मेरी माटी मेरा देश : अकम्मा चेरियन के आगे ब्रिटिश अफसर ने मानी हार, पढ़ें वीरता की कहानी

बात ब्रिटिश शासन की है, जब एक अफसर ने त्रावणकोर में क्रांतिकारियों पर फायर का आदेश दिया, बंदूकें तन गयीं, तभी एक महिला ने आगे आकर कहा, ‘मैं इनकी लीडर हूं. सबसे पहले मुझे गोली मारो.’ ‘मेरी माटी, मेरा देश शृंखला’ की अंतिम कड़ी में आज रू-ब-रू होते हैं भारत मां की बेटी अकम्मा चेरियन की वीरता से.

By Prabhat Khabar News Desk | August 15, 2023 1:33 PM

अकम्मा चेरियन स्वाधीनता आंदोलन की मजबूत सिपाही होने के साथ ही महान समाज सुधारक भी थीं. शुरू में वह प्राध्यापिका थीं, लेकिन मातृभूमि को गुलामी की जंजीर से मुक्त करवाने के लिए उन्होंने यह नौकरी छोड़ दी और आजादी की लड़ाई में कूद पड़ीं. बाद में वह ‘त्रावणकोर राज्य कांग्रेस’ की सक्रिय सदस्य बनीं. आंदोलन में हिस्सा लिया . 1947 में देश आजाद हुआ, पर अकम्मा का मिशन जारी रहा.

बात 1938 की है. त्रावणकोर में लोग तत्कालीन शासक से नाखुश थे. ‘त्रावणकोर राज्य कांग्रेस’ के नेतृत्व में लोग विरोध-प्रदर्शन कर रहे थे, लेकिन वहां के दीवान ने कई प्रतिबंध लगा दिये. इसके विरोध में केरल में अपने तरह का पहला सविनय अवज्ञा आंदोलन शुरू हुआ. पार्टी के तत्कालीन अध्यक्ष सहित कई नेता जेल में डाल दिये गये. ऐसा लगा कि आंदोलन बिखर जायेगा. पार्टी के अध्यक्ष ने अकम्मा को अपना उत्तराधिकारी घोषित किया. ऐसे कठिन समय में निडर अकम्मा ने त्रावणकोर राज्य कांग्रेस की कमान संभाली. जेल में डाले गये नेताओं को रिहा कराने के लिए रैली की. करीब 20,000 लोग इसमें शामिल हुए.

प्रदर्शनकारियों को रोकने के लिए ब्रिटिश पुलिस अफसर कर्नल वॉटसन ने गोली चलाने का आदेश दिया. तब उस अफसर को ललकारते हुए अकम्मा ने कहा, ‘मैं इनकी नेता हूं, दूसरों को गोली मारने से पहले मुझे गोली मारो.’ उनकी निडरता ने इस अफसर को अपना आदेश वापस लेने के लिए मजबूर कर दिया. इस तरह बड़ा नरसंहार टल गया. देशभर में उनकी वीरता की प्रशंसा हुई. इसके बाद अकम्मा ने महिला स्वयंसेवी समूह, देससेविका संघ की स्थापना की. महिलाओं को स्वाधीनता आंदोलन के लिए प्रेरित किया. अकम्मा को एक बड़ा खतरा मानते हुए ब्रिटिश पुलिस ने दिसंबर, 1939 में गिरफ्तार कर लिया और जेल में डाल दिया. यहां प्रताड़ना दी गयी. इसके बाद भी कई बार उन्हें गिरफ्तारियों का सामना करना पड़ा, पर वह अपने लक्ष्य से विचलित नहीं हुईं.

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आजाद भारत में भी समाज सुधार के क्षेत्र में काम जारी रखा. अपनी आत्मकथा में जीवन का सार प्रस्तुत करते हुए वह लिखती हैं- ‘शेक्सपियर ने कहा है कि दुनिया एक मंच है. सभी पुरुष व महिलाएं महज कलाकार हैं, लेकिन मेरे लिए यह जीवन एक लंबा विरोध है. मेरा विरोध- रूढ़िवाद, अर्थहीन कर्मकांड, सामाजिक अन्याय, लैंगिक भेदभाव व बेईमानी के खिलाफ है, या हर उस चीज के विरुद्ध है, जो कि अन्यायपूर्ण है़ जब मैं ऐसा कुछ देखती हूं, तो मैं अंधी हो जाती हूं, यहां तक कि यह भी भूल जाती हूं कि मैं किससे लड़ रही हूं.’

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‘त्रावणकोर की झांसी की रानी’ की मिली थी उपाधि

अकम्मा चेरियन का जन्म 1909 में कांजीरपल्ली, त्रावणकोर में हुआ था. इतिहास में ग्रेजुएट की डिग्री लेने के बाद उन्होंने सेंट मैरी स्कूल, एडक्कारा में प्राध्यापिका के रूप में काम करना शुरू किया. 1947 में देश आजाद हुआ, तो त्रावणकोर के दीवान एक स्वतंत्र राज्य का सपना देख रहे थे. ऐसे में अकम्मा ने त्रावणकोर को भारतीय संघ में मिलाने के लिए अपनी लड़ाई जारी रखी. अंतत: उनकी देशभक्ति रंग लायी. बाद में वह त्रावणकोर विधानसभा के लिए चुनी गयीं. 1967 में सक्रिय राजनीति छोड़ने का एलान किया. पांच मई, 1982 को उनका निधन हो गया. कहा जाता है कि गांधी जी ने उन्हें ‘त्रावणकोर की झांसी रानी’ की उपाधि दी थी.

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