UN Climate Change Conferences: संयुक्त राष्ट्र जलवायु सम्मेलन (COP27) की समाप्ति पर जो नया मसौदा तैयार हुआ, उसमें ज्यादा कुछ नया नहीं है. कुल मिलाकर इसे देखें तो वही ‘ढाक के तीन पात’ जैसा नजर आ रहा है. इसमें ग्लोबल वार्मिंग को 1.5C पर सीमित रखने की प्रतिज्ञा फिर से दोहराई गयी है, जो 2015 के पेरिस समझौते के बाद से लगातार इस्तेमाल की जा रही है. इसमें रिन्यूएबल के विकास, कोयला की कटौती आदि की बात की गयी है और उत्सर्जन में गहरी कटौती पर बात कही गई है. लेकिन, यह सब हर वर्ष होने वाले जलवायु परिवर्तन सम्मेलन में उभर कर सामने आती रही है.
शर्म अल शेख में आयोजित 27वें जलवायु परिवर्तन सम्मेलन- COP27 के दौरान विकसित अमीर देश ग्रोइंग इकोनॉमी या उभरती अर्थव्यवस्थाओं, मेजर पोलयूटर्स या प्रमुख प्रदूषण फैला रहे देश जैसी शब्दों का भारत और चीन के लिए इस्तेमाल करते रहे हैं. जाहिर है कि वह इन बातों के साथ विकासशील देशों को वायदे के मुताबिक बदलाव के लिए अपनी ऐतिहासिक जिम्मेदारी से एक बार फिर पल्ला झाड़ने के लिए एक रणनीति बनाने में एकजुट रहे हैं और कार्बन उत्सर्जन में अमीर देशों के ‘ऐतिहासिक योगदान’ को भुलाने के प्रयास किए जा रहे हैं. गौरतलब है कि जब भारत जैसे विकासशील देश अपने विकास के शैशव काल में थे, तब यह विकसित देश बेहिसाब और बिना किसी रोक-टोक के खूब कोयला फूंकर विकास की तेज रफ्तार में आगे बढ़ रहे थे. इन देशों द्वारा किए गये लगातर और बेहिसाब उत्सर्जन की वजह से ही ग्लोबल वॉर्मिंग और जलवायु परिवर्तन का संकट इस दुनिया पर मंडराया.
औद्योगीकरण की शुरुआत से लेकर 1992 तक ये देश जीवाश्म ईंधन, उद्योग-धंधे, सीमेंट, लैंड यूज आदि से 46 फीसदी कार्बन डाइऑक्साइड उत्सर्जन के लिए जिम्मेदार थे. 2020 में भी यही चुनिंदा देश ऐतिहासिक रूप से 40 फीसदी उत्सर्जन के लिए जिम्मेदार पाए गए. इसके चलते इस संकट की ऐतिहासिक जिम्मेदारी इनकी बनती है. गौरतलब है कि विकसित देश 2009 में कोपेनहेगन में आयोजित COP15 में क्लाइमेट फाइनेंस के तौर पर हर साल 100 अरब डॉलर की राशि देने पर सहमत हुए थे. यह तय हुआ था कि 2020 से 2025 तक विकसित देश प्रतिवर्ष 100 बिलियन (अरब) डॉलर विकासशील देशों को हर साल देंगे, लेकिन अबतक यह राशि आधि अधूरी ही रही और कभी पूरी राशि हासिल नहीं हो सकी.
