-सीमा जावेद-
भारत के 9 राज्यों पर जलवायु परिवर्तन और ग्लोबल वार्मिंग के भयंकर प्रभाव पड़ने वाले हैं. जिसकी वजह से वर्ष 2050 तक बिहार, उत्तर प्रदेश, असम, राजस्थान, तमिलनाडु, महाराष्ट्र, गुजरात, पंजाब और केरल पर विनाश का खतरा मंडरा रहा है. इन राज्यों में निकट भविष्य में गर्मी और उमस मानव सहनशीलता की सीमा को पार कर जायेगी. ग्रॉस डॉमेस्टिक क्लाइमेट रिस्क (जीडीसीआर) के प्रथम विश्लेषण की रिपोर्ट से इस बात के संकेत मिले हैं.
रिपोर्ट के अनुसार तमिलनाडु, केरल और महाराष्ट्र के तटीय शहरों की आबादी को समुद्र के बढ़ते जलस्तर से तटीय बाढ़ , चक्रवातों की आवृत्ति आदि से बुनियादी ढांचे पर खतरे का सामना करना पड़ सकता है. ग्रॉस डॉमेस्टिक क्लाइमेट रिस्क (जीडीसीआर) के प्रथम विश्लेषण रिपोर्ट में वर्ष 2050 तक दुनिया के 2600 से ज्यादा इलाकों में पर्यावरण पर पड़ने वाले भौतिक जलवायु जोखिम की तीव्रता की गणना की गयी है. अगर जल्दी ही इसकी रोकथाम के उपाय नहीं किये गये तो ये राज्य वर्ष 2050 तक तबाही और बर्बादी के कगार पर होंगे, ऐसा रिपोर्ट में दावा किया गया है.
केरल के 50 प्रतिशत, पंजाब 48 प्रतिशत, गुजरात 44 प्रतिशत, महाराष्ट्र 38 प्रतिशत, तमिलनाडु 36 प्रतिशत, राजस्थान 32 प्रतिशत, असम 28 प्रतिशत, उत्तर प्रदेश 25 प्रतिशत और बिहार के 22 प्रतिशत इलाके खतरे में हैं. ग्रॉस डोमेस्टिक क्लाइमेट रिस्क रैंकिंग तटवर्ती और सतह पर होने वाली बाढ़, समुद्र के बढ़ते जलस्तर की वजह से होने वाला तटीय जलप्लावन, तीव्र गर्मी, दानावल या जंगल में लगी आग, सूखा आदि चरम मौसमी स्थितियों की वजह से पर्यावरण के लिए पैदा होने वाले जोखिम का अध्ययन करती है.
गौरतलब है कि जलवायु परिवर्तन पर संयुक्त राष्ट्र के इंटर गवर्मेंटल पैनल ऑन क्लाइमेट चेंज (आईपीसीसी) की रिपोर्ट में पहले ही खासकर भारत के लिए कई चिंताएं सामने आयी हैं. रिपोर्ट की मानें तो भारत एक ऐसा देश है जो जलवायु परिवर्तन से सबसे अधिक आर्थिक रूप से प्रभावित है. सदी के अंत तक भारत के 45-50 मिलियन लोग जोखिम में होंगे.
ग्रॉस डोमेस्टिक क्लाइमेट रिस्क रैंकिंग में वर्ष 2050 तक जोखिम से घिरने जा रहे राज्यों की सूची में एशिया के सबसे ज्यादा राज्य शामिल हैं. कुल 200 में से 114 राज्य एशिया के ही हैं. इन 114 राज्यों में चीन और भारत के प्रदेशों की संख्या सबसे ज्यादा है. अध्ययन के मुताबिक 2050 तक जो राज्य सबसे ज्यादा खतरे से घिर जायेंगे उनमें से शीर्ष 50 में से 80 प्रतिशत प्रदेश चीन, अमेरिका और भारत के होंगे. चीन के बाद भारत के सबसे ज्यादा नौ राज्य शीर्ष 50 में शामिल हैं. इनमें बिहार, उत्तर प्रदेश, असम, राजस्थान, तमिलनाडु, महाराष्ट्र, गुजरात, पंजाब और केरल शामिल हैं.
