मुंबई : महाराष्ट्र पुलिस के होमगार्ड के महानिदेशक परमबीर सिंह पहले ऐसे आईपीएस अधिकारी नहीं हैं, जिनका टकराव सीधे प्रदेश के गृह मंत्री से हुई है. सूबे के और भी आईपीएस अधिकारियों का गृहमंत्री से टकराव हो चुका है. हालांकि, वे आईपीएस अधिकारी प्रदेश सरकार से टकराना उचित नहीं समझा और केंद्रीय प्रतिनियुक्ति पर चले गये. संभावना है कि और भी आईपीएस अधिकारी केंद्रीय प्रतिनियुक्ति पर जा सकते हैं.
मालूम हो कि मुंबई के पुलिस कमिश्नर और पुलिस महानिदेशक रह चुके 1985 बैच के आईपीएस अधिकारी व महाराष्ट्र के पुलिस महानिदेशक सुबोध जायसवाल केंद्रीय प्रतिनियुक्ति पर जा चुके हैं. उन्हें सीआईएसएफ का महानिदेशक बनाया गया है. जब वह महाराष्ट्र के एसआईटी के प्रमुख थे, तभी राज्य में अरबों का फर्जी स्टांप घोटाला हुआ था.
एसआईटी प्रमुख रहते हुए सुबोध जायसवाल ने मुंबई के पुलिस कमिश्नर आरएस शर्मा के सेवानिवृत्त होने के एक दिन बाद ही गिरफ्तार कर लिया था. उस मामले में राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी नेता सह गृहमंत्री छगन भुजबल को जेल जाना पड़ा था. अब एक बार फिर गृह मंत्री अनिल देशमुख और मुंबई पुलिस के बीच टकराव शुरू हो गया है.
वहीं, महाराष्ट्र कैडर की 1988 बैच की आईपीएस अधिकारी रश्मि शुक्ला पुणे की पुलिस कमिश्नर रह चुकी हैं. स्टेट इंटेलिजेंस डिपार्टमेंट की कमिश्नर रहने के दौरान उन्होंने भी तबादले और भर्ती के भ्रष्टाचार मामले में गृहमंत्री से पंगा ले लिया था. उन्होंने मामले की शिकायत तत्कालीन महानिदेशक और मुख्यमंत्री से की. जब शिकायतों पर कोई सुनवाई नहीं हुई, तो वे भी केंद्रीय प्रतिनियुक्ति पर चली गयीं. अब वह सीआरपीएफ में एडीजी हैं.
महाराष्ट्र में ‘लेटर बम’ के बाद मामले की जांच एक बड़ा सवाल है. पूर्व आईपीएस अधिकारी सह राज्य पुलिस शिकायत प्राधिकरण के सदस्य पीके जैन का कहना है कि ऐसा महाराष्ट्र में पहली बार हुआ है, जब किसी पुलिस महानिदेशक ने गृह मंत्री पर सीधा आरोप लगाया है.
महाराष्ट्र में ‘लेटर बम’ मामले जांच ना तो मुंबई पुलिस कर सकती है और ना ही एंटी करप्शन ब्यूरो, और ना ही कोई रिटायर्ड पुलिस महानिदेश करेगा. क्योंकि, सभी लोगों के अपने-अपने हित हो सकते हैं. ऐसी स्थिति में अगर केंद्रीय जांच एजेंसी मामले की जांच करती है, तो केंद्र और राज्य सरकार आमने-सामने होंगी.
राज्य पुलिस शिकायत प्राधिकरण के सदस्य का कहना है कि पूरे मामले की जांच हाईकोर्ट की निगरानी में करायी जानी चाहिए. क्योंकि, देखा जाता है कि जब कोई अच्छा अधिकारी नेताओं की बात नहीं सुनता, तो उसका या तो तबादला कर दिया जाता है, या फिर निलंबित कर दिया जाता है.
वहीं, अगर कोई अधिकारी जब नेताओं की सुनने लगता है, तो उसे मलाईदार पद दे दिया जाता है. लेकिन, वह काम नहीं कर पाता. ऐसे में सरकार सभी अधिकारी अपने पास रख लेती है. जब मैं मुंबई में कार्यरत था, उससमय भर्ती से संबंधित मामले में मुख्यमंत्री की कुछ बातों को नहीं माना. उसके बाद मुझे नांदेड़ भेज दिया गया था.