कार्बन ब्रीफ की रिपोर्ट के मुताबिक, औद्योगीकरण के बाद से अब तक विकसित देशों के कुल उत्सर्जन में 52 फीसदी के लिए अमेरिका जिम्मेदार है. दुनिया के कुल उत्सर्जन में उसकी हिस्सेदारी 20 फीसदी है. ऐसे में उसे हर साल 100 अरब डॉलर में से 40 अरब देने चाहिए थे, लेकिन उसने 2020 में सिर्फ 8 अरब डॉलर की राशि दी है. इंग्लैंड, कनाडा और ऑस्ट्रेलिया भी उन देशों में हैं, जिन्होंने उत्सर्जन पैदा करने के अनुपात में क्लाइमेट फाइनेंस के लिए कम राशि दी है. कनाडा ने क्लाइमेट फाइनेंस में अपने हिस्से का सिर्फ 33 फीसदी, ऑस्ट्रेलिया ने 38 फीसदी और इंग्लैंड ने 76 फीसदी दिया. कनाडा को जितना देना चाहिए था, उसकी मदद राशि 3.3 अरब डॉलर, ऑस्ट्रेलिया की 1.7 अरब डॉलर और इंग्लैंड की 1.4 अरब डॉलर कम थी.
विकसित देश चाहते हैं कि सिर्फ अमीर देश ही नहीं, जो ऐतिहासिक रूप से जलवायु परिवर्तन के लिए जिम्मेदार हैं, बल्कि सभी प्रमुख उत्सर्जक, खासकर भारत और चीन जैसे शीर्ष-20 उत्सर्जक वैश्विक तापमान वृद्धि को डेढ़ डिग्री सेल्सियस पर सीमित रखने के लिए अपने उत्सर्जन स्तर में भारी कटौती करें. मगर इस काम के लिए वह इन देशों की आर्थिक मदद के लिए सामने आने के बजाय अपने ऐतिहासिक उत्सर्जन से उत्पन्न होने वाली अपनी जिम्मेदारियों को कम करने के लिए महत्वपूर्ण मुद्दे से ध्यान हटाने वाले साधनों का उपयोग करके अंतर्राष्ट्रीय जलवायु व्यवस्था के लक्ष्यों को बदलना चाहते हैं. पेरिस समझौते में निर्धारित शर्तों के तहत, संयुक्त राष्ट्र में बातचीत करने वाले राष्ट्रों को 2025 तक एक नया स्थापित करने का काम सौंपा गया है. अब 2025 से बाद क्लाइमेट फाइनेंस के बारे में विमर्श हुआ. जिसमें, जलवायु परिवर्तन की मार से जूझ रहे विकाशसील देशों में भीषण सूखे, प्रलयंकारी बाढ़ और भयंकर तपिश के दुष्प्रभावों से होने वाली क्षति (लॉस एंड डैमेज) के लिए क्लाइमेट फाइनेंस जो इस राशि से कहीं ज्यादा है की बात हुई पर कुछ ठोस नहीं सामने आया.
विकसित देशों द्वारा क्लाइमेट फाइनेंस के मामले में काफी कुछ किया जाना बाकी है और जिसकी मदद से वैश्विक जलवायु कार्यवाई की दशा और दिशा तय हो सकती है. हालांकि, भारत शर्म अल-शेख, मिस्र में चल रहे संयुक्त राष्ट्र के 27वें जलवायु सम्मेलन (कॉप 27) में “लो एमिशन” या कण उत्सर्जन मार्ग पर आने के लिए अपनी लॉन्ग टर्म स्ट्रेटेजी (एलटीएस) की घोषणा पहले ही कर चुका है. अगले एक दशक में अपनी परमाणु ऊर्जा क्षमता को भारत न सिर्फ तीन गुना करेगा, बल्कि दुनिया में ग्रीन हाइड्रोजन उत्पादन का एक गढ़ भी बनेगा. साथ ही, देश में पेट्रोल में इथेनॉल की मिश्रण मात्रा को भी बढ़ाएगा. पर विकसित देशों द्वारा इन विकासशील देशों के नए आयामों को पाने में मदद के तौर पर कुछ नया सामने नहीं आ रहा है, जिसके चलते यह सम्मेलन पेरिस समझौते के बाद से फीके होते जा रहे है. (डॉ. सीमा जावेद: पर्यावरणविद & जलवायु परिवर्तन & स्वच्छ ऊर्जा की कम्युनिकेशन एक्सपर्ट)