ऐसे में विशेषज्ञों की माने तो अगर जलवायु परिवर्तन को बदतर होने से रोका गया और जलवायु के प्रति सतत निवेश में वृद्धि हुई तो इसका सबसे ज्यादा फायदा एशियाई देशों को ही होगा. जोखिम वाले शीर्ष 100 शहरों में सबसे ज़्यादा विकसित और विश्व स्तर पर महत्वपूर्ण एशियाई आर्थिक केंद्रों में बीजिंग, जकार्ता, हो ची मिन्ह सिटी, ताइवान और मुंबई शामिल हैं. दक्षिण पूर्व एशिया में 1990 से 2050 तक क्षति में सबसे अधिक वृद्धि हुई है. इतनी दुनिया के और किसी भी हिस्से में नहीं हुई है.
ग्लोबल वार्मिंग से समुद्र का जलस्तर बढ़ रहा है. भारत तीन तरफ से समुद्र से घिरा हुआ है और भारतीय समुद्र तट की कुल लंबाई 7516.6 किलोमीटर है. ऐसे में भारत अपनी जनसंख्या की वजह से समुद्र स्तर में वृद्धि से प्रभावित होने वाले देशों में सबसे कमजोर है. भारत में लगभग 35 मिलियन लोगों को ग्लोबल वार्मिंग के चलते वार्षिक तटीय बाढ़ का सामना करना पड़ सकता है. समुद्र के 0.8 डिग्री गर्म हो जाने से चक्रवातों की आवृत्ति बढ़ी है और उनकी इंटेंसिटी तीव्र हो गयी है. जिसका असर इन तटीय शहरों के नागरिकों के जीवन पर पड़ रहा है.
अगर यही सूरत-ए- हाल रहा और ग्लोबल वार्मिंग को नहीं रोका जा सका तो संयुक्त राष्ट्र के इंटर गवर्मेंटल पैनल ऑन क्लाइमेट चेंज (आईपीसीसी) की रिपोर्ट में पहले ही साफ कहा गया है कि भारत उन स्थानों में से है जो जलवायु परिवर्तन के चलते असहनीय परिस्थितियों का सामना करेगा. इसके मैदानी इलाको जैसे उत्तर प्रदेश, बिहार. राजस्थान और पंजाब में जलवायु परिवर्तन के चलते गर्मी में असहनीय तपिश, जानलेवा गर्मी और सर्दी के मौसम में भयानक सर्दी जैसी चरम मौसमी स्थितियां बनेंगी और बन रही हैं. रिपोर्ट में बताया गया है कि वेट-बल्ब यानी गर्मी और उमस को जोड़ कर देखने वाला तापमान अगर , 31 डिग्री सेल्सियस हो तो बेहद खतरनाक है. ऐसे में उत्तरी और भारत के कई हिस्से सदी के अंत तक 31 डिग्री सेल्सियस से अधिक के बेहद खतरनाक वेट-बल्ब तापमान अनुभव करेंगे. अगर उत्सर्जन में वृद्धि जारी रही तो लखनऊ और पटना 35 डिग्री सेल्सियस के वेट बल्ब तापमान तक पहुंच जायेंगे.
गौरतलब है कि पृथ्वी के बीते 2000 सालों के इतिहास कि तुलना में अब, बीते कुछ दशकों में, धरती का तापमान बेहद तेजी से बढ़ रहा है. इसके पीछे साफ तौर पर इंसानी गतिविधियों की वजह से होने वाले ग्रीन हाउस गैसों का उत्सर्जन ज़िम्मेदार है. 2010-2019 में औसत वार्षिक वैश्विक ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जन मानव इतिहास में अपने उच्चतम स्तर पर था. आईपीसीसी की नवीनतम रिपोर्ट में कहा है कि अगर 2030 तक दुनिया अपने उत्सर्जन आधा कर दे तो उसे बचाने का यह एक आखिरी मौका है. जलवायु परिवर्तन रोकने के लिए हमें अपने उत्सर्जन को जीरो पर लाना होगा. उत्सर्जन में कटौती के बिना, ग्लोबल वार्मिंग को 1.5 डिग्री सेल्सियस तक सीमित करना पहुंच से बाहर है. इस काम के लिए ऊर्जा क्षेत्र में बड़े बदलाव की आवश्यकता है और जीवाश्म ईंधन के उपयोग में भारी कमी लाना होगा.
(लेखिका पर्यावरणविद् हैं)