवाने और इससे जुड़े सभी विवादों का निबटारा कानूनी तरीके से किये जाने की बात कही गयी. इस तरह 1860 में बंगाल में सभी नील के कारखाने बंद हो गये.
नील की फसल धान की फसल के समय ही होती थी. ऊपर से, एक बार जिस जमीन में नील की खेती हो जाती थी, फिर वह जमीन दूसरी फसल उगाने के लायक नहीं रह जाती थी. इसने किसानों को दाने-दाने का मोहताज बना दिया. फिर भी अंग्रेजों द्वारा भारतीय किसानों को नील की खेती करने को मजबूर किया जाता था. कर्ज के बोझ तले दबे होने के कारण उन्हें न चाहते हुए भी ऐसा करना पड़ता. एक बार जो किसान इस कुचक्र में फंस जाता, वह आसानी से निकल नहीं पाता था. इससे परेशान होकर किसान पूरी तरह आक्रोशित हो चुके थे.
नील विद्रोह की पहली घटना वर्ष 1859 में बंगाल के नादिया जिले के गोविंदपुर गांव में हुई. विद्रोह का नेतृत्व किसान नेता दिगंबर बिश्वास व उनके भाई विष्णु बिश्वास कर रहे थे. उन्होंने फैसला किया कि न नील की खेती करेंगे और न ही बागान मालिकों के आगे चुप बैठेंगे. पहले अर्जियां दी गयीं. फिर लाठी का जवाब लाठी से दिया गया. इस विद्रोह की आग मालदा, ढाका, पावना, खुलना व दीनाजपुर तक फैल गयी. बागान मालिकों का एजेंट लगान वसूलने जाता, तो उसे मार कर भगा दिया जाता. किसान खेती के उपकरण लेकर नील फैक्ट्रियों पर टूट पड़े. इस में पत्रकार और लेखक भी शामिल थे.
उसी समय बंगाली लेखक दीनबंधु मित्र ने ‘नील दर्पण’ नाटक लिखा, जो इतना प्रभावी था कि दर्शकों ने अंग्रेज का किरदार निभाने वाले कलाकार की ही पिटाई कर दी. नील किसानों पर अत्याचार की चर्चा चारों तरफ होने लगी थी. इस तरह नील दर्पण ने नील विद्रोह को हवा देने का काम किया.